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लाल चंद प्रार्थी ‘चाँद’ कुल्लुवी की रचनाएँ

ख़ुश्क़ धरती की दरारों ने किया याद अगर

ख़ुश्क़ धरती की दरारों ने किया याद अगर
उनकी आशाओं का बादल हूँ बरस जाऊँगा
कौन समझेगा कि फिर शोर में तन्हाई के
अपनी आवाज़ भी सुनने को तरस जाऊँगा

हर आस्ताँ पे अपनी जबीने-वफा न रख

हर आस्ताँ पे अपनी जबीने-वफ़ा न रख
दिल एक आईना है इसे जा-ब-जा न रख

रख तू किसी के दर पे जबीं अपनी या न रख
दिल से मगर ख़ुदा का तसव्वुर जुदा न रख

अफ़सोस हमनवाई के मआनी बदल गए
मैंने कहा था साथ कोई हमनवा न रख

मंज़िल ही उसकी आह की आतिश से जल न जाए
हमराह कारवाँ के कोई दिलजला न रख

घर अपना जानकर हैं मकीं तेरे दिल में हम
हम ग़ैर तो नहीं हैं हमें ग़ैर-सा न रख

होता तो होगा ज़िक्र मेरा भी बहार में
मुझसे छुपा के बात कोई ऐ सबा न रख

आवाज़ दे कहीं से तू ऐ मंज़िले-मुराद
इन दिलजलों को और सफ़र-आशना न रख

वुसअत में इसकी कोनो-मकाँ को समेट ले
महदूद अपने ख़ाना-ए-दिल की फ़िज़ा न रख

अच्छा है साथ-साथ चले ज़िंदगी के तू
ऐ ख़ुदफ़रेब इससे कोई फ़ासला न रख

राहे-वफ़ा में तेरी भी मजबूरियाँ सही
इतना बहुत है दिल से मुझे तू जुदा न रख

रौशन हो जिसकी राहे-अदम तेरी याद में
उस ख़स्ता-तन की क़ब्र पे जलता दिया न रख

ऐ चाँद आरज़ूओं की तकमील हो चुकी
रुख़सत के वक़्त दिल में कोई मुद्दआ न रख

निगाहे-शम्स-ओ-क़मर भी जहाँ पे कम ठहरे

निगाहे-शम्स-ओ-क़मर [1] भी जहाँ पे कम ठहरे
उसी मक़ाम पे राहे-तलब में हम ठहरे

हज़ार संगे-गिराँ माय: थे तराशीदा
जो बुतकदे में सजाए गए सनम ठहरे

जहाँ पे रुक के दमे-इल्तिफ़ात घुटता है
न जाने क्यों उसी मंज़िल पे आ के हम ठहरे

मेरे नसीब ने यूँ भी मुझे नवाज़ा है
सितम ज़माने के मेरे लिए करम ठहरे

न रंग-रूप की वादी न हुस्ने-फ़िक्रो-ख़याल
ये क्या मकाम पे यारब मेरे क़दम ठहरे

हम उस जहान में रहते हैं दोस्तो कि जहाँ
ख़ुशी भी ग़म में पले ग़म तो ख़ैर ग़म ठहरे

मेरे ख़याल का हैरतकदा सँवर जाए
जो मेरे दर पे तेरा आख़िरी क़दम ठहरे

ख़ुशी से मर न सकूँ ये भी क्या महब्बत है
ख़ुदा करे तेरा मिलना मेरा भरम ठहरे

अज़ल से हैं ग़मे-दौराँ के हमरकाब ऐ ‘चाँद’
जहाँ रुका ग़मे-दौराँ वहीं‍ पे हम ठहरे

कौन कहता है कि हम बेसरो-सामाँ निकले

कौन कहता है कि हम बेसरो-सामाँ[1] निकले
बज़्म से आज भी हम हश्र-बदामाँ[2] निकले

यह न हो ख़ाना-ए-दिल शहरे-ख़मोशाँ निकले
क्या ज़रूरी है कि जो क़तरा है तूफ़ाँ निकले

इब्ने-आदम[3] की तरक्की का भरम टूट गया
हम जिन्हें शहर समझते थे बियाबाँ निकले

हमने सहरा की ख़मोशी को भी बख़्शा है कलाम
आप गुलशन से भी अंगुश्त-बदन्दाँ[4] निकले

हिज्र की रात पे बरसात का होता था गुमाँ
अश्क़ भी आज मेरी शान के शायाँ निकले

वक़्त ने ख़ूब निकाले थे हमारे कस-बल
शुक्र ये है कि करम तेरे फ़रावाँ निकले

जा बसूँ आलमे-इम्काँ से परे जन्नत में
तेरी जन्नत न कहीं आलमे-इम्काँ निकले

मंज़िले-ज़ीस्त ने जब ढूँढना चाहा मुझको
हम ख़िज़ाँ में भी कहीं ग़र्क़े-बहाराँ निकले

