मासूम और
निष्क्रिय नहीं हैं
ये फ़ाइलें।
विशाल रेगिस्तानी
रेत की तरह
ये सरकती हैं अनवरत
युगों की चाल से।
असंख्य ख़ुशियाँ, असंख्य उम्मीदें,
असंख्य उदीयमान प्रतिभाएँ
दफ़न हो जाती हैं इनके
निर्विकार बोझ के तले।
कुछ लुप्त हो जाती हैं
सदा के लिए,
कुछ अभरती हैं फिर
किसी भूचाल में,
किन्हीं प्राची
आपकी
दुकानों के आगे
खुले बरामदों में
बीतती हैं हमारी
ठिठुरती रातें
दिन भर
आपका बोझा ढोते हैं
रात को आप ही के
बरामदों में सोते हैं
आप मालिक हैं जनाब !
हम आपके नौकर हैं !
दुनिया आपकी है !
हम भी आपके !
न प्राणियों के
सुन्दर भग्नावशेषों की तरह।
छोटी-सी गिलहरी
मेरे कमरे में आती है
रोटी खाने के लिए
रख छोड़ता हूँ कमरे में जो रोटी
मैं फ़ालतू समझकर
गिलहरी जानती है कि मैं कमरे मे हूँ
मुझसे डरती है गिलहरी
सम्भल-सम्भल कर आती है
रखती है एक आँख मुझ पर !
ज़रा-सा हिलता हूँ
तो जाती है भाग !
जाने क्या सोचती है गिलहरी मेरे बारे में
नन्हीं-सी गिलहरी
जाने क्यों डरती है मुझसे
रोज़ आती है मेरे कमरे में
रोज़ मुझसे डरती है।
हमारी
हताशा की गहराई में से
अभरते हैं
उम्मीद से भरे शब्द।
मौत
सदा बैठी रहती है
हमारे सिरहाने;
फिर भी
हम ढूँढते हैं
जीवन में कोई अर्थ।
अपने विवेक के सहारे
अपने दिनों के अँधेरे में से
हम खींच निकालते हैं
उज़ाले की कोई फाँक–
अपनी रातों को आलोकित करने के लिए।