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मोची की व्यथा 

फटे जूते सी
ज़िन्दगी सीने के लिए
चमड़ा काटता है वह
किसी की जेब या गला नहीं

पॉलिश करने से पहले
दो कीलें भी ठोकता है
दो रुपयों के लिए
एक रुपया टिका कर
आगे बढ़ जाता है ग्राहक
उसके सीने में कीलें ठोककर

मजूरी पूरी न मिलने पर
चीख़ता है वह
जाते हुए सवर्ण पर
रुआँसा-हताश हो
बुदबुदाता है वह
‘रे राम
आज कितनी कीलें सहनी होंगी
साँझ तक?’

दलित कवि को 

दर्द के दस्तावेज़ को
सहेजकर रखने वाले
मेरे दलित कवि
भारतीय काव्य-जगत
जाग रहा है आपके रूप में
जंज़ीरें तोड़ने के लिए

थक मत जाना
भले ही डंक मारते रहें बिच्छू
कभी-कभी रोगी भी
दर्द बन जाता है चिकित्सक के लिए
किन्तु उपचार नहीं त्यागता वह

काश मुझे भी
अपने आदम से मिल जाए त्रिशूल
तो चुभाता रहूँ प्रतिकूलता पर
और निकालता भी रहूँ
नंगे पाँवों में चुभे शूलों को
हालाँकि
फ़र्क़ दिखाई नहीं पड़ता
आदमी और गैंडे की चमड़ी में।

ठकुराइन की सोच 

जनवरी के महीने में
सुबह की शीत को
ठोकर मारती हुई
कुएँ की मेड़ पर
प्राचीन संस्कृति की प्रतीक
गुलमोहरी बिन्दिया लगाए
टपरिया पर पड़ी छान-सी
तार-तार होती
ओढ़नी का पल्लू समेटे
पुराने तौलिए में
चाँद-सी ज्वार की रोटियाँ तीन
लहसुन की चटनी के साथ
युद्ध के मोर्चे पर जाती-सी वह
खुरपी उठाती है नींदने के लिए
तभी ऊनी शालधारी
ठकुराइन पूछती है—
तुझे ठंड नहीं लगती?
‘लहसुन की चटनी खाने वालों को
ठंड नहीं लगती माँ।’
आत्मविश्वास से सना उत्तर पाते ही
ठकुराइन कहती है—
‘तभी मैं सोचती हूँ
लहसुन और मिर्च इतने महँगे क्यों हैं?’

विधवा विवाह कार्यक्रम

सरकारी काम है जाना पड़ेगा
बताने को झाड़ू-पोंछा लगाना पड़ेगा
तेरे जैसी कोई दूसरी नहीं है
नहीं तो उसे ही पहुँचा देते
हरामज़ादी रात भर ऐश करेगी
नहीं तो कल भूखों मरेगी
विधवा आश्रम को क्या देती है सरकार
यह तो भला है तहसीलदार
जो सेवा का मौक़ा देता है
विधवाओं से काम लेता है
नहीं तो क्या रखा है तेरे धरम में
ऐश करना कहाँ है तेरे करम में
करम कर करमजली
भूखे को भली है सड़ी-गली
तू दूसरे की भूख मिटाएगी तो
ख़ुद भी तृप्त हो जाएगी
आश्रम का अनुदान बढ़ जाएगा
नहीं तो विधवा को कौन गले लगाएगा?
जल्दी कर गेट पर कार खड़ी है
वापस छोड़ जाएगी
रात भर में ठकुराइन बन जाएगी
बेचारी मान्यताओं की मारी
अधीक्षिका की मार से बचने के लिए
कुछ ही देर में
विश्राम-गृह पहुँच जाती है
जहाँ पर नेता जी ठहरे हैं
कल के विधवा विवाह कार्यक्रम के
मुख्य अतिथि हैं।

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