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सन्नाटा

भारी होता है सन्नाटा वह
जो फ़सल कटने के बाद
खेतों में पसरा करता ।

सन्नाटा वह भारी होता
उससे भी ज़्यादा
बेटी की विदाई के बाद
बाप के सीने में
जो उतरता है ।

कम भारी नहीं होता
उत्सव के बाद का सन्नाटा

यों सबसे भयावह होता
सन्नाटा वह
जो उस माँ के सीने में
हर साँझ सचरा करता
जिसके दोनों के दोनों बच्चे
भरी दीवाली में भी
घर से दूर होते ।।

छत्तीस जनों वाला घर

छत्तीसगढ़ के एक छोटे से जनपद
बागबहरा में छत्तीस जनों वाला एक घर है
जहाँ से मैं आता हूँ कविता के इस देश में

छत्तीस जनों वाला हमारा घर
९० वर्षीया दादी की साँसों से लेकर
डेढ़ वर्षीय ख़ुशी की आँखों में बसता और ख़ुश होता है
यहाँ आने जाने को एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं, चार दरवाज़े हैं
और घर का एक छोर एक रास्ते पर
तो दूसरा दूसरे रास्ते पर खुलता है

घर के दाएँ बाजू पर रिखीराम का घर है
तो बाएँ में फगनूराम का
रिखी और फगनू हमारे कुछ नहीं
पर एक से जीजा का रिश्ता जुड़ा, तो दूसरे से काका का

घर के ठीक सामने गौरा, चौरा और पीपल का पेड़ है
जो मेहमानों को हमारे घर का ठीक-ठीक पता देते हैं
यही, हाँ यही घर है मोहनराम साहू का, सावित्री देवी का
मोहित, शैलेश, अश्वनी, धरम, भूषण, महेश, रामसिंह, रामू और रजत कृष्ण का

आँगन में तुलसी और तुलसी के बाजू में छाता
छाता के बाजू में विराजता है बड़ा-सा सिलबट्टा
जो दीदी भैया की शादी का स्वाद तो चखा ही
चखा रहा है अब स्वाद भांजी मधु और भतीजी मेधा की मेहंदी का

आँगन के बीच में एक कुआँ है
और कुआँ है बाड़ी में
बाड़ी से लगा है कोठा
कोठा से जुड़ा है खलिहान
जहाँ पर कार्तिक में खेत से आता है धान
और लिपी-पुती कोठी गुनगुना उठती है

स्वागत है
आओ नवान्न स्वागत है
आओ नवान्न स्वागत है…

पवन 

मनुष्य के
कण्ठ से
पहला शब्द फूटा
तो उसे
पेड़ पक्षी पर्वत झील
झरने और समुद्र के हृदय तकने
पहुँचाया पवन ने ।

मनुष्य ने फूँका शंख
तो पवन ने
उसे नाद दी ।
बनाया ढोल-मृदंग
तो थाप दी ।

पवन ने दिशा दी
उस पहले तीर को
जिसे मनुष्य ने
सिरजते ही
छोड़ दिया था शून्य में ।

मनुष्य की राह
लम्बी होती गई
थकान से टूटने लगा वह
तो पवन ने उसे
घोड़े पर बैठाया
जिसकी टापों की गूँज में
दर्ज है
मनुष्य की सुदीर्घ गाथा ।

मनुष्य ने
आसमान में उड़ने
यान की कल्पना की
तो पवन उसे
पीठ पर साजा ।

सोचा चाँद पर जाने की
मंगल तो
जीवन बीज ढूँढ़ लाने की
तो वह
हँसी-ख़ुशी घुमा लाया।

सड़क पर गतिमान
तुम्हारी हमारी साईकल को
पवन की दरकार
पवन के लाड़-दुलार से
घूमती है
हमारे बच्चों की फिरकनी
थिरकती है कठपुतली

