नींव
नींव की कोई ज़मीन नहीं होती
जहाँ से काम शुरू किया जाता है
उसे नींव का नाम दिया जाता है
नींव की वह पहली ईंट
सफलता का शिखर बनाती है
मजबूती का अहसास करवाती है
सशक्त विचारों से प्रारंभ होती है
फिर कर्म से एक नया इतिहास बनाती है
नींव की कोई ज़मीन नहीं होती
यादों की यात्रा
पहाड़ों से जब मेरे शब्द
गूंजकर प्रतिध्वनि में बदले
तो झाग भरे झरने बनकर लौटे
उन बुलबुलों को मैंने अपनी कलम से फोड़ – फोड़कर कविता बना ली
लिख दी आसमान के कोरे कागज़ पर
जहाँ पंछी अपने पंखों में उसे समेटकर
उस घोंसले में ले जाता है
जो तुम्हारे आंगन वाले नीम के पेड़ पर बना है
मेरा विश्वास है जब पंछी गहन निद्रा में होते हैं
तब तुम सपनों से जागकर उनके पंखों पर लिखी कविता पढ़ते हो
जिसे भोर के स्वर में मैं सुनती हूं
कुछ शब्द अटक जाते हैं
उस नीम की पत्तियों में
जो हवा के साथ टकराने पर एक एक कर गिरते हैं
तुम्हारे आसपास
जिन्हें बीन – बीनकर किताबों में तुम दबाते हो और वह छप जाते हैं
अपने स्वाभाविक हरे रंग में
प्रश्न पत्र
हर दिन नए विषयों का प्रश्नपत्र दिया जाता है
जहाँ भी जाओ एक परीक्षा केंद्र होता है
हल करने होते हैं
सभी प्रश्न तत्काल साबित करनी होती है योग्यता
अध्याय जिन्हें कभी न पढ़ा हो
आ जाते हैं प्रश्न बन समक्ष
संभव है कुछ शब्दों के पर्याय तो
कुछ के विलोम भी लिखने होते हैं
मैं पूर्ण करुं उत्तर घंटी की ध्वनि गूँजती है
छीन ली जाती है उत्तर पुस्तिका
अनजान परिणामों का भय कितना कुछ होता है
किंतु फिर नया शोध प्रारंभ करती हूँ
नए परीक्षा भवन का द्वार खुलता है
उत्तरों की खोज प्रारंभ होती है
जीवन परीक्षा भवन और हम विद्यार्थी हैं।
पथ गामिनी
तुम इतने अग्रसोची कैसे हो गए
हमारे बीच कुछ अकथनीय रह गया
तुम्हारे अंतःपुर के द्वार पर कुंडी लगी है
जिसे मैंने कई बार खटखटया था
मैं जनना चाहती थी
उस मौन को उस अनंत शांति को
जिसे तूफान किनारे से टकराने से पहले भंग करता है
कानन का वह कंटकाकीर्ण
हिस्सा जहाँ मेरा आंचल का कुछ हिस्सा आज भी उलझा है
ऐसा लगता है किंवदंती भी की बार चरितार्थ हो जाती हैं
इसलिए मैं तुम्हारी अनुगामिनी बन चल पड़ी
तुम मुझे नवागत समझ पथ प्रदर्शित करते रहे
उस क्षण मेरा प्रेम तुम्हारे प्रति अरिमेय था
तुम मेरे दिग्दर्शक बने रहे
इस अनुभूति में की मेरा हर पग तुम्हारे पीछे चल रहा है
सहज ही तुम हम चलते रहे
आज हम जिस राह पर हैं
वहाँ से नदी ,पहाड़ ,सागर ,कानन सब दूर हैं
यह धरा का कौनसा छोर है
जहाँ से चिकीर्षा बलवती होती है
हम दोनों ही मुमुक्षु की भांति
अतिरिक्त संसार में भ्रमण कर रहे हैं
जहाँ सिर्फ मेरे और तुम्हारे पद चाप सुनाई दे रहे हैं
अब हम सहगामी बन गए हैं
यहीं से हमारी नई यात्रा का प्रारंभ हो गया है
स्वाभिमानी पत्तियाँ
वृक्ष से झड़ती पत्तियों को,
उससे जुदा होने का
अहसास होता होगा
उन मौन आँसुओं में,
यादों का बसेरा होगा
शायद ये जुदाई ही उन्हें सुखा देती है
समय के साथ उनका वजूद मिटा देती है
वृक्ष खड़ा सोचता होगा
कहाँ कमी रह गई
जो ये मुझसे अलग हो गई
किंतु नवीन कपोलों को पाकर
वह उन चरमराई पत्तियों की आवाज़
सुन पाता होगा
शायद ही उनसे दूरी का
अहसास उसे सताता होगा
वह सूखी पत्तियां वृक्ष से
दूर नहीं रह पाती
वहीं मिट्टी में मिलकर
वृक्ष को पोषित करती हैं
वो सब कुछ लौटा देना चाहती हैं
जो कभी इस वृक्ष से उसने पाया था
क्या इन नन्हीं पत्तियों का मन
इतना स्वाभिमानी होता है
जो इस विशाल वृक्ष को उसके
स्वार्थ का अहसास करवाती हैं
कहां छुपा है साहस
कहाँ छुपा है साहस
साहस यह कहाँ छुपा है?
