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अग्निशेखर की रचनाएँ

अग्निशेखर.JPG

तड़प

अरे, मेरा करो अपहरण
ले जाओ मुझे अपने यातना-शिविर में
कुछ नहीं कहूंगा मैं
करो जो कुछ भी करना है
मेरे शरीर के साथ
ज़िन्दा जलाओ, काटो
उआ दफ़न करो कहीं मुझे
नदी के किनारे
बर्फ़ीले पहाड़ों पर
किसी गाँव में
या कस्बाई गली में
कहीं घूरे के नीचे

मैं तरस गया हूँ
अपनी ज़मीन के स्पर्श के लिए

थोड़ा-सा प्रकाश 

मेरी सोई हुई माँ के चेहरे पर
किसीछिद्र से पड़ रहा है
थोड़ा-सा प्रकाश
हिल रही हैं उसकी पलकें
कौन कर रहा है इस अंधेरे में
सुबह की बात

मरीना स्विताएवा

कवि वरयाम सिंह के लिए

मेरी गहरी नींद में उसने
टार्च की लम्बी रोशनी फेंकी
और मैंने उसे अपने अन्दर गिरती बर्फ़ में
पेड़ के नीचे खड़े देखा

रात के घने अंधेरे में कहा उसने
मैं न तुमसे प्रेम करूंगी और न विवाह
मैं बचाना चाहती हूँ तुम्हें ध्वस्त होने से

मैंने उसे अपनी माँ के बारे में बताया
जिसने हमारे नए वर्ष की सुबह
मुँह देखने के लिए
सिरहाने की थाली में रखा था
उसका कविता-संग्रह
उसने महसूस किया दुनिया में हर कहीं
वह अपने ही घर में है

उसने जानना चाहा मेरे उस प्रेम के बारे में
जिसने धकेल दिया मुझे
जलावतनी में
वह उलटती-पलटती रही
मेरी फिर से जमा हुई किताबों को
और कुरेदती रही
मेरे छूटे हुए वतन की स्मृतियों को

मैंने उससे शिकायत की
लम्बे अर्से से चिट्ठी न लिखने की
वह भागी
गिरती हुई बर्फ़ में यह कहकर
पहले लेकर आऊंगी
कविताओं के दिन

तूत के अंगार

जब कविताएँ वजह बनीं
मेरे निष्कासन की
मैंने और ज़्यादा प्यार किया
जोख़िम से
अवसाद और विद्रोह के लम्हों में
मैंने मारी आग में छलांग
और जिया
शायर होने की क़ीमत अदा करते हुए

मुझ तक आने के रास्ते में बिछे हैं
तूत के दहकते अंगार
कौन आता नंगे पाँव
मेरी वेदना के पास

माइकिल एंजिलो की पहली बहन

वह कातती है धागा
ठहरी हुई चीज़ों के लिए वह कातती है गति
दौड़ पड़ते हैं बच्चे
उड़ती हैं चिड़ियाँ
हरी घास की तरह फैलती है मुस्कान
यादें खोलती हैं पंखुड़ियाँ
उसके धागे कातने से बजता है समय
मैं सुनता हूँ अपने भीतर
कातने की आवाज़
जो उतरने लगती है काग़ज़ पर
सघन कविता की तरह
माइकिल एंजिलो, मैं तुम्हारी बहन से
करता हूँ प्यार
वह मुझे कात रही है महीन

माइकिल एंजिलो की दूसरी बहन

ओ, धागा नापने में व्यस्त
माइकिल एंजिलो की दूसरी बहन
तुम्हें ही मालूम है
यहाँ किसके उधड़े ज़ख़्मों को सिया नहीं जाना है
यह पृथ्वी, आकाश, तारे, पंछी, मौसम,
लोग और उनकी आकांक्षाएँ
जिस धागे से बँधी हुई हैं
तुम ही जानती हो
वह कितना कमज़ोर हो चुका है

बहन, तुम जानती हो कि किसके कितने
आयाम हैं
और कमी भी नहीं है तुम्हारे पास नापने के लिए
अनन्त धागे की
मैं साहस नहीं कर पा रहा तुमसे यह कहने का
कि तुम्हारे लिए मैंने छिपाकर रखा है
अपना कपास

माइकिल एंजिलो की तीसरी बहन

वह झटककर तोड़ती है धागा
और बची हुई मनुष्यता को मरने नहीं देती
ऎसा नहीं कि तोड़ना उसकी आदत है
और अपनी बहनों से बनती नहीं उसकी
जिन लोगों ने तीनों बहनों के सामने से गुज़रकर
उन्हें आपस में बतियाते हुए देखा है
जानते हैं वे उनके आपसी प्रेम को

परन्तु यह बहन तोड़ती रहती है धागा
उसे पसन्द नहीं कि मन से उखड़ने के बाद भी
वह ढोती फिरे घिसे हुए सम्बन्ध
और भूल जाए खुली हवा में साँस लेने की आदत

माइकिल एंजिलो, मैं तुम्हारी इस बहन को
दिखाना चाहता हूँ अपना बहुत-सा धागा
जो मेरे अन्दर उलझा पड़ा है
गचड़-पचड़ में

घास

हर तरफ़
आदमी से ऊँची घास थी
घनी और आपस में गुँथी हुई
वहीं कहीं थी हमारी पगडंडी
जिसे हम खोज रहे थे
अंधेरा था
मालूम नहीं पड़ रहे थे पैर
कहाँ उलझ रहे हैं
हमें पहुँचना था अपनों के पास
फड़फड़ा रहा था दिल
सन्नाटे में झूम रही थी घास
उन्हीं कुछ लम्हों से बचाना था
हमें अपना इतिहास

तमस

तमस हर तरफ़ खिंचा-पसरा था
जैसे खड़ा था सामने एक भयानक रीछ
और हम सहमे हुए थे
खो गया था सबका दिशाबोध
घड़ियों में ज़रूर बज रहा था कुछ
पता नहीं कहाँ पर थे उस वक़्त खड़े हम
ख़त्म हो जाने के खिलाफ़ मूक
किसी भी छोर से सूरज उगने तक
हमने बचाई किसी तरह
जीवन की लौ

डूब रहे हैं

धँसते जा रहे हैं हम
पहाड़ों से उतरकर
दलदल में
किसे आवाज़ दें रात के इस पहर में
दूर-दूर तक पानी पर
झूल रहा है
आधे कोस का चांद
सन्नाटे में डूब रहे हैं हम

मेरी खाल से बने दस्ताने

दस्तानों में छिपे हैं
हत्यारों के हाथ
एक दिवंगत आदमी कह रहा है
हर किसी के सामने जाकर,
ये दस्ताने
मेरी खाल से बने हुए हैं

ख़ुश हैं हत्यारे
कि सभ्य लोग नहीं करते हैं
आत्माओं पर विश्वास

भय मुक्त

घर के अन्दर भी ख़तरा था
घर से बाहर भी था जोख़िम
उन्होंने खाया तरस
हमारी हालत पर
और एक-एक कर फूँक डाले
हमारे घर
अब न अन्दर ख़तरा है
न बाहर जोख़िम

सुरंग में 

बरसों लम्बी संकरी सुरंग में
टटोलते हुए एक-एक क़दम
हम दे रहे हैं कितना इम्तेहान
फ़िलहाल सरक रहे हैं हम
सुई की नोक जितनी
रोशनी की तरफ़

ज़िन्दा 

मोड़ नहीं सकती है मछली पानी का प्रवाह
न रोक ही सकती है उसकी मनमानी
वह पानी में दिल थामकर बैठे
चिकने पत्थरों के आगे-पीछे ढूँढ़ती है
अपने जैसों को बेसब्री से
वह उतरती है सेवाल के घने वनों में
देती हुई आवाज़
काटती है नदी की धार
वह जब देखती है ज़रा ठहरकर
पानी के साथ बह जाते हुए
अपने कई-कई परिचितों को
उसे होता है संतोष
कि अभी जीवित है वह

