Skip to content

बादा ए गुल को सब अंदोह रूबा कहते हैं

बादा ए गुल को सब अंदोह रूबा कहते हैं
अश्क ए गुल रंग में ढल जाए तो क्या कहते हैं

फ़ुर्सत-ए-बज़्म भी मालूम कि अरबाब-ए-नज़र
शोला-ए-शम्मा को हम दोश-ए-सबा कहते हैं

ये मुसलसल तिरा पैमाँ तिरी पैमाँ-शिकनी
हम इसे हासिल-ए-पैमान-ए-वफ़ा कहते हैं

क़स्र-ए-आज़ादी-ए-इंसाँ ही सही मय-ख़ाना
दर-ए-मय-ख़ाना की ज़ंजीर को क्या कहते हैं

ये रह-ए-ग़म के ख़म-ओ-पेच अजब हैं जिन को
ख़ुश-नज़र साया-ए-गेसू-ए-रसा कहते हैं

इश्क़ ख़ुद अपनी जगह मज़हर-ए-अनवार-ए-ख़ुदा
अक़्ल इस सोच में गुम किस को ख़ुदा कहते हैं

कोई किस दिल से भला उन का बुरा चाहेगा
जो भले लोग बुरों को भी भला कहते हैं

दिल-नशीं तेरे सिवा कोई नहीं कोई नहीं
कौन हैं वो जो तुझे दिल से जुदा कहते हैं

यही दीवाना जो फूलों से भी कतराता है
क्या इसी को ‘रविश’-ए-आबला-पा कहते हैं

दौर-ए-सबूही शोला-ए-मीना रक़्साँ छाँव में तारों की

दौर-ए-सबूही शोला-ए-मीना रक़्साँ छाँव में तारों की
पीर-ए-मुग़ाँ ने जाम उठाया ईद हुई मय-ख़्वारों की

कितने ही दर खुल जाएँगे जोश-ए-जुनूँ को बढ़ने दो
बंद रहेगा क्या दर-ए-ज़िंदाँ ख़ैर नहीं दीवारों की

काफ़िर-ए-इश्क़ समझ कर हम को कितने तूफ़ाँ उठते हैं
दिल की बात को किस से कह दें बस्ती हैं दीं-दारों की

पास-ए-अदब से इक काँटा हम ने चुना है पलकों से
आख़िर कुछ ताज़ीम थी लाज़िम दश्त-ए-वफ़ा के ख़ारों की

कितने दुख के दिन बीते हैं उस का भी था होश कहाँ
अपने हाल को कुछ समझा हूँ सूरत से ग़म-ख़्वारों की

ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ राज़ की जूया बाद-ए-सबा यकसर ग़म्माज़
बत तिरी ख़लवत तक पहुँची हम वहशी आवारों की

मौसम-ए-गुल रानाई ने दश्त में डेरे डाले हैं
तुम भी ‘रविश’ अब घर से निकलो रूत आई है बहारों की

एक लग्जिश में दर-ए-पीर-ए-मुँगा तक पहुँचे

एक लग्जिश में दर-ए-पीर-ए-मुँगा तक पहुँचे
हम भटकते थे कहाँ और कहाँ तक पहुँचे

लुत्फ़ तो जब है कि महरम-ए-हुस्न-ए-गुफ़्तार
हो कोई बात मगर हुस्न-ए-बुताँ तक पहुँचे

ये भी कुछ कम नहीं ऐ रह-रव-ए-इक़लीम-ए-यकीं
हम ख़राबात-नशीं हुस्न-ए-गुमाँ तक पहुँचे

तय हुई मंज़िल-ए-ख़ारा-शिकनी दो दिन में
लोग सदियों में दिल-ए-शीशा-गराँ तक पहुँचे

ज़ौक़-ए-शीरीनी-ए-गुफ़्तार फ़ुजूँ और हुआ
ज़हर जितने थे वो सब अहल-ए-ज़बाँ तक पहुँचे

