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Garimaa-saxena-kavitakosh.jpg

प्रिये तुम्हारी आँखों ने

प्रिये तुम्हारी आँखों ने कल
दिल का हर पन्ना खोला था

दिल से दिल के संदेशे सब
होठों से तुमने लौटाये
प्रेम सिंधु में उठी लहर जो
कब तक रोके से रुक पाये
लेकिन मुझसे छिपा न पाये
रंग प्यार ने जो घोला था

उल्टी पुस्तक के पीछे से
खेली लुका-छिपी आँखों ने
पल में कई उड़ानें भर लीं
चंचल सी मन की पाँखों ने
मैने भी तुमको मन ही मन
अपनी आँखों से तोला था

नज़रों के टकराने भर से
चेहरे का जयपुर बन जाना
बहुत क्यूट था सच कहती हूँ
जानबूझ मुझसे टकराना
कितना कुछ कहना था तुमको
लेकिन बस साॅरी बोला था

सिंदूरी से दिन खिलते हैं 

चंदा और सितारे बैठे
आपस में खुसफुस करते हैं
देख-देख कर प्रीत हमारी
लगता है ये भी जलते हैं

आभा जब भी पड़े तुम्हारी
अधरों की कलियाँ खिल जातीं
मन के मानसरोवर में कुछ
हंसनियाँ आकर इठलातीं
क्या भावों को उपमा दूँ ,
उपमान सभी फीके लगते हैं

सुखद पलों की तितली उड़-उड़
बैठे सुधियों के आँगन में
नये-नये रंगों को लाकर
बिखराती मेरे दामन में
लगें दूधिया सी रातें अौ
सिंदूरी से दिन खिलते हैं

सपनों की मेंहदी, हथेलियाँ
सुर्ख रचा मंगल गातीं हैं
कोई नाम तुम्हारा ले तो
अँखियाँ झट से मुड़ जातीं हैं
तोड़ चुके अनुबंध स्वयं से
इक दूजे में हम बसते हैं

एक तुम्हारा आना 

केलेण्डर के त्योहारों से मुझको क्या करना है
एक तुम्हारा आना ही लगता होली-दीवाली

रोज प्रतीक्षा करती आँखें सतिया सी द्वारे पर
मन भी वहीं भावरंगों की रंगोली देता धर
बंदनवार बनाकर बाँधू मुस्कानें अधरों की
लड़ियां जगमग तारों की कुछ नेह गुथे गजरों की
शरद चंद्रमा का अमृत तुम लाते हो जीवन में
भर जाता है रास-रंग से जीवन मेरा खाली

हँसी-ठिठोली, रंग-रँगोली मन से मन की बातें
नोक-झोक की फुलझरियाें से सजी-धजी सौगातें
गुझिया, पुए, पुड़ियाँ, लड्डू रसगुल्ले हर्षाते
मेरे दिल का प्यार चिट्ठियाँ बन तुम तक पहुंचाते
तुम चख लेते हो तो भोजन भी प्रसाद हो जाता
छप्पन भोगों जैसी खुशियों से सजती है थाली

मन को कोयल भाती, सावन हो जाता है जीवन
सूखे मन की प्यास बुझाने छाते खुशियों के घन
गीत मिलन वाले सारे मेरे दिल को तब भाते
जब हम दोनों साथ हाथ में हाथ पकड़ कर गाते
गरम चाय की चुस्की के सँग होती ढेरों बातें
होठों की लाली को पाकर खुश हो जाती प्याली

आज यह उपवास धारा

चाँद की करते प्रतीक्षा, हैं विकल ये द्वय नयन

माँग में तुम, पायलों में, नथ, महावर, बालियों में
लाल जोड़ा, लाल बिंदी, तुम खनकती चूड़ियों में
प्रीत की मणियों व डोरी से गुंथे गलहार में हो
इन सभी शृंगार के तुम अर्थ में, आधार में हो
तुम युगों की हो तपस्या प्रिय तुम्हीं वरदान धन

भाग्य को सौभाग्य का पथ, प्रिय तुम्हीं ने है बनाया
इक तुम्हें पाकर हृदय ने, ज्यों सकल संसार पाया
अन्न-जल का त्याग कर प्रिय आज यह उपवास धारा
चाँद से माँगू दुआयें और वारूँ नेह सारा
व्रत अगन में तन तपाकर कर रही मन से हवन

साथ यह अपना अमर हो, नेह जीवन भर रहे प्रिय
आस्था विश्वास की यह गंग जीवन भर बहे प्रिय
चाँद औ तारे बनेंगे साक्षी इस प्यार के प्रिय
गीत होंगे अब हमारे प्यार के, त्योहार के प्रिय
प्रेम के इस पुण्य पथ से जुड़ रहे धरती-गगन

थाल से कुमकुम उठाकर मांग में तुम साज देना
चांद कहकर चांद के सम्मुख मुझे आवाज देना
रस्म करवा की निभाकर जल तुम्हारे हाथ पाऊँ
चाहती हूँ हर जनम में बस तुम्हारा साथ पाऊँ
सात वचनों को निभाने का पुन: लेंगे वचन

सपनों में ही तुम मिलते हो

नैना तकते राह नींद की
सपनों में ही तुम मिलते हो

टूटे बिखरे आधे सपने
पूर्ण करूं सपनों में जाकर
कुछ पल को ही सही ये मगर
पाऊँ खुद को तुममें खोकर
करे सुवासित जो अंतरमन
रजनीगंधा-सा खिलते हो

ओस बूँद का जीवन जैसे
धूप नरम रहने तक बाकी
साथ तुम्हारा मेरा वैसे
सिर्फ भरम रहने तक बाकी
भरम टूटने पर भी मन में
‘लेकिन पल-पल तुम पलते हो’

सिरहाने पर तुम सी खुशबू
मिलती है जाने अनजाने
गीला तकिया, भीगी पलकें
चाहें प्यार भरे अफसाने
भावों के उमड़े बादल से
तुम आँसू बनकर झरते हो

श्याम! तुमसे झर रहा है 

श्याम! तुमसे झर रहा है
प्यार का संगीत निर्मल

तुम बसे हो थपकियों में
स्वप्न में अँगडाइयों में
और बसते प्रेम-सा तुम
श्याम! माँ की लोरियों में
है तुम्हारी ही कृपा से
प्रेममय सारा धरातल

धड़कनों का राग तुम हो
प्रीति हो, अनुराग तुम हो
गीत सावन का तुम्हीं हो
मस्त-मौला फाग तुम हो
और तुम ही धड़कनों में
कर रहे हो श्याम! हलचल

