तपा कर इल्म की भट्टी में बालातर बनाता हूँ
जो सीना चीर दें ज़ुल्मत का वो खंजर बनाता हूँ
मैं दरया हूँ मिरा रुख मोड़ दे ये किस में हिम्मत है
मैं अपनी राह चट्टानों से टकराकर बनाता हूँ
जहाँ हर सम्त मकतल कि फज़ाएँ रक्स करती हैं
उसी बस्ती में बच्चों के लिए इक घर बनाता हूँ
किसी ने झाँक कर मुझ में मेरी अजमत न पहचानी
मैं हूँ वो सीप जो इक बूँद को गोहर बनाता हूँ
अलग है बात अब तक कामयाबी से मैं हूँ महरूम
भुलाने के तुझे मन्सूबे मैं अक्सर बनाता हूँ
बालातर =उम्दा ,बढ़िया ताक़तवर,
ज़ुल्मत = अँधेरा
अजमत =महानता
उसे तो कोई अकरब[1] काटता है
कुल्हाड़ा पेड़ को कब काटता है
जुदा जो गोश्त[2] को नाख़ुन से कर दे
वो मसलक[3] हो के मशरब[4] काटता है
बहकने का नहीं इमकान[5] कोई
अकीदा[6] सारे करतब काटता है
कही जाती नहीं हैं जो ज़ुबाँ[7] से
उन्ही बातों का मतलब काटता है
वो काटेगा नहीं है खौफ़ इसका
सितम ये है के बेढब काटता है
तू होता साथ तो कुछ बात होती
अकेला हूँ तो मनसब[8] काटता है
जहाँ तरजीह[9] देते हैं वफ़ा को
ज़माने को वो मकतब[10] काटता है
उसे तुम ख़ून भी अपना पिला दो
मिले मौक़ा तो अकरब[11] काटता है
ये माना साँप है ज़हरीला बेहद
मगर वो जब दबे तब काटता है
अलिफ़,बे० ते० सिखाई जिस को आदिल
मेरी बातों को वो अब काटता है
(एक आज़ाद हिंदी कविता)
यादो के रंगों को कभी देखा है तुमने
कितने गहरे होते हैं
कभी न छूटने वाले
कपडे पर रक्त के निशान के जैसे
मुद्दतों बाद आज आया हूँ मैं
इन कालागढ़ की उजड़ी बर्बाद वादियों में
जो कभी स्वर्ग से कहीं अधिक थीं
जाति धर्म के झंझटों से दूर
सोहार्द सदभावना प्रेम की पावन रामगंगा
तीन बेटियों और एक बेटे का पिता हूँ मैं आज
परन्तु इस वादी मे आकर
ये क्या हो गया
कौन सा जादू है
वही पगडंडी जिस पर कभी
बस्ता डाले कमज़ोर कन्धों पर
जूते के फीते खुले खुले से
बाल सर के भीगे भीगे से
स्कूल की तरफ भागता ,
वापसी मे
सुकासोत की ठंडी रेट पर
जूते गले में डाले
नंगे पैरों पर वो ठंडी रेत का स्पर्श
सुरमई धुप मे
आवारा घोड़ों
और कभी कभी गधों को
हरी पत्तियों का लालच देकर पकड़ता
और उन पर सवारी करता
अपने गिरोह के साथ डाकू गब्बर सिंह
रातों को क्लब की
नंगी ज़मीन पर बैठ फिल्मे देखता
शरद ऋतू में रामलीला में
वानर सेना कभी कभी
मजबूरी में बे मन से बना
रावण सेना का एक नन्हा सिपाही
और ख़ुशी ख़ुशी रावण की हड्डीया लेकर
भागता बचपन मिल गया
आज मुद्दतों पहले
खोया हुआ
चाँद मिल गया
आदिल रशीद उर्फ़ चाँद
C-824 work charge colony, kalagarh
नोट :कालागढ़ का डैम रामगंगा नदी पर बना है। पिताजी ने बताया था कि शुरू में इसका नाम रामगंगा नगर रखा जाना था बाद में वहां के एक मशहूर फकीर कालू शहीद बाबा के नाम पर इसका नाम कालागढ़ पड़ा। कालू शहीद बाबा कि दरगाह कालागढ़ से कोटद्वार मार्ग पर पहाड़ों के बीच मोरघट्टी नाम कि जगह पर है
ग़ज़ल धोका है
(उर्दू में शब्द धोका है और हिंदी में धोखा है )
ये चन्द रोज़ का हुस्न ओ शबाब धोका है
सदाबहार हैं कांटे गुलाब धोका है
मिटी न याद तेरी बल्कि और बढती गई
शराब पी के ये जाना शराब धोका है
तुम अपने अश्क छुपाओ न यूँ दम ए रुखसत
उसूल ए इश्क में तो ये जनाब धोका है
ये बात कडवी है लेकिन यही तजुर्बा है
हो जिस का नाम वफ़ा वो किताब धोका है
तमाम उम्र का वादा मैं तुम से कैसे करूँ
ये ज़िन्दगी भी तो मिस्ल ए हुबाब धोका है
पड़े जो ग़म तो वही मयकदे में आये रशीद
जो कहते फिरते थे सब से “शराब” धोका है
आदिल रशीद तिलहरी
अपने हर कौल [1] से, वादे से पलट जाएगा
जब वो पहुंचेगा बुलंदी पे तो घट जाएगा
अपने किरदार को तू इतना भी मशकूक [2]न कर
वर्ना कंकर की तरह से दाल से छट जाएगा
जिसकी पेशानी [3]तकद्दुस [4] का पता देती है
जाने कब उस के ख्यालों से कपट जाएगा
उसके बढ़ते हुए क़दमों पे कोई तन्ज़ न कर
सरफिरा है वो,उसी वक़्त पलट जाएगा
