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आलम खुर्शीद.jpg

रंग-बिरंगे ख़्वाबों के असबाब कहाँ रखते हैं हम

रंग-बिरंगे ख़्वाबों के असबाब कहाँ रखते हैं हम
अपनी आँखों में कोई महताब कहाँ रखते हैं हम

यह अपनी ज़रखेज़ी है जो खिल जाते हैं फूल नए
वरना अपनी मिटटी को शादाब कहाँ रखते हैं हम

हम जैसों कि नाकामी पर क्यों हैरत है दुनिया को
हर मौसम में जीने के आदाब कहाँ रखते हैं हम

महरूमी ने ख़्वाबों में भी हिज्र के काँटे बोए हैं
उस का पैकर मर्मर का किम्ख्वाब कहाँ रखते हैं हम

तेज़ हवा के साथ उड़े हैं जो अवराक़ सुनहरे थे
अब क़िस्से में दिलचस्पी का बाब कहाँ रखते हैं हम

सुब्ह सवेरे आँगन अपना गूँज उठे चहकारों से
तोता, मैना, बुलबुल या सुर्खाब कहाँ रखते हैं हम

जल बुझा हूँ मैं मगर सारा जहाँ ताक में है 

जल बुझा हूँ मैं मगर सारा जहाँ ताक[1] में है
कोई तासीर[2] तो मौजूद मिरी ख़ाक में है

खेंचती रहती है हर लम्हा मुझे अपनी तरफ़
जाने क्या चीज़ है जो पर्दा-ए-अफ़्लाक[3]

कोई सूरत भी नहीं मिलती किसी सूरत में
कूज़ा-गर[4] कैसा करिश्मा तिरे इस चाक में है

कैसे ठहरूँ कि किसी शहर से मिलता ही नहीं
एक नक़्शा जो मिरे दीदा-ए-नमनाक[5] में है

ये इलाका भी मगर दिल ही के ताबे[6] ठहरा
हम समझते थे अमाँ[7] गोशा-ए-इदराक[8] में है

क़त्ल होते हैं यहाँ नारा-ए-एलान के साथ
वज़अ-दारी[9] तो अभी आलम-ए-सफ़्फ़ाक[10] में है

कितनी चीज़ों के भला नाम तुझे गिनवाऊँ
सारी दुनिया ही तो शामिल मिरी इम्लाक[11] में है

रायगाँ[12] कोई भी शै होती नहीं है ‘आलम’
ग़ौर से देखिये क्या क्या ख़स-ओ-ख़ाशाक[13] में है

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें दर्शन, निरीक्षण
  2. ऊपर जायें प्रभाव, असर
  3. ऊपर जायें आसमानों का नक़ाब, अफ़्लाक= फ़लक, आसमान का बहुवचन
  4. ऊपर जायें कुम्हार, मिट्टी के बर्तन बनाने वाला
  5. ऊपर जायें आँसू भरी आँखें
  6. ऊपर जायें वशीभूत, आधीन
  7. ऊपर जायें सुरक्षा, हिफाज़त, पनाह
  8. ऊपर जायें बोध, कोना
  9. ऊपर जायें परंपरा
  10. ऊपर जायें बेरहम, अत्याचारी दुनिया
  11. ऊपर जायें स्वामित्व, वस्तुओं का मालिक बनाना
  12. ऊपर जायें व्यर्थ, बरबाद
  13. ऊपर जायें सूखी घास और कूड़ा-करकट

उठाए संग खड़े हैं सभी समर के लिए 

हथेली की लकीरों में इशारा और है कोई
मगर मेरे तअक़्क़ुब[1] में सितारा और है कोई

किसी साहिल[2] पे जाऊं एक ही आवाज़ आती है
तुझे रुकना जहाँ है वो किनारा और है कोई

न गुंबद इस इमारत का न फाटक उस हवेली का
कबूतर ढूँढता है जो मिनारा और है कोई

तमाज़त[3] है वही बाक़ी अगरचे अब्र[4] भी बरसे
हमारी राख में शायद शरारा[5] और है कोई

अभी तक तो वही शिद्दत हवाओं के जुनूँ में है
अभी तक झील में शायद शिकारा और है कोई

मैं बाहर के मनाज़िर[6] से अलग हूँ इसलिए ‘आलम’
मेरे अंदर की दुनिया में नज़ारा और है कोई

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें पीछे जाना, पीछा करना
  2. ऊपर जायें किनारा
  3. ऊपर जायें धूप की गर्मी
  4. ऊपर जायें बादल
  5. ऊपर जायें चिंगारी
  6. ऊपर जायें मंज़र का बहुवचन, दृश्य समूह

हर इक दीवार में अब दर बनाना चाहता हूँ 

हर इक दीवार में अब दर बनाना चाहता हूँ
खुदा जाने मैं कैसा घर बनाना चाहता हूँ

ज़मीं पर एक मिटटी का मकां बनता नहीं है
मगर हर दिल में अपना घर बनाना चाहता हूँ

नज़र के सामने जो है, उसे सब देखते हैं
मैं पसमंज़र का हर मंज़र बनाना चाहता हूँ

धनक रंगों से भी बनती नहीं तस्वीर उसकी
मैं कैसे शख्स का पैकर बनाना चाहता हूँ

मेरे ख्वाबों में है दुनिया की जो तस्वीर ‘आलम ‘
नहीं बनती मगर अक्सर बनाना चाहता हूँ