आड़े आ जाता है अंगुश्ते-नुमाई [5] का ख़याल
वरना ये ज़िंदगी और हमसे गुरेज़ाँ निकले

तेरी रहमत का तो हक़दार नहीं मैं यारब
दे मुझे जितनी भी अब फ़ुर्सते-असियाँ[6] निकले

जिन को देखा था सितारों से उलझते शब को
सुबह देखा तो हमारे ही वो अरमाँ निकले

ख़ाक-पोशी ही गुनाहों का सबब है ऐ ‘चाँद’
ज़िन्दगी ख़ाक के परदे से भी उरियाँ [7]निकले

दिल पे जब चोट लगेगी सुन लो

दिल पे जब चोट लगेगी सुन लो
ज़िंदगी और हँसेगी सुन लो

देखकर रंगे-सियह-बख़्ती-ए-जाँ[1]
उम्र भी बच के चलेगी सुन लो

सुन के शहनाई के दिलकश नग़्मे
ग़म की इक लहर उठेगी सुन लो

इक ज़रा भी जो हुई लग़्ज़िशे-पा[2]
राह भी चाल चलेगी सुन लो

रात जागेगी तुम्हारे ग़म में
नींद आँखों पे हँसेगी सुन लो

हम न होंगे तो चमन होगा उदास
बू-ए-गुल हाथ मलेगी सुन लो

आशियाँ तक अगर आई बिजली
शाख़ कोई तो जलेगी सुन लो

उनसे मिलने की है बेचैनी ‘चाँद’
शाम ढलते ही ढलेगी सुन लो

क्या तर्ज़े-तबस्सुम है कि तहरीर लगे है

क्या तर्ज़े-तबस्स्तुम है कि तहरीर लगे है
बदला हुआ तेवर मेरी तक़दीर लगे है

सैय्याद की इस तर्ज़े-तग़ाफ़ुल को तो देखो
ताके है इधर और उधर तीर लगे है

क्यों वक़्ते-सफ़र देख लिया प्यार से तुमने
हर तारे-नज़र पाँवों की ज़ंजीर लगे है

आँसू ली ज़बाँ कुछ नहीं ये ख़ुद ही ज़बाँ है
आ जाए रवानी पे तो तक़रीर लगे है

क्या तेरी जफ़ाएँ कहीं दम तोड़ रही हैं
क्यों जाद-ए-मंज़िल मुझे दिलगीर लगे है

सीधा तो करो तीर ये दिल है ये जिगर है
तिरछी हो अगर आँख तो क्या तीर लगे है

जिस ख़्वाब में होना था मुलाक़ात का वादा
वो ख़्वाब किसी ख़्वाब की ताबीर लगे है

होता नहीं ऐ ‘चाँद’ असर आह का उन पर
इस में कोई तक़दीर की ताख़ीर लगे है

मेरी तक़दीर सँवर जाती उजालों की तरह

मेरी तक़दीर सँवर जाती उजालों की तरह
तुम मुझे चाहते गर चाहने वालों की तरह

तेरे ख़्वाबों में कभी मेरी गुज़र हो न सका
मैं ज़बूँ बख़्त रहा हिज्र के नालों की तरह