दस्तकें

बन्द दरवाज़ों ने
बुलाया दस्तकों को अपने पास
घबराया समय
और दस्तकों को हुआ कारावास
इस तरह हर युग में
बन्द दरवाज़े रहे उदास

आस

बूढ़ा बिस्तर पर लेटे
आँखों-आँखों नापता है आकाश

फटे हुए तम्बू के सुराख़ों से
उसकी झुर्रियों में गिर रही है
समय की राख

चुपचाप घूम रही है
सिरहाने के पास
घड़ी की सुई

उसकी बीत रही है
घर लौटने की आस

चांद 

बादलों के पीछे
क़ैद है चांद
अंधेरे में डुबकी मार कर
आए हैं दिन

खुली खिड़कियाँ कर रही हैं
बादलों के हटने का इन्तज़ार

उमस में स्थगित हैं
लोगों के त्यौहार

तसलीमा नसरीन 

क्यों सुनी तुमने आत्मा की चीत्कार
तुम्हें छोड़ना नहीं पड़ता
रगों में बहता सुनहला देश
यहाँ कितने लोगों को आई लाज
अपनी ख़ामोशी पर

मुझे नहीं मिला कोई भी दोस्त
जिसने तुम्हारे आत्मघाती प्रेम पर
की हो कोई बात
मैं हूँ स्वयं भी जलावतन
और लज्जित भी
कि तुम्हारे लिए कर नहीं सका
मैं भी कुछ

कश्मीरी मुसलमान-1

कितना भीग जाता है मेरा मन
खुली-खुली पलकों से आकर
टकराता है घर
मेरा देश
पूरा परिवेश
खुलती हैं घुमावदार गलियाँ
उनमें खेलने लग पड़ता है बचपन
बतियाती हैं पड़ोस की अधेड़ महिलाएँ
मज़हब से परे होकर
एक बूंद आँसू से धुल जाती हैं
शिकायतें
जलावतनी में जब देखता हूँ
किसी भी कश्मीरी मुसलमान को

कश्मीरी मुसलमान-2 

हमारी एक-दूसरे को सीधे
देखने से कतराती हैं आँखें
हम एक-दूसरे को नहीं चाहते हैं
पहचान पाना इस शहर में

दोनों हैं लहुलुहान
और पसीने से तर

फिर भी
ठिठक जाते हैं पाँव
कि पूछें, कैसे हो भाई

बारिश में पतंग 

इस बारिश में
कैम्प के पिछवाड़े
मुर्दा भैंस के कंकाल में छिपाकर
रख आता है एक बच्चा
अपनी पतंग
तम्बू से उठ गया है
उसका विश्वास

लू-1

तपी हुई धरती पर रखे
चिनार से मेरे पिता ने
अपने हरे पाँव-
हे राम !

राशन, पानी और टैंटो के लिए
निकाले गए जुलूस में चलते हुए
कहा उन्होंने
मेरी जल रही हैं पलकें-
मैंने उनके सर पर रख दी
गीली रुमाल…
पुलिस ने छोड़े आँसू के गोले
भाग गए विस्थापित

पिता बैठ गए एक गली में
खम्भे के साथ, बोले-
चलो करते हैं धर्म-परिवर्तन ही
और लौट जाएंगे
घने चिनारों की छाँह में
वहीं मरेंगे अपनी मातृभूमि में
एक ही बार

पिता देखते रहे धूप में अवाक
और वहीं पर
हो गए ढेर

लू-2 

इस धूप में
पगला गई है मेरी माँ
झर गए हैं उसके पत्ते
उसकी स्मृतियाँ
रहती है दिन भर निर्वस्त्र
हो गई है मौन…
वेदनाओं से मुक्त
किसी पोखर-सी उदासीन

लू चल रही है
और डाक्टर लिखते हैं एक ही उपचार
चिनार की हवा !

क्या करूँ, माँ !
मेरे बस में नहीं है
यह दवा

अस्थियाँ 

ओ पुरातत्त्ववेत्ता भविष्य,
जीवित हो उठेंगी तुम्हारे सामने इन जगहों पर
हमारी निष्पाप अस्थियाँ
कहेंगी तुमसे
बहाओ हमें कश्मीर ले जाकर
वितस्ता में

उस वक़्त खुल जाएंगी तुम्हारी आँखें
जैसे खुलते हैं गूढ़ शब्दों के अर्थ कभी
अपने आप
इन जगहों पर
कुछ मायूस घास उगी होगी
एक दूर छूटी याद में सरोबार

अभिशाप

हमें मार नहीं सका पूरी तरह
कोई भी शस्त्र उनका

न जला ही सकी
हमें कोई आग

कोई भी सैलाब
डुबो नहीं सका हमें पूरी तरह

हमें उड़ा नहीं सकी हवा
सूखे पत्तों की तरह

हम मर गए
छटपटाती आत्मा की
अमरता के अभिशाप से यहाँ

काजल का टीका

नवजात बच्चे ने
टैंट से बाहर हाथ निकालकर
मुट्ठी में भींच लिया सूरज
और झुलस गईं उसकी किलकारियाँ
उसने टैंट के अन्दर घुस आए
बादलों को निचोड़ा
और बह गया उसका बचपन

घुटनों चलते
उसने टैंट की एक रस्सी पकड़ी
और हो गया आश्वस्त
मुट्ठी में देखकर साँप
बच्चा हो रहा है बड़ा
उसके माथे पर किया है उसकी माँ ने
बड़ा-सा काजल का टीका

अलग-थलग

एक-एक कर जला दिए गए हैं पुल
अरसा हो गया हमें
आर-पार बँटे हुए
बाहर-भीतर

हमारे सामने नदी में गिरकर
डूब गए है कुछ लोग
नदी का क्या बिगड़ता है
पुलों के होने न होने से

हम ही
पड़ गए हैं अलग-थलग
सदियों दूर
आमने-सामने

कैम्प में चिड़ियाँ 

इन दिनों मेरी बिटिया निहारती है
कैम्प में चिड़ियों को
सुनती है धूप में उनकी बातें
और देर तक रहती है गुम
सामने-सामने

उड़ जाती हैं टैंट की रस्सियों से
एक साथ बीसियों चिड़ियाँ
सूनी हो जाती है मेरी बिटिया
लुप्त हो जाती है उसकी चहक
फिर अनायास पूछती है-
पापा, हम कब जाएंगे घर ?