चारों तरफ जमीं को शादाब देखता हूँ 

चारों तरफ जमीं को शादाब देखता हूँ
क्या खूब देखता हूँ,जब ख़्वाब देखता हूँ

इस बात से मुझे भी हैरानी हो रही है
सेहरा में हर तरफ मैं सैलाब देखता हूँ

यह सच अगर कहूँगा सब लोग हंस पड़ेंगे
मैं दिन में भी फलक पर महताब देखता हूँ

बरसों पुराना रिश्ता दरिया से आज भी है
लहरों को अपनी खातिर बेताब देखता हूँ

मौजों से खेलती थीं जो कश्तियाँ भंवर में
अब उन को साहिलों पर गरकाब देखता हूँ

सरे मकीन बाहर सड़कों पे भागते हैं
घर घर में बे-घरी के असबाब देखता हूँ

मुझ को यकीं नहीं है इंसान मर चुका है
इंसानियत को लेकिन कमयाब देखता हूँ

दिल की कुशादगी में शायद कमी हुई है
अपने करीब कम कम अहबाब देखता हूँ

दरिया की सैर करते गुजरी है उम्र आलम
खुश्की पे भी चलूं तो गिर्दाब देखता हूँ

दरवाज़े पर दस्तक देते डर लगता है 

दरवाज़े पर दस्तक देते डर लगता है
सहमा-सहमा-सा अब मेरा घर लगता है

साज़िश होती रहती है दीवार ओ दर में
घर से अच्छा अब मुझको बाहर लगता है

झुक कर चलने की आदत पड़ जाए शायद
सर जो उठाऊँ दरवाज़े में सर लगता है

क्यों हर बार निशाना मैं ही बन जाता हूँ
क्यों हर पत्थर मेरे ही सर पर लगता है

ज़िक्र करूँ क्या उस की ज़ुल्म ओ तशद्दुद का मैं
फूल भी जिसके हाथों में पत्थर लगता है

लौट के आया हूँ मैं तपते सहराओं से
शबनम का क़तरा मुझको सागर लगता है

ठीक नहीं है इतना अच्छा बन जाना भी
जिस को देखूँ वो मुझ से बेहतर लगता है

इक मुद्दत पर आलम बाग़ में आया हूँ मैं
बदला-बदला-सा हर इक मंज़र लगता है

अपने घर में ख़ुद ही आग लगा लेते हैं

अपने घर में ख़ुद ही आग लगा लेते हैं
पागल हैं हम अपनी नींद उड़ा लेते हैं

जीवन अमृत कब हमको अच्छा लगता है
ज़हर हमें अच्छा लगता है, खा लेते हैं

क़त्ल किया करते हैं कितनी चालाकी से
हम ख़ंजर पर नाम अपना लिखवा लेते हैं

रास नहीं आता है हमको उजला दामन
रुसवाई के गुल-बूटे बनवा लेते हैं

पंछी हैं लेकिन उड़ने से डर लगता है
अक्सर अपने बाल ओ पर कटवा लेते हैं

सत्ता की लालच ने धरती बाँटी लेकिन
अपने सीने पर तमगा लटका लेते हैं

याद नहीं है मुझको भी अब दीन का रस्ता
नाम मुहम्मद का लेकिन अपना लेते हैं

औरों को मुजरिम ठहरा कर अब हम आलम
अपने गुनाहों से छुटकारा पा लेते हैं

जब खुली आँखें तो इन आँखों को रोना आ गया 

उठाए संग[1] खड़े हैं सभी समर के लिए
दुआएँ खैर भी माँगे कोई शजर[2] के लिए

हमेशा घर का अंधेरा डराने लगता है
मैं जब चिराग़ जलाता हूँ रहगुज़र के लिए

ख़याल आता है मंज़िल के पास आते ही
कि कूच करना है इक दूसरे सफ़र के लिए

कतार बाँधे हुए, टकटकी लगाए हुए
खड़े हैं आज भी कुछ लोग इक नज़र के लिए

वहाँ भी अहले-हुनर[3] सर झुकाए बैठे हैं
जहाँ पे कद्र नहीं इक ज़रा हुनर के लिए

तमाम रात कहाँ यों भी नींद आती है
मुझे तो सोना है इक ख़्वाबे-मुख़्तसर[4] के लिए

हम अपने आगे पशेमाँ[5] तो नहीं ‘आलम’
हमें कुबूल है रुसवाई[6] उम्र भर के लिए

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें पत्थर
  2. ऊपर जायें युद्ध
  3. ऊपर जायें हुनर वाले
  4. ऊपर जायें संक्षिप्त सा स्वप्न
  5. ऊपर जायें लज्जित
  6. ऊपर जायें बदनामी

