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अख़्तर-उल-ईमान की रचनाएँ

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काले-सफ़ेद परोंवाला परिंदा और मेरी एक शाम

यह नज़्म अधूरी है। अगर आपके पास उपलब्ध है तो कृपया इसे पूरा कर दें।

बर्तन,सिक्के,मुहरें, बेनाम ख़ुदाओं के बुत टूटे-फूटे
मिट्टी के ढेर में पोशीदा चक्की-चूल्हे
कुंद औज़ार, ज़मीनें जिनसे खोदी जाती होंगी
कुछ हथियार जिन्हे इस्तेमाल किया करते होंगे मोहलिक हैवानों पर
क्या बस इतना ही विरसा है मेरा ?
इंसान जब यहाँ से आगे बढ़ता है, क्या मर जाता है ?

मैं पयम्बर नहीं 

यह नज़्म अधूरी है। अगर आपके पास उपलब्ध है तो कृपया इसे पूरा कर दें।

मैं पयंबर नहीं
देवता भी नहीं
दूसरों के लिए जान देते हैं वो
सूली पाते हैं वो
नामुरादी की राहों से जाते हैं वो
मैं तो परवर्दा हूँ ऐसी तहज़ीब का
जिसमें कहते हैं कुछ और करते हैं कुछ
शर-पसंदों की आमाजगह
अम्न की क़ुमरियाँ जिसमें करतब दिखाने में मसरूफ़ हैं
मैं रबड़ का बना ऐसा बबुआ हूँ जो
देखता, सुनता, महसूस करता है सब
पेट में जिसके सब ज़हर ही ज़हर है
पेट मेरा गर कभी दबाओगे
जिस क़दर ज़हर है
सब उलट दूँगा तुम सबके चेहरों पे मैं !

तहलील

मेरी माँ अब मिट्टी के ढेर के नीचे सोती है
उसके जुमले, उसकी बातों,
जब वह ज़िंदा थी, कितना बरहम (ग़ुस्सा) करती थी
मेरी रोशन तबई (उदारता), उसकी जहालत
हम दोनों के बीच एक दीवार थी जैसे

‘रात को ख़ुशबू का झोंका आए, जि़क्र न करना
पीरों की सवारी जाती है’
‘दिन में बगूलों की ज़द में मत आना
साये का असर हो जाता है’
‘बारिश-पानी में घर से बाहर जाना तो चौकस रहना
बिजली गिर पड़ती है- तू पहलौटी का बेटा है’

जब तू मेरे पेट में था, मैंने एक सपना देखा था-
तेरी उम्र बड़ी लंबी है
लोग मोहब्बत करके भी तुझसे डरते रहेंगे

मेरी माँ अब ढेरों मन मिट्टी के नीचे सोती है
साँप से मैं बेहद ख़ाहिफ़ हूँ
माँ की बातों से घबराकर मैंने अपना सारा ज़हर उगल डाला है
लेकिन जब से सबको मालूम हुआ है मेरे अंदर कोई ज़हर नहीं है
अक्सर लोग मुझे अहमक कहते हैं ।

उर्दू से लिप्यंतर : फ़ज़ल ताबिश

आख़िरी मुलाक़ात

आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत [1]मनाएँ हम

आती नहीं कहीं से दिल-ए-ज़िन्दा की सदा
सूने पड़े हैं कूचा-ओ-बाज़ार इश्क़ के
है शम-ए-अंजुमन का नया हुस्न-ए-जाँ गुदाज़[2]
शायद नहीं रहे वो पतंगों के वलवले[3]
ताज़ा न रख सकेगी रिवायात-ए-दश्त-ओ-दर
वो फ़ित्नासर[4] गए जिन्हें काँटें अज़ीज़ थे

अब कुछ नहीं तो नींद से आँखें जलाएँ हम
आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनाएँ हम

सोचा न था कि आएगा ये दिन भी फिर कभी
इक बार हम मिले हैं ज़रा मुस्कुरा तो लें
क्या जाने अब न उल्फ़त-ए-देरीना[5] याद आए
इस हुस्न-ए-इख़्तियार पे आँखें झुका तो लें
बरसा लबों से फूल तेरी उम्र हो दराज़
संभले हुए तो हैं, पर ज़रा डगमगा तो लें ।