अयोध्या 

जीवित हो रहे हैं मुर्दे
अयोध्या का जाप करने वालों की
खुल रही हैं आँखें
चुकाया नहीं जा सकता है
मुर्दों का ऋण
अतीत खुजा रहा है पाँखें

धर्म
सिर पर नहीं
छतों पर चढ़कर अब बोलता है नगर में
प्रतिष्ठित हुई हैं ईंटें
देवताओं की तरह पूजित
मरी हुई ईंटें
इतिहास का वितरित हुआ प्रसाद

हे राम !
तुम कितनी त्रासदियाँ देखोगे

ललद्यद के नाम-1 

तुमने समय के तन्दूर में मारी छलांग
और उदित हुई तन ढककर
स्वर्ग के वस्त्रों में
बिखेरते हुए बर्फ़-सा प्रकाश कहा तुमने,
‘कौन मरेगा और मारेंगे किसको’

तन्दूर में तुम्हारे कूदने
और उसमें से निकलने के बीच की वेला में
शताब्दियों के बाद
आज फिर तप रही है तुम्हारी सन्तान

विकल्प की आग में छलांग है हमारा निर्वासन
और उसके फुफकारते फनों पर
लास्य-नृत्य करते हुए
तुम्हारा प्रादुर्भाव है हमारा स्वप्न

ललद्यद के नाम-2 

तुम्हारे पास तो भी कच्चा धागा है
जिससे तुम खींच रही हो समुद्र में नाव
मेरे पास कुछ भी तो नहीं है

गरमी के इस कहर में
नंगे तलुवों से मापते हुए अन्तहीन रेत
सूरज को रोकने की कोशिश है
माथे पर धरा मेरे बेख़ून हाथ

तुम पार तरने के लिए
कर रही हो अपने ईश्वर से मनुहार
मैं किसे पुकारूँ
मेरे देवी-देवता भी मेरे साथ हैं जलावतन

तुम्हें तो विश्वास है
कि उस पार है तुम्हारा घर
जिसके लिए तुम हो मेरी तरह बेचैन

पर मेरे घर का
शेष है
अस्थि-विसर्जन

ललद्यद के नाम-3

हम पर भी कसी गई फब्तियाँ
समय की टेढ़ी आँख ने
चुना हमें ही

अपनी ही सड़कों पर
हमारे पीछे भी लगा वही आदमी
जिससे बचने के लिए
तुमने मारी थी छलांग तन्दूर में

और तुम तो निकलीं थीं
स्वर्ग के वस्त्र पहनकर
हम-
तुम्हारी बेटियाँ
झुलस रही हैं इस अलाव में

कवि लोग 

बरसों से भूखी हैं
कविताएँ
कवि लोग करवा रहे हैं
उनसे बंधुआ मज़दूरी
शोषण कर रहे हैं
भुक्खड़ कवि
और आलोचक सो रहे हैं
चालान की बहियों पर

हम ही

अनुमान लगा सकते हैं हम
किसका शव मिला होगा वितस्ता नदी से
किसको दी गई होगी फाँसी
सेबों के बाग़ में
किसको ले गए होंगे घर से उठाकर
आँसू किसके गिरे होंगे
ओस की तरह
घास पर
अनुमान लगा सकते हैं हम
यहाँ जलावतनी में

नर्स सरला भट्ट

उम्हें वह देती है निकालकर
अपनी रगों से ख़ून
पोंछती है उनके हताहत शरीर
साँसों से करती है उनका मरहम
दूसरे कमरे में बिस्तर पर
निकाली जा रही है उसके एक घायल
सम्बन्धी की जान
सिहर उठता है उसका रोम-रोम
पुलिस को मिलता है चार दिनों के बाद
अस्पताल की सड़क पर पड़ा
उसका मथा गया शव
खुली थीं जिसकी आँखें
बीमारों का जैसे पूछती हुईं हाल

सुमित्रा 

झूठ नहीं बोलेंगी हवाएँ
झूठ नहीं बोलेगी पर्वत-शिखरों पर
बची हुई थोड़ी-सी बर्फ़
झूठ नहीं बोलेंगे चिनारों के
शर्मिन्दा पत्ते
उनसे ही पूछो
सुमित्रा के मुँह में चीथड़े ठूँसकर
उसे कहाँ तक घसीटती ले गई
उनकी जीप
अपने पीछे बाँधकर

हम तो बोलते हैं झूठ
कि पहले उसके साथ किया गया था बलात्कार
पर हवाएँ क्यों बोलेंगी झूठ

वतन

तुम आते हो यहाँ
दूर-दराज़ शहरों में, ओ वतन !
और कौंध जाते हो हर रात
लाखों जनों के अलग-अलग सपनों में एक साथ
कोई कश्मीरी नहीं जो पहले नींद से उठकर
सुनाता नहीं अपने अनुभव

तुम ही लू लगने से
हमारे गिर पड़ने में गिरते हो राह चलते अचानक
साँपों के काटे
तुम ही मरे हो हमारे मरने में
और तुम ही ने पोंछे हैं हमारे आँसू भी
यह तुम ही हो
जो फटी हुई पुस्तकों
और टूटी हुई पेन्सिलों की तरह पड़े हो
हमारे बच्चों के मैले बस्तों में खूँटी पर

यार, तुम भी क्यों मारे-मारे फिर रहे हो
हमारे साथ

जोख़िम 

एक लड़की करती है
किसी से प्यार
सड़कों पर दौड़ने लगती हैं दमकलें
साइरन बजाते
कवि चढ़ता है अपनी छत पर
और मुस्कुराता है कुछ पल
वह बदल देता है
अपनी कविता का शीर्षक
बच निकलती है लड़की

हिजरत

जब मेरी उपस्थिति
मेरे न होने से बेहतर
लगने लगे
जब मैं एक भी शब्द कहने से पहले
दस बार सोचूँ
जब बच्चे की सहज किलकारी तक से
पड़ता हो किसी की नींद में खलल
और जब दोस्तों के अभाव में
करना पड़े एकान्त में
किसी पत्थर के साथ सलाह-मशवरा
तब मैं पड़ता हूँ संघर्ष में अकेला
और सघन अंधेरे में दबे पाँव
करता हूँ शहर से हिजरत

शब्दार्थ :
हिजरत=अपना वतन छोड़कर दूसरे वतन में जा बसना

बंसी पारिमू से

(बन्सी पारिमू प्रसिद्ध प्रगतिशील चित्रकार)

तुम्हें समझाया था मैंने
मत करो चिनारों के काटे जाने पर हंगामा
मत चिल्लाओ डल झील की तबाही पर
मत कहो सिविल-कर्फ़्यू में भी
मरी हैं घरों में सत्ताईस मुसलमान गर्भवती बहनें
तुम्हें समझाया था मैंने
मत लिखो रंगों से ऎसी कविताएँ
जो तुम्हें मरवा डालेंगी एक दिन

19 जनवरी 1990 की रात 

घाव की तरह
खुलती हैं मकानों की खिड़कियाँ
छायाओं की तरह झाँकते हैं चेहरे हर तरफ़
फैल रहा है बर्फ़ानी ठंड में शोर
हमारी हड्डीयों की सुरंग में घुसने को मचलता हुआ
गालियाँ, कोसने, धमकियाँ
कितना-कुछ सुन रहे हैं हम

तहख़ाने में कोयले की बोरियों के पीछे
छिपाई गई मेरी बहनें
पिता बिजली बुझाकर घूम रहे हैं
कमरे में यों ही
रोने-बिलखने लगे हैं मौहल्ले के बच्चे
होंठ और किवाड़
दोनों हैं ब्न्द
बाहर कोई भी निकले
शब्द या आदमी
दोनों को ख़तरा है

गूंगे अंधेरों में 

ओ मातृभाषा !
दया करो हमारे नवजात बच्चों पर
कहाँ जाएंगे हम तुम्हारे बिना
इन गूंगे अंधेरों में
गहमागहमी भरी सड़कों पर दौड़ती हुई
दूर-दराज़ शहर की बसों के दरवाज़ों पर
सवारियों के लटकते गुच्छों के बीच
फँसे हम याद करते हुए अपने गाँव
पूछेंगे ख़ुद से कौन हैं यहाँ हम
क्या है हमारा पता
फिर मज़बूती से पकड़े रखेंगे
खिड़की के हत्थे को
और अगले स्टापों पर उतरते जाएंगे भीड़ में

वर्षा 

छलनी छलनी मेरे आकाश के उपर से
बह रही है
स्‍मृतियों की नदी

ओ मातृभूमि!
क्‍या इस समय हो रही है
मेरे गांव में वर्षा

जीवन-राग

एक ऊँचे पेड़ की फुनगी में
लम्बे नुकीले काँटे की नोक पर
आ बैठी चिड़िया
और गाने लगी जीवन का गीत
और खोलती रही
बीच-बीच में सुनहले पंख आकाश में
रुक गया कुछ देर
सूर्य का विस्मित रथ