हर किसी को यहाँ मेहमाँ नहीं करते प्यारे

हर किसी को यहाँ मेहमाँ नहीं करते प्यारे
दिल की बस्ती को बियाबां नहीं करते प्यारे

भूल जाओ कि यहाँ कोई कभी रहता था
दीद-ओ-दिल[1] को परेशाँ नहीं करते प्यारे

तुम से देखी नहीं जाती हैं छलकती आँखें
तुम किसी पर कोई एहसाँ नहीं करते प्यारे

कुछ तकल्लुफ़ भी ज़रूरी है ज़माने के लिए
खुद को सब के लिए आसाँ नहीं करते प्यारे

काम आते हैं अँधेरे में दिये भी अक्सर
हर जगह दिल को फ़रोज़ाँ[2] नहीं करते प्यारे

लोग हाथों में नमकदान लिए फिरते हैं
अपने ज़ख्मों को नुमायाँ नहीं करते प्यारे

ज़िन्दगी ख़्वाबे-मुसलसल का सफ़र है ‘आलम’
खुद को ख्वाबों से गुरेज़ाँ[3] नहीं करते प्यारे

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें आँखें और दिल
  2. ऊपर जायें रौशन
  3. ऊपर जायें भागना, बचकर निकलना

हम को गुमाँ था परियों जैसी शहजादी होगी 

हम को गुमाँ था परियों जैसी शहजादी होगी
किस को ख़बर थी वह भी महलों की बांदी होगी

काश! मुअब्बिर बतला देता पहले ही ताबीर
खुशहाली के ख़्वाब में इतनी बर्बादी होगी

सच लिक्खा था एक मुबस्सिर ने बरसों पहले
सच्चाई बातिल के दर पर फर्यादी होगी

इस ने तो सरतान की सूरत जाल बिछाए हैं
खाम ख्याली थी ये नफ़रत मीयादी होगी

इक झोंके से हिल जाती है क्यों घर की बुनियाद
इस की जड़ में चूक यक़ीनन बुनियादी होगी

इतने सारे लोग कहाँ ग़ायब हो जाते हैं
धरती के नीचे भी शायद आबादी होगी

बीच भँवर में पहले उतारा जाता है 

बीच भँवर में पहले उतारा जाता है
फिर साहिल से हमें पुकारा जाता है

ख़ुश हैं यार हमारी सादालौही पर
हम ख़ुश हैं क्या इसमें हमारा जाता है

पहले भी वो चाँद हमारा साथी था
देखें! कितनी दूर सितारा जाता है

कब तक अपनी पलकें बंद रखोगे तुम
क्या आँखों से कोई नज़ारा जाता है

दुनिया की आदत है इसमें हैरत क्या
काँच के घर पर पत्थर मारा जाता है

कब आएगा तेरा सुनहरा कल आलम
इस चक्कर में आज हमारा जाता है

क्या अँधेरों से वही हाथ मिलाए हुए हैं

क्या अँधेरों से वही हाथ मिलाए हुए हैं
जो हथेली पे चिराग़ों को सजाए हुए हैं

रात के खौफ़ से किस दर्जा परीशाँ हैं हम
शाम से पहले चिराग़ों को सजाए हुए हैं

कोई सैलाब न आ जाए इसी खौफ़ से हम
अपनी पलकों से समुन्दर को दबाए हुए हैं

कैसे दीवार-ओ- दर-ओ बाम की इज्ज़त होगी
अपने ही घर में अगर लोग पराए हुए हैं

यूँ मेरी गोशानशीनी से शिकायत है उन्हें
जैसे वो मेरे लिए पलकें बिछाए हुए हैं

एक होने नहीं देती है सियासत लेकिन
हम भी दीवार प दीवार उठाए हुए हैं

बस यही जुर्म हमारा है कि हम भी आलम
अपनी आँखों में हसीं ख़्वाब सजाए हुए हैं

कभी कभी कितना नुकसान उठाना पड़ता है 

कभी कभी कितना नुकसान उठाना पड़ता है
ऐरों गैरों का एहसान उठाना पड़ता है

टेढ़े मेढ़े रस्तों पर भी ख्वाबों का यह बोझ
तेरी ख़ातिर मेरी जान उठाना पड़ता है

कैसी हवाएं चलने लगी हैं मेरे बागों में
फूलों को भी अब सामान उठाना पड़ता है

कौन सुनेगा रोना-गाना शोर शराबे में
मजबूरी में भी तूफ़ान उठाना पड़ता है

यूँ मायूस नहीं होते हैं कोई न कोई ग़म
अच्छे अच्छों को हर आन उठाना पड़ता है

गुलदस्ते की ख़्वाहिश रखने वालों को अक्सर
कोई ख़ार[1] भरा गुलदान उठाना पड़ता है

यहाँ कोई तफ्रीक़[2] नहीं है राजा हो या रंक
दिल का बोझ दिले-नादान उठाना पड़ता है

मक्कारों की इस दुनिया में कभी कभी ‘आलम’
अच्छे लोगों को बोहतान[3] उठाना पड़ता है

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें काँटा
  2. ऊपर जायें बँटवारा
  3. ऊपर जायें झूठा इलज़ाम

उम्र सफर में गुजरी लेकिन शौके-सियाह्त बाकी है 

उम्र सफर में गुजरी लेकिन शौके-सियाह्त बाकी है
कोई मुसाफत खत्म हुई है ,कोई मुसाफत बाकी है

ऐसे बहुत से रस्ते हैं जो रोज पुकारा करते हैं
कई मनाज़िल सर करने की अब तक चाहत बाकी है

एक सितारा हाथ पकड़ कर, दूर कहीं ले जाता है
रोज़ गगन में खो जाने की अबतक आदत बाकी है

चश्मे -बसीरत कुछ तो बता दे कब वो लम्हे आयेंगे
जिन की खातिर इन आँखों में इतनी बसारत बाकी है