उर्दू से लिप्यंतर : लीना नियाज

बेत‍आल्लुक़ी

शाम होती है सहर होती है ये वक़्त-ए-रवाँ[1]
जो कभी मेरे सर पे संग-गराँ[2] बन के गिरा
राह में आया कभी मेरी हिमाला[3] बन कर
जो कभी उक्दा[4] बना ऐसा कि हल ही न हुआ
अश्क बन कर मेरी आँखों से कभी टपका है
जो कभी ख़ून-ए-जिगर बन के मिज़श्गाँ[5] पर आया
आज बेवास्ता[6] यूँ गुज़रा चला जाता है
जैसे मैं कश्मकश-ए-ज़ीस्त में शामिल ही नहीं

उर्दू से लिप्यंतर : लीना नियाज

बिंत-ए-लमहात

तुम्हारे लहजे में जो गर्मी-ओ-हलावत[1] है
इसे भला सा कोई नाम दो वफ़ा की जगह
गनीम[2]-ए-नूर का हमला कहो अँधेरों पर
दयार-ए-दर्द में आमद[3] कहो मसीहा की
रवाँ-दवाँ[4] हुए ख़ुशबू के क़ाफ़िले हर सू
ख़ला-ए-सुबह[5] में गूँजी सहर की शहनाई
ये एक कोहरा सा ये धुँध सी जो छाई है
इस इल्तहाब[6] में सुर्मगीं[7] उजाले में
सिवा तुम्हारे मुझे कुछ नज़र नहीं आता
हयात नाम है यादों का तल्ख़ और शीरीं
भला किसी ने कभी रन्ग-ओ-बू को पकड़ा है
शफ़क़[8] को क़ैद में रखा सबा को बन्द किया
हर एक लमहा गुरेज़ाँ[9] है जैसे दुश्मन है
न तुम मिलोगी न मैं हम भी दोनों लम्हे हैं
वो लम्हें जाके जो वापस कभी नहीं आते

उर्दू से लिप्यंतर : लीना नियाज

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें मिठास, आत्मीयता
  2. ऊपर जायें दुश्मन
  3. ऊपर जायें आगमन
  4. ऊपर जायें फैली हुई, बिखरी हुई
  5. ऊपर जायें सुबह की शान्ति
  6. ऊपर जायें उदासीनता, निराशा
  7. ऊपर जायें सुरमई
  8. ऊपर जायें झुटपुटा
  9. ऊपर जायें भागना, पलायन करना

इत्तेफ़ाक़

दयार-ए-ग़ैर में कोई जहाँ न अपना हो
शदीद कर्ब[1] की घड़ियाँ गुज़ार चुकने पर
कुछ इत्तेफ़ाक़ हो ऐसा कि एक शाम कहीं
किसी एक ऐसी जगह से हो यूँ ही मेरा गुज़र
जहाँ हुजूम-ए-गुरेज़ाँ[2] में तुम नज़र आ जाओ
और एक-एक को हैरत से देखता रहे

उर्दू से लिप्यंतर : लीना नियाज

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें दुख
  2. ऊपर जायें भागती हुई भीड़

जुमूद

तुम से बेरंगी-ए-हस्ती का गिला करना था
दिल पे अंबार है ख़ूँगश्ता[1] तमन्नाओं का
आज टूटे हुए तारों का ख़याल आया है
एक मेला है परेशान-सी उम्मीदों का
चंद पज़मुर्दा[2] बहारों का ख़याल आया है
पाँव थक-थक के रह जाते हैं मायूसी में
पुरमहन[3] राहगुज़ारों का ख़याल आया है
साक़ी-ओ-बादा नहीं जाम-ओ-लब-ए-जू[4] भी नहीं
तुम से कहना था कि अब आँख में आँसू भी नहीं

उर्दू से लिप्यंतर : लीना नियाज

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें जिनसे ख़ून टपक रहा है
  2. ऊपर जायें मुरझाई हुई, कुम्हलाई हुई
  3. ऊपर जायें दुखभरी
  4. ऊपर जायें नदी किनारे