खनक तुम ही छनछनाहट
पक्षियों की चहचहाहट
तुम मधुर बहता पवन हो
और मन की सुगबुगाहट
तुम अधर की बाँसुरी हो
और तुम ही बाँस-जंगल

प्रिय मल गए गुलाल 

पतझर-सा यह जीवन जो था
शांत, दुखद, बेहाल
उसमें तुम फागुन-सा आकर
प्रिय मल गए गुलाल

गम को निर्वासित कर तुमने
मेरा मोल बताया
जो भी था अव्यक्त उसे
अभिव्यक्त किया समझाया
उत्तर तुम हो और तुम्हारे
बिन मैं सिर्फ सवाल

आज प्यार का स्वाद मिला है
जिह्वा फिसल रही है
थिरक रहे अंतर के घुँघरू,
चाहत मचल रही है
चुप थे जो मधु-वचन हृदय के
हुए पुन: वाचाल

कहाँ बीतते थे दिन पल में,
युग जैसे दिन थे वो
नहीं घड़ी की प्रिय वो सुइयाँ
चुभते से पिन थे वो
आए हो तुम तो लगता है
पल-पल रखूँ सँभाल

प्रेम तो प्रेम है 

पंछियों की तरह उड़ सको तो उड़ो
प्रेम तो प्रेम है मान बंधन नहीं

तोड़ दो या रखो कुछ कहूँगी नहीं
जो करो, दिल तुम्हें सौंप मैंने दिया
मुझको मालूम है आओगे लौट कर
है तुम्हारा ठिकाना यही दिल पिया
तुम करो प्यार, चाहत रही है मगर
मैं करूँगी कभी प्राण! अनबन नहीं

गुनगुनी धूप- सी साथ में मैं रहूँ
प्राण! आगोश में तुम खिलो पुष्प-सा
अपनी साँसों से खुद बाँध लो तुम मुझे
मैं तुम्हारी कहाऊँ पिया राधिका
प्रेम में बाँध रक्खूँ मुझे हक़ नहीं
छींनने से मिला है समर्पण नहीं

हों कसमें या रस्में नहीं चाहती
प्यार मिलता रहे, बस यही चाह है
जानती हूँ पिया, प्रेम के दर्द को
प्रेम तो मुश्किलों से भरी राह है
मैं तुम्हारे लिए हूँ अडिग पंथ पर
जो डिगे प्रेम से वह अपावन नहीं।

गले से लगाओ मुझे 

प्रश्न-चिह्नों में जीवन विफल मत करो
मान अपना गले से लगाओ मुझे

इस हृदय की शिला पर शिलालेख-सा
हो गया नाम अंकित तुम्हारा पिया
ध्येय तुमको बनाया चले जा रहे
बस तुम्हें पा रुकेंगे, अडिग प्रण किया
अब तुम्हें त्यागना प्राण संभव नहीं
तोड़ बंधन न जग से मिटाओ मुझे

पीर मेरी हरी, प्यार बन छा गए
ज्यों शिशिर की निशा को मिली लालिमा
थी अमित प्यास, मरुथल सदृश थे अधर
तुम मिले तो जगी, प्रेममय-भंगिमा
हर ख़ुशी का समर्पण तुम्हे कर रही
प्रेम को अर्थ दो, मन बसाओ मुझे

मैं नहीं जानती चाह के मंत्र को
पर तुम्ही कृष्ण हो, और मैं राधिका
हैं सभी प्रार्थनाएं समर्पित तुम्हें
हो पिया साध्य तुम, और मैं साधिका
क्या पिया पुण्य है, क्या पिया पाप है
मैं नहीं जानती, मत बताओ मुझे

जीवन का शृंगार तुम्हीं हो

जीवन का शृंगार तुम्हीं हो।

तुमसे ही साँसें चलतीं ये
है तुमसे धड़कन इस दिल की
प्राण! जगत में तुमको पाकर
चाह करूँ मैं किस मंजिल की
मैं नौका हूँ, जीवन, धारा
औ इसकी पतवार तुम्हीं हो।

अधरों की लाली में तुम हो
तुमसे बिंदी, काज़ल ,कंगन
हर पल है बस तुम्हें बुलाती
मेरी पायल की ये छनछन
तुमसे हैं त्यौहार, पर्व सब
खुशियों का आधार तुम्हीं हो।

तुम को चाहूँ तुम को पूजूँ
तुम से रूठूँ तुम्हें मनाऊँ
जीवन में अंतिम साँसों तक
प्राण तुम्हारा साथ निभाऊँ
सुख, दुख जीवन के हर क्षण में
प्यार और उपहार तुम्हीं हो।

उम्मीदों की कलियाँ 

जब से आये हो अवगुंठन खोल रही हैं
मेरे जीवन में उम्मीदों की कलियाँ

आये हो तुम जीवन में विश्वास लिये
प्यारे सपनों का ऊँचा आकाश लिये
नये प्रीत के गीत, नये उल्लास लिये
प्रथम प्रेम की प्रथम पुलक आभास लिये
मन के अंदर जैसे कोयल बोल रही है
उत्सवमय अब मेरे जीवन की गलियाँ

तुलसी ज्यादा महक उठी है आँगन में
झूम उठे हैं झूमर फिर से सावन में
खुद को पाया मैंने फिर से दर्पण में
नयी खनक-सी जागी है फिर कंगन में
उल्लासित हो पुरवाई सँग डोल रही हैं
खुशियों के फूलों से बनती ये फलियाँ

प्यार भरा तुमने मेरा संसार रचा
गीत सृजन का तुमने ही आधार रचा
रंग भरा है जीवन में त्यौहार रचा
तुमने मुझको पूर्ण किया घर बार रचा
मीठापन जो मन में मेरे घोल रहीं है
प्यार तुम्हारा जैसे मिश्री की डलियाँ

प्रियतम आई मेरी होली 

तुम आए तो प्रियतम आई
मेरी होली

बाट देखते खुशियों का
मन था यह गुमसुम
जबतक नहीं बसंत जगाने
आए थे तुम
तुम आए तो हुई सुहावन
हँसी-ठिठोली

छुवन, चिकोटी, आलिंगन
ये मीठी बातें
गुझिया, मालपुआ जैसी प्रिय हैं
सौगातें
तुमने खुशियों से भर दी है
मेरी झोली

टेसू जैसे लाल, माँग की चमक
बढ़ी है
प्रीत भाँग के जैसी सिर पर आज
चढ़ी है
जबसे पिचकारी से तुमने
रँग दी चोली

आपने जीवन सुहाना कर दिया

प्रेम संबंधों को नव
पहचान देकर
आपने जीवन सुहाना कर दिया

पा नवल मधुमास
अमराई महकती जिस तरह
सुबह पाकर सुप्त
चिडिया है चहकती जिस तरह
उस तरह मुझको नए
अरमान देकर
आपने जीवन सुहाना कर दिया

