समय रहते दबा दो
मिट्टी में गहरे
उन सड़ी-गली परम्पराओं को
बदबू फैलाने से पहले
किसी लाश की तरह
क्योंकि फिर
नहीं झुठला पाओगे तुम
पानी और रेत से भरी
बाल्टी पर लिखे
‘आग’ जैसे
अपने दामन पर लगे
बदनुमां धब्बे को।
नहीं चाहिए हमें
तुम्हारी बैसाखियाँ
नहीं आना है
तुम्हारे फ़रेब में अब
सदियों से
करते रहे हो मनमानी
बदले बैसाखियों के
हमारे काँधों को
पहनाते रहे हो
गाड़ी का जुआ
करके सवारी
बरसाते रहे हो चाबुक
क्या
यही है हमारी नियति?
इससे तो अच्छा है
स्वाभिमान के साथ
ज़मीन पर रेंगना
कम से कम तब
तुम नहीं पहना पाओगे
हमारे काँधों को
गाड़ी का जुआ
नहीं छीन पाओगे
हमारा स्वाभिमान
नहीं कर पाओगे
हमें लहू-लुहान…
इसलिए हे द्विज श्रेष्ठ
ले जाओ अपनी बैसाखियाँ
अब हमें ख़ुद तय करनी है
अपनी मंज़िल
ख़ुद ही सीखना है
चलना
और जब हम
सीख लेंगे चलना
तब तो
विपरीत हो जाएँगी परिस्थितियाँ
उस वक़्त
गाड़ी का जुआ होगा
तुम्हारे काँधों पर
बिलबिलाओगे
चाबुक की पीड़ा से
पाँव दे जाएँगे जवाब
लड़खड़ाओगे
अपनी आत्मा का बोझ भी
नहीं सह पाओगे
तब हे मनु-श्रेष्ठ
भूख की बगल में
दबी-छटपटाती आत्मा को
धीरे-धीरे शरीर से
अलग होते देखा है कभी?
या देखा है उन्हें भी
जो गढ़ते हैं शकुनि के पाँसे—
निर्विकार भाव से
तुम
चाहे जो कह लो
चाहे जिस नाम से करके महिमामंडित
बैठा दो आसमान पर
लेकिन इतना जान लो कि
उनकी नग्नता को
नहीं छुपा पाएँगे अब
सदियों से बुने जा रहे शब्दजाल
क्योंकि हमें अब
आ गया है उगाना
सच!
पुल
जब भी उन्हें
पार करना होता है
नदी या नाला
तो ज़रूरत होती है पुल की—
पुल को
मज़बूत पाये की
पाये को बलि की
और बलि के लिए मनुष्य की
तब हमें
कीड़े-मकोड़ों की योनि से
निकालकर झाड़-पोंछकर बना देते हैं
मनुष्य
और खड़ा कर देते हैं
पहली पंक्ति में!
बहुत काम आएँगी तुम्हारे
ये बैसाखियाँ!
श्रेष्ठता का भ्रम पालने वाले
बना लें चाहे जितनी जमातें—
इतना तो तय है
मनुष्य की अब दो ही जमात हैं
ज़िन्दा रहने के लिए
किस तरफ़ जाओगे
फ़ैसला तुम्हें करना है
क्योंकि
हिंसक भीड़ का
अन्धा शिकार होता है
ठहरा हुआ आदमी!