आरज़ू झूम उठी आस ने अँगड़ाई ली
तुमने जब देख लिया देखने वालों की तरह

ज़िन्दगी दूर से लगती थी सुहानी कितनी
पास आई तो ये लगती है वबालों की तरह

जाने क्या कहती है दुज़दीदा निगाही तेरी
अश्क आँखों में झलकते हैं सवालों की तरह

मंज़िले-शौक़ मेरे दिल का भरम रख लेना
मैं भटक जाता हूँ आवारा ख़यालों की तरह

मैं बहर तूर हूँ तख़्लीक़े-मुसलसल का जवाब
हल मुझे कीजिए पेचीदा सवालों की तरह

इक फ़क़त फूल नहीं ग़म का मदावा ऐ ‘चाँद’
ख़ार भी पालता हूँ पाँवों के छालों की तरह

सरे-नियाज़ तेरे दर पे हम झुका के चले

सरे-नियाज़ तेरे दर पे हम झुका के चले
मताए-सब्रो-सुकूँ आज हम लुटा के चले

ये बेनियाज़ी-ए-फ़ितरत का था कमाल कि हम
चराग़े-ज़ीस्त लिए सामने हवा के चले

उड़ान उसकी वजूद-ओ-अदम की हायल है
कहो ख़याल से अब यूँ न लड़खड़ा के चले

सितम शुमार ज़माने से क्या गिला करते
नज़र नवाज़ भी हमसे नज़र चुरा के चले

मिज़ाजे-अहले-चमन ख़ार-ख़ार लगता है
सबा को चाहिए अपनी क़बा बचा के चले

ग़ुबारे-वक़्त ने चेहरे कुछ ऐसे पोते हैं
न कोई रो ही सके और न मुस्कुरा के चले

ये कैसा वक़्त भला हम पे आने वाला है
हमारे दोस्त ही हमसे नज़र बचा के चले

मिटा तो लो अभी दामने से दाग़हाये अना
ये किस लिबास में तुम सामने ख़ुदा के चले

किसी को ‘चाँद’ से शिक़वा है बेवफ़ाई का
वफ़ा के नक़्श कहाँ थे जो हम मिटा के चले

ख़ुशी की बात मुक़द्दर से दूर है बाबा

ख़ुशी की बात मुक़द्दर से दूर है बाबा
कहीं निज़ाम में कोई फ़तूर है बाबा

जो सो रहा है लिपट कर अना के दामन से
जगा के देख ये मेरा शऊर है बाबा

घटाएँ पी के भी सहरा की प्यास रखता हूँ
न जाने प्यास में कैसा सरूर है बाबा

भरी बहार में बैठे हैं हम अलम-बकनार
ज़रा बता कि ये किसका क़सूर है बाबा

तेरी निगाह में जो एक जल्वा देख लिया
मेरे लिए वही असरारे-तूर है बाबा

मये-निशात में देखा है झूमकर बरसों
मये-अलम में भी देख अब सरूर है बाबा

गुमान सुबहे-बदन है यक़ीन शामे-नज़र
ढला हुआ तेरे सांचे में नूर है बाबा

कभी कोई तो उसे जोड़ पाएगा शायद
अभी तो शीशा-ए-दिल चूर-चूर है बाबा

नमूदे-नौ में तेरे ही तस्व्वुराते-हसीं
तेरा ख़याल बिना-ए-शऊर है बाबा

मेरा वजूद तेरे शौक़ का नतीजा है
इसी लिए तो ये साए से दूर है बाबा

छुपा -छुपा के मैं रक्खूँ कहाँ इसे ऐ ‘चाँद’
मताए-ज़ीस्त ये तेरे हुज़ूर है बाबा

हमारे पास तेरे प्यार के सिवा क्या है

हमारे पास तेरे प्यार के सिवा क्या है
बताओ प्यार में तकरार के सिवा क्या है

न जाने कब से लहू फ़न को दे रहा हूँ मैं
रगों में गर्मी-ए-अशआर के सिवा क्या है

है ख़ास रब्त जिसे मरियम-ओ-मसीहा से
वो ख़ू-ए-लज़्ज़ते-आज़ार के सिवा क्या है

न रंगो-बू का तक़ाज़ा न शर्ते-क़ौसे-कुज़ह
मेरी बहार भी इसरार के सिवा क्या है

दिलों के फ़ासले कुछ कम करो ख़ुदा वालो !
नमाज़े-ज़िंदगी किरदार के सिवा क्या है

हमारे पास बहुत कुछ नहीं लुटाने को
तुम्हारे पास भी दीदार के सिवा क्या है

न रूठना, न मनाना, न कोई करना
क़रार पाने को इक़रार के सिवा क्या है

फिरे है ‘चाँद’ ज़मीं पर ख़ुशी से इतराता
जो देखिये तो वो फ़नकार के सिवा क्या है

फ़रेबे-ज़िंदगी है और मैं हूँ

फ़रेबे-ज़िंदगी है और मैं हूँ
बला की बेबसी है और मैं हूँ

वही संजीदगी है और मैं हूँ
वही शोरीदगी है और मैं हूँ

जहाँ मैं हूँ वहाँ कोई नहीं है
मेरी आवारगी है और मैं हूँ

बढ़ा जाता हूँ ख़ुद राहे-अदम पर
तुम्हारी रौशनी है और मैं हूँ

जनाज़ा उठ चुका है दिलबरी का
शिकस्ते-आशिक़ी है और मैं हूँ

तमाशाई हूँ अपनी हसरतों का
किसी की बेरुख़ी है और मैं हूँ

निगाहों में उधर बेबाकियाँ हैं
इधर शर्मिंदगी है और मैं हूँ

वहाँ ढूँढो मुझे ऐ ‘चाँद’ जाकर
जहाँ बस आगही है और मैं हूँ

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