काँटा नुकीला
चुभता गया अन्दर-अन्दर
चिड़िया के जीवन में
उसकी सोची हुई दुनिया में
स्वपन में
उड़ारी में
पेट और अंतड़ियों को छेदकर
निकला बाहर
और सरक उतरी चिड़िया
काँटे की जड़ तक
पर गीत गाना नही छोड़ा चिड़िया ने
ख़ुश थी
जीवन राग था
उसकी आँखों में
चिर-वांछित
यह उसका लम्हा
और सेज पिया की…
टपका लहू
यह उसकी कविता…
काल समुद्र में डूब गया
लहू के रंग का चन्द्रमा

तब से गाती हैं समुद्र में लहरें
चिड़िया के गीत
मै डरता हूँ
ख़ुद को कवि कहते

काला दिवस

मै इस तारीख़ का क्या करूँ
पहुँचता हूँ बरसों दूर मातृभूमि में

सीढ़ियों पर घर की
फैल रहा है ख़ून अभी तक
मेरी स्मृतियों में
गरजते बादलों
और कौंधती बिजलियों के बीच
स्तब्ध है
मेरी अल्पसंख्यक आत्मा
वहीं कहीं अधजले मकान के मलबे पर
जहाँ इतने निर्वासित बरसों की उगी घास में
छिपाकर रखी जाती हैं
पकिस्तान से आईं बंदूकें

यहाँ किसे बख़्शा गया मेरे देश में
निर्दोष होने के जुर्म में
तैरती हैं आज भी हवा में
दहाड़े मारती स्त्रियों की बददुआएँ

आज के दिन
मैं यहूदियों की तरह
किसी ‘वेलिंग-वाल’ के सामने जाकर
रोना चाहता हूँ ज़ार-ज़ार
अपने जीनोसाईड और जलावतनी पर
और पलटकर
भूल जाना चाहता हूँ
कल्पनातीत
जो जो हुआ हमारे साथ

आज के दिन कोई आए मेरे पास
ले जाए मुझे
किसी पहाड़ी यात्रा पर
मै छूना चाहता हूँ
एक नया और ताज़ा आकाश.

कवि का जीवन

कविता लिखना
तपे हुए लोहे के घोड़े पर चढ़ना है
या उबलते हुए दरिया में
छलाँग मार कर मिल आना
उन बेचैन हुतात्माओं से
जो करते हैं
हमारी स्मृति में वास
पूछना उनसे शहीद होने के अनुभव
और करना महसूस अनपे रक्त में
उनके नीले होठों पर दम तोड़ चुके
शब्दों को

यह कविता मेरे समय में
किस काग़ज़ पर उतारी जा सकती है
अपने खुलते हुए लहू से
सिवाय बलिवेदी के

ऐसे कवि का जीवन
आकाँक्षा मेरी

धूल

जब हमें दिखाई नहीं देती
पता नहीं कहाँ रहती है उस समय
और जब हम एक धुली हुई सुबह को
जो खुलती है हमारे बीच
जैसेकि एक पत्र हो
उसके किसी बे-पढ़े वाक्य को छूने पर
हमारी उँगली से चिपक जाती है

यह कैसे समय में रह रहे हैं हम
कि धूल सने काँच पर
हमारे संवेदनशील स्पर्श
हमारी उधेड़बुन
हमारे रेखांकन
हमारी बदतमीजियों के अक्स
कहे जाते हैं

यह समय क्या धूल ही है
जिससे कितना भी बचा जाए
पड़ी हुई मिलती है
उस अलमारी में भी
जिसे हम सबके सामने नहीं खोलते
मैंने सपने में खिल आये गुलाब पर भी
इसे देखा है
यों देखा जाए तो
जिसे हम काली रात कहते हैं
वह सूरज की आँख में
धूल का झोंका है

इन शब्दों में
जबकि मै लिख रहा हूँ कविता
वह झाँक रही होगी कहीं पास से
और मेरे कहीं चले जाने पर
उतर आएगी मेज़ पर.

कबूतर सपना

जलावतनी में
एक स्वप्न देखा मैंने
मेरे छूटे हुए घर के आँगन में
फिर से हरा हो गया है चिनार
और उसकी एक डाल पर
आ बैठी है
झक सफ़ेद कबूतरों की एक जोड़ी
मुझे देखती अनझिप

ये कबूतर
उतरना चाह रहे हैं मेरे कंधो पर
लगा मुझे ये आए हैं
स्वामी अमरनाथ की गुफा से उड़कर
मेरे उजड़े आँगन में

कि आज चिनार के नीचे
नए सिरे से घटित होती है
अमरकथा

सत्याग्रही पेड़

कभी जमा होते थे
कांकेर की खंडी नदी के किनारे
तुम्हारी छाँव में स्वतन्त्रता सेनानी
तुम उनका पसीना पोंछते
योजनाएँ सुनते
हौंसला देखते

आज जब मनाई जा रही हैं
कियों-कैयों की जन्म-शताब्दियाँ
किसे याद होगा तुम्हारे सिवा
इन्दरू केवट का गांधीपना
देखने भर से उसे
तुम्हारी डगालों में
पृथ्वी के नीचे सोई जड़ों से
दौड़ जाता
फुनगी तक उत्साह

और दुनिया अचरज से देखती
छत्तीसगढ़ कीधरती पर
कैसे मौरता है आम

आज किसे याद होगा
सत्याग्रहियों ने एक दिन मड़ई की तरह
तुममें टिकाए थे अपने झंडे
फरफराए थे पत्ते

गाए थे तुमने जोशीले गीत
और क्रान्तिकारियों को
मितान बदने
गिराए थे उनकी झोली में
रसीले आम
ओ ददा
ओ झंडा-आम
अकेले नहीं तुम स्मृतियों से
खारिज
अनजान

सन्दर्भ :

इन्दरू केवट : कांकेर का गांधी नाम से प्रसिद्ध एक स्वतन्त्रता सेनानी
झंडा आम : कांकेर में एक प्रसिद्ध आम का पेड़

केन पर भिनसार 

बीच पुल पर खड़ा मैं अवाक‌
ओस भीगी नीरवता में
बांदा के आकाश का चन्द्रमा
हो रहा विदा
केन तट पर छोड़े जा रहा
पाँव के निशान
बड़ी-बड़ी पलकों वाली उसकी प्रेयसी
बेख़बर मेरी और मेरे कविमित्र की मौज़ूदगी से
निहारती एकटक वो मुक्तकेशी
जन्मों से बँधी
अभी मांग में उतरेगा केसर
और संसार बदल जाएगा

साँस रोके खड़ा मैं पुल पर
सुदूर बादल के घोंसलों में कहीं से
बोल पड़ता है कोई जलपाँखी
सचेत-सा करता केन को
मेरे बारे में
ओ, भोले जलपाँखी
मेरी भी केन थी एक
राग-भैरवी-सी
सात-सात पुलों के नीचे से हो बहती
मैं चलता तटों पर साथ उसके
खेलता
गाता
इठलाता
कभी उतरता तहों में
तैरता आर-पार…

बरसों बाद जलावतनी में
यह विस्मय…
निश्शब्दता…

और क्षितिज पर सरकती
वो श्यामल लिहाफ़
केन का अलसाया रूप
मुखर चाहना फिर से प्रिय की