भीतर, कितने भीतर और कहाँ?
लगा जैसे निकल आने को आतुर हो
प्रतीक्षा करूँ,
या निकालू बाहर
साहस जो प्रेरित करता है
साहस जो उत्साहित करता है
उन पगों को
जो कतराते हैं आगे बढ़ने से,
जो रुकते हैं मंजि़ल से पहले,
साहस खींच ले जाता है
उस उगते पौधे -सा,
जो बीजांकुर से फूट धरती को,
चीरता है
साहस जो तटिनी -सा,
जो बहा ले जाती है
स्वयं को सिंधु की अपार बाँहों में,
साहस जो अंधकार में प्रकाश की,
एक धूमिल सी लकीर -सा,
खिंचा चला जाता है
उन अनंत चापों -सा,
जिसके अाने की आहट,
निकाल देती है
उस निष्क्रियता ,
के खोल से जिसे ओढ़,
काल परिवर्तन की प्रतीक्षा में,
सदियां गुजार रहा हो कोई उन्मादी,
साहस यह कहाँ छुपा है?
भीतर कितने भीतर और कहाँ?
खिड़की
घुटन सी हो रही थी
हर ओर सन्नाटा
साॅय साॅय की आवाजें
चंचल अशांति रह रहकर करती रही कोलाहल
समय चल रहा था आहट के साथ
घुटन काल बन बढ़ती जा रही थी
जैसे ठहरे पानी में हरी काई जम रही हो
फिसलने की आशंका घेर रही थी
पैर कुछ जमाया ही था
एक धक्का सा लगा
टकरा गई जंग लगी खिड़की से
जिसके पल्ले गीलेपन से सड़ने लगे थे
कुछ चर्र चूँ की आवाज हुई
उजाला दिखा ताजा ताजा
सुनहरी धूप थी
उस दिवस प्रथम बार मन की खिड़की खुली थी
सब कुछ साफ नजर आया
पिता का शब्दकोश
पिता का शब्दकोश
जिसे बचपन से मेरे मस्तिष्क के पन्नों पर
उन्होंने बड़ी सर्तकता से लिखा है
अब वह दूर गाँव में रहते हैं
पर जब भी मैं कहीं अटक जाती हूँ
अपनी दुविधा दूर करने को
पलटती हूँ पिता के दिए शब्द कोश के पन्ने
वह राह दिखते हैं
ठीक उस मील के पत्थर की तरह
जो भटकने नहीं देता राह से
हर रास्ते का पता है उस शब्दकोश में
जिस पर चल रही हूँ मैं
वह पता उन्होंने लिखा है
मेरे पिता का शब्दकोश
वार्तालाप
दिवा को संध्या की गहन प्रतीक्षा के क्षणों में देखना
ठीक उस पर्वत की प्रतीक्षा की भाँति होता है
जहाँ आसमान झुककर उसे ढक लेना चाहता है
कुछ भाषाएँ शब्दों की औपचारिकता से मुक्त रहती हैं
एकांत में अदृश्य शब्द गुंथ जाते हैं
जैसे निशा की श्वेत चाँदनी में श्याम अक्षर वार्तालाप करते हैं
प्रिय मिलन की आस प्रेयसी के कपोलों पर अश्रुधार विरह की पूरी कथा लिख जाती है
शब्दों की अनुपस्थिति जैसे अपना विलोम कहती हो
कथनीय – अकथनीय के भेद का अंत ही शब्दों के साश्वत हो जाने का प्रमाण है
यह वार्तालाप
कुल्हाड़ी
हम वन में उगे वृक्ष हैं
कुछ वृक्ष तब्दील हो गए हैं कुल्हाड़ी में
अब काट रहे हैं
साथ साथ पले बढ़े साथियों को
जब निंद्रा से जागेगा जंगल
पेड़ चलने लगेंगे
फिर कुल्हाड़ियाँ भागेंगी और पेड़ दौड़ेंगे
कुल्हाड़ी के हत्थे पर लगा लकड़ी का हिस्सा
जिस पर लगी जंग पास बहती नदी धोएगी
पश्चाताप का यह पल कुल्हाड़ी को प्रेरित करेगा नव निर्माण के लिए
जहाँ सृजन के नए बीज चमकगे
आशाएँ
खेतों की गीली मिट्टी में दबे केंचुए सी आशाएँ
मन की ज़मीन पर किलबिलाती रहती हैं
केंचुए मिट्टी की परत दर परत कुरेद कर नवंकुरों के लिए द्वार खोल देते हैं
जहाँ कलियाँ खिलती हैं
भंवरे गुंजार करते हैं
आशाएँ भी कुरेदती हैं वर्षों से निराशा में घिरे मन को
जहाँ जीवन जन्म लेता है
आपनी जड़ें जमाता है