मिल गई है भोर
मेरी कपकपाती चाह को
आपने आकर मिटाया
जिन्दगी के स्याह को
मेरी चाहत को नया
उन्वान देकर
आपने जीवन सुहाना कर दिया

हो गई हूँ आज कुसमित
आपकी पाकर छुवन
बँध गई हूँ आपसे
पर मिल गया मुझको गगन
ढाई आखर बोल
का सम्मान देकर
आपने जीवन सुहाना कर दिया

पिता (गीत)

अडिग हिमालय सदृश पिता हैं,
मैं उनसे निकली सरिता हूँ
जिसे यत्न से लिखा उन्होंने
मैं उनकी पहली कविता हूँ

जुड़-जुड़ कई इकाई नित वे
मुझे सैकड़ा करते आये
मेरा दृढ़ विश्वास पिता हैं
मुझमें संबल भरते आये
प्रथम स्लेट पर आड़ी तिरछी
मैंने जो खींची रेखायें
हाथ पकड़ उन रेखाओं में
स्वर्णिम अक्षर गढ़ते आये
मेरा तो ब्रह्माण्ड पिता हैं
अंश उन्हीं का, मैं सविता हूँ

मुझको जीवन दिया उन्होंने
जीने का हर हुनर सिखाया
चलना, गिरकर पुन: सँभलना
पंखों को आकाश दिलाया
उनसे ही है मेरी गरिमा,
उनकी गरिमा मैं हूँ जग में
हार, निराशा, चिंता, बाधा,
संकट में धीरज बँधवाया
वे मेरे आदर्श बने हैं
मैं उनकी भविता, शुचिता हूँ

डाँट कभी फटकार कभी वे
नेह भरी पुचकार बने हैं
खेल-खिलौने, रंग, मिठाई
हर दिन वे त्योहार बने हैं
जीवन के प्रत्येक समर में
हँसकर लड़ना मुझे सिखाते
मेरी ढाल, कवच वे ही हैं
पिता शक्ति तलवार बने हैं
पाकर ऐसे पिता जगत में
मुझे गर्व है मैं दुहिता हूँ

भारत की गौरव गाथा 

भारत की गौरव गाथा को
सारी दुनिया गाती है।
यहाँ शौर्य की विजय पताका
कण-कण में लहराती है।।

“वीर शिवाजी”, “महाराणा”
सम यहाँ पुत्र बलवान हुए,
यहाँ देश की आजादी हित
लाखों सिर कुर्बान हुए,
अमर शहीदों के बलिदानों
की ये अनुपम थाती है।

बुंदेलों के मुँह पर
“लक्ष्मीबाई” की गाथाएं हैं,
“जीजाबाई”, “पन्नादाई”
सदृश हुईं माताएं हैं,
पुत्री “नीरजा” के साहस पर
दुनिया शीश झुकाती है।

धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र यहीं पर,
गौरव हल्दीघाटी है,
वीरों के शोणित से उर्वर
यहाँ देश की माँटी है,
मात भारती वीर-शीश पर
अपना तिलक लगाती है।

सूर्य उगाना होगा 

कबतक हम दीपक बालेंगे
हमको सूर्य उगाना होगा

बदल-बदल कर वैद्य थक गये
मिटी नहीं अपनी पीड़ाएँ
सहने की आदत ऐसी है
टूट गईं सारी सीमाएँ

पीड़ाओं में प्रतिरोधों का
स्नेहिल लेप लगाना होगा

किश्तों में बँट गई एकता
खुद का रस्ता रोक रहे हैं
बहकावे में आकर सच के
तन में खंजर घोंप रहे हैं

भेद-भाव को भूल हृदय का
मानव आज जगाना होगा

बातों से संतुष्ट हो रहे
लगता है अभिशापित जीवन
पल भर की झुंझलाहट को हम
मान रहे कबसे आंदोलन

मन की आँच रहे ना मन में
हमको तन सुलगाना होगा

बदल गये मानक 

आज समझ पर भारी
चारों ओर दिखावे हैं

विज्ञापन ऐसा छाया है
बदल गये मानक
कर्तव्यों के पलड़े ऊपर
भारी चाहें हक

स्वार्थ सिद्धि का लक्ष्य साधते
खूब छलावे हैं

रिश्तों के बल पर रिश्तों को
लूटा जाता है
एक पंथ का बड़ा लुटेरा
हमको भाता है

संबंधों का तार जोड़कर
छलते दावे हैं

हम कौए, कोयल के अंडे
खूब पालते हैं
और हमें वो अपने जैसा खूब
ढालते हैं

देह सियारों की, शेरों जैसे
पहनावे हैं

शौक बोनसाई के

शहरों से लौट कहाँ
सपने फिर गाँव गये

ऊँची मीनारों को
पगडंडी याद नहीं
बूढे़ बरगद से अब
कोई संवाद नहीं

वापस ना लौट सके
आगे जो पाँव गये

शौक बोनसाई के
मन को भी छाँट रहे
तुलसी को हिस्से-हिस्से में
वो बाँट रहे

हाईब्रिड फूलों में
पूजा के भाव गये

गाँवों से दूरी ने
गाँवों को बेच दिया
बचपन की यादों की
ठाँवों को बेच दिया

खोया क्या उसका, जो
मूल्यहीन ठाँव गये

दुहरापन जीते हैं 

झेल रही है
नयी सदी यह
मन-मन की संवादहीनता

मन पर हावी हैं इच्छाएँ
अस्त-व्यस्त ये दिनचर्याएँ

छीन रही है
सुख का अनुभव
जीवन की संवादहीनता

आभासी दुनिया के नाते
पल में आते, पल में जाते

दिल से दिल को
जोड़ न पाती
धड़कन की संवादहीनता

कैसा दुहरापन जीते हैं
संबंधों से हम रीते हैं

बाँट रही
मन के आँगन को
आँगन की संवादहीनता

बाबूजी 

दफ्तर के चक्कर काट-काट
टेंशन में रहते बाबूजी

है पता नहीं कुछ फाइल का
हो गए रिटायर, साल हुआ
जो हाथ न आये विक्रम के
पेंशन ऐसा बैताल हुआ

नित नये अड़ंगे, दुतकारें
क्या-क्या ना सहते बाबूजी

जो सदा सिखायी खुद्दारी
उससे अब मुँह मोड़ें कैसे
है बिना घूस के हल मुश्किल
लेकिन सत्पथ छोड़ें कैसे

