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अदावतों में जो ख़ल्क़-ए-ख़ुदा लगी हुई है

अदावतों में जो ख़ल्क़-ए-ख़ुदा लगी हुई है
मोहब्बतों को कोई बद-दुआ लगी हुई है

पनाह देती है हम को नशे की बे-ख़बरी
हमारे बीच ख़बर की बला लगी हुई है

कमाल है नज़र-अँदाज करना दरिया को
अगरचे प्यास भी बे-इंतिहा लगी हुई है

पलक झपकते ही ख़्वाहिश ने केनवस बदला
तलाश करने में चेहरा नया लगी हुई है

तू आफ़ताब है जंगल को धूप से भर दे
तेरी नज़र मेरे ख़ेमे पे क्या लगी हुई है

इलाज के लिए किस को बुलाइए साहब
हमारे साथ हमारी अना लगी हुई है

दुख नहीं है के जल रहा हूँ मैं

दुख नहीं है के जल रहा हूँ मैं
रौशनी में बदल रहा हूँ मैं

टूटता है तो टूट जाने दो
आइने से निकल रहा हूँ मैं

रिज़्क़ मिलता है कितनी मुश्किल से
जैसे पत्थर में पल रहा हूँ मैं

हर ख़जाने को मार दी ठोकर
और अब हाथ मल रहा हूँ मैं

ख़ौफ ग़र्काब हो गया ‘फैसल’
अब समंदर पे चल रहा हूँ मैं

गिर जाए जो दीवार तो मातम नहीं करते

गिर जाए जो दीवार तो मातम नहीं करते
करते हैं बहुत लोग मगर हम नहीं करते

है अपनी तबीअत में जो ख़ामी तो यही है
हम इश़्क तो करते हैं मगर कम नहीं करते

नफ़रत से तो बेहतर है के रस्ते ही जुदा हों
बे-कार गुज़र-राहों को बाहम नहीं करते

हर साँस में दोज़ख़ की तपिश सी है मगर हम
सूरज की तरह आग को मद्धम नहीं करते

क्या इल्म के रोते हों तो मर जाते हों ‘फैसल’
वो लोग जो आँखों को कभी नम नहीं करते

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