Skip to content

Ajey.jpg

मेरा गाँव गज़ा पट्टी में सो रहा था

वह आकाश की ओर देखती थी
गाँव की छत पर लेटी एक छोटी बच्ची
दो हरी पत्तियों और एक नन्हें से लाल गुलाब की उम्मीद में
जब कि एक बड़ा सा नीला मिज़ाईल
जिस पर बड़ा सा यहूदी सितारा बना है
गाँव के ठीक ऊपर आ कर गिरा है
जहाँ ‘इरिगेशन’ वालों का टैंक है
(यह मेरा ही गाँव है)
धमक से उस की पीठ के नीचे काँपती है धरती
(यह मेरी ही पीठ है)

अब क्या होगा?
उस बच्ची ने उम्मीद छोड़ दी है
वह इंतज़ार करती है

दस….
नौ….
आठ….
कच्चे डंगे
सड़ी हुई बल्लियाँ
ज़ंग लगी चद्दरें टीन की
ढह जाएंगी भरभरा कर पल भर में, उम्मीदें
(मैंने ही छोड़ दी थीं तमाम उम्मीदें)
जब कि एक और मिज़ाईल आया है
लहराता हुआ सफेद सफेद सा
वह नदी की ओर चला गया है
जहाँ आई०टी०बी०पी०[1] का कैम्प है

और एक और, जिस पर बहुत सारे सितारे और धारियाँ हैं
वह केलंग के पीछे कक्र्योक्स[2] के उस पार गिरा है
जहाँ बहुत बड़ा डैम बन रहा है
चारों ओर सन्नाटा है
न कम्पन है न धमाका है
सुनसान फाट पर इकलौती झाड़ी हिलती है/तूफान में
कल्याष[3] का एक सूखा डण्ठल टिका खड़ा है
गाँव के नीचे हाईवे नम्बर इक्कीस पर
बड़ी बड़ी टर्बो इंजन निस्सान गाडिय़ाँ
घसीट ले जा रहे हैं बड़े बड़े बोफोर्ज़ हॉविट्ज़र
जब कि गाँव की छत पर अभी भी
एक छोटी सी उम्मीद सोती होगी
मिज़ाईलें बरसाता होगा गाँव का आकाश अभी भी
और एक छोटी बच्ची
अपने कलर बॉक्स में मिलान करती होगी
ऑलिव, मेटालिक, पर्पल, सिल्वर
मिज़ाईलें और पेंसिलें एक सी हैं

सात…
छह…
पांच… चार…
मेरे मन में उल्टी गिनती चल रही है
जब कि अभी तक कोई मिज़ाईल नहीं फटा है
अभी तक गाँव में ब्लैक आऊट नहीं हुआ
फिर भी वह बच्ची छटपटा रही है
सपने से बाहर आने के लिए
प्यारी बच्ची, मैंने तेरे लिए कितने खराब सपने बुन लिए हैं!

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायेंआई०टी०बी०पी०(इण्डो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस) : भारत तिब्बत सीमा पर नज़र रखने के लिए यह भारत सरकार के गृहमंत्रालय से सम्बद्ध एक पेरा मिलेट्री फोर्स है। इसके कैम्प सीमान्त हिमालय क्षेत्र के सम्वेदशील स्थलों पर स्थापित किए गए हैं। मेरे गाँव सुमनम के नीचे भी एक ऐसा एक कैम्प है।
  2. ऊपर जायें केलंग के ऊपर ज़ंस्कर पर्वत शृंखला पर स्थित ऊँची चोटी। जिसके पीछे तोद घाटी में भागा नदी पर एक मेगा हाईडल प्रोजेक्ट प्रस्तावित है। तोद घाटी के स्थानीय जन इस बाँध का विरोध कर रहे हैं।
  3. ऊपर जायें एक कड़वी एवं कड़ी वनस्पति, जो पशु चारे में प्रयुक्त नहीं हो सकती। सितम्बर के बाद जब घासनियों से सारी नरम घास काट कर समेट दी जाती है तब ढलानों पर इसके इक्के दुक्के डण्ठल खड़े दिख जाते हैं।

‘उत्सव’ देखने के बाद उदास था शूद्रक

वह घूमता रहा था मिट्टी की गाड़ी में
रात भर जासूस की तरह
गणिकाओं के आभूषण खोजता
थेरियों की कलाईयों पर भारी सोना टनक रहा था
डाकिनियों की फीरोज़ी आँखें
रह रह कर चमक रहीं थीं

चन्ना!
यह रथ फुली लोडेड है क्या?
पार्थ!
क्या निकट भविष्य में
एक और महाभारत लड़ा जा सकता है?
मुझे एक गाँडीव दो, मिट्टी का
और एक सुदर्शन चक्र, मिट्टी का
और मेरी दाहिनी भुजा में थोड़ा सा पुंसत्व भर दो, मिट्टी का
चारु दत्त!
ये रही तुम्हारी बाँसुरी
तुम छिपा लो इस में सब से बड़ा चन्द्रहार
और वसंत सेना को सशरीर
तुम मुझे उस पोखर तक ले चलो
जिसे कोक और पेप्सी की फैक्ट्रियों ने सोख लिया था
जहां सुजाता बाँट रही है लाल चावलों से बनी हुई खीर
मैं परिव्राजक न रहा
मुझे घर लौटना है
बताना मत किसी को
देवदत्त को भी नहीं
यशोधरा या राहुल को भी नहीं…

अँधेरे में सिद्धार्थ सा भटकता हुआ जहाँ पहुंचा था शूद्रक
वह पाटलिपुत्र या राजगृह का कोई नुक्कड़ रहा होगा
उसे न कोई उजास मिली होगी
न ही वह बुद्ध हो पाया होगा
और वह आर्यक, जिस के साथ रात भर चाय पीता रहा
कुल्हड़ भर भर के
ज़रूर नेपाल से भागा हुआ कोई माओवादी रहा होगा

आप के भीतर से सच्ची आवाज़ें आतीं रहतीं हैं 

कुछ आवाज़ें
आप की छाती में जमी रहतीं हैं
सम्भव है वे इतनी मरियल हों
कि सन्देह होता हो उन के होने पर
और इतनी पस्त हालत
कि आप कह भी दें
कि वे हो ही नहीं सकतीं

फिर भी इन आवाज़ों को आप सुन रहे हैं
जब कभी, जहाँ कहीं
क्योंकि आप इन्हीं आवाज़ों को सुनना चाहते हैं लगातार
आप हैरान हो जाते हैं
एक दिन अचानक जब वे आप की त्वचा पर
फोड़े-फुंसियों-सी फूट आती हैं
शर्म से आप उन्हें ढकते हैं अपने इन हाथों से
पर ये आवाज़ें
यहाँ ढाँपों तो वहाँ निकल आती हैं
वहाँ ढाँपो तो कहीं और निकल आती हैं
जब कभी निकल आती हैं
हर कहीं निकल आती हैं
वहाँ भी निकल आती हैं
जहाँ आप के ये ताकतवर शातिर हाथ नहीं पहुँच सकते
आप पाएंगे कि ये दबाई छिपाई जा सकने वाली चीज़ नहीं

अलबत्ता आप चाहें तो इन आवाज़ों को
अपने जेबों में भर सकते हैं

या एक पेंसिल पकड़ें
और उन्हें छोटी-छोटी पर्चियों में लिख लें
बाँटें लोगों में
ये गुप्त ताबीज़
तहे दिल से मान लेते हुए
कि आप कमज़ोर थे
अपनी इन कमज़ोर आवाज़ों के साथ
अभी आप तैयार न थे

बाँटें ये बीजमंत्र इस सदेच्छा के साथ
कि कहीं न कहीं
कभी न कभी
बेहद ऊँची
बड़ी असरदार
और निहायत ही ज़िन्दा हो कर
पूरी आज़ादी से गूंज उठें ये
सच्ची आवाज़ें
बिना किसी डर और हिचक और हकलाहट के
किसी भी छाती में

सपने में गाँव

गाँव में पोलिंग पार्टी उतर रही है सशस्त्र सुरक्षा में
पोस्टर चिपक रहे हैं
बैनर चमक रहे हैं
झण्डे लटक रहे हैं
भगवा, तिरंगा और इक्के दुक्के फीके-फीके से लाल
गाँव की खेतों में सड़कें घुस रही हैं
गाँव की जड़ों में एक सुरंग खुद रही है
गाँव की नदी बाँध ली जाएगी
गाँव से उस के खेत छुड़वा लिए जाएँगे
गाँव को मुआवज़ा मिलेगा

