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कुछ दोहे

1.
पार उतर जाए कुशल किसकी इतनी धाक
डूबे अखियाँ झील में बड़े – बड़े तैराक

2.
जाने किससे है बनी, प्रीत नाम की डोर
सह जाती है बावरी, दुनिया भर का ज़ोर

3.
होता बिलकुल सामने प्रीत नाम का गाँव
थक जाते फिर भी बहुत राहगीर के पाँव

4.
फीकी है हर चूनरी, फीका हर बन्देज
जो रंगता है रूप को, वो असली रंगरेज़

5.
तन बुनता है चदरिया, मन बुनता है पीर
एक जुलाहे सी मिली, शायर को तक़दीर

6.
बेशक़ मुझको तौल तू, कहाँ मुझे इनक़ार
पहले अपने बाट तो, जाँच-परख ले यार

काम करेगी उसकी धार

काम करेगी उसकी धार
बाकी लोहा है बेकार

कैसे बच सकता था मैं
पीछे ठग थे आगे यार

बोरी भर मेहनत पीसूँ
निकले इक मुट्ठी भर सार

भूखे को पकवान लगें
चटनी, रोटी, प्याज, अचार

जीवन है इक ऐसी डोर
गाठें जिसमें कई हज़ार

सारे तुग़लक चुन-चुन कर
हमने बना ली है सरकार

शुक्र है राजा मान गया
दो दूनी होते हैं चार

टूट जाने तलक गिरा मुझको

टूट जाने तलक गिरा मुझको
कैसी मिट्टी का हूँ बता मुझको

मेरी ख़ुशबू भी मर न जाये कहीं
मेरी जड़ से न कर जुदा मुझको

एक भगवे लिबास का जादू
सब समझते हैं पारसा मुझको

अक़्ल कोई सजा़ है या ईनाम
बारहा सोचना पड़ा मुझको

हुस्न क्या चन्द रोज़ साथ रहा
आदतें अपनी दे गया मुझको

कोई मेरा मरज तो पहचाने
दर्द क्या और क्या दवा मुझको

मेरी ताक़त न जिस जगह पहुँची
उस जगह प्यार ले गया मुझको

आपका यूँ करीब आ जाना
मुझसे और दूर ले गया मुझको.

सिर्फ ख़यालों में न रहा कर

सिर्फ़ ख़यालों में न रहा कर
ख़ुद से बाहर भी निकला कर

लब पे नहीं आतीं सब बातें
ख़ामोशी को भी समझा कर

उम्र सँवर जाएगी तेरी
प्यार को अपना आईना कर

जब तू कोई क़लम ख़रीदे
पहले उनका नाम लिखा कर

सोच समझ सब ताक पे रख दे
प्यार में बच्चों सा मचला कर

ग़म नहीं हो तो ज़िंदगी भी क्या

ग़म नहीं हो तो ज़िंदगी भी क्या
ये ग़लत है तो फिर सही भी क्या

सच कहूँ तो हज़ार तकलीफ़ें
झूठ बोलूँ तो आदमी भी क्या

बाँट लेती है मुश्किलें अपनी
हो न ऐसा तो दोस्ती भी क्या

चंद दानें उड़ान मीलों की
हम परिंदों की ज़िंदगी भी क्या

रंग वो क्या है जो उतर जाए
जो चली जाए वो ख़ुशी भी क्या

चिराग हो के न हो दिल जला के रखते हैं

चिराग़ हो के न हो दिल जला के रखते हैं
हम आँधियों में भी तेवर बला के रखते हैं

मिला दिया है पसीना भले ही मिट्टी में
हम अपनी आँख का पानी बचा के रखते हैं

बस एक ख़ुद से ही अपनी नहीं बनी वरना
ज़माने भर से हमेशा बना के रखते हैं

हमें पसंद नहीं जंग में भी चालाकी
जिसे निशाने पे रक्खें बता के रखते हैं

कहीं ख़ूलूस कहीं दोस्ती कहीं पे वफ़ा
बड़े करीने से घर को सजा के रखते हैं

प्यार में उनसे करूँ शिकायत

.प्यार में उनसे करूँ शिकायत, ये कैसे हो सकता है
तोड़ दूँ मैं आदाबे-मुहब्बत, ये कैसे हो सकता है

चन्द किताबें तो कहतीं हैं, कहतीं रहें, कहने से क्या
इश्क़ न हो इंसाँ की ज़रूरत, ये कैसे हो सकता है

फूल न महकें, भँवरें न बहकें, गीत न गाये कोयलिया
और बच्चे ना करें शरारत, ये कैसे हो सकता है

जन्नत का अरमान अगर है, मौत से कर ले याराना
जीते जी मिल जाए जन्नत, ये कैसे हो सकता है

कोई मुहब्बत से है ख़ाली कोई सोने-चाँदी से
हर झोली में हो हर दौलत, ये कैसे हो सकता है

अपनी लगन में, अपनी वफ़ा में कोई कमी होगी ‘हस्ती‘
वरना रंग न लाए चाहत, ये कैसे हो सकता है!