तसव्वुर

फिर वही माँगे हुए लम्हे, फिर वही जाम-ए-शराब
फिर वही तारीक रातों में ख़याल-ए-माहताब
फिर वही तारों की पेशानी पे रंग-ए-लाज़वाल
फिर वही भूली हुई बातों का धुंधला-सा ख़याल
फिर वो आँखें भीगी भीगी दामन-ए-शब में उदास
फिर वो उम्मीदों के मदफ़न[1] ज़िंदगी के आस-पास
फिर वही फ़र्दा[2] की बातें फिर वही मीठे सराब[3]
फिर वही बेदार[4] आँखें फिर वही बेदार ख़्वाब
फिर वही वारफ़्तगी[5] तन्हाई अफ़सानों का खेल
फिर वही रुख़्सार वो आग़ोश वो ज़ुल्फ़-ए-सियाह
फिर वही शहर-ए-तमन्ना फिर वही तारीक राह
ज़िन्दगी की बेबसी उफ़्फ़ वक़्त के तारीक जाल
दर्द भी छिनने लगा उम्मीद भी छिनने लगी
मुझ से मेरी आरज़ू-ए-दीद भी छिनने लगी
फिर वही तारीक[6] माज़ी फिर वही बेकैफ़[7] हाल
फिर वही बेसोज़ लम्हें फिर वही जाम-ए-शराब
फिर वही तारीक रातों में ख़याल-ए-माहताब

उर्दू से लिप्यंतर : लीना नियाज

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें मक़बरा, समाधि
  2. ऊपर जायें आने वाला कल, भविष्य
  3. ऊपर जायें भ्रम
  4. ऊपर जायें निद्राविहीन
  5. ऊपर जायें ख़ुद अपने आप में खोया हुआ
  6. ऊपर जायें काला, अँधेरा
  7. ऊपर जायें उमंगहीन, जीवनहीन

इज़हार 

दबी हुई है मेरे लबों में कहीं पे वो आह भी जो अब तक
न शोला बन के भड़क सकी है न अश्क-ए-बेसूद[1] बन के निकली
घुटी हुई है नफ़स की हद में जला दिया जो जला सकी है
न शमा बन कर पिघल सकी है न आज तक दूद[2] बन के निकली
दिया है बेशक मेरी नज़र को वो परतौ[3] जो दर्द बख़्शे
न मुझ पर ग़ालिब[4] ही आ सकी है न मेरा मस्जूद[5] बन के निकली

उर्दू से लिप्यंतर : लीना नियाज

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें निरर्थक आँसू
  2. ऊपर जायें धुआँ
  3. ऊपर जायें छवि
  4. ऊपर जायें विजयी, विजयमानी
  5. ऊपर जायें प्रार्थना, दुआ

आगही

मैं जब तिफ़्ल-ए-मकतब था, हर बात, हर फ़ल्सफ़ा जानता था
खड़े हो के मिम्बर पे पहरों सलातीन-ए-पारीन-ओ-हाज़िर
हिकायात-ए-शीरीन-ओ-तल्ख़ उन की, उन के दरख़्शाँ जराएम
जो सफ़्हात-ए-तारीख़ पर कारनामे हैं, उन के अवामिर
नवाही, हकीमों के अक़वाल, दाना ख़तीबों के ख़ुत्बे
जिन्हें मुस्तमंदों ने बाक़ी रक्खा उस का मख़्फ़ी ओ ज़ाहिर
फ़ुनून-ए-लतीफ़ा ख़ुदावंद के हुक्म-नामे, फ़रामीन
जिन्हें मस्ख़ करते रहे पीर-ज़ादे, जहाँ के अनासिर
हर इक सख़्त मौज़ू पर इस तरह बोलता था कि मुझ को
समुंदर समझते थे सब इल्म ओ फ़न का, हर इक मेरी ख़ातिर
ये महसूस होता है सोते से उट्ठा हूँ, हिलने से क़ासिर
किसी बहर के सूने साहिल पे बैठा हूँ गर्दन झुकाए
सर-ए-शाम आई है देखो तो है आगही कितनी शातिर!

यही शाख़ तुम जिसके नीचे चश्म-ए-नम हो 

यही शाख़ तुम जिसके नीचे चश्म-ए-नम हो
अब से कुछ साल पहले
मुझे एक छोटी बच्ची मिली थी
जिसे मैंने आग़ोश में
ले कर पूछा था, बेटी
यहां क्यूं खड़ी रो रही हो
मुझे अपने बोसीदा आंचल में
फूलों के गहने दिखा कर
वह कहने लगी
मेरा साथी, उधर
उसने अपनी उंगली उठा कर बताया
उधर, उस तरफ़ ही
जिधर ऊंचे महलों के गुंबद
मिलों की सियाह चिमनियां
आसमां की तरफ़ सर उठाए खड़ी हैं
यह कह कर गया है कि, मैं
सोने चांदी के गहने तेरे
वास्ते लेने जाता हूं, रामी

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