कम्पनी दफ्तर के बाहर गाँव इकट्ठा हो रहा है
और वहाँ काफी सारी धुन्ध भी इकट्ठी हो रही है

थका हुआ मैं आशंकित-सा
एक पेड़ की छाँव में सो रहा हूँ
वहाँ एक चिडिय़ा आती है
जिस के पीछे मैंने चालीस साल पहले
भागना शुरु किया था
वहाँ एक बच्चा आता है
मीठी दही की कटोरी लिए
खासा गहरा गेहुँआ इंसानी चेहरा लिए
कहता है मुझे खेलना अच्छा लगता है
और नाचना भी
और मैं शील्ड जीतूँगा
और मैं ‘स्टेट’ खेलूँगा
बड़ा आदमी बनूँगा…

जागने पर मेरी आँखें नम हैं
गाँव के सपने में अभी तक ज़िन्दा था मैं
और मेरे सपनों में गाँव

इस उठान के बाद नदी 

इस नदी को देखने के
लिए आप इसके एक दम करीब जाएँ।
घिस-घिस कर कैसे कठोर हुए हैं और सुन्दर
कितने ही रंग और बनक लिए पत्थर।

उतरती रही होगीं
पिछली कितनी ही उठानों पर
भुरभुरी पोशाकें इन की
कि गुमसुम धूप खा रही
चमकीली नंगी चट्टानें
उकड़ूँ ध्यान-मगन
और पसरी हुई कोई ठाठ से
आज जग उतर चुका है पानी।

अलग-अलग बिछे हुए
पेड़
मवेशी
कनस्तर
डिब्बे
लत्ते
ढेले
कंकर
रेत-
कि नदी के बाहर भी बह रही थीं
कुछ नदियाँ शायद
उन्हें करीब से देखने की ज़रूरत थी।

कुछ बच्चे मालामाल हो गए अचानक
खंगालते हुए
लदे-फदे ताज़ा कटे कछार
अच्छी तरह से ठोक- ठुड़क कर छाँट लेते हर दिन
पूरा एक खज़ाना
तुम चुन लो अपना एक शंकर
और मुट्ठी भर उसके गण
मैं कोई बुद्ध देखता हूँ अपने लिए
हो सके तो सधे पैरों वाला
एकाध अनुगामी श्रमण
और खेलेंगे भगवान-भगवान दिन भर।

ठूँस लें अपनी जेबों में आप भी
ये जो बिखरी हुई हैं नैमतें
शाम घिरने से पहले वरना
वो जो नदी के बाहर है
पानी के अलावा
जिसकी अलग ही एक हरारत है
गुपचुप बहा ले जाएगा
अपनी बिछाई हुई चीज़ें
आने वाले किसी भी अंधेरे में
आप आएँ
देख लें इस भरी पूरी नदी को
यहां एक दम करीब आकर।

मुक्ति की कामना

मुक्ति की कामना से मुक्त रहती सी
उस औरत का आकाश कहां है?

ठीक-ठीक नहीं बता सकता
कि मैं उस ‌औरत को कितना सही-सही जानता हूं
जब कि उसे मां पुकारने के समय से ही
उसके साथ हूं।
आंचल पकड़ता
छातियों से चिपकता कभी
उचक कर पीठ पर उसकी गर्दन सूंघता।

उस औरत को प्यार करना
मेरे स्मृति पुंज में
एक खत्म न होने वाली अवधि की तरह है
बिना हड़बड़ाहट
एक कछुए के जीवन जैसी
उसे मां पुकारने से कहीं ज्यादा लंबी
कहीं ज्यादा गहरी
कहीं ज्यादा दूर, तटों से
जबकि मां पुकारने से कहीं ज्यादा लंबी
वक्फा-दक्फा / जैसे
कौंधे होती है पल दो पल की
अपने छौनों के लिए जब
आती है मादाएं उथले तटों पर
कभी- कभार
और अवसाद के फेनिल कुहरे में से झरता
मां जैसा उस का रूप
अस्पष्ट-अस्पष्ट
तो भी बहुत कुछ ठोस
सुच्चा होने का आश्वासन देता
कि जैसे वह तो है ही
धुन्ध के पार भी
आर भी…..

और उसकी आत्यंतिक इच्छाएं
उड़ती हैं
सपनों ही में
गिरती हैं धड़ाम से
सीढ़ियों से औंधे मुंह
पीठ पर भारी गट्ठर उठाए
कड़ी धरती पर
बार-बार / तुड़वा बैठती एड़ियाँ
पसलियाँ, और जाने क्या-क्या
उस औरत के मेरी माँ होने के इलावा
मुझे कई बार लगा
कि रही होगी उसकी अपनी एक अलग जिंदगी भी
कि जिस के बारे कैसे कहूं
जब कि उसे माँ कहता हूं
और ना कैसे कहूं
जबकि दिखावा करता हूं
कि तकरीबन उसे जानता हूं।

जैसे कि मान लीजिए उसका वह आकाश ही!
मेरे इलावा
चांदनी रातों में जिसे
कहां देख पाती होगी
उस की सूखी, लाल, बीमार आंखें
भटकती धरती पर ही मानो
टूट छूट कर गिरी हुई
और खोई हुई
छोटी-मोटी काम की जरूरी चीज कोई
खोजती हो!

या कि उसकी देह ही
जिसे वह अपना मानकर
अथवा न मान कर ही
सताती रही
सदा-सदा
मुंह अंधेरे दूध की बाल्टियाँ भर लाती
और कुचले जाते
भारी खुरों के नीचे उस के पैर
हां, उस की देह ही तो
बजका दी गई कितनी ही बार
दीवारों के साथ
कितने ही जानवरों की भूख मिटाती
घर और पशुशाला में
पता ही न चला होगा
मेरी माँ सी उस औरत को
कि कब घुसती चली गई अनाधिकार उस में
एक उन्मत्त पुरूष की शातिर महत्वाकाँक्षा!

कि भाग निकलने का
जब भी आया होगा खयाल
अनायास
भारी लगने लगे होंगे उसे अपने पैर!
हां, ठीक-ठीक बता सकता हूं
मैं ही
कि आज भी
उसे नहीं मालूम है ठीक-ठीक
कि बांध दी गई थी वह
मेरे उसे माँ कहने से बहुत पहले
मेरे उसे प्यार करने से भी बहुत पहले
मेरे जैसे अद्श्य खूंटो से
मेरे पिता की दुधारू गाय के ठीक बगल में
निपट दोहन के लिए

यों कहने को मैं
ऐसा भी कह सकता हूं
उस औरत की काल्पनिक मुक्ति पर / रो-रो कर
कि क्या शक कि वह जीती चली आई
पोंछती
बदरंग हो चले दामन से
कैसी‍-कैसी वाहियात गंदगियाँ
और चमकाती
कैसे गलीज अंधियारे
इस साफ शफ्फाक घर जैसी इमारत के
जिसे वह अपना मान कर
अथवा न मान कर ही
कि क्या था
कि पोंछ नहीं पाई
अपनी चौखट से बाहर बिखरा
उसका अपना ही आकाश
पूर्णिमा की चकाचौंध में भी
जो रहा धुंधला ही
आंखें उसकी
मानो सजल थीं
उस औरत की चाँदनी रातों को
क्या था कि सदा
लगा रहा ग्रहण?

क्या उसका पुत्र?

और उसके पुत्र के सिवा
उस की सूखी आंखों के
तमाम तारे
क्यों न थे निर्वाण के पक्ष में?

उस औरत की मुक्ति के?

उस मुक्ति सी वायवी अवधारण के?
उस मुक्ति की कामना से मुक्त रहती सी
अपनी मां जैसी उस औरत के लिए
जार-जार रोने से पहले
मंडराती है मेरे मस्तिष्क विवर में चकिल
उस मुक्ति की (अव) धारणा में लोट-पोट
अपनी, अलग-अलग डिजाईनर
मुक्तिकामी इच्छाएँ ओढ़े हुए
इस मदहोश भूखंड की
‘उदात्त’ महिलाएँ!