वो कहाँ दर्द जो दिल में तिरे महदूद रहा
दर्द वो है जो दिल-ए-कौन-ओ-मकाँ तक पहुँचे

आग भड़की है तो अब कौन ये कह सकता है
शोला-ए-दामन-ए-तहज़ीब कहाँ तक पहुँचे

मावरा लफ़्ज़ ओ बयाँ से है वो हुस्न-ए-अज़ली
कम-नजर मरहला-ए-लफ़्ज़-ओ-बयाँ तक पहुँचे

फ़ैज-ए-मेहराब-ए-ग़ज़ल है कि ‘रविश’ अहल-ए-नजर
हुस्न-ओ-रानाई-ए-अंदाज़-ए-बयाँ तक पहुँचे

हुस्न-ए-असनाम ब-हर-लम्हा फ़ुजूँ है कि नहीं

हुस्न-ए-असनाम ब-हर-लम्हा फ़ुजूँ है कि नहीं
ये मिरे ज़ौक-ए-तमाशा का फ़ुसूँ है कि नहीं

कुछ तो इरशाद हो ऐ तम्किनत-ए-आन-ए-जमाल
इश्क़ शाइस्ता-ए-तहज़ीब-ए-जुनूँ है कि नहीं

ये जहान-ए-मय ओ मीना ओ सुबू ऐ वाइज़
परतव-ए-नर्गिस-ए-मस्ताना है क्यूँ है कि नहीं

शोला-ए-शम्मा से ख़ाकिस्तर-ए-परवाना तक
एक ही सिलसिला-ए-सोज़-ए-दरूँ है कि नहीं

हल्क़ा-ए-बाद-ए-सबा तजि़्करा-ए-जुल्फ़-ए-सनम
इस में कुछ शाएबा-ए-ज़ौक़-ए-जुनूँ है कि नहीं

बसते जाते हैं नगर दिल हैं तबाह ओ वीराँ
आगही दुश्मन-ए-दुनिया-ए-सुकूँ है कि नहीं

हम वो हैं आज ‘रविश’-ए-साहब-ए-दीवान-ए-ग़ज़ल
ये सब उस चश्म-ए-सुख़न-गो का फ़ुसूँ है कि नहीं