पवन की तरंग को
इधर खूब साधा है हमने
अभी-अभी मैने
घर बैठे ही
सुदूर बस्तर के
अपने कवि मित्र से
बात की
उसके सुख दुख को जाना ।

बस एक बटन दबाया
और स्वयं को
विश्व-ग्राम में
बड़ा पाया।

मनुष्य के पत्थर बन जाने में
कोई बहुत वक़्त नहीं लगता
यह सिर्फ़ पवन जानता है
जो हमारी साँसो को
नम रखता
और जीवन की जड़ मे
रंग-गंध सींचता है ।

पानी

पानी से
हमारी पहली पहचान
तब होती है
जब काग़ज़ की कश्ती में
पार करते हैं हम
बचपन की नदी
और सावन कई दिनों तक
हमें भिगोए रहता है ।

देह में चढ़ता है पानी
धीरे-धीरे
और पुख़्ता होते जाते हैं
हमारे क़दम।

पानी का रिश्ता
हमारी आँखों से
सबसे सघन होता है
वह लबालब होता है जब तक
रंगों की परख
सम्भव होती है तभी तक

दुनिया की अन्धेरी गलियों में
जगमागाती बिजली
पानी के उत्सर्ग की गाथा है ।

पानी के उत्सर्ग पर ही
टिका होता है
हमारे तुम्हारे घरों का स्थापत्य ।

घर में
पहला क़दम रखती है
नव वधु जब
द्वार पर दादी नानी
पानी दरपती हैं ।
पानी से ही वे करती हैं स्वागत
खलिहान से आए नवान्न का
रणभूमि से लौटे जवान का ।

पानी दौड़ता है
जीवन की सूखी नदियों में
और पथराया मन भी
रुनझुन बज उठता है ।

पानी टहलता है
दबी सोई जड़ों की बस्ती में
और लौट आती है
निर्वासन झेलती हरियाली ।

जिन्दगी की बड़ी धूप में
सफ़र करता हुआ
मुसाफ़िर कोई
गश खाकर गिर पड़ता है
तो पानी उसे दवा-सा मिलता है ।

वह पनिहारिन की आँख में
सबसे चौड़े खुले सीने
और अपनापा भरे काँधे-सा
चमकता है
जिसका दुख बाँटने वाला
घर में कोई नहीं होता है ।

अनुपस्थिति में भी
उपस्थित रहने का हुनर
दुनिया को पानी ने सिखाया
पानी ने सिखाया पुनर्नवा होना
प्रकृति के
पोर-पोर को ।

आग

आग से हमारा रिश्ता
उतना ही जीवन्त
और गहरा है
जितना कि पेड़ पवन और पानी से

पेड़ पवन और पानी की तरह
आग भी देवता होता है
यह बताते हुए
चेताती रहतीं हैं दादी नानी
आग चूल्हे की
कभी बुझे नहीं
ख्याल रखना आग बुझे नहीं
किसी भी सीने की ।

आग के महाकुण्ड में
पककर ही
नारंगी की तरह
गोल सुन्दर हुई है
हमारी धरती ।

आग में तप कर ही
खरा होता है
हमारी ज़िन्दगी का सोना
असल रूप धरता है
क़िस्मत का लोहा ।

आग से
हमने पानी को उबकाया
तो दुनिया की पटरी पर
दौड़ी पहली रेल गाड़ी ।

कुम्हार के आँवे को सुलगाया
तो हमें
पकी हण्डी, मटकी
और सुराही मिली,
मिले ईंट खपरे
खिलौने और गमले ।

गृहणी के हाथ में
आग जब पहुँची
हमने अन्न की मिठास को
भरपूर जाना….!