नख से शिख तक है भ्रष्ट तंत्र
रो-रो कर कहते बाबूजी

हैं ब्लैक होल से ‘ब्लॉक’ बने
अर्जियाँ जहाँ पर सिसक रहीं
कुर्सी-कुर्सी का चक्रवात
हैं गोल-गोल बस भटक रहीं

है दुक्ख डायनामाइट-सा
पर्वत-सा ढहते बाबूजी

घाव हरा है

राजमार्ग पर सपने सजते
पगडंडी का घाव हरा है

झोपड़पट्टी छोड़ ख्वाब में
जिसने हैं मीनारें देखीं
चटक-मटक वाले कपड़ों सँग
जिसने मोटर कारें देखीं

वह क्या जाने पकी फसल में
कितना भू ने नेह भरा है

जिस बरगद ने छाया दी थी
जिस पनघट ने प्यास बुझायी
जिस डाली ने उसे झुलाया
जिस घर ने पहचान दिलायी

आज यही सब उसकी खातिर
केवल बचपन का कपड़ा है

माना की वह भूल गया है
नहीं उसे पर भूला आँगन
अब भी उसकी एक झलक से
तन-मन हो जाता है रौशन

बचपन की सुधियों से सज्जित
अब भी वह छोटा कमरा है

हार का ठहराव 

सुर्ख लावा हो गए हैं पाँव
तपती रेत में

गाँव ने हैं कर्ज बोये
मौत की फसलें उगाईं
अंजुरी-भर प्यास तड़पीं
आस ने चीखें दबाईं

आज फिर सपने पड़े हैं
पाँव मोड़े पेट में

हाँक फिर वैसी लगी है
पक्ष बस प्रतिपक्ष में है
सत्य पर सब जानते हैं
स्वार्थ केवल अक्ष में हैं

शाकभक्षी फिर मरेंगे
समय है, आखेट में

चेतना, बदलाव क्या बस
ताज का बदलाव ही है
जीत कैसी, जीत है यह
हार का ठहराव ही है

देखना फिर उग न आएँ
नागफनियाँ खेत में

केवल झूठ बिका

इस दुनिया को कब भायी है
मन पर कोई क्रीज

जीवन के सच बतलाते हैं
दाग पड़े गहरे
मगर बने प्रोफाइल पिक्चर
दाग मुक्त चेहरे

पतझड़ बीता लेकिन मन ने
बदली नहीं कमीज

बाजारों में जब भी बेचा
केवल झूठ बिका
सच, विज्ञापन के पीछे ही
हरपल रहा छिपा

चटक-मटक कवरों के नीचे
बिकी पुरानी चीज

जब भी दुख अपने दिखलाये
चुभती कील मिली
मुस्कानों के ऊपर में
मँडराती चील मिली

चुप रहना, सहना सिखलाया
ओढ़े रहे तमीज

रेत हो रहीं नदियाँ 

रेत हो रहीं नदियाँ
खोया कल-कल का उल्लास

सदियों तक जो
शक्ति रही है जन-जीवन की
तट को सींचा
प्यास बुझायी जिसने तन की

आज उसे बूढ़ी अम्मा-सा
मिला अकेला वास

जहाँ श्वेत धाराएँ कल
प्रतिबिंब उगाती थीं
चाँद और सूरज की किरणें
जहाँ नहातीं थीं

पोखर-नाले भी करते हैं
अब उसका परिहास

जन-जीवन ही भूल गया जब
अर्थ आचमन का
कैसे आयेगा फिर बोलो भाव
समर्पण का

राजनीति ने छला हमेशा
नदियों का विश्वास

है छिपा सूरज कहाँ पर (नवगीत)

ढूँढते हैं
है छिपा सूरज कहाँ पर

कबतलक, हम बरगदों की
छाँव में पलते रहेंगे
जुगनुओं को सूर्य कहकर
स्वयं को छलते रहेंगे

चेतते हैं
जड़ों की जकड़न छुड़ाकर

नीर का ठहराव जैसे
नीर को करता प्रदूषित
चुप्पियों से हो रहे हैं
ठीक वैसे स्वप्न शोषित

चीखते हैं
आइए संयम भुलाकर

नींद में बस ऊँघती हैं
सुखद क्षण की कल्पनाएँ
चाहतों को नित डरातीं
ध्येय-पथ पर वर्जनाएँ

तोड़ते हैं
स्वयं पर हावी हुआ डर

सपने सभी जले

बने बिजूके हम सब
वर्षों से चुपचाप खड़े

सिसक रहीं मन की इच्छाएँ
सपने सभी जले
हम बागों के फूल जिन्हें खुद
माली ही मसले

नर गिद्धों के
सम्मुख हम सब
बस मांसल टुकड़े

सुबह हुई लेकिन कमरे की
खिड़की नहीं खुली
मन के अंदर अलगावों की
नफरत सिर्फ घुली

ऐसे में सद्भाव-शांति की
खातिर कौन लड़े

सत्ता-सुख की पृष्ठ भूमि हम
बनकर सिर्फ रहे
प्रश्नों के दावानल में हैं
उत्तर रोज दहे

हम बिन आिखर प्रतिरोधों के
अक्षर कौन गढ़े

चकित हो रहा बबूल 

गाँवों के भी मन-मन अब
उग आये हैं शूल
देख चकित हो रहा बबूल

जहाँ कभी थीं
हरसिंगार की, टेसू की बातें
चंपा, बेली के सँग कटतीं
थीं प्यारी रातें

वहीं आज बातों में खिलते
हैं गूलर के फूल

जिन आँखों की जेबों में कल
सपने बसते थे
जो रिश्तों को हीरे-मोती-स्वर्ण
समझते थे

वहीं प्रेम की परिभाषा अब
फाँक रही है धूल

कई पीढ़ियाँ जहाँ साथ में
पलतीं, बढ़तीं थीं
बूढ़े बरगद की छाया में
सपने गढ़तीं थीं

वहीं पिता से बेटा कर्जा
करने लगा वसूल

मौत का माहौल है 

कोहरे की बढ़ गईं हैं टहनियाँ
मौत का माहौल है

कोहरे की छाँव ऐसी
सूर्य भी निस्तेज है
देह ऐसी गल रही ज्यों
भीग गलता पेज है

आग खोजें, कँपकँपाती हड्डियाँ
मौत का माहौल है

गाँव की पगडंडियों के
स्वप्न हैं फुटपाथ पर
सूर्य घर्षण से उगाना
चाहते हैं हाथ पर

पेट में गीली पड़ी हैं लकड़ियाँ
मौत का माहौल है

राजधानी ओढ़ बैठी
छद्म, छल का आवरण
रिस रहे हैं घाव मन के
हो रहा नैतिक क्षरण

कब खुलेंगी, धूप देने खिड़कियाँ
मौत का माहौल है

समाधान के गीत 

हरे-भरे जीवन के पत्ते
हुये जा रहे पीत
आओ हम सब मिलकर गायें
समाधान के गीत

अँधियारे पर कलम चलाकर
सूरज नया उगायें
उम्मीदों के पंखों को
विस्तृत आकाश थमायें
चलो हाय-तौबा की, डर की
आज गिरायें भीत

