धूम थी अपनी पारसाई की
की भी और किससे आश्नाई की
क्यों बढ़ाते हो इख़्तलात बहुत
हमको ताक़त नहीं जुदाई की
मुँह कहाँ तक छुपाओगे हमसे
तुमको आदत है ख़ुदनुमाई की
न मिला कोई ग़ारते-ईमाँ
रह गई शर्म पारसाई की
मौत की तरह जिससे डरते थे
साअत आ पहुँची उस जुदाई की
ज़िंदा फिरने की हवस है ‘हाली’
इन्तहा है ये बेहयाई की
इश्क़ सुनते थे जिसे हम वो यही है शायद
ख़ुद-ब-ख़ुद[1], दिल में है इक शख़्स समाया जाता
शब को ज़ाहिद से न मुठभेड़ हुई ख़ूब हुआ
नश्अ ज़ोरों पे था शायद न छुपाया जाता
लोग क्यों शेख़ को कहते हैं कि अय्यार है वो
उसकी सूरत से तो ऐसा नहीं पाया जाता
अब तो तफ़क़ीर[2], से वाइज़[3], ! नहीं हटता ‘हाली’
कहते पहले तो दे-ले के हटाया जाता
1.आगे बढ़े न किस्सा-ए-इश्क़-ए-बुतां से हम,
सब कुछ कहा मगर न खुले राजदां से हम।
2.बे-क़रारी थी सब उम्मीद-ए-मुलाक़ात के साथ,
अब वो अगली सी दराज़ी शब-ए-हिजरां में कहां।
3.फरिश्ते से बढ़कर है इंसान बनना,
मगर इसमें लगती है मेहनत ज़ियादा।
4.इश्क़ सुनते हैं जिसे हम वो यही है शायद,
ख़ुद-ब-ख़ुद दिल में है इक शख़्स समाया जाता।
5.जानवर आदमी फरिश्ते ख़ुदा,
आदमी की हैं सैंकड़ों किस्में।
है जुस्तजू कि ख़ूब से है ख़ूबतर कहाँ
अब ठहरती है देखिये जाकर नज़र कहाँ
या रब! इस इख़्त्लात का अँजाम हो बख़ैर
था उसको हमसे रब्त मगर इस क़दर कहाँ
इक उम्र चाहिये कि गवारा हो नेशे -इश्क़
रक्खी है आज लज़्ज़ते-ज़ख़्मे-जिगर कहाँ
हम जिस पे मर रहे हैं वो है बात ही कुछ और
आलम में तुझ-से लाख सही , तू मगर कहाँ
जहाँ में ‘हाली’ किसी पे अपने सिवा भरोसा न कीजिएगा
ये भेद है अपनी ज़िन्दगी का बस इसकी चर्चा न कीजिएगा
इसी में है ख़ैर हज़रते-दिल! कि यार भूला हुआ है हमको
करे वो याद इसकी भूल कर भी कभी तमन्ना न कीजिएगा
कहे अगर कोई तुझसे वाइज़! कि कहते कुछ और करते हो कुछ
ज़माने की ख़ू[1] है नुक़्ताचीनी[2], कुछ इसकी परवा न कीजिएगा