खत्म कहानी हो जाती तो नींद मुझे भी आ जाती
कोई फ़साना भूल गया हूँ , कोई हिकायत बाकी है

दुनिया के गम फुर्सत दें तो दिल के तकाजे पूरे हों
कूचा-ए-जानां ! तेरी भी तो सैर ओ सियाहत बाकी है

शहरे-तमन्ना ! बाज़ आया मैं तेरे नाज़ उठाने से
एक शिकायत दूर करूँ तो एक शिकायत बाक़ी है

एक जरा सी उम्र में ‘आलम ‘ कहाँ कहाँ की सैर करूँ
जाने मेरे हिस्से में अब कितनी मुहलत बाकी है

क्यों आँखें बंद कर के रस्ते में चल रहा हूँ

क्यों आँखें बंद कर के रस्ते में चल रहा हूँ
क्या मैं भी रफ्ता रफ्ता पत्थर में ढल रहा हूँ

चारों तरफ हैं शोले हमसाये जल रहे हैं
मैं घर में बैठा बैठा बस हाथ मल रहा हूँ

मेरे धुएं से मेरी हर साँस घुट रही है
मैं राह का दिया हूँ और घर में जल रहा हूँ

आँखों पे छा गया है जादू ही कोई शायद
पलकें झपक रहा हूँ , मंज़र बदल रहा हूँ

तब्दीलियों का नश्शा मुझ पर चढ़ा हुआ है
कपड़े बदल रहा हूँ , चेहरा बदल रहा हूँ

इस फैसले से खुश हैं , अफ़राद घर के सारे
अपनी खुशी से कब मैं घर से निकल रहा हूँ

इन पत्थरों पे चलना आ जायेगा मुझे भी
ठोकर तो खा रहा हूँ , लेकिन संभल रहा हूँ

काँटों पे जब चलूँगा , रफ़्तार तेज़ होगी
फूलों भरी रविश है,बच बच के चल रहा हूँ

चश्मे की तरह ‘आलम’ अशआर फूटते हैं
कोहे-गिरां की सूरत , मैं भी उबल रहा हूँ

जब मिटटी खून से गीली हो जाती है

जब मिटटी खून से गीली हो जाती है
कोई न कोई तह पथरीली हो जाती है

वक़्त बदन के ज़ख्म तो भर देता है लेकिन
दिल के अन्दर कुछ तब्दीली हो जाती है

पी लेता हूँ अमृत जब मैं ज़ह्र के बदले
काया रंगत और भी नीली हो जाती है

मुद्दत में उल्फ़त के फूल खिला करते हैं
पल में नफरत छैल-छबीली हो जाती है

पूछ रहे हैं मुझ से पेड़ों के सौदागर
आब ओ हवा कैसे ज़हरीली हो जाती है

मूरख! उसके मायाजाल से बच के रहना
जब तब उसकी रस्सी ढीली हो जाती है

गूंध रहा हूँ शब्दों को नरमी से लेकिन
जाने कैसे बात नुकीली हो जाती है

दर्द की लहरों को सुर में तो ढालो आलम
बंसी की हर तान सुरीली हो जाती है

दरियाओं पर अब्र बरसते रहते हैं

दरियाओं पर अब्र बरसते रहते हैं
और हमारे खेत तरसते रहते हैं

अपना ही वीरानी से कुछ रिश्ता है
वरना दिल भी उजड़ते बसते रहते हैं

उनको भी पहचान बनानी है अपनी
औरों पर आवाज़ें कसते रहते हैं

बच्चे कैसे उछलें, कूदें, जस्त भरें
उन की पीठ पे भारी बसते रहते हैं

उनके दिल में झाँकें इक दिन हम आलम
जिन के हाथों में गुलदस्ते रहते हैं

देख रहा है दरिया भी हैरानी से

देख रहा है दरिया भी हैरानी से
मैं ने कैसे पार किया आसानी से

नदी किनारे पहरों बैठा रहता हूँ
कुछ रिश्ता है मेरा बहते पानी से

हर कमरे से धूप, हवा की यारी थी
घर का नक्शा बिगड़ा है मनमानी से

अब जंगल में चैन से सोया करता हूँ
डर लगता था बचपन में वीरानी से

दिल पागल है रोज़ पशीमाँ होता है
फिर भी बाज़ नहीं आता मनमानी से

अपना फ़र्ज़ निभाना एक इबादत है
आलम हम ने सीखा इक जापानी से

मिल के रहने की ज़रुरत ही भुला दी गई क्या 

मिल के रहने की ज़रूरत ही भुला दी गई क्या
याँ मुहब्बत की रिवायत थी मिटा दी गई क्या

बेनिशाँ कब के हुए सारे पुराने नक़शे
और बेहतर कोई तस्वीर बना दी गई क्या

अब के दरिया में नज़र आती है सुर्ख़ी कैसी
बहते पानी में कोई चीज़ मिला दी गई क्या

एक बन्दे की हुकूमत है ख़ुदाई सारी
सारी दुनिया में मुनादी ये करा दी गई क्या

मुँह उठाए चले आते हैं अन्धेरों के सफ़ीर
वो जो इक रस्म-ए-चिरागाँ थी उठा दी गई क्या