मीरा तो नहीं
तसलीमा भी शायद
पर हां, कह सकते हैं
इंदिरा, बनेजीर
टेरेसा, महा श्वेता
और अभी-अभी अरूंधति
बिल्कुल अभी ही
जैसे तमाम इनामी औरतें
पुरस्कृत बुकर पुलित्जर
प्रश्नवाचकों की तरह
शोभा डे
किरन बेदी
किरन खैर
किरन देसाई
किरन मेरी मां सी उस औरत की आंखों में
कहां?
जो सजल रह-रह कर / सदा
जो जल रही, सूखती, लाल-लाल / कहां
उसका दर्दनिवारक सुकून?

क्या तुम बता सकते हो ठीक-ठीक
कि बचती हुई बाल-बाल
विक्षेप से
भयभीत और उद्वेलित िस
भीषण समय में अपने पुत्र के इलावा
क्या कुछ ढ़ोती हुई पीठ पर
चुपचाप
सिमरती वज्रगुरू
अपने पुत्र के इलावा
इस सारी धरती की बेहतरी के लिए
जो कूर हुई बार-बार उसी के लिए
कहां है
उस औरत का आकाश?
जिसे अपना मान कर
अथवा न मान कर ही
मुक्त हो सके वह!

आज जब वह जा रही है 

(माँ की अंतिम यात्रा से लौटने पर)

वह जब थी
तो कुछ इस तरह थी
जैसे कोई भी बीमार बुढ़िया होती है
शहर के किसी भी घर में
अपने दिन गिनती।

वह जब थी
उस शहर और घर को
कोई ख़बर न थी
कि दर्द और संघर्ष की
अपनी दुनिया में
वह किस कदर अकेली थी ।

कहाँ शामिल था
ख़ुद मैं भी
उस तरह से
उसके होने में
जिस तरह से इस अंतिम यात्रा में हूं ?

आज जब वह जा रही है
तो रोता है घर
स्तब्ध ह्आ शहर
खड़ा हो गया है कोई दोनो हाथ जोड़े
दुकान में सरक गया है कोई मुँह फेर कर
भीड़ ने रास्ता दे दिया है उसे
ट्रैफिक थम गया है
गाड़ियाँ भारी-भरकम अपनी गर्वीली गुर्राहट बंद कर
एक तरफ हो गई हैं दो पल के लिए
चौराहे पर
वर्दीधारी उस सिपाही ने भी
अदब से ठोक दिया है सलाम।
आज जब जा रही है माँ
तो लगने लगा है सहसा
मुझे
इस घर को
और पूरे शहर को
कि वह थी… और अब नहीं रही।

आज कितनी अच्छी धूप है

(हैलिकॉप्टर से ‘पीज’ गाँव के ऊपर से उड़ते हुए)

छतों पर खींद रख दिए गए हैं सूखने के लिए
भेड़ें, गऊएं गाँव से दूर निकल चलीं हैं
सप्ताह भर की बारिश ने
खूब नरम पत्तियाँ उगाईं होंगीं
(हालाँकि हरियाली दिख नहीं रही है इस ऊँचाई से)
आज धूप कितनी अच्छी है!

बुज़ुर्ग अलसा रहे हैं आँगन की सलेटों पर
अधेड़ औरतें छज्जों पर बतियाती बाल सुखा रहीं हैं
बच्चे कक्षाओं में लौट रहे प्रार्थना खत्म कर
उतर रहे युवक पीठ पर झोले लाद
और दयार के स्लीपर
युवतियाँ भी –
दूध की कैनियाँ, बालन की गठड़ियाँ
गाँव की निचली ढलान पर
जहाँ बचा रह गया है थोड़ा सा जंगल
फिर नीचे ढाल पुर में तो बाज़ार ही बाज़ार है…..

आज क्या कुछ बिकेगा?
गुच्छियाँ
बोदि के फूल
चरस और थरड़े की थैलियाँ
कितना मुनाफा होगा …..
आज बहुत अच्ची धूप है!

प्रार्थना से लौटते किसी एक बच्चे ने
ज़रूर सोचा होगा आज
कि क्यों गिरता जा रहा पहाड़
ढलान दर ढलान
टूट कर बिखरता जा रहा पहाड़
कि खूब कस कर पकड़ रक्खूँ
अपने पहाड़ को
अपनी नन्ही मुट्ठियों में ….

आज कितनी अच्छी धूप है!

शिमला का तापमान-1 

+10c

भीड़ कभी छितराती है
कभी इकट्ठी हो जाती है
तिकोने मैदान पर विभिन्न रंगों के चित्र उभरते हैं
एक दूसरे में घुलते हैं
स्पष्ट होते हैं
बिखर कर बदल जाते हैं
कभी नीली जीन्स की नदी सी एक
दूर नगर निगम के दफ्तर तक चली जाती है
पतली और पतली होती
जल पक्षियों से, डूबते, उतराते हैं
उस पर रंग बिरंगी टी-शर्ट्स और टोपियां
धूप सीधी सर पर है एकदम कड़क
और तापमान बढ़ा हुआ

शिमला का तापमान-2

+2 0c

बच्चे बड़े बड़े गुब्बारे ओढ़ रहे हैं
गोल लम्बूतरे
बड़ी-बड़ी गुलाबी कैंडीज़ में से झाँकता
एक मरियल काला बच्चा
मेरे पास आकर रोता है –
‘अंकल ले लो न, कोई भी नहीं ले रहा’
उसकी आंखें प्रोफेशनल हैं
फिर भी भीतर कुछ काँप सा जाता है
तापमान पहले से बढ़ गया है

शिमला का तापमान-2

+2 0c

बच्चे बड़े बड़े गुब्बारे ओढ़ रहे हैं
गोल लम्बूतरे
बड़ी-बड़ी गुलाबी कैंडीज़ में से झाँकता
एक मरियल काला बच्चा
मेरे पास आकर रोता है –
‘अंकल ले लो न, कोई भी नहीं ले रहा’
उसकी आंखें प्रोफेशनल हैं
फिर भी भीतर कुछ काँप सा जाता है
तापमान पहले से बढ़ गया है

शिमला का तापमान-3 

+3’c

प्लास्टिक का हेलीकॉप्टर
रह रह कर मेरे पास तक उड़ा चला आता है
लौट कर लड़खड़ाता लेन्ड करता है
रेलिंग पर बैठा बड़ा सा बन्दर
दो लड़कियों की चुन्नी पकड़ता, मुंह बनाता, डराता है

लड़कियाँ
एक सुन्दर, गोरी, लाल-लाल गालों वाली
दूसरी साधारण, सांवली
प्रतिवाद नहीं करतीं
शर्म से केवल मुह छिपातीं, मुस्करातीं हैं
तापमान बढ़ता ही जा रहा है

शिमला का तापमान-4 

+4’c

इक्के दुक्के घोड़े वाले ठक-ठक किनारे किनारे दौड़ रहे हैं
घोड़े वालों की चप्पलों की चट-चट
घोड़े की टापों में घुल मिल रही है
दोनो हाँफ रहें हैं
गर्म हवा की किरचियाँ हैं
धूप की झमक है
दोनों की चुंधियाई आँखों में आँसू हैं
गाढ़े सनग्लास पहने सैलानी स्वर्ग में उड़ रहा है
बड़े से छतनार दरख्त के नीचे
आई जी एम सी में इलाज करवाने आए देहाती मरीज़ सुस्ता रहे हैं
बेकार पड़े घोड़े भी निश्चिन्त, पसरे हैं
लेकिन घोड़े वाले परेशान, दाढ़ी खुजला रहे हैं
ग्राहक की प्रतीक्षा में उन की आँखे सूख गई हैं
एकदम सुर्ख और खाली
एक लकीर भर डोल रही है उनमें
यह लकीर घोड़े और घोड़े वाले में फर्क बताती है
तापमान कुछ और बढ़ गया है

शिमला का तापमान-5

+5’c

उस बड़े बन्दर को दो युवक
(एक चंट / दूसरा साधारण ढीला ढाला सा)
चॉकलेट खिला रहे हैं
वह बन्दर उनके साथ गुस्ताखी नहीं करता
वे लोग बातें कर रहे हैं खुसर फुसर
युवक ‘पंजाबी’ में
बंदर ‘बंदारी’ में
क्या फर्क पड़ता है
‘दोस्ती’ की एक ही भाषा होती है
उनकी आपस में पट रही है / जोड़ तोड़ चल रहा है
तापमान तेज़ी से बढ़ रहा है

