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चलो सुरंग से पहले गुज़र के देखा जाए

चलो सुरंग से पहले गुज़र के देखा जाए
फिर इस पहाड़ को काँधों पे धर के देखा जाए

उधर के सारे तमाशों के रंग देख चुके
अब इस तरफ़ भी किसी रोज़ मर के देखा जाए

वो चाहता है क्या जाए ए‘तिबार उस पर
तो ए‘तिबार भी कुछ रोज़ कर के देखा जाए

कहाँ पहुँच के हदें सब तमाम होती हैं
इस आसमान से नीचे उतर के देखा जाए

ये दरमियान में किस का सरापा आता है
अगर ये हद है तो हद से गुज़र के देखा जाए

ये देखा जाए वो कितने क़रीब आता है
फिर इस के बाद ही इंकार कर के देखा जाए

दे कर पिछली यादों का अम्बार मुझे 

दे कर पिछली यादों का अम्बार मुझे
फेंक दिया है सात समुंदर पार मुझे

हर मंज़र के अंदर भी इक मंज़र है
देखने वाला भी तो हो तय्यार मुझे

तेरे कमी गर मुझ से पूरी होती है
ले आएँगे लोग सर-ए-बाज़ार मुझे

सारी चीज़ें ग़ैर-मुनासिब लगती हैं
हाथ में दे दी जाए इक तल्वार मुझे

ईंटें जाने कब हरकत में आ जाएँ
जाने किस दिन चुन ले ये दीवार मुझे

एक मुसलसल चोट सी लगती रहती है
सामना ख़ुद अपना है हर हर बार मुझे

एक सूखी हड्डियों का इस तरफ़ अम्बार था

एक सूखी हड्डियों का इस तरफ़ अम्बार था
और उधर उस का लचीला गोश्त इक दीवार था

रेल की पटरी ने उस के टुकड़े टुकड़े कर दिए
आप अपनी ज़ात से उस को बहुत इंकार था

लोग नंगा करने के दर पे थे मुझ को और मैं
बे-सरोसामानियों के नश्शे में सरशार था

मुझ में ख़ुद मेरी अदम-ए-मौजूदगी शामिल रही
वर्ना इस माहौल में जीना बहुत दुश्वार था

एक जादुई छड़ी ने मुझ को ग़ाएब कर दिया
मैं कि अल्फ़-ए-लैला के क़िस्से का अहम किरदार था

वो मेरे नाले का शोर ही था शब-ए-सियह की निहायतों में

वो मेरे नाले का शोर ही था शब-ए-सियह की निहायतों में
मैं एक ज़र्रा इनायतों पर मैं एक गर्दिश कसाफ़तों में

गिरफ़्त और उस की कर रहा हूँ जो आब है इन बसारतों की
कमंद और उस पे फेंकता हूँ जो तह-ए-नशीं है समाअतों में

मिरे लिए शहर-ए-कज में रक्खा ही क्या है जो अपने ग़म गँवाऊँ
वो एक दामाँ बहुत है मुझ को सुकूत-अफ़्ज़ा फ़राग़तों में

मैं एक शब कितनी रातें जागा वो माह बीते कि साल गुज़रे
पहाड़ सा वक़्त काटता हूँ शुमार करता हूँ साअतों में

तिरे फ़लक ही से टूटने वाली रौशनी के हैं अक्स सारे
कहीं कहीं जो चमक रहे हैं हुरूफ़ मेरी इबारतों में

वो बोझ सर पर उठा रखा है कि जिस्म ओ जाँ तक हैं चूर जिन से
पचास बरसों की ज़िल्लतें जो हमें मिली थीं विरासतों में

कौन गुज़रा था मेहराब-ए-जाँ से अभी ख़ामुशी शोर भरता हुआ

कौन गुज़रा था मेहराब-ए-जाँ से अभी ख़ामुशी शोर भरता हुआ
धुँद में कोई शय जूँ दमकती हुई इक बदन सा बदन से उभरता हुआ

सर्फ़ करती हुई जैसे साअत कोई लम्हा कोई फ़रामोश करता हुआ
फिर न जाने कहाँ टूट कर जा गिरा एक साया सरों से गुज़रता हुआ

एक उम्र-ए-गुरेज़ाँ की मोहलत बहुत फैलता ही गया मैं उफ़ुक़-ता-उफ़ुक़
मेरे बातिन को छूती हुई वो निगह और मैं चारों तरफ़ पाँव धरता हुआ

ये जो उड़ती हुई साअत-ए-ख़्वाब कितनी महसूस है कितनी नायाब है
फूल पल्कों से चुनती हुई रौशनी और मैं ख़ुशबुएँ तहरीर करता हुआ

मेरे बस में थे सारे ज़मान-ओ-मकाँ लेक मैं देखता रह गया ईन ओ आँ
चल दिया ले कि चुटकी में कोई ज़मीं आसमाँ आसमाँ गर्द करता हुआ

अपनी मौजूदगी से था मैं बे-ख़बर देखता क्या हूँ ऐसे में यक-दम इधर
क़त्अ करती हुई शब के पहलू में इक आदमी टूटता और बिखरता हुआ

मैं जो ठहरा ठहरता चला जाऊँगा 

मैं जो ठहरा ठहरता चला जाऊँगा
या ज़मीं में उतरता चला जाऊँगा

जिस जगह नूर की बारिशें थम गईं
वो जगह तुझ से भरता चला जाऊँगा

दरमियाँ में अगर मौत आ भी गई
उस के सर से गुज़रता चला जाऊँगा

तेरे क़दमों के आसार जिस जा मिले
इस हथेली पे धरता चला जाऊँगा

दूर होता चला जाऊँगा दूर तक
पास ही से उभरता चला जाऊँगा

रौशनी रखता जाएगा तू हाथ पर
और मैं तहरीर करता चला जाऊँगा

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