मैं अन्धेरों में भटकता हूँ तो हैरत कैसी
मेरे रस्ते में कोई शम्मा जला दी गई क्या

रेंग रहे हैं साये अब वीराने में 

रेंग रहे हैं साये अब वीराने में
धूप उतर आई कैसे तहख़ाने में

जाने कब तक गहराई में डूबूँगा
तैर रहा है अक्स कोई पैमाने में

उस मोती को दरिया में फेंक आया हूँ
मैं ने सब कुछ खोया जिसको पाने में

हम प्यासे हैं ख़ुद अपनी कोताही से
देर लगाई हम ने हाथ बढ़ाने में

क्या अपना हक़ है हमको मालूम नहीं
उम्र गुज़ारी हम ने फ़र्ज़ निभाने में

वो मुझ को आवारा कहकर हँसते हैं
मैं भटका हूँ जिनको राह पे लाने में

कब समझेगा मेरे दिल का चारागर
वक़्त लगेगा ज़ख्मों को भर जाने में

हँस कर कोई ज़ह्र नहीं पीता आलम
किस को अच्छा लगता है मर जाने में

हमारे सर प ही वक़्त की तलवार गिरती है

हमारे सर प ही वक़्त की तलवार गिरती है
कभी छत बैठ जाती है, कभी दीवार गिरती है

पसन्द आई नहीं बिजली को भी तक़सीम आँगन की
कभी इस पार गिरती है , कभी उस पार गिरती है

क़लम होने का ख़तरा है अगर मैं सर उठता हूँ
जो गर्दन को झुकाऊँ तो मेरी दस्तार गिरती है

मैं अपने दस्त ओ बाज़ू पर भरोसा क्यों नहीं करता
हमेशा नाख़ुदा के हाथ से पतवार गिरती है

शराफ़त को ठिकाना ही कहीं मिलता नहीं है क्या
मेरी दहलीज़ पर आकर वो क्यों हर बार गिरती है

वो अमृत के जो झरने थे हुए हैं खुश्क क्यों आलम
अब उस पर्वत की छोटी से लहू की धार गिरती है

हर घर में कोई तहख़ाना होता है 

हर घर में कोई तहख़ाना होता है
तहख़ाने में इक अफ़साना होता है

किसी पूरानी अलमारी के ख़ानों में
यादों का अनमोल ख़ज़ाना होता है

रात गए अक्सर दिल के वीराने में
इक साए का आना-जाना होता है

दिल रोता है, चेहरा हँसता रहता है
कैसा-कैसा फ़र्ज़ निभाना होता है

बढती जाती है बेचैनी नाख़ून की
जैस- जैसे ज़ख्म पुराना होता है

ज़िंदा रहने की ख़ातिर इन आँखों में
कोई न कोई ख़्वाब सजाना होता है

तन्हाई का ज़हर तो वो भी पीते हैं
हर पल जिनके साथ ज़माना होता है

क्यों लोगों को याद नहीं रहता आलम
इस दुनिया से वापस जाना होता है

मैं जिधर जाऊं मेरा ख़्वाब नज़र आता है 

मैं जिधर जाऊं मेरा ख़्वाब नज़र आता है
अब तआकुब[1] में वो महताब[2]नज़र आता है

गूंजती रहती हैं साहिल[3] की सदाएं हर दम
और समुन्दर मुझे बेताब नज़र आता है

इतना मुश्किल भी नहीं यार! ये मौजों का सफ़र
हर तरफ़ क्यूँ तुझे गिर्दाब[4] नज़र आता है

क्यूँ हिरासाँ[5], है ज़रा देख! तो गहराई में
कुछ चमकता सा तहे-आब[6] नज़र आता है

मैं तो तपता हुआ सहरा[7] हूँ मुझे ख्वाबों में
बे-सबब खित्ता-ए-शादाब[8] नज़र आता है

राह चलते हुए बेचारी तही-दस्ती[9] को
संग[10] भी गौहरे-नायाब [11] नज़र आता है

ये नए दौर का बाज़ार है आलम साहिब!
इस जगह टाट भी किमख्वाब[12] नज़र आता है

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें पीछा करना
  2. ऊपर जायें चन्द्रमा
  3. ऊपर जायें किनारा
  4. ऊपर जायें भँवर
  5. ऊपर जायें निराश
  6. ऊपर जायें पानी के भीतर
  7. ऊपर जायें रेगिस्तान
  8. ऊपर जायें हरा भरा इलाका
  9. ऊपर जायें ख़ाली हाथ, महरूमी
  10. ऊपर जायें पत्थर
  11. ऊपर जायें नायाब मोती
  12. ऊपर जायें एक प्रकार का बेहद क़ीमती कपड़ा

जमा हुआ है फ़लक पे कितना ग़ुबार मेरा 

जमा हुआ है फ़लक[1] पे कितना ग़ुबार मेरा
जो मुझ पे होता नहीं है राज़[2] आश्कार[3] मेरा

तमाम दुनिया सिमट न जाए मिरी हदों में
कि हद से बढ़ने लगा है अब इंतिशार[4] मेरा

धुआँ सा उठता है किस जगह से मैं जानता हूँ
जलाता रहता है मुझको हर पल शरार[5] मेरा

बदल रहे हैं सभी सितारे मदार[6] अपना
मिरे जुनूँ पे टिका है दार-ओ-मदार[7] मेरा

किसी के रस्ते पे कैसे नज़रें जमाए रक्खूँ
अभी तो करना मुझे है ख़ुद इंतिज़ार मेरा

तिरी इताअत[8] क़ुबूल कर लूँ भला मैं कैसे
कि मुझपे चलता नहीं है ख़ुद इख़्तियार[9] मेरा