बाजारों की धड़कन में हम
फिर से गाँव भरें
पूँजीवादी जड़ें काटकर
फिर समभाव भरें
बँटे हुए आँगन में बोयें
आओ फिर से प्रीत

धूप नहीं लेने देते जो
बरगद के साये
उन्हीं बरगदों की जड़ में हम
जल देते आये
युगों-युगों के इस शोषण की
आओ बदलें रीत

ताख पर सिद्धांत

है बदलता आस में पन्ने कलेंडर
पर छला जाता है बस प्रस्ताव से

ताख पर सिद्धांत
धन की चाह भारी
हो गया है आज
आँगन भी जुआरी

रोज ही गंदला रहा है आँख का जल
स्वार्थ-ईर्ष्या के हुए ठहराव से

ढल रहा जो वक्त
उसकी चाल का स्वर
कह रहा है आगमन का
वक्त बदतर

पर कहाँ नजरों में सम्यक भाव जागा
एक चिंता सिर्फ अपने घाव से

जी रहा जो वृहनला का
रूप धरकर
यदि जगे उस पार्थ के
गांडीव का स्वर

तो सुरक्षित हो सकेगा देश अपना
स्वयं पर ही हो रहे पथराव से

बाल दोहे 

‘अ’ से बना ‘अनार’ है, ‘आ’ से मीठा ‘आम’ ।
जब बच्चों मन से पढ़ो, तब तो होगा नाम॥

इमली में छोटी ‘इ’ है, ‘ई’ से होती ईख।
पुस्तक अच्छी मित्र है, ले लो इनसे सीख॥

‘उ’ से पढ़ो उलूक सभी, ‘ऊ’ से पढ़ लो ऊन।
वर्ण-ज्ञान जिसको नहीं, उनका जीवन सून॥

‘ए’ से बनती एकता, ‘ऐ’ से ऐनक गोल।
ओ से पढ़ लो ओखली, शिक्षा है अनमोल॥

औरत ‘औ’ से सीख लो, ‘अं’ से है अंगूर।
वर्ण ‘अ’ से ‘अ:’ तक सभी, स्वर हैं, रटो ज़रूर॥

गंगा

वेदों में भी है लिखा, गंगा का गुणगान।
कट जाते हैं पाप सब, कर गंगा स्नान॥

गंगा गरिमा हिन्द की, देवों का वरदान।
होता है जीवन सफल, कर इसका जल पान॥

विष्णुपदी भागीरथी, माँ गंगा का नाम।
इसके घाटों पर बसे, सारे पावन धाम॥

गोमुख से बंगाल तक, गंगा का विस्तार।
जगत तारिणी भी इन्हें, कहता है संसार॥

गंगाजल अद्भुत बड़ा, पड़ें नहीं कीटाणु।
औषधि गुण से युक्त है, मारे ये रोगाणु॥

यत्न भगीरथ ने किया, आई भू पर गंग।
सगर पुत्र सब तर गए, छू माता का अंग॥

चली बहुत-सी योजना, हुआ बहुत ही नाम।
गंगा दूषित ही रही, हुआ कागजी काम॥

पंचामृत में एक है, पावन गंगा नीर।
भवसागर से तारता, हरता मन की पीर॥

हर-हर गंगे मंत्र का, करता जो जयघोष।
उनके जीवन में सदा, रहता सुख, संतोष॥

उत्तर भारत को मिला, गंगा का वरदान।
फसलों को माँ सींचती, भरती भू में प्राण॥

माँ है मूरत प्रेम की (दोहे) 

माँ है मूरत प्रेम की, करती त्याग अपार।
संतानों में देखती , वो अपना संसार।।

सदा सुधा ही बाँटती ,सहकर शिशु की लात।
हर पल माँ करती रही, खुशियों की बरसात।।

क्षमा दया औ’ प्रेम की, इकलौती भंडार।
माँ की महिमा है अमिट, गुण गाए संसार।।

हर संकट में जीव जो, लेता पहला नाम।
माँ ,मम्मी, माता वही, कह मिलता आराम।।

जो जग में करते नहीं, माता का सम्मान।
ईश नहीं देता उन्हें ,खुशियों भरा जहान।।

माँ के चरणों में दिखें, जिसको चारों धाम।
बने मात आशीष से, उसके सारे काम।।

माँ अपने औलाद की, माफ करे हर भूल।
माँ ही है जो विश्व में, सहे शूल दे फूल।।

रक्षा निज संतान की ,करती बनकर ढाल।
टकरा जाती मात है, चाहे सम्मुख काल।।

माँ का रिण न चुका सके, ब्रह्मा, विष्णु , महेश।
माँ जीवन का मूल है, और वही परमेश।।

बन जाओ जो तुम बड़े, मात न जाना भूल।
नहीं पनपते वृक्ष वो, टूटे जिनका मूल।।

आँचल में माँ के सुधा, और नयन में नीर।
नवजीवन करती सृजित, सहकर भारी पीर।।

व्रत पूजा करती रहे, करे जतन दिन-रात।
हर पल बस संतान के, हित की सोचे बात।।

कश्मीर 

फूलों की घाटी व्यथित, रोता डल का नीर।
मासूमों की मौत पर , कौन बँधाये धीर।।

गोली बम बारूद से, सिसक रहा कश्मीर।
बचपन भूखा मर रहा, ममता हुई अधीर।।

फिर से घाटी में खिलें, अमन शांति के फूल।
गोला बारी बंद हो, खुलें सभी स्कूल।।

स्वर्ग जिसे कहते सभी, वह अपना कश्मीर।
आज वहाँ पर मर रहे, हिंदुस्तानी वीर।।

काश्मीर सुंदर बड़ा, भारत माँ का ताज।
दुश्मन के आतंक से, इसे बचाना आज।।

शत्रु बड़ा चालाक है, करता नितदिन वार।
सुनकर नाम ज़िहाद का, युवा बने हथियार।।

भारत माँ का ताज है, गरिमा है कश्मीर।
आह! मगर ये हो गया, नफ़रत की प्राचीर।।

पुष्प (दोहे) 