मैं लौटता हूँ वापस
उदास और अभिभूत
चुप है जलपाँखी भी

अलाव 

पहुँच गए थे हम
निबिड़ रात और बीहड़ अरण्य में
जलाया सघन देवदारों के नीचे
हमने अलाव
तप गया हमारा हौसला
सुबह होने तक रखा तुमने
मेरे सीने पर धीरे से
अपना सिर
स्मृतियों से भरा
विचारों से स्पंदित
और स्वप्न से मौलिक
भय और आशंकाओं के बीच
सुनी तुमने
मेरी धडकनों पर तैर रही
फूलो से भरी एक नाव
मेरे जीवन-लक्ष्य की तरफ जाती हुई
इस निबिड़ रात और बीहड़ अरण्य में
सूरज के उगने और पंछियों के कलरव के साथ
बदलने जा रहा था संसार
समय की सदियों पुरानी खाइयों
गुफ़ाओं में
उतरने वाली थी रौशनी

पेड़ के खोखले तनों में
हमें खेल-खेल में जा छिपना था कुछ देर
बातें करनी थीं अनकही
और मन किया तो करना था प्यार भी
नैसर्गिक
फ़िलहाल
सुबह का इंतज़ार था
और मै अपने सीने पर
महसूस रहा था तुम्हारी साँसें
तुम्हारी नींद
और हाथ तुम्हारा

शायद
इस निबिड़ रात और बीहड़ अरण्य में
हम बचा रहे थे इस तरह
अपनी स्मृतियाँ
विचार अपने
और स्वपन भी

हमने बुझने नही दिया अलाव

बारिश में पिट रही स्त्री

तेज़ बारिश
और आधी रात में
मेरा पड़ोसी अपनी पत्नी को पीट रहा है
जैसे स्वतत्रता-संग्राम का
कोई दृश्य हो थाने में सत्याग्रही

बारिश में पीट रहा है
मेरा पड़ोसी अपनी पत्नी को
नि:शब्द है स्त्री
संकोच और लज्जा के साथ

कौन नहीं जानता
आँसुओं की दुनिया में
चेहरे पर हँसी
स्त्री के ईजाद है
मेरी खिड़की के काँच से
बज रही है बारिश
स्त्री के आकाश से
बरस रहे है आंसू
बहुत पहले कहा था
आंद्रे वोज्नेसेन्सकी ने :

कोई एक स्त्री को पीट रहा है
कार में, जिसमें
एकदम अँधेरा और गर्मी है

क्या फ़र्क पड़ता है
ओ मेरे प्रिय कवि
स्त्री मेरे पड़ोस में पिटे
या रूस में
वह पिट रही है
ज़रूरी समर्थन के अभाव में
एक विधेयक की तरह

इसीलिये वह हँसती है
रंगीन पत्रिकाओं में
धूप में उसका चेहरा चमकता है
रात में आँसू

बारिश मेरे कमरे में आ रही है
मै पीट रहा हूँ
अपना माथा
तेज़ बारिश और आधी रात में

अयप्पा पणिक्कर 

मैंने तुम्हे जिसके अनुवादों से जाना
वह कल फ़ोन पर रो रही थी
मेरी आत्मा की सीपियों में
भर गए है तुम्हारे गीत

तुम नही जानते हो
कवि की सीपियाँ
मोहताज नहीं होती स्वाति-नक्षत्र की

ओ खुरदुरे नारियल की तरह
भीतर से तरल कवि
मैंने तुम्हे तुम्हारी अनुवादक के आँसुओं में
साफ़ साफ़ देख लिया है
तुमने स्वयं भी बादलो के ऊपर से
किसी पंछी को उड़ते नहीं देखा होगा
पर मैंने तुम्हें देख लिया है
कल रात जब मै भीग रहा था
तुम्हारी अजानी स्मृतियों से
हालांकि ‘दस बजे’ शीर्षक से
तुम्हारी कविताओं में मैंने
पहले ही चीन्ह लिया था तुम्हें

पर यह जो तुम
अपनी तरह के ‘कुरुक्षेत्र’ के बीच छोड़
चल दिए उसे
बिना बताये
शायद नाराज़ होकर
शायद किसी संदेह में पड़कर
शायद टूटकर आखिरी पत्ते की तरह
शायद समय की विक्षिप्तता से तंग आकर

क्या कहूँ अयप्पा
पहुँचने नहीं देते हो किसी नतीजे पर
तुम्हारी स्मृति में बहाए आँसू
मुझे विकल किए है
दुनिया में अभी कितना कुछ बाकी है
जो तय नहीं है
जैसे अजनबी संबंधो के नाम
जैसे हर रात दस बजे फ़ोन पर पूछना –
कैसी हो …
और रिसीवर रख देना मुखर मौन में

कविता और अनुवाद के बीच
शब्द और भाव के बीच
सुर और लय के बीच
जो चीज़े प्राय: छूट जाती हैं
उनका आँसुओं में ढलकर
मोतियों में बदलना
मैंने इससे पहले कभी नहीं जाना

अयप्पा
मै तुम्हारे इन बीजाक्षरों का क्या करूँ
अनुवाद से परे की दुनिया में
शायद अब तुम भी नहीं रहे
ठीक सुना कल रात मैंने फोन पर
‘अब मै किससे बात करूँ…’

पुल पर गाय 

सब तरफ बर्फ़ है ख़ामोश
जले हुए हमारे घरों से ऊँचे हैं
निपत्ते पेड़

एक राह भटकी गाय
पुल से देख रही है
ख़ून की नदी
रंभाकर करती है
आकाश में सुराख़

छींकती है जब भी मेरी माँ
यहाँ विस्थापन में
उसे याद कर रही होती है गाय

इतने बरसो बाद भी नहीं थमी है ख़ून की नदी
उस पार खड़ी है गाय
इस पार है मेरी माँ

और आकाश में
गहराता जा रहा है
सुराख़

गूँगी माँ 

कहते हैं गूँगी थी वह
लेकिन चिड़ियों से करती थी बातें

कहते हैं बहरी थी
परन्तु पेड़ झुक कर सुनाते उसे फ़रियाद

कहते हैं किसी काम की न थी
पर फूल चुनते देखी जाती गाँव में

लोग उसकी फटी झोली पर खाते तरस
कहते हैं तारामंडल उतरता
रात को उसमे

एक दिन ठेस दी उसे किसी ने
खाते हैं उसे चिड़ियाँ उड़कर ले गईं अपने साथ

कौन तुम ओ अनजान चिड़िया
हर दिन आ बैठती हो यहाँ निर्वासन में
मेरी स्मृति की खिड़की पर
मुझे याद आती है गूंगी माँ
पेड़…..
फूल….
तारामंडल…
और यह अभिशाप अपना

जवाहर टनल

गीले और घने अँधेरे से भरी थी
जवाहर लाल नेहरू सुरंग
और हम दहशत खाए लोग
भाग रहे थे सहमी बसों में

जवाहर लाल नेहरू सुरंग में
जैसे कूट कूट कर भर गया था अँधेरा
इतने वर्ष
और टप टप गिरती बूँदें ये
ज़ार ज़ार रो रहा था पाँचाल पर्वत
नेहरू के गुमान पर
या हमारे हाल पर

हमारी बसें फँसी पड़ीं थीं सुरंग में और अब उनका धुआँ भी
शामिल था
अँधेरे में

कानों में अभी भी गूँज रही थी
जेहादियों की गालियाँ
उनके उद्घोष
धमकियाँ
ठांय ठायं !!
गोलियों की अठखेलियाँ
हथगोले और बमों के अट्टहास
अल जेहाद !
अल जेहाद ! अल जेहाद !