बस इक पल में किसी समुन्दर में जा गिरूंगा
अभी सितारों में हो रहा है शुमार[10] मेरा

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें आसमान
  2. ऊपर जायें धूल, मन में दबाया हुआ क्रोध
  3. ऊपर जायें स्पष्ट, प्रकट, खुला हुआ
  4. ऊपर जायें फैलना, बिखरना
  5. ऊपर जायें चिंगारी
  6. ऊपर जायें रास्ता, मार्ग
  7. ऊपर जायें निर्भरता
  8. ऊपर जायें हुक्म मानना, आज्ञापालन
  9. ऊपर जायें अधिकार, प्रभुत्व
  10. ऊपर जायें गिनती, हिसाब

किस लम्हे हम तेरा ध्यान नहीं करते 

किस लम्हे हम तेरा ध्यान नहीं करते
हाँ कोई अहद-ओ-पैमान[1] नहीं करते

हर दम तेरी माला जपते हैं लेकिन
गलियों कूचों में ऐलान नहीं करते

अपनी कहानी दिल में छुपा कर रखते हैं
दुनिया वालों को हैरान नहीं करते

इक कमरे को बंद रखा है बरसों से
वहाँ किसी को हम मेहमान नहीं करते

इक जैसा दुःख मिलकर बाँटा करते हैं
इक दूजे पर हम एहसान नहीं करते

कुछ रस्ते मुश्किल ही अच्छे लगते हैं
कुछ रस्तों को हम आसान नहीं करते

रस्ते में जो मिलता है मिल लेते हैं
अच्छे बुरे की अब पहचान नहीं करते

जी करता है भालू बन्दर नाम रखें
कौन सी वहशत हम इंसान नहीं करते

‘आलम’ उसके फूल तो कब के सूख गए
क्यूँ ताज़ा अपना गुलदान नहीं करते

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें प्रतिज्ञा और वादा

जाना तो बहुत दूर है महताब के आगे 

जाना तो बहुत दूर है महताब[1] के आगे
बढ़ते ही नहीं पाँव तिरे ख़्वाब से आगे

कुछ और हसीं मोड़ थे रूदाद-ए-सफ़र[2] में
लिक्खा न मगर कुछ भी तिरे बाब [3] से आगे

तहज़ीब की ज़ंजीर में उलझा रहा मैं भी
तू भी न बढ़ा जिस्म के आदाब[4] से आगे

मोती के ख़ज़ाने भी तह-ए-आब[5]छुपे थे
निकला न कोई ख़तरा-ए-गिर्दाब[6] से आगे

देखो तो कभी दश्त[7] भी आबाद है कैसा
निकलो तो ज़रा ख़ित्ता-ए-शादाब[8] से आगे

बिछड़ा तो नहीं कोई तुम्हारा भी सफ़र में
क्यूँ भागे चले जाते हो बेताब से आगे

दुनिया का चलन देख के लगता तो यही है
अब कुछ भी नहीं आलम-ए-असबाब[9] से आगे

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें चन्दमा, चाँद
  2. ऊपर जायें यात्रा का विवरण/ वृतांत
  3. ऊपर जायें किताब का अध्याय
  4. ऊपर जायें सभ्यता
  5. ऊपर जायें पानी के अंदर
  6. ऊपर जायें पानी के भंवर का ख़तरा
  7. ऊपर जायें जंगल
  8. ऊपर जायें हरा भरा इलाका
  9. ऊपर जायें जहाँ हर कार्य के लिए कुछ कारण अवश्य हो

सियाहियों को निगलता हुआ नज़र आया 

सियाहियों को निगलता हुआ नज़र आया
कोई चराग़ तो जलता हुआ नज़र आया

दुखों ने राब्ते[1] मज़बूत कर दिए अपने
तमाम शहर बदलता हुआ नज़र आया

शदीद[2] प्यास ज़मीं पर गिराने वाली थी
कि एक चश्मा[3] उबलता हुआ नज़र आया

वो मेरे साथ भला कितनी दूर जाएगा
जो हर कदम पे सँभलता हुआ नज़र आया

नई हवा से बचूँ कैसे मैं कि शहर मेरा
नए मिज़ाज में ढलता हुआ नज़र आया

तवकआत[4] ही उठने लगीं ज़माने से
जो एक शख़्स बदलता हुआ नज़र आया

शिकस्त दे के मुझे खुश तो था बहुत ‘आलम’
मगर वो हाथ भी मलता हुआ नज़र आया

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें मेल-जोल, सम्बन्ध
  2. ऊपर जायें कठिन, मुश्किल, कठोर, घोर
  3. ऊपर जायें पानी का सोता
  4. ऊपर जायें उम्मीदें, आशायें