विविध रंग के फूल यह, देते खुशी अपार।
अपलक इनको देखती , मैं तो बारंबार।।

कॉटों सँग है खिल रहा, यह गुलाब का फूल।
मगर प्यार ही बाँटता ,हरता मन का शूल।।

लाल,बैंगनी, पीत या, नारंगी हो रंग।
उपवन में रहते सदा, सभी पुष्प इक संग।।

जन्म किसी का या मरण, करते सम व्यवहार।
पुष्पों से सीखो जरा, यह सुंदर आचार।।

दो दिन जीवन फूल का, जीता खिल के रोज।
अपने अंदर ही करे ,ये खुशियों की खोज।।

राजा हो या रंक हो , देते इक- सी गंध।
फूल कभी माने नहीं ,ऊंच नीच के बंध।।

पुष्प प्रेम संकेत हैं, प्रेम जगत का मूल।
प्रेम प्रकट करते सभी , देकर प्यारे फूल।।

पुष्प विविध इक डोर सँग, बनता सुंदर हार।
बढ़ती है जब एकता, बढ़ता है शृंगार।।

रंग बिरंगे पुष्प हैं , कुदरत का उपहार।
कटे डाल पर जिंदगी , यह इनका अधिकार।।

प्रेम (दोहे)

सोच -समझकर कीजिए, प्रेम नहीं आसान।
तन, मन, धन सबका यहाँ, करना पड़ता दान।।

प्रेम कृष्ण की बाँसुरी, प्रेम राधिका नाम।
पावन सच्चा प्रेम यूँ, जैसे चारों धाम।।

प्रेम अनूठा है बड़ा, प्रेम अजब संयोग।
वही दवा भी प्रेम की, जिससे मिलता रोग।।

प्रेम भंग जिस पर चढ़े, भूले वह संसार।
उसको है दिखता अगर, प्यार प्यार बस प्यार।।

जहाँ प्रेम होता सघन, सच्चा और अनूप।
इक दूजे में ही दिखें, ज्यों प्रिय के प्रतिरूप।।

दिखती राधा श्याम में, औ राधा में श्याम।
दोनों एकीकृत हुए, अमर प्रेम का धाम।।

इक औ’ इक दो हैं नहीं, प्रेम अनोखा योग।
योग अगर हो जाय यह, रुचे न कोई भोग।।

नारी (दोहे)

नारी-

सृष्टि नहीं नारी बिना, यही जगत आधार।
नारी के हर रूप की, महिमा बड़ी अपार।।

जिस घर में होता नहीं, नारी का सम्मान।
देवी पूजन व्यर्थ है, व्यर्थ वहाँ सब दान।।

लक्ष्मी, दुर्गा, शारदा, सब नारी के रूप।
देवी सी गरिमा मिले, नारी जन्म अनूप।।

कठिन परिस्थिति में सदा, लेती खुद को ढाल।
नारी इक बहती नदी, जीवन करे निहाल।।

नारी, नारी का नहीं, देती आयी साथ।
शायद उसका इसलिए, रिक्त रहा है हाथ।।

खुशियों का गेरू लगा, रखती घर को लीप।
नारी रंग गुलाल है, दीवाली का दीप।।

खुशियों को रखती सँजो, ज्यों मोती को सीप।
नारी बंदनवार है, नारी संध्या दीप।।

तार-तार होती रही, फिर भी बनी सितार।
नारी ने हर पीर सह, बाँटा केवल प्यार।।

पायल ही बेड़ी बनी, कैसी है तकदीर।
नारी का क़िरदार बस, फ्रेम जड़ी तस्वीर।।

नारी को अबला समझ, मत कर भारी भूल।
नारी इस संसार में, जीवन का है मूल।।

है सावित्री सी सती, बनती पति की ढाल।
पतिव्रत नारी सामने, घुटने टेके काल।।

नारी मूरत त्याग की, प्रेम दया की खान।
करना जीवन में सदा, नारी का सम्मान।।

सूना है नारी बिना, सारा यह संसार।
वह मकान को घर करे, देकर अपना प्यार।।

नारी तू अबला नहीं ,स्वयं शक्ति पहचान।
अपने हक को लड़ स्वयं, तब होगा उत्थान।।

क्यों नारी लाचार है, लुटती क्यों है लाज।
क्या पुरुषत्व विहीन ही, हुई धरा ये आज।।

जब तक वह सहती रही, थी अबला लाचार।
ज्यों ही वह कहने लगी, बनी अनल, अंगार।।

संस्कृति की वाहक यही, इससे रीति- रिवाज।
नारी ही निर्मित करे, सुंदर सभ्य समाज।।

मन के जख़्मों की कहो, कहाँ लगाऊँ हाँक।
पत्नी ने यह सोचकर लिया चोट को ढाँक।।

दिन भर वह खटती रही, हुई सुबह से शाम।
घर आकर पति ने कहा, क्या करती हो काम?

कुक, टीचर, आया कभी , करे नर्स का रोल।
फिर भी क्यों घर में नहीं, नारी का कुछ मोल।।

नयी वधू के स्वप्न नव, अभी न पाये झूम।
औ दहेज की आग में, झुलस गयी मासूम।।

नारी, अबला ही रही, बदला कहाँ समाज।
अब भी लगती दाँव पर, द्रोपदियों की लाज।।

‘साँप-नेवले’- सा हुआ, सास- बहू का प्यार।
छोटी सी तकरार में, टूट गया परिवार।।

अग्निपरीक्षा कब तलक, लेगा सभ्य समाज।
नारी की खातिर नहीं, बदला कल या आज।।

जयद्रथ, दु:शासन खड़े, गली-गली में कंस।
द्रौपदियाँ लाचार हैं, कौन करे विध्वंस।।

पहनावा ही था ग़लत, किया सभी ने सिद्ध।
चिड़िया रोती रह गई, बरी हो गये गिद्ध।।

हुआ पराया मायका, अपना कब ससुराल।
किस घर को अपना कहूँ, नारी करे सवाल।।

बनें आर्थिक रूप से, नारी सभी सशक्त।
बदलेगा यह देश तब, यही कह रहा वक्त।।

ओ नारी! सुन तू नहीं, एक उतारा वस्त्र।
पा ले हर अधिकार को, उठा स्वयं अब अस्त्र।।

घर कोई उजड़े नहीं, बदलें अगर विचार।
बहुओं को भी मिल सके, बेटी जैसा प्यार।।

ज्यों ही फैला गाँव में, कोई भीषण रोग।
नई बहू मनहूस है, लगा दिया अभियोग।।

बेटी (दोहे) 

बेटी-

गुड़िया, कंगन, मेंहदी, नेह भरी बौछार।
बेटी खुशियों से करे, घर आँगन गुलज़ार।।

दादी रोयी याद कर, तब अपना बर्ताव।
पोती ने मरहम दिया, जब पोते ने घाव।।

गुड्डे, गुड़ियां, चूड़ियां, हुईं सभी बेजान।
बिटिया घर से क्या गयी, रूठ गयी है मुस्कान।।