शिमला का तापमान-6

+6’c

हिजड़े और बहरूपिए मचक-मचक कर चल रहे हैं
उन के ढोली गले में रूमाल बांधे
अदब से, झुक कर उन के पीछे जा रहे हैं
पान चबाते होंठों में लम्बी-लम्बी विदेशी सिग्रेटें दबाए
गाढ़े मेकअप व मंहगे इत्र से सराबोर
इन भांडों से बेहतर ज़िन्दगी और किसकी है?
लंगड़ी बदसूरत भिखारिन भीख न देने वालों को गालियाँ देती है
उसके अनेक पेट हैं
और हर पेट में एक भूखा बच्चा
संभ्रांत सा दिखने वाला एक अधेड़
काला लबादा ओढ़, तेल की कटोरी हाथ में लिए
फ्रेंडशिप बैंड वाली तिब्बती लड़की के बगल में बैठ गया है
उस की बूढ़ी माँ को फेफड़ों का केंसर है

गेयटी के सामने से एक महिला गुज़र गई है
उसके सफेद हो रहे बाल मर्दाना ढंग से कटे हैं
कानों में बड़ी-बड़ी बालियाँ और गले में खूब चमकदार मनके
उसकी नज़रें एक निश्चित ऊँचाई पर स्थिर हैं
उसकी बिंदास चाल में
समूचे परिदृष्य को यथावत् छोड कहीं पहुँच जाने की आतुरता है
तापमान काफी बढ़ गया है

शिमला का तापमान-7

+7’c

हनीमून जोड़े फोटो खिंचवाते हैं
कभी-कभी किसी-किसी का कैमरा
क्लिक नहीं करता
चाहे कितना भी उलट पलट कर देखो
कभी-कभी कुछ जोड़े
बिल्कुल क्लिक नहीं करते
फिर भी वे साथ-साथ चलते हैं
लिफ्ट में, बारिश्ता, बालजीज़ में
जाखू से उतरते हैं एक दूसरे से चिमट कर
स्केंडल पर गलबहियाँ डाले
और रिज पर एक ही घोड़े पर
ठुम्मक-ठुम्मक
घोडे की छिली पीठ की परवाह किए बिना ………..
तापमान एकदम बढ़ गया है ।

शिमला का तापमान-8 

+8’c

गुस्ताख़ बंदर रेलिंग पर से गायब है
लड़कियों के पास पंजाबी युवक पहुंच गए हैं
चंट युवक सुंदर वाली से सटकर बैठ गया है
उसे यहां वहां छू रहा है
लड़की शर्म से पिघल रही है
आँखें नीची किए हंसती जा रही है
उसके ओठ सिमट नहीं पा रहे हैं
दंत पंक्तियाँ छिपाए नहीं छिप रही हैं

साँवली लड़की कभी कलाई की घड़ी देखती है
कभी चर्च की टूटी हुई घड़ी की सूईयों को
जो लटक कर साढ़े छह बजा रही हैं
साधारण युवक की आँखें मशोबरा के पार
कोहरे में छिप गई सफेद चोटियों में कुछ तलाश रहीं हैं
वह बेचैन है मानो अभी कविता सुना देगा
तापमान बेहद बढ़ चुका है

शिमला का तापमान-9

+9’c

कुछ पुलिस वाले
नियम तोड़ रहे एक घोड़े वाले को
बैंतों से ताड़-ताड़ पीटने लगे हैं
घोड़े वाले की पीठ पर लाल-नीले निशान पड़ गए हैं
गुस्सा पीए हुए उसके साथी उसे पिटते हुए देखते रह गए हैं
पुलिस वाले उसे घसीटते हुए ले जा रहे हैं
वह ज़िबह किए जा रहे सूअर की तरह गों-गों चिल्ला रहा है
गाँधी जी की सुनहरी पीठ शान्तिपूर्वक चमक रही है
इन्दिरा धूप और गुस्सा खा कर कलिया गई हैं
परमार चिनार के पत्तों में छिपे झेंप रहे हैं
तापमान भीतर से बढ़ने लगा है

शिमला का तापमान-10

+10’c

मेरे बगल में स्टेट लाइब्रेरी खामोश खडी है
साफ सुथरी, मेरी सफेद कॉलर जैसी
मेरी मनपसंद जगह !
वहां भीतर ठंडक होगी क्या?
तापमान बर्दाश्त से बाहर हो गया है.

बेबस देखता रहा अपना बुद्ध न हो पाना

 देखता रहा जंगल को
लकड़ बग्घे की तरह
और झटपट मेरे सपनों में जुटने लगा
एक झुण्ड।

मैंने प्यार किया
कि जीना असंगत न लगे
परिवार बनाया
फिर पता नहीं
मेरी अपनी ही भूख थी वो
या कि शावकों की कोई गुप्त पुकार-
मैं उठा, बेताब
कूदता रहा झुके हुए पुठठों पर
पूरा एक झुण्ड नहीं बन गया जब तक
दुर्गन्ध में नहाया
दौड़ता-भागता
एक दुर्बल हिरन को सूँघता हुआ।

‘‘सभी को कुछ न कुछ चाहिए’’
मैंने दलील दी-
‘‘जैसे इस हिरन को घास
और मुझे मांस।’’

मैं देखता रहा, चुपचाप
ठीक एक लकड़ बग्घे की तरह
बेबस,
अपना ‘बुद्ध’ न हो पाना।

केलंग-1/ हरी सब्ज़ियाँ

`फ्लाईट´ में सब्ज़ी आई है
तीन टमाटर
दो नींबू
आठ हरी मिरचें
मुट्ठी भर धनियाँ

सजा कर रखी जाएँगी सिब्ज़याँ
`ट्राईबेल फेयर´ की स्मारिका के साथ
महीना भर

जब तक कि सभी पड़ोसी सारे कुलीग
जान न लें
फ्लाईट में हरी सब्ज़ियाँ आई है।

केलंग-2/ पानी 

बुरे वक़्त में जम जाती है कविता भीतर
मानो पानी का नल जम गया हो

चुभते हैं बरफ के महीन क्रिस्टल
छाती में

कुछ अलग ही तरह का होता है, दर्द
कविता के भीतर जम जाने का

पहचान में नहीं आता मर्ज़
न मिलती है कोई `चाबी´
`स्विच ऑफ´ ही रहता है अकसर
सेलफोन फिटर का।

केलंग-3/ बिजली

`सिल्ट´ भर गया होगा
`फोरवे´ में
`चैनल´ तो शुरू साल ही टूट गए थे

छत्तीस करोड़ का प्रोजेक्ट
मनाली से `सप्लाई´ फेल है
सावधान
`पावर कट´ लगने वाला है

दो दिन बाद ही आएगी बारी
फोन कर लो सब को
सभी खबरें देख लो
टी० वी० पर
सभी सीरियल

नहा लो जी भर रोशनियों में खूब मल-मल
बिजली न हो तो
ज़िन्दगी अन्धेरी हो जाती है।

चन्द्रताल पर फुल मून पार्टी

(जिमी हैंड्रिक्स और स्नोवा बार्नो के लिए)

इस कुँआरी झील में झाँको
अजय
किनारे किनारे कंकरों के साथ खनकती
तारों की रेज़गारी सुनो

लहरों पर तैरता आ रहा
किश्तों में चांद
छलकता थपोरियां बजाता
तलुओं और टखनों पर

पानी में घुल रही
सैंकडों अनाम खनिजों की तासीर
सैंकडों छिपी हुई वनस्पतियाँ
महक रही हवा में
महसूस करो
वह शीतल विरल वनैली छुअन…

कहो
कह ही डालो
वह सब से कठिन कनकनी बात
पच्चीस हज़ार वॉट की धुन पर
दरकते पहाड़
चटकते पठार

रो लो
नाच लो
जी लो
आज तुम मालामाल हो
पहुँच जाएंगी यहाँ
कल को
वही सब बेहूदी पाबंदियाँ !