जवाहर लाल नेहरू सुरंग में
हमारे सिकुड़े शरीरों के अन्दर दबे कोलाहल में
छिपी बैठीं
लहुलुहान स्मृतियाँ इस समय
क्यों जाग रहीं थीं
गीले अँधेरे में
शून्य में उभर रही थीं
बलात्कृत हो रहीं थीं
छटपटाती बिलखती
हमारी बहनें

घरों के दरवाज़ों पर
खून की टपकतीं छींटें उकेरते
ये नये नये भित्ति चित्र
हमारे सामने

सुरंग में फँसे थे हम
नीले थे हमारे चेहरे
और होंठ थे पीले
पपड़ियाए
जैसे सूखी बिवाई फटी थी
हमारी धरती सौन्दर्यशास्त्र की
झेलती अकाल
दशकों से
टुकुर टुकुर देखती
सूने आकाश में कभी नहीं प्रकटा
इन्द्रधनुष यहाँ
कि गा उठती घुटनों तक फूलों से भरी
उपत्यका कोई
भीतर उस के

फिलहाल हमें सुरंग से होते हुए
निकलना था
पर्वतों के दूसरी तरफ
शेष हिन्दुस्तान में

एकमात्र था इत्मीनान
कि जैसे तैसे बचा लाए थे
हम खौफ ज़दा बहु बेटियाँ अपने साथ
बच्चों के स्कूली बस्ते
और कृषकाय बुज़ुर्गों की शेष ज़िन्दगी
यही थी उपलब्धि इस वक़्त
हमारे पाँच हज़ार वर्षों की

बाकी सब छूट गया था पीछे
अखरोट और चिनारों की हरी छाँव में
स्टापू का खेल
चिमेगोईयाँ
पर्वतों के धुँधलके में ओझल हो जातीं
चिड़ियों को देख
हमारा उदास हो जाना

पीछे छूट गया था
इतिहास और संवत्सर अपना
मिथक
देवता और तीर्थ अपने
मेले ठेले
तीज त्यौहार
घर बार अपना
उनकी स्मृतियाँ थीं हमारे साथ भागतीं
चुपचाप
जैसे मुँह अँधेरे भागते गाँव से
चली आई थीं दौड़ती कुछ दूर
हमारी गायें भी
सामान लदे ट्रकों के पीछे
बसें चिंघाड़ रहीं हैं अँधेरे में
जैसे लगा रही हों गुहार
जवाहर लाल नेहरू के ‘आनन्द भवन’ में
परंतु यह सच था
कि हम नहीं थे इलाहाबाद में इस समय
जहाँ गंगा थी
जमुना थी
सरस्वती थी
आपस में घुल मिल

हम थे अँधेरे में
ठिठुरती ठ्ण्ड में
सँकरी श्वास नली में अवरुद्ध
हवा के कण जैसे

और संसार था ईर्ष्या से भरा
हमारे प्रति
जबकि हम भाग रहे थे स्वर्ग से
भिंची हथेलियों में जान थी हमारी
कमीज़ अन्दर थे छिपाए
चिनार के पत्ते
और जेबों में ठूँस भरी थी
गाँव की मिट्टी

जहाँ तक मेरी बात है
मैंने कमीज़ के अन्दर खोंस रखी थीं
ललद्यद की कविताएं
जिन्हे छू छू कर
इस गीले और सघन अँधेरे में
मैं हो रहा था तनिक तनिक ज़िन्दा
“अरे पगले ,
कौन मरेगा और मारेंगे किस को ?”
कान में कह रही थी लल्द्यद मुझसे

तय था कि हम भाग रहे थे
और गढ़ी जा रही थी अफवाहें
सेंकी जा रही थीं
लोकतंत्र के तवे पर
झूठ की रोटियाँ

ये मानवाधिकारों के दिन थे
और हमारे नहीं थे मानवाधिकार
चुप थीं भेड़ें
और यही था सद्भाव
कसाई बाड़े का

चिंघाड़ रहे थे वाहन
आतुर थे हम
सुरंग से बाहर थी रोशनी सुरंग से बाहर थी उम्मीदें
सुरंग से बाहर थी सुरक्षा
सुरंग से बाहर थे कवि, कवि कलाकार
और संस्कृतिकर्मी

खुला था आसमान सुरंग से बाहर
और
हम उतरे पर्वतों से शरणार्थी केम्पों में
फैल गए सम्विधान के फफोले तम्बुओं में
बिलबिलाए कीड़ों की तरह
जुलूसों में
धरनों में
हम उछले नारों में
दब गए अत्याचारों में
यहाँ धूप थी
तेज़ाब था
लू थी
साँप थे बिच्छू थे
रोग थे
श्मशान था
ओढ़ने को आसमान था
सोने को हिन्दुस्तान था
मेरा देश महान था .

एक फ़िल्मी कवि से

देखो, कुछ देर के लिए
सोने दो मेरे रिसते घावों को
अभी-अभी आई है
मेरे प्रश्नों को नींद

मुझे मत कहो गुलाब
एक बिसरी याद हूँ
जाग जाऊँगा

मुझे मत कहो गीत
सुलग जाऊँगा
बर्फ़ीले पहाड़ों पर
मुझे चाहिए दवा
कुछ ज़रूरी उत्तर
अपना-सा मौसम
थोड़ा-सा प्रतिशोध

मै दहक रहा हूँ
गए समय की पीठ
और आते दिनों के माथे पर
मुझे मत बेचो
गीत में सजाकर.

एक पाकिस्तानी दोस्त का आना-1 

जीवन में एक बार
उसे जम्मू आकर तैरना है तवी में
यहाँ देश बटवारे से पहले
तेरा करते थे अब्बा
वह आ रहा है पकिस्तान से यहाँ
तवी के घाट पर
जैसे शरणार्थी – कैंप में मरे पिता की
अस्थियाँ लेकर गया था मै कश्मीर
मन ही मन
जहाँ बहती है मेरे पुरखों की नदी

वह आ रहा है अपने अब्बा की यादों के रास्ते
मलका पुखराज के मर्म तक
जिसकी आवाज़ से होता था
तवी में कम्पन
झूम उठते उसके आशिक
होतीं चिमेगोइयाँ
लगते ठहाके तवी के घात पर

मेरे दोस्त को उम्मीद है
उसे मिलेंगे तवी के पानी में
अब्बा के अक्स
जैसे मेरा बच्चा देखना चाहता है
कश्मीर जाकर

मेरे गाँव का स्कूल
जहाँ पड़ता था मैं
और पेड़ों पेड़ों करता उछलकूद
तोड़ता चोरी से वर्जित फल
मेरे गाँव का स्कूल
जहाँ पड़ता था मैं
और पेड़ों पेड़ों करता उछलकूद
तोड़ता चोरी से वर्जित फल

खुशकिस्मत हो दोस्त
तुम आ सकते हो पाकिस्तान से तवी के पास
और मै लौट नही सकता कश्मीर

एक पाकिस्तानी दोस्त का आना-2 

तवी में तैरने के लिए
तुम सीख रहे हो तैराकी
सुनो अली अदालती,
मेरे शरणार्थी कैम्प से एक दिन
गायब हुई
एक जवान लड़की

वह पहुंची थी
निबिड़ और घने अंधेरो को पार कर
बारूद भरी घटी में अपने गाँव
और कूद पड़ी कपड़ों सहित
मछलियों से भरे सूर्यकुण्ड के हरे
रेशमी जल में

तैर कर गई कुण्ड के बीचोबीच
अपने इष्ट के पास
चढ़ाया बरसो बाद नाम आँखों से जल

रो पड़ी सूर्यकुण्ड की
असंख्य मछलियाँ उसे देख
सिसकियाँ भरी
बुजुर्ग चिनारों ने
पर्वतो ने बहाए बर्फ के आंसू
आकाश से उतरे पेड़ों पर
हजारो पंछी
गोया किन्नर हों
गन्धर्व हों
वह तैरती रही
सूर्यकुंड में
स्मृति में
स्वप्न में
नींद में
उसे पहचाना हवाओ ने
मिटटी की सोंधी गंध ने
वह तैरती रही
त्रासद उल्लास में
जैसे तैर रही हो अंतिम बार

उसके आगे पीछे
पानी की दुनिया में फैल गई
मछलियाँ …
यह रक्षा कवच उनका !