मन की मिट्टी में मचलते हैं आशा रुपी केंचुए
इन्हें मत रोको वर्ना जमीन पथरीली हो जाएगी
फिर सुरभित पुष्प नहीं खिलेंगे
आशाओं को बचाना है
मर जाने से
अतिवृष्टि
जब समय अतिवृष्टि करता है
सबसे पहले खतरे के निशान डूबते हैं
फिर भय के डूबने की बारी आती है
निर्भय फिर ऊपर आता है तैरता हुआ
अतिवृष्टि के सारे खतरों से जूझता हुआ
अपने हाथ पैर मारता है
उस अथाह जल राशि के बीच ढूँढता है
अटल टीला जिसे अतिवृष्टि डूबो न सकी
जिस पर एक वृक्ष की छाया है
उसके पत्तों से बारिश का पानी रिस रहा है
सूर्योदय के साथ जल स्तर का नीचे होना
निर्भय की निडरता और अटल आशावादी होने का संकेत है
जिसने अतिवृष्टि की विपरीत दिशा में उम्मीद का टीला ढूँढा हो
स्मृति का आलोक
हृदय के विजन में
ओ प्रवासी तुम कैसे आ बसे
कर्तार की कृपा है
या अंत:करण का भ्रम
पर इस विलक्षण विपन में
जहाँ राह भूल जाना
विधि का विधान माना जाता है
वहाँ तुम्हारा क्षणिक प्रवास
किसी अतुलित संपदा की तरह सहेजे रखे हूँ
अपनी आँखों में
कहीं कोई रजनीचर इन्हें चुरा न ले
स्वयं के प्रतिबिंब से भी दूर रखती हूँ
जहाँ सदा निशांत का शुभ्र आलोक रहता है
स्मृतियों की इस मलय में तुम्हारी यादों के प्रसून सुगंधित रहते हैं।
तलहटी
चंचल सी नदी
तलहटी में जमें पाहन
पर निर्विरोध निरंकुश
बहती चली जा रही है
अपने घरोंदे छोड़कर मीन भी संग हो ली
बेसुध बहती अपने मीठेपन से अनजान
सागर में घुल जाती है
अपने अस्तित्व के साथ खेल गई वह
फिर सागर में खुद को ढूंढ न पाई
इक रोज़ मिली अपनी बिछुड़ी सखी से
खूब रोई थी उस दिवस याद कर हिमालय की गोद को
पाहन भी बहुत याद आए थे
जिन पर चंचलता से बहती थी
अब प्रयास करने पर भी वैसी स्वतंत्रता न थी
समंदर का पानी इनके आँसुओं से तो खारा नहीं हुआ
सूरज का साथ मिला उसके ताप में स्वयं को घुलाया
मिला रूप बादल का फिर खूब बरसी उसकी आँखें
धरती को जीवन देते मीठे आँसू थे
मेरे वृक्ष सूख न पाएँ
मेरे वृक्ष सूख न पाए
प्रतिदिन जल उलीचकर
वृक्षों के मूल सींचकर
तरु के घने – घने साए हम पाए
मेरे वृक्ष सूख न पाए
डाल – डाल पर नीड़ बने हों
खगवृंदों का हो कोलाहल
नभ में उनके स्वर मडलाएं
मेरे वृक्ष सूख न पाए
जब ललकारे वर्षा आए
मोर पपीहे नाचे गाएँ
धरती ओढ़े चादर हरित
मानों खुद पर ही इतराए
मेरे वृक्ष सूख न पाए
द्वंद्व
और कैसे
इस अटवी की सघनता को पार करते
वह गंतव्य दिखाई दिया
जहाँ रचा था एक ग्रंथ
उन फैली हुई जड़ों पर बैठकर
जो उभर आई थी मिट्टी का सीना चीरकर
जिस अपूर्णता से मेरा द्वंद्व चल रहा था
उसमें कुछ परिशिष्ट तुम भी जोड़ रहे थे
पूर्णता के आभास के साथ
विलोम का समर्थन तुम्हें प्राप्त था
इस त्रिकालदर्शिता के पीछे कोई अंश था
जिसे तुम विराम दे रहे थे
मैं उस वृक्ष से लिपट ऊपर अविराम चढ़ रही थी
क्यों सँवरती हो
अरे टहनी
ज़रा बताओ तो
हर वसंत तुम इतना क्यों सँवरती हो
फूलों के बोझ से
हवाओं संग कितना लचकती हो
नयनाभिराम बन मधुकर का मन मोह लेती हो
अलबेली सी बेल
मेरे आँगन में महक रही हो
देखो कितना सुखद है
तुम्हारा यूं भर जाना
कैसे तुमने तितली भंवरे की गुंजार से
पतझड़ की पीड़ा का सन्नाटा हर लेती हो
हर वसंत क्यों संवरती हो