रचनाकाल : चन्द्रताल,24-6-2006

केलंग-4/ सड़कें

अगली उड़ान में `शिफ्ट` कर दिया जाएगा
`पथ परिवहन निगम´ का स्टाफ

केवल नीला टेंकर एक `बोर्डर रोड्स´ का
रेंगता रहेगा छक-छक-छक
सुबह शाम
और कुछ टेक्सियाँ
तान्दी पुल-पचास रूपये
स्तींगरी-पचास रूपये

भला हो `बोर्डर रोड्स´ का
पहले तो इतना भी न था
सोई रहती थी सड़कें, चुपचाप
बरफ के नीचें
मौसम खुलने की प्रतीक्षा में
और पब्लिक भी

कोई कुछ नहीं बोलता ।

एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ रहा है 

धुर हिमालय में यह एक भीषण जनवरी है
आधी रात से आगे का कोई वक़्त है
आधा घुसा हुआ बैठा हूँ
चादर और कम्बल और् रज़ाई में
सर पर कनटोप और दस्ताने हाथ में
एक नंगा कंप्यूटर हैंग हो गया है
जब कि एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ रहा है .

तमाम कविताएं पहुँच रहीं हैं मुझ तक हवा में
कविता कोरवा की पहाड़ियों से
कविता चम्बल की घाटियों से
भीम बैठका की गुफा से कविता
स्वात और दज़ला से कविता
कविता कर्गिल और पुलवामा से
मरयुल , जङ-थङ , अमदो और खम से
कविता उन सभी देशों से
जहाँ मैं जा नहीं पाया
जबकि मेरे अपने ही देश थे वे.

कविताओं के उस पार एशिया की धूसर पीठ है
कविताओं के इस पार एक हरा भरा गोण्ड्वाना है
कविताओं के टीथिस मे ज़बर्दस्त खलबली है
कविताओं की थार पर खेजड़ी की पत्तियाँ हैं
कविताओं की फाट पर ब्यूँस की टहनियाँ हैं
कविताओं के खड्ड में बल्ह के लबाणे हैं
कविताओं की धूल में दुमका की खदाने हैं

कविता का कलरव भरतपुर के घना में
कविता का अवसाद पातालकोट की खोह में
कविता का इश्क़ चिनाब के पत्तनों में
कविता की भूख विदर्भ के गाँवों में
कविता की तराई में जारी है लड़ाई
पानी पानी चिल्ला रही है वैशाली
विचलित रहती है कुशीनारा रात भर
सूख गया है हज़ारों इच्छिरावतियों का जल
जब कि कविता है सरसराती आम्रपालि
मेरा चेहरा डूब जाना चाहता है उस की संदल- माँसल गोद में
कि हार कर स्खलित हो चुके हैं
मेरी आत्मा की प्रथम पंक्ति पर तैनात सभी लिच्छवि योद्धा
जब कि एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ रहा है.

सहसा ही
एक ढहता हुआ बुद्ध हूँ मैं अधलेटा
हिमालय के आर पार फैल गया एक भगवा चीवर
आधा कंबल में आधा कंबल के बाहर
सो रही है मेरी देह कंचनजंघा से हिन्दुकुश तक
पामीर का तकिया बनाया है
मेरा एक हाथ गंगा की खादर में कुछ टटोल रहा है
दूसरे से नेपाल के घाव सहला रहा हूँ
और मेरा छोटा सा दिल ज़ोर से धड़कता है
हिमालय के बीचों बीच.

सिल्क रूट पर मेराथन दौड़ रहीं हैं कविताएं
गोबी में पोलो खेल रहा है गेसर खान
क़ज़्ज़ाकों और हूणों की कविता में लूट लिए गए हैं
ज़िन्दादिल खुश मिजाज़ जिप्सी
यारकन्द के भोले भाले घोड़े
क्या लाद लिए जा रहे हैं बिला- उज़्र अपनी पीठ पर
दोआबा और अम्बरसर की मण्डियों में
न यह संगतराश बाल्तियों का माल- असबाब
न ही फॉरबिडन सिटी का रेशम
और न ही जङ्पा घूमंतुओं का
मक्खन, ऊन और नमक है
जब कि पिछले एक दशक से
या हो सकता है उस से भी बहुत पहले से
कविता में सुरंगें ही सुरंगें बन रही हैं !

खैबर के उस पार से
बामियान की ताज़ा रेत आ रही है कविता में
मेरी आँखों को चुभ रही है
करआ-कोरम के नुकीले खंजर
मेरी पसलियों में खुभ रहे हैं
कविता में दहाड़ रहा है टोरा बोरा
एक मासूम फिदायीन चेहरा
जो दिल्ली के संसद भवन तक पहुँच गया है
कविता का सिर उड़ा दिया गया है
फिर भी ज़िन्दा है कविता
सियाचिन के बंकर में बैठे
एक सिपाही की आँखें भिगो रहा है
कविता में एक धर्म है नफरत का
कविता में क़ाबुल और काश्मीर के बाद
तुरत जो नाम आता है तिब्बत का
कविता के पठारों से गायब है शङरीला
कविता के कोहरे से झाँक रहा शंभाला
कविता के रहस्य को मिल गया शांति का नोबेल पुरस्कार
जब कि एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ रहा है.

अरे , नहीं मालूम था मुझे
हवा में पैदा होतीं हैं कविताएं !

क़तई मालूम नहीं था कि
हवा जो सदियों पहले लन्दन के सभागारों
और मेनचेस्टर के कारखानों से चलनी शुरू हुई थी
आज पॆंटागन और ट्विन –टॉवर्ज़ से होते हुए
बीजिंग के तह्खानों में जमा हो गई है
कि हवा जो अपने सूरज को अस्त नही देखना चाहती
आज मेरे गाँव की छोटी छोटी खिड़कियो को हड़का रही है

हवा के सामने कविता की क्या बिसात ?
हवा चाहे तो कविता में आग भर दे
हवा चाहे तो कविता को राख कर दे
हवा के पास ढेर सारे डॉलर हैं
आज हवा ने कविता को खरीद लिया है
जब कि एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ रहा है .

दूर गाज़ा पट्टी से आती है जब
एक भारी भरकम अरब कविता
कम्प्यूटर के आभासी पृष्ट पर
तैर जाती हैं सहारा की मरीचिकाएं
शैं- शैं करता
मनीकरण का खौलता चश्मा बन जाता है उस का सी पी यू
कि भीतर मदरबोर्ड पर लेट रही है
एक खूबसूरत अधनंगी यहूदी कविता
पीली जटाओं वाली
कविता की नींद में भूगर्भ की तपिश
कविता के व्यामोह में मलाणा की क्रीम
कविता के कुण्ड में देशी माश की पोटलियाँ
कविता की पठाल पे कोदरे की मोटी नमकीन रोटियाँ

आह!
कविता की गंध में यह कैसा अपनापा
कविता का यह तीर्थ कितना गुनगुना ….

जबकि धुर हिमालय में
यह एक ठण्डा और बेरहम सरकारी क्वार्टर है
कि जिसका सीमॆंट चटक गया है कविता के तनाव से
जो मेरी भृकुटियों पर बरफ की सिल्ली सी खिंची हुई है
जब कि एक माँ की बगल में एक बच्चा सो रहा है
और एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ रहा है …

लेम्पपोस्ट के नीचे बैठी औरत

वहाँ जो औरत बैठी थी
उस ने होंठ रंग रखे थे खूब चटख
और नाखून भी ।

उसकी गर्दन पर काली झुरियाँ बन रही थी
और ज़बरन घुँघराले किये बालों से पसीना चुहचहा रहा था ।

वहाँ जो औरत बैठी थी
उसके चारों ओर भिनभिना रहे थे बच्चे
एक दूसरे को छेड़ते, खींचते
धकियाते, गिराते, रूलाते,
मस्त ! माँ से बेखबर ।

वहाँ जो औरत बैठी थी
उसकी आँखों से भाग कर
सितारों में खो गई थी चमक
उसके चेहरे पर लगा था ग्रहण
और चाँद हँस रहा था ।

उसके भीतर के तमाम परिन्दें
कर रहे थे कूच की तैयारी
अपनी भरपूर चहचहाहटों और ऊँची उड़ानों के साथ
भोर होते ही ।