बेटी हरसिंगार है, बेटी लाल गुलाब।
बेटी से हैं महकते, दो-दो घर के ख़्वाब।।

शंख, मँजीरे, झांझ ,ढप, बजे सुरीले साज।
जब भी आई कान तक, बिटिया की आवाज।।

तितली सी उन्मुक्त है, बेटी की परवाज़।
मगर कहाँ वह जानती, उपवन के सब राज़।।

वह जाड़े में धूप सी, वह गर्मी में छाँव।
बेटी से आबाद है, खुशियों वाला गाँव।।

बेटी को नित कोख में, मार रहा संसार।
ऐसे में कैसे मने, राखी का त्योहार।।

दहलीज़ों में क़ैद हैं, कुछ नन्हे से ख़्वाब।
दे दो उनके हाथ में, कापी, कलम किताब।।

दो बेटी के साथ में, बेटों पर भी ध्यान।
कहीं ग़लत संगति उन्हें, बना न दे हैवान।।

बेटी शिक्षित हो अगर, होगा सभ्य समाज।।
सँवरेगा कल भी तभी, जब सँवरेगा आज।।

बेटी के अधिकार में, आये कलम दवात।
इससे अच्छी है नहीं, बेटी को सौगात।।

कृषक (दोहे)

किस्मत हल को खेत में, कृषक रहा है खींच।
माटी को सोना करे, श्रम से अपने सींच।।

बाढ़ कभी सूखा कभी, सहे भाग्य की मार।
मरते रोज किसान हैं, चुप बैठी सरकार।।

भीगी पलकों को लिए, बैठा कृषक उदास।
अम्बर को है ताकता, ले वर्षा की आस।।

अन्न उगाता जो स्वयं, भूखा मरता आज।
लेकिन क्यूँ सरकार को, तनिक न आए लाज।।

नन्हे- नन्हे हाथ

सर पर है साया नहीं, भटकें बाल अनाथ।
मजदूरी को हैं विवश, नन्हे-नन्हे हाथ।।

डाँट-डपट चुप रह सुने, धोता है कप प्लेट।
बालक सब कुछ सह रहा, बस भरने को पेट।।

गाड़ी, शीशे पोंछते, पाते हैं दुत्कार।
जिनपर टिका भविष्य है, हाय! वही लाचार।।

ईंटें-पत्थर ढो रहे, नन्हे- नन्हे हाथ।
बचपन उनका मर गया, पटक-पटक कर माथ।।

तन पर हैं कपड़े फटे, जीते कचरा बीन।
कुछ बच्चों की है दशा, अब भी कितनी दीन।।

जब हर बच्चे को मिले, शिक्षा का अधिकार।
सपना विकसित देश का, होगा तब साकार।।

कील हथौड़ी दी थमा, फेंकी छीन किताब।
कुछ पैसे को बाप ने, रौंदे नन्हे ख़्वाब।।

छोटे बच्चे कर रहे, जब मजदूरी आज।
तब ‘गरिमा’ कैसे कहें, विकसित हुआ समाज।।

सबको बस इक पनाह चाहिये 

सबको बस इक पनाह चाहिये
अपनेपन की ही चाह चाहिये

जुड़ ही जाते हैं रिश्ते अपने-आप
चाहतों की निगाह चाहिये

हैं दरिन्दों की ख्वाहिशें यही
शहर उनको तबाह चाहिये

काम बिगड़े हुए सँवर सकें
आपकी वो सलाह चाहिये

मिल ही जाएँगी मंज़िलें ज़रूर
पहले मिलनी तो राह चाहिये

वो मेरे दिल को आसरा देगा

वो मेरे दिल को आसरा देगा
या कि वो प्यार में दग़ा देगा

वो जो रखता है हौसला अन्दर
उसको सागर भी रास्ता देगा

वो जो औरों को मौत देता है
उसको जन्नत कहाँ खुदा देगा

ठूँठ होकर भी बूढ़ा बरगद वो
अपनी शाख़ों पे आसरा देगा

सच बता मीत! प्यार में मुझको
ज़ख्म या ज़खम की दवा देगा

बनके रहबर वो एक दिन ‘गरिमा’
ज़ुल्म की आग को हवा देगा

पराया कौन है और कौन है अपना सिखाया है

पराया कौन है और कौन है अपना सिखाया है
हरेक ठोकर ने हमको सोचकर बढ़ना सिखाया है

नहीं हम हार मानेंगे भले हों मुश्किलें कितनी
चिराग़ों ने हवाओं से हमें लड़ना सिखाया है

वही है चाहता हम झूठ उसके वास्ते बोलें
हमेशा हमको जिसने सच को सच कहना सिखाया है

बहुत तड़पा है दिल उनकी अजब-सी देखकर फ़ित्रत
जो अब हैं मारते ठोकर जिन्हें चलना सिखाया है

हमें कमज़ोर मत समझो, बहुत-कुछ झेल सकते हैं
हमें हालात ने हर ज़ख़्म को सहना सिखाया है

वो पत्थर रेत बन बैठे समन्दर तक पहुँचने में
नदी ने जब उन्हें ‘गरिमा’ ज़रा बहना सिखाया है

हमको आगे बढ़ना होगा 

हमको आगे बढ़ना होगा
तब तो पूरा सपना होगा

केवल सोकर ख़्वाब न देखो
कुछ पाने को जगना होगा

गंदला जाता जल रुकते ही
दरिया-सा बन बहना होगा

मत बैठो औरों के भरोसे
खुद ही उठकर चलना होगा

विश्व उजाला तेरा देखे
सूरज जैसा जलना होगा

वक़्त कठिन आये भी कितना
धीरज मन में धरना होगा

सब जाते हैं आँसू देकर
इसपर भी बस, हँसना होगा

जो तेरे आँसू पोछेगा
वो ही तेरा अपना होगा

दुनिया में भगवान न होता 

दुनिया में भगवान न होता
फिर भयभीत इंसान न होता

हिम्मत करता वो न अगर तो
काम कभी आसान न होता

प्यार,वफ़ा,खुशियाँ जो मिलतीं
फिर कोई शैतान न होता

वादे निभाता नेता अगर तो
वो हरगिज़ धनवान न होता

ग़ौर से पढ़ लेता जो मेरे ख़त
वो मुझसे अनजान न होता

ये माना कि दुश्वारियों ने है घेरा 

ये माना कि दुश्वारियों ने है घेरा
मगर कब रहा है हमेशा अँधेरा

मिटेगा निशा का अँधेरा समय से
रखो धैर्य होगा समय से सवेरा

उड़ें क्यों न पंछीे हमेशा गगन में
करेंगे मगर शाख पर ही बसेरा

सफ़र ख़त्म होगा सभी का यक़ीनन
जहां ये न तेरा, जहां ये न मेरा

दिया था सुरक्षा का दायित्व जिसको
वही आज साबित हुआ है लुटेरा

प्रेम के मुक्तक

प्रेम भक्ति का सागर है, यह तो मोती की माला है।
प्रेम वही रसराज जिसे कवियों ने काव्य में ढाला है।
प्रेम ज्ञान वह जिसके सम्मुख उद्धव जीत नहीं पाए-
प्रेम हृदय में अगर नहीं हो, जाना व्यर्थ शिवाला है।