वह तैरती रही आपे से बाहर होकर
और भाग आई
रातों रात वापस निर्वासन में

वह आज तक हैरान है
उसे जल में तैरना कैसे आया.

सपने में बर्फ 

मेरे दोस्त ने सपने में सुने मुझे कविता –
‘मास्को में हिमपात’

मैंने दिखा मेरी पहुँच से ऊंचे शेल्फ पर
टी.वी. में आने लगे
हिमपात के दौरान कश्मीर जैसे दृश्य
लेकिन उन्हें बताया जा रहा था मास्को
अपने से थे गाँव
बर्फ़ लदे मकान
बिजली की तारों पर बर्फ़ की रेखाएं
सड़क किनारे धंसी हुई कारें

इतने में चली आई माँ भी कहीं से मेरे पास
मेरे चेहरे पर गिरने लगे
मास्को की बर्फ़ के आवारा फाहे
कुछ अदृश्य छींटे
छुआ मेरी माँ ने आश्चर्य से
मेरे विस्मय को
दंग था वहीँ खड़ा
मेरे कवि दोस्त भी
गिर रही थी जैसे सदियों बाद बर्फ़
जैसे पहली बार भीग रहा था मैं
किसी के प्रेम में

मै आँख मूँद कर निकल पड़ा उस क्षण
बचपन की गलियों
खेत खलिहानों में निर्वासन के पार
बरस दर बरस

‘मास्को में हिमपात’ शीर्षक से लिखी
अपनी कविता में
नहीं रचा था मेरे दोस्त ने
बिम्ब यह चलायमान
और इससे पहले की ठंड से जमकर
मै हो जाता वहीँ पर ढेर
मुझे बाहों में खींचकर माँ
देती रही सांत्वना
और मैंने देखा उसके कंधो के ऊपर से
वह खड़ी थी हवा में घर से बाहर
धरती विहीन

और बर्फ़ गिर रही थी झूम झूमकर
हमारे हाल पर
समय के कमाल पर.

गृह मंत्रालय में चूहेदानी

हमें बुलाया गया सुरक्षा जांच के लिए
एक एक कर पहुंचे हम उनके सामने
शिकायतों से लैस
धर्म और आतंक के सताए
जलावतनी से बौखलाए
दीवार पर राष्ट्रपिता हँस रहे थे मूंछों के पीछे
शायद हम पर
गृह मानती हैं विराजमान
अंक रहे हमारी नब्ज़
दंग रह गया मैं
थी उनकी कुर्सी के नीचे
एक चूहेदानी
पहुँच गए हैं चूहे
यहाँ भी
बज रहे हैं गृहमंत्री के फोन
शायद चूहों के बारे में ही
पहुँच रही है सूचनाएं
जैसे वबा के संकेत

हममें से एक सदस्य ने
पढ़कर सुनाया उन्हें ज्ञापन
शायद यही था भेद
राष्ट्रपिता की हँसी का
सोच रहा हूँ
उनके देखते देखते क्या कुतरे जायेंगे हम यहाँ भी

फिलहाल बज रहे हैं
गृहमंत्रालय में फोन

शांति वार्ता 

हमसे कहा उन्होंने
नहीं करें अब
रिसते घावों की बात
शत्रु को नहीं देखें
संशय और संदेह से
मिलने पर करें नही
प्रश्न कोई उल्टा-सीधा

ज़रूरी है भरोसा करें फिर से
और धैर्य रखें
बदल रही है हवा-नवा
आर-पार दौड़ने लगी हैं
समझौता बसें
गलत थे युद्ध
गलत थी हिंसा
आरोप-प्रत्यारोप
मै पूछता हूँ कब तक मिटटी में दबाकर
आप रखेंगे मूल प्रश्न
बीज हैं उग आयेंगे
बार बार

ज़रूर छपने लगे हैं बयान
अधूरे हैं वे
खदेड़ा जिन्होंने हमें
प्यारी मात्रभूमि से
अब हमें चाहिए लौटना
अपने देस
अपेक्षित है हमसे
रहना अवाक
घुटें अपने भीतर
पचा लें कुछ और अपमान
सहना पड़ता है
दो में से एक को चुपचाप
जैसे सहती है धरती

खामोश रहे मेरे जीनोसईड पर
इसीलिए मुखर प्रगतिशील
हमें होना है धरती
और पचाने हैं
दुखों के पौलीथीन

जैसे दबा रहे हैं वे
प्रश्नों के बीज

सौतेले दिनों की कविता

मेरा दुःख उन्हें असुविधा में दाल देता है
मुझे नहीं आना चाहिए था
इसे साथ लेकर
वे हो जाते हैं निरुत्तर
और यह उनके लिए कितने बड़े दुःख की बात है

उनके यहाँ दुःख था
एक चुने हुए मुद्दे की तरह
मुश्किल से हाथ आया हुआ

ये उस पर रात दिन लिख रहे थे कवितायेँ
पत्रिकाओं के पन्नों पर
चमक रहे थे उनके वक्तव्य
त्रासद था हिंसा और उन्माद पर
लिखी जा रही कविताओ की तुलना में
किसी एक खास कवि को उछाला जाना

मेरे दुःख से कुछ नहीं था बन्ने वाला
उस पर बोलने के खतरे थे
वे धर्म और जाती देखकर
शोकगीत लिखने के दिन थे

मैंने समझाया अपने दुःख को
की वह रहे मेरे सीने में दबा चुपचाप
देखता जाए
दुनिया का एक्स-रे
चलता चले मेरे क़दमों से आवारा
वर्जित क्षेत्रों में
करे खलबली पैदा
देखे दया से उन्हें
जो बचते है मेरे कहे शब्दों से
दुःख मेरे अटपटे हैं

भूलने के विरुद्ध

कहा तुमने
यों तो साफ़ थीं दीवारें
अलबत्ता दो लाचार हाथों के
फिसले हुए निशान थे
नीचे ज़मीन तक सरक आये

कोई नहीं था वहाँ
दीवार के सामने
सिर्फ थी
गोली चलने की अदीख घटना

और थी खड़ी
भूल जाने के विरुद्ध
चुप दीवार

कहा तुमने
यहीं से शुरू होती है
तुम्हारी कविता

तस्लीमा नसरीन : एक 

तुमने क्यों सुनी आत्मा की चीत्कार
तुम्हे छोड़ना नहीं पड़ता
रगों में बहता
अपना सुनहला देश
यहाँ कितने लोगो की आई लाज
अपनी ख़ामोशी पर

मुझे नहीं मिला कोई भी दोस्त
जिसने तुम्हारे आत्मघाती प्रेम पर
की हो कोई बात

मै हूँ स्वयं भी जलावतन
और लज्जित भी
कि तुम्हारे लिए कर नहीं सका
मै भी कुछ

तस्लीमा नसरीन : दो 

उठाए उसने
अभिव्यक्ति के खतरे
उठाया हमने
सिर पर आकाश
उधेडी उसने सीवन
सी लिए हमने होठ

उसने कहा लज्जा !
हमने कहा –
खास नहीं
उस पर मंडराए बादल
हमने खोलीं छतरियां

उसने मांगी शरण
हमने दी काल-कोठरी

वह बुदबुदाती रही
कोलकाता
कोलकाता

फुटनोट
चली गई हमारे देश से
बाला तली हमारे देश से

तस्लीमा नसरीन : तीन 

परदे के पीछे
कोई कर रहा तय
हमारा होना या न होना
परदे के पीछे
लिखी जा रही धमकियाँ
सजाये जा रहे बम
परदे के पीछे
बे-पर्दा हैं लोग
जानते हैं हम
सभ्यता इसी में
मौन रहें हम