वहाँ जो औरत बैठी रहेगी
उसकी आर्द्रता सोख ले जाएंगे बादल
हवाएँ चुरा लेंगीं उसके सुनहरे सपने
और सूरज छीन लेगा उसकी रही सही गरमाईश
दिन निकलते ही ।

यह धरती ही थामे रहे संभवत:
जैसे-तैसे
एक चुक रही औरत का बोझ
दिन भर।

वहाँ जो औरत बैठी है
उसे बहुत देर तक
यों सजधज कर
गुमसुम
चुपचाप बैठे नहीं रहना चाहिए ।

इस गाँव को उन बच्चों की नज़र से देखना है 

इस गाँव तक पहुँच गया है
एक काला, चिकना, लम्बा-चौडा राजमार्ग

जीभ लपलपाता
लार टपकाता एक लालची सरीसृप

पी गया है झरनों का सारा पानी
चाट गया है पेड़ों की तमाम पत्तियाँ

इस गाँव की आँखों में
झोंक दी गई है ढेर सारी धूल

इस गाँव की हरी-भरी देह
बदरंग कर दी गई है

चैन ग़ायब है
इस गाँव के मन में
सपनों की बयार नहीं
संशय का गर्दा उड़ रहा है

बड़े-बड़े डायनोसॉर घूम रहे हैं
इस गाँव के स्वप्न में
तीतर, कोयल और हिरन नहीं
दनदना रहे हैं हेलिकॉप्टर
और भीमकाय डम्पर

इस काले चिकने लम्बे-चौड़े राजमार्ग से होकर
इस गाँव में आया है
एक काला, चिकना, लम्बा-चौड़ा आदमी

इस गाँव के बच्चे हैरान हैं
कि इस गाँव के सभी बड़े लोग एक स्वर में
उस वाहियात आदमी को ‘बड़ा आदमी’ बतला रहे
जो उन के ‘टीपू’ खेलने की जगह पर
काला धुँआ उड़ाने वाली मशीन लगाना चाहता है !

जो उनकी खिलौना पनचक्कियों
और नन्हे गुड्डे गुड्डियों को
धकियाता रौंदता आगे निकल जाना चाहता है !

मुझे इस गाँव को
एक ‘बड़े आदमी’ की तरह डाक बंगले
या शेवेर्ले की खिड़की से नहीं देखना है

मुझे इस गाँव को
उन ‘छोटे बच्चों’ की तरह अपने
कच्चे घर के जर्जर किवाड़ों से देखना है
और महसूसना है
इन दीवारों का दरक जाना
इन पल्लों का खड़खड़ाना
इस गाँव की बुनियादों का हिल जाना !

पल-लमो, जून 7, 2010

कहीं यह आखिरी कविता न हो 

दोस्तो, ध्यान से सुनना
ये आप्त वचन
शुद्ध-हृदय से बोल रहा हूँ
आख़िरी बार।

तमाम जनतान्त्रिक माहौल
और उदारवादी अहसासों के बावजूद
पता नहीं क्यों डर रहा हूँ
कि इसके बाद कोई कविता नहीं लिखी जाएगी
कि इस के बाद जो कुछ भी लिखा जाएगा
वह आवेदन होगा
तय रहेगा जिस का पहले से एक प्रपत्र
तय रहेगीं विवरणों की सीमाएँ
छोटे-छोटे कॉलमों में आप केवल
‘हाँ’ या ‘नहीं’ लिख सकेंगे
बड़ी हद ‘लागू नहीं’ लिख लीजिए
टीप के लिए नहीं बने होंगे हाशिए ।

याचिकाएँ होंगी
जिन्हें दायर करने के लिए
आपको एक हैसियत चाहिए
और कोई अधिसूचना या
तयशुदा कानूनी शब्दावली में
कोई अध्यादेश जिसे फ़ौरी तौर पर पढ़ने से
लगे कि सचमुच ही जनहित में जारी किया गया है!

इसके बाद कुछ लिखा जाएगा
तो हलफ़नामे और अनुबंध लिखे जाएँगे
और भनक भी नहीं लगेगी
कि आपने अपने इन हाथों से अपनी कौन सी
ज़रूरी ताक़तें रहन लिख दीं !

इसीलिए दोस्तो ! ध्यान से सुनना
बड़ी मेहनत से लिख रहा हूँ
अपने नाखून छील कर
अपनी ही पीठ पर
गोद रहा हूं ये तल्ख़ तेज़ाबी अक्षर

तुम ध्यान दोगे अगर
तो मेरी दहकती पीठ पर ठण्डक उतर आएगी
दूना-चौगुना रक्त दौड़ेगा धमनियों में
स्वस्थ मज्जा से
मेरी खोखली रीढ़ भर जाएगी
तुम्हारी सामूहिक ऊर्जा से आविष्ठ होगा
मेरा स्नायुतन्त्र
तन कर सीधी खड़ी हो जाएगी मेरी संक्रमित देह
मौसम की मनमर्जि़यों के खिलाफ़
चमकेंगे नए हरूफ़ मेरी बेचैन छाती पर
यही मौक़ है दोस्तो, ध्यान से सुनना
तन्मय होकर
कहीं यह आख़िरी कविता न हो !

1990

पहाड़ के पीछे छिपा होगा इस का इतिहास 

(रोहतांग पर शोधार्थियों के साथ पद यात्रा करते हुए )

मुझ से क्या पूछते हो
इस दर्रे की बीहड़ हवाएं बताएंगी तुम्हें
इस देश का इतिहास ।

इस टीले के पीछे ऐसे कई और टीले हैं
किसी पर उग आए हैं जंगल
कोई ओढ़ रहा घास – फूस
कहीं पर खण्डहर और कुछ यों ही पथरीले
तुम चले जाना उन टीलों के पीछे तक ।

चमकने लग जाएगी एक प्राचीन पगडण्डी
भटकती हुई कोई हिनहिनाहट आएगी
कहीं घाटी में से
घंटियों और घुंघरूओं की झनक
अभी कौंध उठेगी वह गुप्त बस्ती
धुंआती हुई अचानक
अनिन्द्य हिमकन्याएं जो सपनों में देखीं थीं
हैरतअंगेज़ कारनामे दन्त कथाओं वाले महानायक के

घूसर मुक्तिपथों पर भिक्खु लाल सुनहले
मणि-पù उच्चार रहे
ज़िन्दा हो जाएगा क्रमश:
पूरा का पूरा हिमालय तुम्हारा सोचा हुआ ।

लेकिन उस से पहले मेरे दोस्त
इस बेलौस ढलान पर लापरवाही से बिखरी
चट्टानों की ओट में खोज लेना
यहीं कहीं लेटा हुआ मिल सकता है
आलसी काले भालू सा
इस बैसाख की सुबह
धीरे से करवट बदलता इस देश का इतिहास।

उधर ऊंचाई पर खड़ी है जो टापरी
फरफराती प्रार्थना की पताकाएं रंग बिरंगी
गडरियों के साथ चिलम सांझा करते
किसी भी बूढ़े राहगीर से पूछ लेना तुम
वह क्या था
जिजीविषा या डर कोई अनकहा
हांकता रहा
जो उस के पुरखों को
पठारों और पहाड़ों के पार
जैसे मवेशियों के रेवड़

मुझ से क्या पूछते हो
महसूस लो खुद ही छू कर
पत्थर की इन बुर्जियों में
चिन चिन कर छोड़ गए हैं इस देश के सरदार
कितनी वाहियात और खराब यादें
उन तमाम हादिसों के ब्यौरे
जिन के ज़ख्म ले कर लोग यहां पहुंचे
क्या कुछ खोते और खर्च कर डालते हुए
यहां दर्ज है एक एक तफसील
पूरा लेखा जोखा मुश्किल वक्तों का ।

उस गडरिए की बांसुरी की घुन में
छिपी हैं बेशुमार गाथाएं
तुम सुनते रहना
मेरे विद्वान दोस्त , उन बेतरतीब यादों में से
चुनते रहना अपना मन मुआफिक साक्ष्य
लेकिन टहल लेना उस से पहले
इस नाले के पार वाली रीढ़ियों पर
सुनना कान लगा कर
चंचल ककशोटियों और मासूम चकोरों की
प्रणय ध्वनियों सा गूँजता मिल जाएगा
इस देश का इतिहास………