प्रेम राधा के जीवन का शृंगार है।
प्रेम मीरा के भजनों का आधार है।
प्रेम छोटा है उर में बसा भाव है-
प्रेम संपूर्ण जगती का विस्तार है।

प्रेम वह फूल जो बागों में नहीं खिलता है।
प्रेम अनमोल है, पैसों से नहीं मिलता है।
प्रेम कोमल है पाँखुरी है ये सुगन्ध भरी
प्रेम अविचल है हिलाए से नहीं हिलता है ।

चुनिंदा मुक्तक-1 

दर्द होता रहा हम छिपाते रहे।
बेवजह बेसबब मुस्कुराते रहे।
नोट बेशक हजारों के हम ना हुये-
बनके सिक्के मगर खनखनाते रहे।

हूँ तेरे इश्क में पागल, फितूरी पर नहीं हूँ मैं।
अधूरी ही मिली तुझसे, अधूरी पर नहीं हूँ मैं।
समझ अब फर्क लहज़े में तेरे मुझको भी आता है-
जरूरत तो मैं हूँ तेरी ,जरूरी पर नहीं हूँ मैं।

सिर्फ तुझको पढ़ेंगे ये मेरे नयन।
सिर्फ तुझको लिखेंगे ये मेरे नयन।
एक सूरत तेरी इनमें ऐसी बसी-
तेरे दर्पण रहेंगे ये मेरे नयन।

चुनिंदा मुक्तक-2

जल में डूबे मगर प्यास बाकी रही।
दिल ये टूटा मगर आस बाकी रही।
प्राण तो हो गये थे जुदा देह से-
लाश में धड़कनें सांस बाकी रही।

क्यों गुम-सुम से पंछी चहकने लगे।
चाँद तारे सभी क्यूं बहकने लगे।
क्या तुमने छुआ था इन्हें प्यार से-
कागज़ी फ़ूल जो ये महकने लगे।

हर रोज़ वो चाह़त को मेरी आज़माता है।
रहता है मेरे दिल में वो मुझको सताता है।
लेकिन ख़फ़ा उससे कभी मैं हो नहीं पाती-
रोता है बहुत ख़ुद भी जब मुझको रुलाता है।

सो रहीं हैं चेतनाएँ

समझकर भी
सो रहीं हैं चेतनाएँ

देख मानव
आज जंगल काँपते हैं
मेघ भी दो डेग
चलकर हाँफते हैं

लू सदृश चलने लगीं
माघी-हवाएँ

नदी का मुश्किल
समंदर तक पहुँचना
और सागर-ज्वार
का रह-रह उमड़ना

देखकर चुप-चाप
बैठीं हैं दिशाएँ

कंठ में है प्यास
उपवन जल रहा है
युग-युगों का जमा पर्वत
गल रहा है

पर तनिक ना स्वार्थ की
गलती शिलाएँ

किरणें कमसिन

कुहरे का गुब्बारा
छेद गई पिन
चीर निकल आईं हैं
किरणें कमसिन

कब से ही धुंध तले
पड़े थे उदास
खोया-खोया-सा था
मन का विश्वास

साहस ने काट लिये
पतझड़ के दिन

कलियाँ खिलने को हैं
देख नवल धूप
लड़कर ही पाया है
कोंपल ने रूप

अपने-से लगते हैं
अब ये पल-छिन

फगुनाया जीवन है
टेसू-सा लाल
पछुआ उड़ेल रही
धूल का गुलाल

आया संवत्सर का
पुनः जन्मदिन

फिर जीवन से ठना युद्ध है

इस सूखे में बीज न पनपे
फिर जीवन से ठना युद्ध है

पिॆछली बार मरा था रामू
हल्कू भी झूला फंदे पर
क्या करता इक तो भूखा था
दूजा कर्जा भी था ऊपर
घायल कंधे, मन है व्याकुल
स्वप्न पराजित, समय क्रुद्ध है

सुता किसी की व्याह योग्य है
कहीं बीज का कर्जा भारी
जुआ किसानी हुआ गाँव में
मदद नहीं कोई सरकारी
चिंताओं, विपदाओं का पथ
हुआ कभी भी नहीं रुद्ध है

भूखे बच्चे व्याकुल दिखते
आगे दिखता है अँधियारा
सोच न पाता गलत क्या सही
जब मिलता न कहीं सहारा
ऐसे में जीवन अपना ही
लगता जैसे की विरुद्ध है

माँ बेटे की राह देखती 

वृद्धाश्रम में माँ बेटे की
राह देखती

है सूनी आँखों में धुँधली-सी
अभिलाषा
पुत्र व्यस्त हैं, कहकर देती
रोज दिलासा
नहीं मानती बिसराएँगे
नहीं बिसरती

नहीं सीख पाई है मतलब
खुद से रखना
जिसे जना है, उसे समझती
केवल अपना
हुई अनुपयोगी ये बातें नहीं
समझती

अँगुल-अँगुल सींचा जिसने
दूध पिलाकर
उसे कहाँ माँ कहते हैं बेटे
अब आकर
कँपती हाथें, रोज पकाती, बरतन
मँजती

बदल रहा है गाँव हमारा 

नए दौर में नए तरह से
बदल रहा है गाँव हमारा

झाल-चाट को छोड़ सभी अब
पिजा-बरगर लगे हैं खाने
लोकगीत की धुन बिसराई
लगे गूँजने फिल्मी गाने
सेंडिल, बूट पहनने वाला
हुआ आधुनिक पाँव हमारा

छप्पर नहीं बचे हैं और न
गौरैयों का ठोर-ठिकाना
धीरे-धीरे जाल बिछाकर
शहर बुन रहा ताना-बाना
टावर, चिमनी खड़े हो गए
खोया पीपल छाँव हमारा

सूख रहे तुलसी के पौधे
बने सजावट गमले घर में
किट्टी पार्टी की रौनक है
काम बहुत है अब दफ्तर में
जहाँ कभी मिलते थे सब जन
नहीं रहा वह ठाँव हमारा

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