तस्लीमा नसरीन : चार 

जैसे हम कर चुके हों जीते जी
अपना क्रिया-कर्म
और अब मृत्युंजय नागरिक हैं
जैसे हम आए हों कुछ दिनों के लिए
अपने ही देश में सैलानियाँ कि तरह
और हमें किसी से क्या लेना देना
जैसे हमने युद्ध में डाल दिए हों
हथियार
और अब हो जो हो निर्विरोध

तुम भी नहीं जानती थीं मेरी तरह
इस देश के बारे में
अपने वतन से भागते हुए
हथेलियों में जान लिए

तस्लीमा नसरीन : पांच 

पूछने कि हम्मत भी नहीं होती
अब कहाँ हो
कैसी हो

क्या सुनी जा सकती है फोन पर
तुम्हारी आवाज़
क्या पूछने पर किसी से पता चल सकता है
तुम्हारा ठौर-ठिकाना

मै भेजता पुराने दिनों कि तरह
कबूतर के पंजे से बंधी
एक चिट्ठी
कहने की हिम्मत नही होती
दया करो
खत
खटटर खटटर चल रहे
पंखे-से हमारे दिनों पर.

कांगड़ी 

जाड़ा आते ही वह उपेक्षिता पत्नी सी
याद आती है
अरसे के बाद हम घर के कबाड़ से
उसे मुस्कान के साथ निकाल लाते हैं
कांगड़ी उस समय
अपना शाप मोचन हुआ समझती है
उस की तीलियों से बुनी
देह की झुर्रियों में
समय की पड़ी धूल
हम फूँक कर उड़ाते हैं
ढीली तीलियों में कुछ नई तीलियाँ भी डलवाते हैं।

वह समझती है
कि दिन फिरने लगे हैं
हम देर तक रहने वाले कोयले पर
उस में आंच डालते हैं
धीरे धीरे उत्तेजित हो कर
फूटने लगता है उस की देह से संगीत
जिसे अपनी ठंड की तहों में
उतारने के लिए हम
उसे एक आत्मीयता के साथ
अपने चोगे के अन्दर वहशी जंगल में लिए फिरते हैं।

और जब रात को बुझ जाती है कांगड़ी
हम अनासक्त से हो कर
उसे सवेरे तक
अपने बिस्तर से बाहर कर देते हैं
कांगड़ी अवाक् देखती है हमें रात भर
आदमी हर बार
ज़रूरत के मौसम में उसे फुसलाता है
परन्तु नहीं सोचता कभी वह
उलट कर उस के बिस्तर में
भस्म कर जाएगी सदा की बेहूदगियाँ।

कवि और खजुराहो

लहकती सरसों और आम्र-मंजरियों से होकर
हमने मोटरबाईक पर दौड़ते
छोड़ दिए पीछे गाय-बकरियों को चराते लोग
खेत काटतीं पसीना पोंछतीं स्त्रियाँ
पलाश की दहकती झाड़ियों
और बासों के झुरमुट से होकर
हम आम के बौर सूँघते
पहुँचे खजुराहो
हम जिन्हें रास्ते भर छोड़ आए थे पीछे
रोज़मर्रा की दुनिया में निमग्न
वे हमसे पहले पहुँच चुके थे खजुराहो
ये मिथुन मूर्तियाँ
ये अप्सराएँ और यक्षिणियाँ
अभी गा रही थीं सूरज पर खेती करने
और चाँद पर खलिहान लगाने के गीत
अभी दोहरा रही थीं
हिम्मत से हल जोतने के संकल्प
ताकि नहीं जाना पड़े
उनके सुहग को परदेस
वे गा रही थीं स्वप्न
कर रही थीं
अत्महत्याओं का प्रतिरोध
ये हैं स्त्रियाँ श्रम और राग से भरीं
उम्मीद और उमंगो में पगीं
सिरजती देहातीत
परा-भौतिक दुनियाएँ
ये मूर्तियाँ हैं केन नदी की जलतरंगे
कोई सँवरती एकान्त में
देखती आइना दूसरी
वो निकालती काँटा पाँव से
यह अलसाई नवयौवना
अंगड़ाई लेती
पुचकारती ममत्व से
पास खड़े बच्चों को
वे व्याल बिम्बों के बीच
उद्दाम मुक्तछ्न्द मैथुन करतीं
खजुराहो की मेनकाएँ
ठेंगा दिखतीं
किसी भी समाधि-सुख को

वो देखो दुल्हादेव मन्दिर के पश्चिमी कोण में
असम्भव मिथुन मुद्रा में लीन
एक अल्हड़ आदिवासिन…

लहकती सरसों और आम्र-मंजरियों से होकर
हम छोड़ते हैं खजुराहो पीछे
देखते पानी भरने जातीं
इन्हीं स्त्रियों को
जो थीं अभी दीवारों पर उकेरी गईं
गा रहीं–
“मटका न फूटे खसम मर जाए
भौंरा तेरा पानी
गज़ब कर जाए”
जवाब देती हैं बुन्देलखण्ड से उनकी बहनें–
“भूख के मरे ‘बिरहा’ बिसर गयो
भूल गई ‘कजरी’, ‘कबीर’…”
रुको सारथि
कवि केशव तिवारी
उतरा मेरे करेजवा में तीर…

स्मृति लोप 

तरह-तरह से आ रही थी मृत्यु
ख़त्म हो रही थीं चीज़ें
गायब हो रही थीं स्मृतियाँ

पेड़ों से झर रहे थे नदी में पत्ते
और हम धो रहे थे हाथ

मरते जा रहे थे हमारे पूर्वज
दूषित हो रही थीं भाषाएँ
हमारे सम्वाद
प्रतिरोध
उतर चुके थे जैसे दिमाग़ से

हम डूब रहे थे
तुच्छताओं की चमक मे
उठ रहे थे विश्वास
जो ले आए थे हमें यहाँ तक

बची नहीं थी जिज्ञासा
निर्वासित थीं सम्वेदनाएँ
नए शब्द हो रहे थे ईजाद
अर्थ नहीं थे उनमें
ध्वनियाँ नहीं थीं
रस, गंध, रूप नहीं था
स्पर्श नहीं था
इन्हीं से गढ़ना था हमें
नया संसार

एक तरफ़ घोषित किए ज रहे थे
कई-कई अन्त
दूसरी तरफ़
हम थे कुछ बचे हुए ज़िद्दी
और भावुक लोग
कुछ और भी थे हमारे जैसे
यहाँ-वहाँ इस भूगोल पर
करते अवहेलनाएँ
लगातार।

एक नदी का निर्वासन

मैं तुम्हें भेजता हूँ
अपनी नदी की स्मृति
सहेजना इसे
वितस्ता है

कभी यह बहती थी
मेरी प्यारी मातृभूमि में
अनादि काल से
मैं तैरता था
एक जीवन्त सभ्यता की तरह
इसकी गाथा में

अब बहती है निर्वासन में
मेरे साथ-साथ

कभी शरणार्थी कैम्पों में
कभी रेल यात्रा में
कभी पैदल
कहीं भी

रात को सोती है मेरी उजड़ी नींदों में

नदी बहती है मेरे सपनों में
शिराओं में मेरी
इसकी पीड़ाएँ हैं

काव्य सम्वेदनाएँ मेरी
और मेरे जैसों की
मैं तुम्हें भेजता हूँ स्मृतियाँ
एक जलावतन नदी की

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