हथेली की लकीरों में इशारा और है कोई 

हथेली की लकीरों में इशारा और है कोई
मगर मेरे तआकुब में सितारा और है कोई

किसी साहिल पे जाऊं एक ही आवाज़ आती है
तुझे रुकना जहाँ है वो किनारा और है कोई

न गुंबद इस ईमारत का, न फाटक उस हवेली का
कबूतर ढूँढता है जो मिनारा और है कोई

तमाज़त है वही बाक़ी अगरचे अब्र भी बरसे
हमारी राख में शायद शरारा और है कोई

अभी तक तो वही शिद्दत हवाओं के जुनूँ में है
अभी तक झील में शायद शिकारा और है कोई

मैं बाहर के मनाज़िर से अलग हूँ इसलिए’आलम’
मेरे अंदर की दुनिया में नज़ारा और है कोई

रंग बिरंगे सपने रोज़ दिखा जाता है क्यों

रंग बिरंगे सपने रोज़ दिखा जाता है क्यों
बैरी चाँद हमारी छत पर आ जाता है क्यों

क्या रिश्ता है आखिर मेरा एक सितारे से
रोज़ वो कोई राज़ मुझे बतला जाता है क्यों

पलकें बंद करूं तो सब कुछ अच्छा लगता है
आँखें खोलूँ तो कोहरा सा छा जाता है क्यों

हर पैकर का अपना अपना साया होता है
लेकिन साये को साया ही खा जाता है क्यों

मेरे हिस्से की किरणें जब कोई चुराता है
नील गगन पर सूरज वो शरमा जाता है क्यों

शायद उसके दिल में कोई चोर समाया है
देख के मुझको यार मेरा घबरा जाता है क्यों

एक अजब सी दुनिया देखा करता था 

एक अजब सी दुनिया देखा करता था
दिन में भी मैं सपना देखा करता था

एक ख्यालाबाद था मेरे दिल में भी
खुद को मैं शहजादा देखा करता था

सब्ज़ परी का उड़नखटोला हर लम्हे
अपनी जानिब आता देखा करता था

उड़ जाता था रूप बदलकर चिड़ियों के
जंगल, सेहरा, दरिया देखा करता था

हीरे जैसा लगता था इक-इक कंकर
हर मिट्टी में सोना देखा करता था

कोई नहीं था प्यासा रेगिस्तानो में
हर सेहरा में दरिया देखा करता था

हर जानिब हरियाली थी, ख़ुशहाली थी
हर चेहरे को हँसता देखा करता था

बचपन के दिन कितने अच्छे होते हैं
सब कुछ ही मैं अच्छा देखा करता था

आँख खुली तो सारे मंज़र ग़ायब हैं
बंद आँखों से क्या-क्या देखा करता था

क़ुर्बतो के बीच जैसे फ़ासला रहने लगे

क़ुर्बतो के बीच जैसे फ़ासला रहने लगे
यूँ किसी के साथ रहकर हम जुदा रहने लगे

किस भरोसे पर किसी से आश्नाई कीजिये
आशना चेहरे भी तो नाआशना रहने लगे

हर सदा ख़ाली मकानों से पलट आने लगी
क्या पता अब किस जगह अहलेवफ़ा रहने लगे

रंग ओ रौगन बाम ओ दर के उड़ ही जाते हैं जनाब
जब किसी के घर में कोई दूसरा रहने लगे

हिज्र कि लज़्ज़त जरा उस के मकीं से पूछिये
हर घड़ी जिस घर का दरवाज़ा खुला रहने लगे

इश्क़ में तहजीब के हैं और ही कुछ सिलसिले
तुझ से हो कर हम खफ़ा, खुद से खफ़ा रहने लगे

फिर पुरानी याद कोई दिल में यूँ रहने लगी
इक खंडहर में जिस तरह जलता दिया रहने लगे

आसमाँ से चाँद उतरेगा भला क्यों ख़ाक पर
तुम भी आलम वाहमों में मुब्तला रहने लगे

ख़बर सच्ची नहीं लगती नए मौसम के आने की

ख़बर सच्ची नहीं लगती नए मौसम के आने की
मेरी बस्ती में चलती है हवा पिछले ज़माने की

मेरी हर शाख को मौसम दिलासे रोज़ देता है
मगर अब तक नहीं आई वो साअत गुल खिलाने की

सुना है और की ख़ातिर वो अब पलकें बिछाती हैं
जो राहें मुन्तज़िर रहती थीं मेरे आने जाने की

हमारे ज़ख्म ही ये कम अब अंजाम देते हैं
ज़रुरत ही नहीं पड़ती लबों को मुस्कुराने की

ज़माना चाहता है क्यों मेरी फ़ितरत बदल देना
इसे क्यों ज़िद है आख़िर फूल को पत्थर बनाने की

बुरी अब हो गई दुनिया शिकायत सब को है लेकिन
कोई कोशिश नहीं करता इसे बेहतर बनाने की

