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अख़्तर यूसुफ़ की रचनाएँ

शाम और मज़दूर-1

शाम और मज़दूर खेतों के सब्ज़ सन्नाटे से गुज़र रहे हैं
बालियाँ खड़ी हैं शाएँ-शाएँ हलका-सा कहीं-कहीं पे होता है
गाँव के लड़के और लड़कियाँ बे लिबास उछल-कूद करते हैं
गड्ढों में जैसे छपाक फिर साँप कोई लहराता है और फिर
छट-पट गिलहरी की धूप खेतों से गुज़र कर पहाड़ों
के ऊपर चढ़ती है थकी-थकी जोर-जोर से हाँफ़ती है
निन्दाई सुरमई चादर ओढ़ कर सोने का मन बनाती है
शाम और मज़दूर अकेले हैं मिट्टी की दीवारों के आस
पास तेल तो अकेले मिट्टी का बनिया पी जाता है और
दिया मज़दूर का धूल और धूल खाता है एक चिंगारी
सुलगती है बीड़ी बेचारा मज़दूर पीता है शाम भी तारा जैसी
झोंपड़ी के अन्दर जलती है फिर कभी मद्धिम-सी जलती
जलती है फिर कभी मद्धिम-सी मद्धिम-सी भक से उड़ती है
रात दोनों को बाहों में अपनी भरती है।

शाम और मज़दूर-2

शाम और मज़दूर दोनों नदी में अपना मुँह धोते हैं
दिन भर की धूल गर्द चेहरों पे जमी थी थक गए थे
दोनों शाम और मज़दूर सोच रहे थे कुटिया जल्दी से
पहुँचेंगे मिलकर दोनों खाएंगे रोटी और गुड़ फिर
गुड़ की ही चाय बनाएंगे मिलकर दोनों सोंधी-सोंधी
चुसकियाँ लेंगे सोच मज़दूर की गुड़ की डली मुँह में
पिघली-सी जाती थी शाम सलोनी के होंठ भी मीठे
मीठे होते थे नाच रहे थे दोनों नदी किनारे
शाम सलोनी मीठी-सी और मज़दूर जैसे लैला और मजनूं।

शाम और मज़दूर-3 

मज़दूर शाम के साथ घर लौट रहा है
गलियाँ जल्दी और जल्दी सुनसान हो रही हैं
गाँव में कभी बिजली नहीं आती है अकसर गिर जाती है
तेल मिट्टी का अब शहर में लोग पीते हैं अधर का
पानी मरता जाता है मज़दूर और शाम जाने कब से
साथ-साथ जीते हैं और रोज़ झोंपड़ी के अन्दर
रात को ओढ़ कर सोते हैं ख़्वाब में देखते हैं मुर्ग़ा
खलियान पे चढ़ कर बार-बार बांगता है शाम और मज़दूर
मज़दूर डरते हैं चौंक-चौंक जाते हैं साला दुश्मन
हमारा ख़्वाब में मज़दूर बड़बड़ाता है।

शाम और मज़दूर-4 

शाम और मज़दूर बहुत पास-पास बैठे थे
मिट्टी की डोंगी में गुड़ की चाय पीते थे
महुआ के खेतों से पछुआ सीधी चली
आती थी तेज़ कभी होती थी और कभी
धीमी ख़ुशबू तेज़ महुआ की गुड़ की चाय
जैसे कि बस भड़क-सी दारू दोनों को
नशा था झोंपड़ी मज़दूर की महुआ की
ख़ुशबू में भीगी थी तेज़ हवा में दिया
बुझा था दोनों शाम और मज़दूर मदहोश
हम बिस्तर और बिस्तर हो रहे थे।

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