जो हमने ख़्वाब देखे हैं दौलत उसी की है
तनहाई कह रही है रफ़ाक़त उसी की है
कब कोई शहर-ए-शब की हदें पार कर सका
यूँ मुफ़्त जान खोने की आदत उसी की है
कार-ए-जुनूँ में कोई दख़्ल ही नहीं
सहरा उसी का और ये वहशत उसी की है
नज़्ज़ारा दरमियान रहे, रतजगा करें
क़ामत उसी का और क़यामत उसी की है
हम भी उदास रात के पहलू में हैं मगर
ठहरी शब-ए-फ़िराक़ जो साअत उसी की है
बाब-ए-रहमत के मीनारे की तरफ़ देखते हैं
देर से एक ही तारे की तरफ़ देखते हैं
जिससे रौशन है जहाँ-ए-दिल-ओ-जान-ए-महताब
सब उसी नूर के धारे की तरफ़ देखते हैं
रुख़ से पर्दा जो उठे वस्ल की सूर्स्त बन जाये
सब तेरे हिज्र के मारे की तरफ़ देखते हैं
मोजज़न इक समन्दर है बला का जिसमें
डूबने वाले किनारे की तरफ़ देखते हैं
आने वाले तेरे आने में हैं क्या देर कि लोग
कस-ओ- नाकस के सहारे की तरफ़ देखते हैं
याद महल के वीराने में बाक़ी भी अब क्या होगा
देखें इन आँखों के आगे अब किसका चेहरा होगा
दूर बहुत दरिया से जिसको ख़ैमें नस्ब कराने हैं
उसको पहले अपने आप के लश्कर से लड़ना होगा
उसके नाम से जलने लगे हैं देखो किन यादों के चिराग़
तनहाई के मंज़र में कुछ देर अभी रहना होगा
हिजरत का दस्तूर यही है घर छोड़ो तो रात गये
वरना इन आँखों को दहलीज़ों मे दफ़नाना होगा
उसके रास्ते में आगे पीछे महताब खड़े होंगे
यही वक़्त है उसके आने का देखो, आता होगा
ज़मीं का ख़ौफ़ न डर आसमान का होता
तो इससे क्या यह ज़माना बदल गया होता
अगर कमान से सारे निकल गये थे तीर
तो फिर कोई निशाना ख़ता हुआ होता
इन आँधियों का भरोसा नही कहाँ ले जायें
कोई तो रास्ता अपना बना लिया होता
मेरे जुनूँ का मुदावा तो ख़ैर क्या होता
तुम्हारा फ़र्ज़ तो सर से उ तर गया होता
कहूँ ज़बाँ से भी ऐ मेरे दोस्त आशुफ़्ता
जो तुम न होते तो मैं कब का मर गया होता