मुझ से क्या पूछते हो
मैं तो बस यहां तक आया हूँ
बिलकुल तुम्हारी तरह ।
1991

मुस्कान

पूरी ज़िन्दगी में
क्या हो पाया मुझ से
सिवा एक संक्षिप्त मुस्कान के
खुलकर रो भी नहीं पाया।

आर्कटिक वेधशाला मे कार्यरत वैज्ञानिक मित्रों के कुछ नोट्स

सुबह होगी और दिन भर बसंत रहेगा

9.
पौ फट रही है
क्षितिज बैंगनी हो गया है
इस लम्बी सर्दी के बाद जो सूरज उगेगा
कम से कम चार माह नहीं डूबेगा
मौत सी ठंडी इस सफेदी को
इन्द्रधनुषी रंग बाँटेगा
परिंदे और लोमड़ियाँ सफेद पोशाकें उतार
मनपसंद रंगों में धमा चौकड़ी मचाएंगे

10.
बर्फ पर कोई सिंदूर छिड़क गया है।

28.
सारा खेल वक्त का है
वक्त सूरज तय करता है
सूरज हवाएँ पैदा करता है
हवा समुद्र को छेड़ता है
समुद्र ने बर्फ को तोड़ना शुरू कर दिया है
बर्फ पिघलते ही हरी काई के फीते तैरने लग जाएगें

29.
यह हलचल ही है
जहाँ जीवन दिखता है
वह एक लहर थी
जो मछलियों को तट तक बहा लाई
और एक लहर ही होगी
जो उन्हें सही सलामत घर वापस ले जाएगी ।
दूर-दूर तक सूँध लेने वाले शिकारी
दूर दूर तक सुन लेने वाले शिकार
गंधों और आहटों का द्वन्द्व
इंद्रियों का तनाव पूर्ण मुकाबला चलेगा
दूर-दूर तक यह जगह एक शिकारगाह बन जाएगी।

30.
चट्टानों पर कोंपले निकल आएंगी
तेज़ हवा की मार सहती हुई
धीरे-धीरे धरती के साथ भूरी होती लोमड़ी
झुंड से बिछडे़ चूज़ों को खाना शुरू करेगी
चुराए गए अंडों से मांद भर लेगी
बहुत छोटा है उसके लिए
हारवेस्टिंग का यह मौसम/ फिर भी
आर्कटिक में भुखमरी नही है!

तुम्हारा नहीं होना

25.
इस गुनगुनी धूपवाली सुबह
इस ठाठदार ‘स्नो रिज़ॉर्ट’ में
तुम्हारा नहीं होना भी
एक विलास है
रोयेंदार कम्बल की सलवटों डूबा हुआ
टटोलती रहती है जिसमें मेरी उंगलियां
उन खास चीज़ों को
रात भर साथ रहते हुए भी जो
सुबह अकसर नदारद होती है –
एक सुविधाजनक रिमोट बटन
एक सुकूनबख्श सिग्रेट लाईटर
तुम्हारी यादों को दर्ज करने वाली
एक मुलायम पेंसिल
और जो पड़ी रहतीं हैं
सटी हुई आपस में
फिर भी अलग-अलग
छिटके हुए गुमशुदा लगभग
कहाँ हो तुम।

31.
आज मैं उन तमाम चीज़ों के सैम्पल लूँगा
दिन निकलते ही जो
बरफ के क्रिस्टलों के बीच
बढ़ते दबाव और दुःख की उम्र बताना शुरू कर देती हैं

एक क्लोरोफिल की जिजीविषा में छिपी
मिट्टी के टुकड़ों की खोई हुई महक जाँचूँगा
और यह पता लगाने की कोशिश करूँगा
कि क्या तुम्हारे नहीं होने से ही
शुरू कर दिया था एक दिन
घुलना
उस भरी पूरी हरियाली ने
लहरों ने, हवा ने
और मिट्टी ने
खो जाना
पानी में
और ठोस हो जाना?

32.
दोपहर तक
तुम्हारा नहीं होना
आर्द्रता के नहीं होने में तबदील हो गया है
कि द्रवित और गतिशील अंतःकरण के बावजूद
यहाँ हर मौसम का है एक घनीभूत संस्तर
रूखा, कड़ा, ठहरा हुआ
एक मरियल सूरज जिसके क्षितिज में
अपनी पूरी ताकत से चमका है दिन भर
और शेष हो गया है
बिना किसी को पिघलाए
बेहूदा कोहरे की संपीड़ित परतों में।

33.
सांझ ढलने पर तुम्हारा नहीं होना
एक अलग ही भाव से शुक्र तारे का झिपझिपाना है
मेरे एकान्त को चिढ़ाते हुए
पृथ्वी के अन्तिम छोर पर
इस विराट टेलीस्कोप के अतिरिक्त
तुम्हें नाप लेने के और भी उपकरण हैं मेरे पास
एक से एक शक्तिशाली
छूट ही जाती है फिर भी
कोई एक अपरिहार्य रीडिंग
व्यर्थ हो जाता है दिन भर जुटाए गए आंकड़ों का परिश्रम
गड़बड़ा जाता है सारा समीकरण
रोश्नदान के बाहर तैरती हुई
अंधेरी हवाओं के सुपुर्द कर आता हूँ चुपचाप
अपने संभावित आविष्कार की हज़ारों चिन्दियाँ।

36.
‘फुली लोडेड’ हो कर भी, कभी
शामिल हो जाती है जीवन में
ऐसी अवशता
और आकर अगल-बगल बैठ जाते हैं
अनिश्च्य और अभाव
मेरी देह से लिपट-लिपट जाती इस कातर नीरवता में
दूर दूर तक स्थूल स्पर्श का आभास न होना
तुम्हारा नहीं होना
दरअसल
तमाम छूटी हुई गणनाओं से पहले
तुम्हें खोज पाना है अपने भीतर
अपने ही भीतर
आह
तुम!

एक शाश्वत नृत्य इसी बासी पृथ्वी पर

49.
क्या तम्हें पता था
झूमते रहते हैं देर रात तक
खूब सूरत ‘‘नॉर्दन लाईट्स’’
मटमैले ध्रुवीय आसमान पर
चलता रहता है उत्सव
शून्य से तीस डिग्री नीचे भी?

इतनी सुन्दर है प्रकृति
और फैली हुई
क्षण-क्षण अनगिनत रूपाकारों में
और भी फैलती हुई
अद्भुत है यह सब
बड़ा ही दुर्लभ
बाहर निकल कर देखा है कभी?

50.
खोज पाता होगा सदियों में कोई एक
इस गुप्त उत्सव का रहस्य
जो चल रहा है लगातार
जो सुन नहीं पाते हम अपने ही शोर में
जो देख नहीं पाते हम अपने ही सपनों के कारण
आह !
क्या अनुभव है
जागते हुए
खुले में
सन्नाटे में यह सब देख जाना।

55.
इस तरह से सिकुड़े हुए थे हम
कितने दयनीय
परत दर परत
बरफ की तरह
अपने दबावों में दबे हुए
बिछुड़े हुए
अपने-अपने गहरे खन्दकों की
अंधेरी भूल भूलैया में
दुबके, अकड़े हुए
जहाँ नरक है, नीचे
वहीं से नापनी थी हम सब को
नए नक्षत्रों की दूरियाँ
खोजनी थी नई दुनिया

58.
अरे , कौन रुका रहना चाहता था ?
कौन ?

63.
धूप सी बरसती थी
संतप्त हहराती आकांक्षा
भाप सा उड़ जाता था
इस महान पृथ्वी का तरल सौन्दर्य
कि कूच कर जाना था ऐसे ही एक दिन
मुझे
तुम्हें
हम सब को
सहस्त्रों आकाश गंगाओं की तलाश में
इस वेधशाला से तेरह अरब प्रकाश वर्ष दूर
जैसे ही अवसर मिले।

64.
कौन रूका रहना चाहता था
इस बासी पृथ्वी पर?

