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सुकीया बरनन

1.

चितवन छोर नैन कोर तें चलै न आगे,
बन धन बोल सदा लेखन लौं भाखी है।
निकसै न दंत मुक्त आभा सीप ओंठन तें
हँसिबे की चाव जो हिये में अभिलाखी है।
पूरन सनेह रसलीन घट भर राख,
रूखे जे सुभाव खली सभ दूर नाखी है।
और मुख जानि के कलंकी चंद नैन आनि,
पिय मुख भान के कमल करि राखी है॥24॥

2.

चमक चमक चारु चपला सी चमकत,
लपक लपक जात चाल पहिचानी है।
आँखन कटोरे प्यारी धरत दँबाला नारी,
नथुनी की सोभा भारी नैनन समानी है।
लाल हीरा मूठ में बिराजे सुभ रूप जात,
भुजनि की भाई छबि चित्त ठहरानी है।
देस देस जानी रघुनाथ हाथ की बिकानी,
सिद्ध की कृपानी कीधौं मेरी सीता रानी है॥25॥

3.

बदन जलज सोहै रदन जलज सोहै,
पदन जलज सोहै मोहि मन लेत है।
कोल जान रंभा सम बोल जाल रंभा सम,
लोल तान रंभा सम सोमा को निकेत है।
दुति चीन सारंग ज्यों कटि छीन सारँग ज्यौं,
लटरी निसा रँग ज्यों करत अचेत है।
मति बुद्धि जानकी सी गतिबुद्धि जानकी सी,
सतबुद्धि जानकी सी पति सुख देत है॥26॥

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