मुहब्बत का ही इक मोहरा नहीं था

मुहब्बत का ही इक मुहरा नहीं था
तेरी शतरंज पे क्या-क्या नहीं था

सज़ा मुझको ही मिलती थी हमेशा
मेरे चेहरे पे ही चेहरा नहीं था

कोई प्यासा नहीं लौटा वहाँ से
जहाँ दिल था भले दरिया नहीं था

हमारे ही क़दम छोटे थे वरना
यहाँ परबत कोई ऊँचा नहीं था

किसे कहता तवज्ज़ो कौन देता
मेरा ग़म था कोई क़िस्सा नहीं था

रहा फिर देर तक मैं साथ उसके
भले वो देर तक ठहरा नहीं था

सबकी सुनना, अपनी करना

सबकी सुनना, अपनी करना
प्रेम नगर से जब भी गुज़रना

अनगिन बूँदों में कुछ को ही
आता है फूलों पे ठहरना

बरसों याद रखें ये मौजें
दरिया से यूँ पार उतरना

फूलों का अंदाज़ सिमटना
खुशबू का अंदाज़ बिखरना

गिरना भी है बहना भी है
जीवन भी है कैसा झरना

अपनी मंजिल ध्यान में रखकर
दुनिया की राहों से गुज़रना

साया बनकर साथ चलेंगे इसके भरोसे मत रहना

साया बनकर साथ चलेंगे इसके भरोसे मत रहना
अपने हमेशा अपने रहेंगे इसके भरोसे मत रहना

सावन का महीना आते ही बादल तो छा जाएँगे
हर हाल में लेकिन बरसेंगे इसके भरोसे मत रहना

सूरज की मानिंद सफ़र पे रोज़ निकलना पड़ता है
बैठे-बैठे दिन बदलेंगे इसके भरोसे मत रहना

बहती नदी में कच्चे घड़े हैं रिश्ते, नाते, हुस्न, वफ़ा
दूर तलक ये बहते रहेंगे इसके भरोसे मत रहना

हर कोई कह रहा है दीवाना मुझे 

हर कोई कह रहा है दीवाना मुझे
देर से समझेगा ये ज़माना मुझे

सर कटा कर भी सच से न बाज आऊँगा
चाहे जिस वक़्त भी आज़माना मुझे

अपने पथराव से ख़ुद वो घायल हुआ
जिस किसी ने बनाया निशाना मुझे

जिसकी ख़ुशबू बढ़ाती हो आवारगी
वो ही मौसम लगे है सुहाना मुझे

नेमते इस तरह बाँटना, हे ख़ुदा !
सबको दौलत मिले दोस्ताना मुझे

मंज़िल तक हरगिज़ न पहुँचता

मंज़िल तक हरगिज़ न पहुँचता
साथ न रहता गर ठोकर का ।

किसको लेता साथ सफ़र में
मैं ख़ुद अपने साथ नहीं था ।

इन्सानों की फ़ितरत में है
मेरा तेरा तेरा मेरा ।

इस युग की शम्में देती हैं
उजियारा अँधियारे जैसा ।

सच से जान बचाकर ‘हस्ती’
क़त्ल किया है मैंने मेरा ।

जितनी क़समें खाई हमने रौशनी के सामने

जितनी क़समें खाई हमने रौशनी के सामने ।
उससे ज़्यादा तोड़ डालीं तीरगी के सामने ।

रख दिया करती है तोहफ़े यूँ भी ये क़िस्मत कभी,
घर किसी के सामने तो दर किसी के सामने ।

अपनी इस फ़ितरत को मैं ख़ुद भी समझ पाया नहीं,
जिससे हारा, जा रहा हूँ फिर उसी के सामने ।

दिक़्क़तें तो ठहरीं अपनी मरज़ी की मालिक मियाँ,
आज घर के सामने हैं कल गली के सामने ।

ग़ैर के दुख-दर्द से जिसको कोई निस्बत नहीं,
याचना करता दिखेगा कल ख़ुशी के सामने ।

वक़्ते-रुख़सत तैरती है जो किसी की आँख में,
सारे सावन पानी भरते उस नमी के सामने ।

सच के हक़ में खड़ा हुआ जाए

सच के हक़ में खड़ा हुआ जाए ।
जुर्म भी है तो ये किया जाए ।

हर मुसाफ़िर में ये शऊर कहाँ,
कब रुका जाए कब चला जाए ।

हर क़दम पर है गुमराही,
किस तरफ़ मेरा काफ़िला जाए ।

बात करने से बात बनती है,
कुछ कहा जाए कुछ सुना जाए ।

राह मिल जाए हर मुसाफ़िर को,
मेरी गुमराही काम आ जाए ।

इसकी तह में हैं कितनी आवाजें
ख़ामशी को कभी सुना जाए ।

बड़ी गर्दिश में तारे थे, तुम्हारे भी हमारे भी

बड़ी गर्दिश में तारे थे, तुम्हारे भी हमारे भी ।
अटल फिर भी इरादे थे, तुम्हारे भी हमारे भी ।

हमारी ग़लतियों ने उसकी आमद रोक दी वरना,
शजर पर फल तो आते थे, तुम्हारे भी हमारे भी ।

हमें ये याद रखना है बसेरा है जहाँ सच का,
उसी नगरी से नाते थे, तुम्हारे भी हमारे भी ।

सिरे से भूल बैठे हैं उसे हम दोनों ‘हस्ती’ जी,
क़दम जिसने सँभाले थे, तुम्हारे भी हमारे भी ।

शहादत माँगता था वक़्त तो हमसे भी ‘हस्ती’ जी,
मगर लब पर बहाने थे, तुम्हारे भी हमारे भी ।

प्यार का पहला ख़त लिखने में 

प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है
नए परिंदों को उड़ने में वक़्त तो लगता है

जिस्म की बात नहीं थी उन के दिल तक जाना था
लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है

गाँठ अगर लग जाए तो फिर रिश्ते हों या डोरी
लाख करें कोशिश खुलने में वक़्त तो लगता है

हम ने इलाज-ए-ज़ख़्म-ए-दिल तो ढूँढ लिया लेकिन
गहरे ज़ख़्मों को भरने में वक़्त तो लगता है

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