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आँखें पलकें गाल भिगोना ठीक नहीं

आँखें पलकें गाल भिगोना ठीक नहीं
छोटी-मोटी बात पे रोना ठीक नहीं

गुमसुम तन्हा क्यों बैठे हो सब पूछें
इतना भी संज़ीदा होना ठीक नहीं

कुछ और सोच ज़रिया उस को पाने का
जंतर-मंतर जादू-टोना ठीक नहीं

अब तो उस को भूल ही जाना बेहतर है
सारी उम्र का रोना-धोना ठीक नहीं

मुस्तक़बिल के ख़्वाबों की भी फिक्र करो
यादों के ही हार पिरोना ठीक नहीं

दिल का मोल तो बस दिल ही हो सकता है
हीरे-मोती चांदी-सोना ठीक नहीं

कब तक दिल पर बोझ उठाओगे ‘परवाज़’
माज़ी के ज़ख़्मों को ढोना ठीक नहीं

गुमसम तनहा बैठा होगा

गुमसम तनहा बैठा होगा
सिगरट के कश भरता होगा

उसने खिड़की खोली होगी
और गली में देखा होगा

ज़ोर से मेरा दिल धड़का है
उस ने मुझ को सोचा होगा

सच बतलाना कैसा है वो
तुम ने उस को देखा होगा

मैं तो हँसना भूल गया हूँ
वो भी शायद रोता होगा

ठंडी रात में आग जला कर
मेरा रास्ता तकता होगा

अपने घर की छत पे बेठा
शायद तारे गिनता होगा

ज़रा सी देर में दिलकश नज़ारा डूब जाएगा

ज़रा सी देर में दिलकश नजारा डूब जाएगा
ये सूरज देखना सारे का सारा डूब जाएगा

न जाने फिर भी क्यों साहिल पे तेरा नाम लिखते हैं
हमें मालूम है इक दिन किनारा डूब जाएगा

सफ़ीना हो के हो पत्थर हैं हम अंजाम से वाक़िफ़
तुम्हारा तैर जाएगा हमारा डूब जाएगा

समन्दर के सफ़र में क़िस्मतें पहलू बदलती हैं
अगर तिनके का होगा तो सहारा डूब जाएगा

मिसालें दे रहे थे लोग जिसकी कल तलक हमको
किसे मालूम था वो भी सितारा डूब जाएगा

शजर पर एक ही पत्ता बचा है

शजर पर एक ही पत्ता बचा है
हवा की आँख में चुभने लगा है

नदी दम तोड़ बैठी तशनगी से
समन्दर बारिशों में भीगता है

कभी जुगनू कभी तितली के पीछे
मेरा बचपन अभी तक भागता है

सभी के ख़ून में ग़ैरत नही पर
लहू सब की रगों में दोड़ता है

जवानी क्या मेरे बेटे पे आई
मेरी आँखों में आँखे डालता है

चलो हम भी किनारे बैठ जाएँ
ग़ज़ल ग़ालिब सी दरिया गा रहा है

सहमा-सहमा हर इक चेहरा मंज़र-मंज़र ख़ून में तर

सहमा सहमा हर इक चेहरा मंजर मंजर ख़ून में तर
शहर से जंगल ही अच्छा है चल चिड़िया तू अपने घर

तुम तो ख़त में लिख देती हो घर में जी घबराता है
तुम क्या जानो क्या होता है हाल हमारा सरहद पर

बेमोसम ही छा जाते हैं बादल तेरी यादों के
बेमोसम ही हो जाती है बारिश दिल की धरती पर

आ भी जा अब जाने वाले कुछ इन को भी चैन पड़े
कब से तेरा रस्ता देखें छत आँगन दीवार-ओ-दर

जिस की बातें अम्मा अब्बू अक्सर करते रहते हैं
सरहद पार न जाने कैसा वो होगा पुरखों का घर

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