75.
लेकिन रुको दोस्त
अपनी युटोपिया पर तुम्हारा पूरा पूरा हक है
लेकिन माफ करना,
एक छोटी सी छूट लेना चाहता हूँ मैं
यहां खलल डालते हुए
क्या तुम अपने इस अत्याधुनिक ‘डिवाईस’ से
इस बीहड़ आर्कटिक के काले आसमान पर
प्रक्षेपित कर सकते हो मुझे ?
उन सुन्दर ध्रुवीय प्रकाशों की पृष्टभूमि पर
बार-बार उभारना चाहता हूँ
अपनी प्रतिछाया
बादल पर
बिजली और इन्द्रधनुषों की तरह
नाचना चाहता हूँ

76.
ओ वेगवान तूफान
ओ स्थिर जलमग्न हिमखंड !
ओ उफनते समुद्र
ओ खामोश सितारो !

मेरे प्रिय साजिन्दो !!
आज की रात तुम खूब बजाना
दिल से
कि रूपान्तरित हो जाना है हम सब को
नाचते हुए
एक तरोताज़ा स्वर्ग में
इसी बासी पृथ्वी पर।

1995- 2006

तपती पृथ्वी को प्रेम करना

चाहता हूँ उड़ना

पहुँच जाना अंतरिक्ष में
एक ऐसी जगह
जहाँ से दिखती हो पृथ्वी
एक तपते चेहरे की तरह
और पूछना उस से
अब कैसा है दर्द ?

चाहता हूँ दो आत्मीय बाहें उसकी
और लपक कर गले मिलना
उसे थपथपाना कंधों के पास
और कहना—
अपना खयाल रखना !

सोचता हूँ दो गतिशील पैर उस के
लेकिन सधे हुए ऐसे
कि कुछ दूर तक छोड़ आएं
मुझे इस विदाई की घड़ी में
और बेआवाज़ एक ज़ुबान काँपती हुई
जो कहना चाहती हो
कि मेरी खबर लेते रहना !

इच्छा हुई है आज
कि प्रेम करूँ गरमा गरम
इस बीमार लड़्की के चेहरे सी पृथ्वी को
पीते हुए उस के अंतस की मीठी भाप

बचा लूँ आँख भर उस की ज़िन्दा उजास
इस से पहले कि कोई खींच ले जाए
अज्ञात नक्षत्रों के ठण्डे बियावानों में उसे
छू लूँ मिट्टी की खुश्बू दार त्वचा उसकी
और पूछ लूँ उसी से
कि इन छिटपुट चाहतों से बढ़ कर भला
क्या है कोई रिश्ता
पूरी ज़िन्दगी में —

चाहे वह पृथ्वी हो
अथवा कोई भी प्रेमिका

11.10.2007.

कविता के बारे मे कुछ कविताएं

वक़्त आया है
हम ख़ूब कविताएँ लिखें
कविताओं के बारे में
इतनी कि
कविताएं हमारी जेबों से निकल
बाज़ार मे फैल जाएँ
मूँगफली की रेड़ियों पर
चाय की थड़ियों पर
पनवाड़ी की पेटियों में
माचिस बीड़ी और सुपारी के साथ सजी नज़र आएँ

कि कविताएँ
सरपट दौड़ती गाड़ियों मे से कूद कर
चौक पर खड़ी हो जाएँ
चिलचिलाती धूप मे
तमाम राहगीरों को
अपनी-अपनी लेन पर चलने के निर्देश दें
कि कविताएँ
पुस्तकालयों की अलमारियाँ तोड़ भागतीं धूल झाड़तीं
गलियों, नुक्कड़ों, अड्डों और ढाबों में
घूमती बतियाती नज़र आएँ – कि हम ज़िन्दा हैं
ज़िन्दा रहना चाहतीं हैं
इंसानों की तरह इंसानों के बीच

कि कविताओं के बंडल
अख़बारों की तरह पहुँचे स्टालों पर
एक सनसनीखेज़ ख़बर
या नौकरी के किसी विज्ञापन की तरह
और टूट पड़ें नौज़वानों के झुंड उन पर

कि चुनावी पर्चों की जगह बँटें कविताएँ ही
चिपक जाएँ कस्बों की दीवारों पर
गाँव की किवाड़ों पर
और उड़ें कागज़ के जहाज़ बन कर
हवा और बारिश में
संवेदना की महक बिखेरें

वक़्त आया है
कि हम खूब कविताएँ लिखें
ज़िन्दगी के बारे में
इतनी कि
कविताओं के हाथ थाम कर
ज़िन्दगी की झंझटों में कूद सकें
जीना आसान बने
और कविताओं के लिए भी बची रहे
थोड़ी सी जगह
उस आसान जीवन में !

2003

तुम्हारी जेब में एक सूरज होता था

तुम्हारी जेबों मे टटोलने हैं मुझे
दुनिया के तमाम खज़ाने
सूखी हुई खुबानियाँ
भुने हुए जौ के दाने
काठ की एक चपटी कंघी और सीप की फुलियाँ

सूँघ सकता हूँ गन्ध एक सस्ते साबुन की
आज भी
मैं तुम्हारी छाती से चिपका
तुम्हारी देह को तापता एक छोटा बच्चा हूँ माँ
मुझे जल्दी से बड़ा हो जाने दे

मुझे कहना है धन्यवाद
एक दुबली लड़की की कातर आँखों को
मूँगफलियाँ छीलती गिलहरी की
नन्ही पिलपिली उँगलियों को

दो-दो हाथ करने हैं मुझे नदी की एक वनैली लहर से
आँख से आँख मिलानी है हवा के एक शैतान झोंके से

मुझे तुम्हारी सब से भीतर वाली जेब से चुराना है
एक दहकता सूरज
और भाग कर गुम हो जाना है
तुम्हारी अँधेरी दुनिया में एक फरिश्ते की तरह
जहाँ औँधे मुँह बेसुध पड़ीं हैं
तुम्हारी अनगिनत सखियाँ
मेरे बेशुमार दोस्त खड़े हैं हाथ फैलाए

कोई ख़बर नहीं जिनको
कि कौन सा पहर अभी चल रहा है
और कौन गुज़र गया है अभी-अभी

सौंपना है माँ
उन्हें उनका अपना सपना
लौटानी है उन्हें उनकी गुलाबी अमानत
सहेज कर रखा हुआ है
जिसे तुम ने बड़ी हिफाज़त से
अपनी सब से भीतर वाली जेब में !

सुमनम, 05.12.2010

भीतर उगा हुआ आदमी

वह मुझ से बड़ा नहीं होना चाहता

मेरे अनुभवों और प्रभावों के दायरे से
बाहर निकलने की तो सोच भी नहीं सकता

मुझ में ही ,मेरे साथ
एक होकर रहना चाहता है

लेकिन मुझे देखना है उसे अपने से इतर
हर हाल में
हाथ बढ़ा कर करनी है दोस्ती
और मुक्त कर देना है उसे
तमाम दूसरे मित्रों की तरह ……

कि जाओ दोस्त,
तुम भी हवाओं को चूमो
पेड़ों सा झूमो
चहक उठो पक्षियों की तरह
बादलों सा बरसो
छा जाओ बरफ की तरह पर्वतों और पठारों पर
बस यही एक जीवन है
यही एक दुनिया

भीतर उगा हुआ आदमी खामोश रहता है

मैं बौखलाता हूं

फिर पसीज कर
काँपता हूं / फिर
हो जाता हूं थिर

प्रतीक्षारत
कि वह आदमी

पेड़
पक्षी
बादल
या बरफ बन जाए !

1989

हम चूक जाते कितनी ही नदियाँ

एक नदी हमारे भीतर रहती है
जिस की कोई आवाज़ नही
हमारे अंत: करण को धो डालती है
बिना हमें बताए

एक नदी आस पास बहती है
जिस की कोई शक्ल नहीं
बेरंग
खिलखिलाती
बिना दाखिल हुए हमारी नींद में
संभव कर देती हमारे सपने

एक नदी यहाँ से शुरू होती
जिस की कोई गहराई नहीं
बेखटके उतर जाते हम
बिना उसे छुए
जब कभी

कुछ नदियाँ पहाड़ लाँघती
पठार फाँदती यहाँ तक आतीं
चुपके से डूब जातीं हम में
और हमें पता भी न चलता ……..
कितनी ही नदियाँ
कितनी – कितनी बार हमसे
कितनी – कितनी तरह से जुड़तीं रहीं
और हमारा अथाह खारापन
चूक गया हर बार
उन सब की ताज़गी

हर बार चूक गए हम
एक मुकम्मल नदी !

जून/25,2008

Leave a Reply

Your email address will not be published.