क्या ज़रूरी है के ताने रहो तलवार सदा
मसअला घर का है बातों से निपट जाएगा
आसमानों से परे यूँ तो है वुसअत उसकी
तुम बुलाओगे तो कूजे[5]में सिमट जाएगा
यौमे मजदूर/ मजदूर दिवस /लेबर डे/ labour day
खोखले नारों से दुनिया को बचाया जाए
आज के दिन ही हलफ इसका उठाया जाए
जब के मजदूर को हक उसका दिलाया जाए
योमें मजदूर उसी रोज़ मनाया जाए
ख़ुदकुशी के लिए कोई तो सबब होता है
कोई मर जाता है एहसास ये तब होता है
भूख और प्यास का रिश्ता भी अजब होता है
जब किसी भूखे को भर पेट खिलाया जाए
यौमें मजदूर उसी रोज़ मनाया जाए
अस्ल ले लेते हैं और ब्याज भी ले लेते हैं
कल भी ले लेते थे और आज भी ले लेते हैं
दो निवालों के लिए लाज भी ले लेते हैं
जब के हैवानों को इंसान बनाया जाये
यौमें मजदूर उसी रोज़ मनाया जाए
बे गुनाहों की सजाएँ न खरीदीं जाएँ
चन्द सिक्कों में दुआएँ न खरीदी जाएँ
दूध के बदले में माएँ ना खरीदी जाएँ
मोल ममता का यहाँ जब न लगाया जाये
यौमें मजदूर उसी रोज़ मनाया जाए
अदलो आदिल[1] कोई मजदूरों की खातिर आये
उनके हक के लिए कोई तो मुनाजिर [2] आये
पल दो पल के लिए फिर से कोई साहिर[3] आये
याद जब फ़र्ज़ अदीबों को दिलाया जाये
यौमें मजदूर उसी रोज़ मनाया जाए
यौमें मजदूर उसी रोज़ मनाया जाए
दिखावा जी हुजूरी और रियाकारी [1] नहीं आती
हमारे पास भूले से ये बीमारी नहीं आती
जो बस्ती पर ये गिद्ध मडला रहे हैं बात तो कुछ है
कभी बे मसलिहत [2] इमदाद[3] सरकारी नहीं आती
पसीने कि कमाई में नमक रोटी ही आएगी
मियां अब इतने पैसों में तो तरकारी [4]नहीं आती
रात क्या आप का साया मेरी दहलीज़ पे था
सुब्ह तक नूर का चश्मा[1] मेरी दहलीज़ पे था
रात फिर एक तमाशा मेरी दहलीज़ पे था
घर के झगडे में ज़माना मेरी दहलीज़ पे था
मैं ने दस्तक के फ़राइज़ [2]को निभाया तब भी
जब मेरे खून का प्यासा मेरी दहलीज़ पे था
अब कहूँ इस को मुक़द्दर के कहूँ खुद्दारी
प्यास बुझ सकती थी दरिया मेरी दहलीज़ पे था
सांस ले भी नहीं पाया था अभी गर्द आलूद
हुक्म फिर एक सफ़र का मेरी दहलीज़ पे था
रात अल्लाह ने थोडा सा नवाज़ा [3]मुझको
सुब्ह को दुनिया का रिश्ता मेरी दहलीज़ पे था
होसला न हो न सका पाऊँ बढ़ने का कभी
कामयाबी का तो रस्ता मेरी दहलीज़ पे था
उस के चेहरे पे झलक उस के खयालात की थी
वो तो बस रस्मे ज़माना मेरी दहलीज़ पे था
तन्ज़(व्यंग) करने के लिए उसने तो दस्तक दी थी
मै समझता था के भैया मेरी दहलीज़ पे था
कौन आया था दबे पांव अयादत को मेरी
सुब्ह इक मेहदी का धब्बा मेरी दहलीज़ पे था
कैसे ले दे के अभी लौटा था निपटा के उसे
और फिर इक नया फिरका मेरी दहलीज़ पे था
सोच ने जिस की कभी लफ़्ज़ों को मानी बख्शे
आज खुद मानी ए कासा मेरी दहलीज़ पे था
खाब में बोली लगाई जो अना की आदिल
क्या बताऊँ तुम्हे क्या -क्या मेरी दहलीज़ पे था
जंग ओ जदल[4]
गिर के उठ कर जो चल नहीं सकता
वो कभी भी संभल नहीं सकता
तेरे सांचे में ढल नहीं सकता
इसलिए साथ चल नहीं सकता
आप रिश्ता रखें, रखें न रखें
मैं तो रिश्ता बदल नहीं सकता
वो भी भागेगा गन्दगी की तरफ़
मैं भी फितरत बदल नहीं सकता
आप भावुक हैं आप पाग़ल हैं
वो है पत्थर पिघल नहीं सकता
इस पे मंज़िल मिले , मिले न मिले
अब मैं रस्ता बदल नहीं सकता
तुम ने चालाक कर दिया मुझको
अब कोई वार चल नहीं सकता
स्वतंत्रता दिवस 1989 पर कही गई नज़्म मंज़िले मक़सूद । यह नज़्म 2 जुलाई 1989 को कही गई और प्रकाशित हुई । इस नज़्म को 14 अगस्त 1992 को रेडियो पाकिस्तान के एक मशहूर प्रोग्राम “स्टूडियो नम्बर 12” में मुमताज़ मेल्सी ने भी पढ़ा
समझ लिया था बस इक जंग जीत कर हमने
के हमने मंज़िल-ऐ-मक़सूद[1] पर क़दम रक्खे
जो ख़्वाब आँखों में पाले हुए थे मुद्दत से
वो ख़्वाब पूरा हुआ आई है चमन में बहार
मिरे दिमाग में लेकिन सवाल उठते हैं
क्यूँ हक बयानी[2] का सूली है आज भी ईनाम ?