हमारे कैन्वस पर यूँ स्याही फिर गई आलम
कि अब जुर्रत नहीं होती नया मंज़र बनाने की

जिस कि दूरी वज्हे-ग़म हो जाती है 

जिस कि दूरी वज्हे-ग़म हो जाती है
पास आकर वो ग़ैर अहम हो जाती है

मैं शबनम का क़िस्सा लिखता रहता हूँ
और काग़ज़ पर धूप रक़म हो जाती है

आन बसा है सेहरा मेरी आँखों में
दिल की मिट्टी कैसे नम हो जाती है

जिसने इस को ठुकराने की जुर्रत की
दुनिया उसके आगे ख़म हो जाती है

ऊँचे सुर में हम भी गाया करते थे
रफ़्ता रफ़्ता लय मद्धम हो जाती है

मैं जितनी रफ़्तार बढ़ाता हूँ आलम
मंज़िल उतनी तेज़ क़दम हो जाती है

थपक-थपक के जिन्हें हम सुलाते रहते हैं

थपक-थपक के जिन्हें हम सुलाते रहते हैं
वो ख्वाब हम को हमेशा जगाते रहते हैं

उम्मीदें जागती रहती हैं, सोती रहती हैं
दरीचे शम्मा जलाते-बुझाते रहते हैं

न जाने किस का हमें इन्तिज़ार रहता है
कि बाम ओ दर को हमेशा सजाते रहते हैं

किसी को खोजते हैं हम किसी के पैकर में
किसी का चेहरा किसी से मिलाते रहते हैं

वो नक़्शे ख्वाब मुकम्मल कभी नहीं होता
तमाम उम्र जिसे हम बनाते रहते हैं

उसी का अक्स हर इक रंग में झळकता है
वो एक दर्द जिसे हम छुपाते रहते हैं

हमें खबर है दोबारा कभी न आएंगे
गए दिनों को मगर हम बुलाते रहते हैं

ये खेल सिर्फ तुम्हीं खेलते नहीं आलम
सभी हवा में लकीरे बनाते रहते हैं

बह रहा था एक दरिया ख़्वाब में

बह रहा था एक दरिया ख़्वाब में
रह गया मैं फिर भी प्यासा ख़्वाब में

जी रहा हूँ और दुनिया में मगर
देखता हूँ और दुनिया ख़्वाब में

रोज़ आता है मेरा ग़म बाँटने
आसमाँ से इक सितारा ख़्वाब में

इस जमीं पर तो नज़र आता नहीं
बस गया है जो सरापा ख़्वाब में

मुद्दतों से दिल है उसका मुन्तजीर
कोई वादा कर गया था ख़्वाब में

एक बस्ती है जहाँ खुश हैं सभी
देख लेता हूँ मैं क्या-क्या ख़्वाब में

असल दुनिया में तमाशे कम हैं क्या
क्यों नजर आये तमाशा ख़्वाब में

खोल कर आँखें पशेमा हूँ बहुत
खो गया जो कुछ मिला था ख़्वाब में

ये सोचा नहीं है किधर जाएँगे

ये सोचा नहीं है किधर जाएँगे
मगर हम यहाँ से गुज़र जाएँगे

इसी खौफ से नींद आती नहीं
कि हम ख्वाब देखेंगे डर जाएँग

डराता बहुत है समन्दर हमें
समन्दर में इक दिन उतर जाएँगे

जो रोकेगी रस्ता कभी मंज़िलें
घड़ी दो घड़ी को ठहर जाएँगे

कहाँ देर तक रात ठहरी कोई
किसी तरह ये दिन गुज़र जाएँगे

इसी खुशगुमानी ने तनहा किया
जिधर जाऊँगा, हमसफ़र जाएँगे

बदलता है सब कुछ तो ‘आलम’ कभी
ज़मीं पर सितारे बिखर जाएँगे

ज़रा सी धूप ज़रा सी नमी के आने से

ज़रा सी धूप ज़रा सी नमी के आने से
मैं जी उठा हूँ ज़रा ताज़गी के आने से

उदास हो गये यकलख़्त[1] शादमां[2] चेहरे
मेरे लबों पे ज़रा सी हँसी के आने से

दुखों के यार बिछड़ने लगे हैं अब मुझ से
ये सानेहा[3] भी हुआ है खुशी के आने से

करख़्त[4] होने लगे हैं बुझे हुए लहजे
मिरे मिजाज़ में शाइस्तगी[5] के आने से

बहुत सुकून से रहते थे हम अँधेरे में
फ़साद पैदा हुआ रौशनी के आने से

यक़ीन होता नहीं शहर-ए-दिल अचानक यूँ
बदल गया है किसी अजनबी के आने से

मैं रोते रोते अचानक ही हंस पड़ा ‘आलम’
तमाशबीनों में संजीदगी के आने से

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें अचानक, एकदम
  2. ऊपर जायें प्रसन्न, ख़ुश
  3. ऊपर जायें आपत्ति, मुसीबत, दुर्घटना
  4. ऊपर जायें कड़ा, कठोर
  5. ऊपर जायें शिष्टता, सभ्यता

तोड़ के इसको वर्षो रोना होता है 

तोड़ के इसको वर्षो रोना होता है
दिल शीशे का एक खिलौना होता है

महफ़िल में सब हँसते-गाते रहते है
तन्हाई में रोना-धोना होता है

कोई जहाँ से रोज़ पुकारा करता है
हर दिल में इक ऐसा कोना होता है

बेमतलब कि चालाकी हम करते हैं
हो जाता है जो भी होना होता है

दुनिया हासिल करने वालों से पूछो
इस चक्कर में क्या-क्या खोना होता है

सुनता हूँ उनको भी नींद नहीं आती
जिनके घर में चांदी-सोना होता है

खुद ही अपनी शाखें काट रहे हैं हम
क्या बस्ती में जादू-टोना होता है

काँटे-वाँटे चुभते रहते हैं आलम
लेकिन हम को फूल पिरोना होता है

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