गोरसी में
शिशु देह की सेंकाई के लिए
जब सिपची वह
हमने माँ के गर्भ की
दहक के मर्म को पहचाना ।

आग की जोड़ का सम्वेदनशील
दुनिया में कौन होगा
जो बुझने के बाद भी
राख के ढेर में
धड़कती रहती है ।
एक ही फूँक से
जो दहक उठती है ।

तब आग की
एक लपट ही बहुत होती है
जब शासक की धमनियों में
पसर जाता है ठण्डापन
जुड़ा जाते हैं विचार ।

सुकाल में

इस बरस बारिश अच्छी हुई
माहो कटवा की मार से भी बची हुई है फ़सल
खड़ी फ़सल देख मेड़ पर बैठा जगतू सोच रहा है
बेटी के हाथ पीला कर देगा इस रामनवमी में
फ़सल कटी, खलिहान पहुँची
मिसाई हुई, अन्न माता घर आई
और दौड़े आया महाजन पीछे-पीछे
मिली नोटिस बैंक की
दो साल के नाहर नाले टैक्स की
याद दिलाने घर आया अमीन पटवारी भी

जगतू ने महाजन का पाई-पाई चुकाई
चुकता किया बैंक का ऋण
भरा नहर-नाले का टैक्स भी
इस तरह से जैसे जगतू जैसे गंगा-नहाया
रही बात बेटी की
तो जगतू ने बड़े धूमधाम से
नियत समय पर किया उसका ब्याह
दामाद को दिया उसकी पसन्द का टी० वी० और हीरो साइकिल
ठीक-ठाक की बारातियों की आवभगत
गोत्र जनों को जमाया भरपूर कलेवा

हाँ इस बीच हमारे गाँव के दुःख में जुड़ गया एक और दुःख
कि जगतू राम वल्द भुखऊ कलार भी
जा खड़ा हुआ उनमें
जो रहे सहे खेत बेचकर
उस सुकाल में भी
हों गए भूमिहीन खेतिहर

अनुपस्थिति पर फैली उपस्थिति

तुम्हारे अनुपस्थिति के दिनों में मैं
तुम्हारी उपस्थिति को ढंग से महासूस कर रहा हूँ
जैसे महसूस करता है किसान
पकी फ़सल में मिट्टी की उपस्थिति को
हवा पानी और धूप की उपस्थिति को

तुम मेरे हिस्से का धूप
हवा पानी धूप हों
और मिट्टी भी
तुमसे पक रही है फ़सल मेरे जीवन की

बँटे हुए घर की तस्वीर

इस साझे घर की दीवारें
हिलने-डुलने लगीं हैं अब
अक्सर टकरा उठते हैं आपस में
छोटे-बड़े बर्तन सभी
और बन्द हों जाते हैं
दरवाज़ें-खिडकियाँ
टकराहट शुरू होती है
और खाली तसले-सा काँपने लगता है
अस्सी वर्षीय बाबा का तन-बदन
अब रतियाँ सुनाई पडती हैं
देव खोली में सिसकियाँ
पुरखों यह कुटुम्ब जो जुड़ा रहा आपस में मया के तागे से
यह मेरी साँसों तन
राहट में गूँजता है
अन्तरनाद दादी का
जनम से साझेपन को जीता आया
एक कवि कई रातों के नींद का बोझ लिए
बँटे हुए घरों की बस्ती में भटक रहा है ।

मैं धूप का टुकड़ा नहीं

मैं धूप का टुकड़ा नहीं जो
आँगन में फुदककर लौट जाऊँगा
मैं तो धरती के प्राँगण में खुलकर खेलूँगा

चौकड़ी भरूँगा हिरनी-सा वन-प्रान्तर में
नापूँगा पहाड़ों की दुर्गम चोटियाँ
अँधेरे को नाथकर चाँद से बातें करूँगा

मेरी रगों में सूर्य के जाए
अन्नदाता का ख़ून है
मेरी जड़ों में गर्माहट है
महानदी की कोख की

ग्रीष्म हो बारिश हो या सर्दी
देह की ठण्डी परतें तोड़
पसीना ओगराऊँगा

मैं धूप का टुकड़ा नहीं
जो आँगन में फुदककर लौट जाऊँगा ।

 

 

 

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