क्यूँ लोग अपने घरों से निकलते डरते हैं ?
क्यूँ तोड़ देती हें दम कलियाँ खिलने से पहले ?
क्यूँ पेट ख़ाली के ख़ाली हैं खूँ बहा कर भी ?
क्यूँ मोल मिटटी के अब इंतिकाम बिकता है?
क्यूँ आज बर्फ़ के खेतों में आग उगती है ?
अभी तो ऐसे सवालों से लड़नी है जंगें
अभी है दूर बहुत ,बहुत दूर मंज़िल-ऐ-मक़सूद
चलो पैग़ाम दे अहले वतन [1]को
कि हम शादाब [2]रक्खें इस चमन को
न हम रुसवा [3]करें गंगों -जमन [4]को
करें माहौल पैदा दोस्ती का
यही मक़सद बना लें ज़िन्दगी का
कसम खायें चलो अम्नो अमाँ [5]की
बढ़ायें आबो-ताब[6] इस गुलसिताँ की
हम ही तक़दीर हैं हिन्दोस्ताँ की
हुनर हमने दिया है सरवरी [7]का
यही मक़सद बना लें ज़िन्दगी का
ज़रा सोचे कि अब गुजरात क्यूँ हो
कोई धोखा किसी के साथ क्यूँ हो
उजालों की कभी भी मात क्यूँ हो
तराशे जिस्म फिर से रौशनी का
यही मक़सद बना लें ज़िन्दगी का
न अक्षरधाम, दिल्ली, मालेगाँव
न दहशत गर्दी [8]अब फैलाए पाँव
वतन में प्यार की हो ठंडी छाँव
न हो दुश्मन यहाँ कोई किसी का
यही मक़सद बना लें ज़िन्दगी का
हवाएँ सर्द [9]हों कश्मीर की अब
न तलवारों की और शमशीर [10] की अब
ज़रूरत है ज़़बाने -मीर[11] की अब
तक़ाज़ा भी यही है शायरी का
यही मक़सद बना लें ज़िन्दगी का
मुहब्बत का जहाँ[12] आबाद रक्खें
न कड़वाहट को हरगिज़ याद रक्खें
नये रिश्तों की हम बुनियाद रक्खें
बढ़ायें हाथ हम सब दोस्ती का
यही मक़सद बना लें ज़िन्दगी का
यही मक़सद बना लें ज़िन्दगी का
जय हिंद
तुम्हारे ताज में पत्थर जड़े हैं
जो गौहर[1] हैं वो ठोकर में पड़े हैं
उड़ानें ख़त्म कर के लौट आओ
अभी तक बाग़ में झूले पड़े हैं
मिरी मंज़िल नदी के उस तरफ़ है
मुक़द्दर में मगर कच्चे घड़े हैं
ज़मीं रो-रो के सब से पूछती है
ये बादल किस लिए रूठे पड़े हैं
किसी ने यूँ ही वादा कर लिया था
झुकाए सर अभी तक हम खड़े हैं
महल ख़्वाबों का टूटा है कोई क्या
यहाँ कुछ काँच के टुकड़े पड़े हैं
उसे तो याद हैं सब अपने वादे
हमीं हैं जो उसे भूले पड़े हैं
ये साँसें, नींद ,और ज़ालिम ज़माना
बिछड़ के तुम से किस-किस से लड़े हैं
मैं पागल हूँ जो उनको टोकता हूँ
मिरे अहबाब[2] तो चिकने घड़े हैं
तुम अपना हाल किस से कह रहे हो
तुम्हारी अक्ल पर पत्थर पड़े हैं