हर आँगन से उठती सिसकी
हर आँगन से उठती सिसकी
सदियों से ख़ामोश है–
आँगन से आँगन तक के सफ़र में।
गुज़रती हुई सदियाँ
तमाम उम्र के बेगार का अन्त
सचमुच बहुत भयावह है।
बचपन गुज़रा, जवानी गुज़री
बुढ़ापे तक अस्तित्व पर पर्दा ही पर्दा है।
देवी-सी पूजी गई हो
या दासी-सी तिरस्कृत रही हो,
मनुष्य की पहचान से हमेशा महरूम रही।
पाषाण-युग से कम्प्यूटर तक का
सफ़र तय कर चुका संसार,
पर आधी दुनिया अभी तक
आँगन से आँगन तक के सफ़र में ही दफ़न है।
आँखों में आँसू होठों पर दुआ
आँखों में आँसू, होंठों पर दुआ,
दरवाज़े पर इन्तज़ार करती मेरी माँ–
देखती है स्कूल जाते नन्हें बच्चों में मुझे अब भी,
जानती हूँ कि बहुत दूर हूँ उससे, मैं
फिर भी, घर वापस आते बच्चों में
ढूँढ़ती हैं उसकी आँखें मुझे
अभी भी, हर रोज़
सँवारती है मेरी एक-एक चीज़
करती हुई पिता जी से मेरे बचपन की बातें
दरवाज़े पर इन्तज़ार करती मेरी माँ।
सो जाने पर प्यार से सहलाती मेरे सिर को,
छुपाती है अपने हर ग़म
मुझे देख मुस्कराती
दरवाज़े पर इन्तज़ार करती मेरी माँ।
पत्थर के देवताओं से
कई-कई दिन भूखी-प्यासी रहकर भी
माँगती है मेरी लम्बी उम्र के लिए दुआ
आसमान से भी ज़्यादा अपनी बाहें फैलाए
करती है मुझे प्यार,
सागर से भी प्यारी आँसू छलकाती
दरवाज़ें पर इन्तज़ार करती मेरी माँ।
निश्चेष्ट पड़ा मेरा शरीर
निश्चेष्ट पड़ा मेरा शरीर,
सुषुप्त-सी आँखें देखती हैं
रोशनी में हरकत करते
दीवार पर कुछ कीड़े।
कुछ स्पन्दन होता है शरीर में,
होंठ हिलते हैं, कुछ शब्द बोलते हैं
स्पष्ट-अस्पष्ट…
हाथ भी हिल रहा है आहिस्ता-आहिस्ता,
कुछ सिहरन होती है, पैरों में भी,
शायद उम्मीद अभी बाक़ी है
मोहल्ले की गलियों में पतंग के पीछे दौड़ने की
या फिर अपने गन्दे हाथों को
माँ के आँचल में पोंछने पर
प्यार से झिड़कते हुए देखने की
माँ की उस हँसी को ।
ख़ामोशियों में भी कुछ शोर रहता है
ख़ामोशियों में भी कुछ शोर रहता है
और परछाइयों के पीछे
कोई आहट दिल-ओ-दिमाग़ में
दूर-दूर तक फैली है तन्हाई
फिर भी, गुज़रे वक़्त का इन्तज़ार रहता है,
कोशिशें नाकाम हज़ार बार कीं
ख़ुद को समझाने की
कोई रहनुमा नहीं जो सम्भाले हालात को।
फिर किस इन्तज़ार में
ये चन्द साँसें चल रही हैं
जज़्बातों की रोज़ ही जलती होली
फटी-नुची लाशों की रोज़ की नुमाइश
दो रोटियों में सिमटा वजूद
फिर किसमें ढूँढूँ ख़ुद की पहचान।