इश्क़ की शरह-ए-मुख़्तसर के लिए 

इश्क़ की शरह-ए-मुख़्तसर के लिए
सिल गए होंट उम्र भर के लिए

ज़िंदगी दर्द-ए-दिल से कतरा कर
दर्द-ए-सर बन गई बशर के लिए

दिल अज़ल से है शोला पैराहन
शम्अ जलती है रात भर के लिए

उस ने दिल तोड़ कर किया इरशाद
अब तसल्ली है उम्र भर के लिए

अब्र-ए-रहमत है इश्क़ का दामन
आतिश-ए-रज़्म-ए-ख़ैर-ओ-शर के लिए

हम भी कू-ए-बुताँ को जाते हैं
ऐ सबा क़स्द है किधर के लिए

वो तजल्ली है मुंतज़िर अब तक
किसी शाइस्ता-ए-नज़र के लिए

ख़ून-ए-दिल सर्फ़ कर रहा हूँ ‘रविश’
ख़ूब से नक़्श-ए-ख़ूब-तर के लिए

कहने को सब फ़साना-ए-ग़ैब-ओ-शुहूद था

कहने को सब फ़साना-ए-ग़ैब-ओ-शुहूद था
दर-पर्दा इस्तिआरा-ए-शौक़-ओ-नुमूद था

समझा न बुल-हवस किस कहते हैं इंतिज़ार
नादाँ असीर-ए-कशमकश-ए-देर-ओ-ज़ूद था

क्या आशिक़ी में हौसला-ए-मर्ग-ओ-ज़िंदगी
ख़्वाब ओ ख़याल मरहला-ए-हस्त-ओ-बूद था

सोचा था मय-कदा ही सही गोशा-ए-नजात
देखा तो इक हुजूम-ए-रूसूम-ए-ओ-क़यूद था

जाँ शाद-काम-ए-बोसा-ए-पा-ए-सनम हुई
कितना बुलंद ताला-ए-ज़ौक़-ए-सुजूद था

ये इश्क़ था कि जिस ने दिया रंग-ए-शोला-ताब
आलम तमाम नक़्श-ए-सुकूत-ओ-जुमूद था

ऐ दोस्त अब वो दौर-ए-तअम्मुल गुज़र चुका
जब दामन-ए-नज़र पे ग़ुबार-ए-हुदूद था

शब हम ग़ज़ल-सरा थे ‘रविश’ बज़्म-ए-नाज़ में
शम-ए-अदब-शनास के लब पर दुरूद था

ख़लवती-ए-ख़याल को होश में कोई लाए क्यूँ 

ख़लवती-ए-ख़याल को होश में कोई लाए क्यूँ
शोला-ए-तूर सही हम से नज़र मिलाए क्यूँ

हम से कुछ और ही कहा उन से कुछ और कह दिया
बाद-ए-सबा ये क्या किया तू ने ये गुल खिलाए क्यूँ

क़ैस का हासिल-ए-जुनूँ नाक़ा ओ महमिल ओ हिजाब
लैला-ए-नज्द-आश्ना ख़लवत-ए-दिल में आए क्यूँ

अक़्ल हरीस-ए-ख़ार-ओ-ख़स सूरत-ए-शोला-ए-हवस
दौलत-ए-सोज़-ए-जावेदाँ अक़्ल के हाथ आए क्यूँ

गर्दिश-ए-मेहर-ए-ओ-माह भी गर्दिश-ए-जाम बन गई
सुब्ह न लड़खड़ाए क्यूँ शाम न झूम जाए क्यूँ

तालिब-ए-हुज्ला-ए-बहार दश्त-ए-तलब है ख़ार-ज़ार
वक़्तत किसी की राह में मसनद-ए-गुल बिछाए क्यूँ

हश्र में हुस्न से ‘रविश’ शिकवा-ए-रू-ब-रू ग़लत
रोज़-ए-अज़ल की बात है आज ही याद आए क्यूँ

ख़िरद को गुमशुदा-ए-कू-ब-कू समझते हैं

ख़िरद को गुमशुदा-ए-कू-ब-कू समझते हैं
हम अहल-ए-इश्क़ तुझे रू-ब-रू समझते हैं

तिरे ख़याल की ख़ुशबू तिरे जमाल का रंग
हर इक को तक्मिला-ए-रंग-ओ-बू समझते हैं

कोई मक़ाम कोई मरहला नज़र में नहीं
कहाँ है क़ाफ़िला-ए-आरज़ू समझते हैं

बुतान-ए-शहर को ये ऐतराफ़ हो कि न हो
ज़बान-ए-इश्क़ की सब गुफ़्तुगू समझते हैं

हज़ार फ़ितना दर आग़ोश है सुकूँ तेरा
तुझे हम ऐ दिल-ए-आशुफ़्ता-ख़ू समझते हैं

हज़ार मंज़िल-ए-नौ यक फ़राग़-ए-गुमशुदगी
मआल-ए-हौसला-ए-जुस्तुजू समझते हैं

फ़क़ीह-ए-शहर से क्या पूछिए ‘रविश’ कि जनाब
ज़बान-ए-शीशा-ओ-जाम-ओ-सुबू समझते हैं

ख़्वाब-ए-दीदार न देखा हम ने 

ख़्वाब-ए-दीदार न देखा हम ने
ग़ाएबाना उन्हें चाहा हम ने

कम न था इश्क़ अज़ल से रूस्वा
कर दिया और भी रूसवा हम ने

ज़िंदगी महव-ए-ख़ुद-आराई थी
आँख उठा कर भी न देखा हम ने

राह से दूर नज़र आए जो ख़ार
उन को पलकों से उठाया हम ने

ले लिया कोह-ए-हवादिस सर पर
वक़्त के दिल को न तोड़ा हम ने

कर दिया फ़ाश तिरा ग़म ले कर
राज़-ए-एजाज़-ए-मसीहा हम ने

कोह संगीन-ए-हक़ाएक़ था जहाँ
हुस्न का ख़्वाब तराशा हम ने

Leave a Reply

Your email address will not be published.