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अरशद अली ख़ान ‘क़लक़’ की रचनाएँ

आसार-ए-रिहाई हैं ये दिल बोल रहा है 

आसार-ए-रिहाई हैं ये दिल बोल रहा है
सय्याद सितम-गर मेरे पर खोल रहा है

जामे से हवा जाता है बाहर जो हर इक गुल
क्या बाग़ में वो बंद-ए-क़बा खोल रहा है

शाहों की तरह की है बसर दश्त-ए-जून में
दीवानों का हम-राह मेरे ग़ोल रहा है

तस्कीं को ये कहते रहे फ़ुर्क़त की शब अहबाब
लो सुब्ह हुई मुर्ग़-ए-सहर बोल रहा है

दिल तो दिया मीज़ाँ नहीं पटती नज़र आती
नज़रों में वो ख़ुश-चश्म मुझ तोल रहा है

आश्ना होते ही उस इश्क़ ने मारा मुझ को

आश्ना होते ही उस इश्क़ ने मारा मुझ को
न मिला बहर-ए-मोहब्बत का किनारा मुझ को

क्यूँ मेरे क़त्ल को तलवार बरहना की है
तेग़-ए-अबरू का तो काफ़ी है इशारा मुझ को

दम-दिलासे ही में टाला किए हर रोज़ आख़िर
सूखे घाट ऐ गुल-ए-तर ख़ूब उतारा मुझ को

मैं यहाँ मुंतज़िर-ए-वादा रहा लेकिन वो
रह गए और कहीं दे के सहारा मुझ को

आख़िर इंसान हूँ पत्थर का तो रखता नहीं दिल
ऐ बुतो इतना सताओ न ख़ुदा-रा मुझ को

अपने बे-गाने से अब मुझ को शिकायत न रही
दुश्मनी कर के मेरे दोस्त ने मारा मुझ को

डोरा नहीं है सुरमे का चश्म-ए-सियाह में 

डोरा नहीं है सुरमे का चश्म-ए-सियाह में
बाना पड़ा है यार के पा-ए-निगाह में

मिलता नहीं है मंज़िल-ए-मक़सद का राह-बर
रह-ज़न ही से हो काश मुलाक़ात राह में

आने का उन के कोई मुक़र्रर नहीं है दिन
आ निकले एक बार कहीं साल ओ माह में

ख़ुश-चश्म तू वो है के ग़जालान-ए-हिन्द-ओ-चीन
आगे तेरे समाते नहीं हैं निगाह में

आना है ओ शिकार-ए-फ़गन गर तुझे तो आ
उम्मीद-वार सैद हैं नख़चीर-गाह में

सिंदूर उस की माँग में देता है यूँ बहार
जैसे धनक निकलती है अब्र-ए-सियाह में

ग़फ़लत ये है किसी को नहीं क़ब्र का ख़याल
कोई है फ़िक्र-ए-नाँ में कोई फ़िक्र-ए-जाह में

अग़्यार मुँह छुपाएँगे हम से कहाँ तलक
होगी कभी तो हम से मुलाक़ात राह में

मंज़िल है अपनी अपनी ‘क़लक़’ अपनी अपनी गोर
कोई नहीं शरीक किसी के गुनाह में

रोज़-ए-अव्वल से असीर ऐ दिल-ए-ना-शाद हैं हम

रोज़-ए-अव्वल से असीर ऐ दिल-ए-ना-शाद हैं हम
परवरिश-याफ़्ता-ए-ख़ाना-ए-सय्याद हैं हम

क़ैद से भी न रिहा हो के हवा कुछ दिलशाद
मुब्तला-ए-ग़म-ए-तनहाई-ए-सय्याद हैं हम

क़द्र अपनी न जहाँ में हुई बा-वस्फ़-कमाल
सिफ़त-ए-बू-ए-गुल इस बाग़ में बर्बाद हैं हम

हम शिकायत नहीं कुछ करते तुम्हीं मुंसिफ हो
वाजिबुर-रहम हैं या क़ाबिल-ए-बे-दाद हैं हम

हम समझते हैं पढ़ाई हुई बातें न करो
तिफ़्ल-ए-मकतब हो तुम ऐ जाँ अभी उस्ताद हैं हम

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