ससुर जी उवाच
डरते झिझकते
सहमते सकुचाते
हम अपने होने वाले
ससुर जी के पास आए,
बहुत कुछ कहना चाहते थे
पर कुछ
बोल ही नहीं पाए।
वे धीरज बँधाते हुए बोले-
बोलो!
अरे, मुँह तो खोलो।
हमने कहा-
जी. . . जी
जी ऐसा है
वे बोले-
कैसा है?
हमने कहा-
जी. . .जी ह़म
हम आपकी लड़की का
हाथ माँगने आए हैं।
वे बोले
अच्छा!
हाथ माँगने आए हैं!
मुझे उम्मीद नहीं थी
कि तू ऐसा कहेगा,
अरे मूरख!
माँगना ही था
तो पूरी लड़की माँगता
सिर्फ़ हाथ का क्या करेगा?
तेरा है
तू गर दरिन्दा है तो ये मसान तेरा है,
अगर परिन्दा है तो आसमान तेरा है।
तबाहियां तो किसी और की तलाश में थीं
कहां पता था उन्हें ये मकान तेरा है।
छलकने मत दे अभी अपने सब्र का प्याला,
ये सब्र ही तो असल इम्तेहान तेरा है।
भुला दे अब तो भुला दे कि भूल किसकी थी
न भूल प्यारे कि हिन्दोस्तान तेरा है।
न बोलना है तो मत बोल ये तेरी मरज़ी
है, चुप्पियों में मुकम्मिल बयान तेरा है।
तू अपने देश के दर्पण में ख़ुद को देख ज़रा
सरापा जिस्म ही देदीप्यमान तेरा है।
हर एक चीज़ यहां की, तेरी है, तेरी है,
तेरी है क्योंकि सभी पर निशान तेरा है।
हो चाहे कोई भी तू, हो खड़ा सलीक़े से
ये फ़िल्मी गीत नहीं, राष्ट्रगान तेरा है।
कामना
सुदूर कामना
सारी ऊर्जाएं
सारी क्षमताएं खोने पर,
यानि कि
बहुत बहुत
बहुत बूढ़ा होने पर,
एक दिन चाहूंगा
कि तू मर जाए।
(इसलिए नहीं बताया
कि तू डर जाए।)
हां उस दिन
अपने हाथों से
तेरा संस्कार करुंगा,
उसके ठीक एक महीने बाद
मैं मरूंगा।
उस दिन मैं
तुझ मरी हुई का
सौंदर्य देखूंगा,
तेरे स्थाई मौन से सुनूंगा।
क़रीब,
और क़रीब जाते हुए
पहले मस्तक
और अंतिम तौर पर
चरण चूमूंगा।
अपनी बुढ़िया की
झुर्रियों के साथ-साथ
उसकी एक-एक ख़ूबी गिनूंगा
उंगलियों से।
झुर्रियों से ज़्यादा
ख़ूबियां होंगी
और फिर गिनते-गिनते
गिनते-गिनते
उंगलियां कांपने लगेंगी
अंगूठा थक जाएगा।
फिर मन-मन में गिनूंगा
पूरे महीने गिनता रहूंगा
बहुत कम सोउंगा,
और छिपकर नहीं
अपने बेटे-बेटी
पोते-पोतियों के सामने
आंसुओं से रोऊंगा।
एक महीना
हालांकि ज़्यादा है
पर मरना चाहूंगा
एक महीने ही बाद,
और उस दौरान
ताज़ा करूंगा
तेरी एक-एक याद।
आस्तिक हो जाऊंगा
एक महीने के लिए
बस तेरा नाम जपूंगा
और ढोऊंगा
फालतू जीवन का साक्षात् बोझ
हर पल तीसों रोज़।
इन तीस दिनों में
काग़ज़ नहीं छूउंगा
क़लम नहीं छूउंगा
अख़बार नहीं पढूंगा
संगीत नहीं सुनूंगा
बस अपने भीतर
तुझी को गुंजाउंगा
और तीसवीं रात के
गहन सन्नाटे में
खटाक से मर जाउंगा।
गुनह करेंगे
हम तो करेंगे
गुनह करेंगे
पुनह करेंगे।
वजह नहीं
बेवजह करेंगे।
कल से ही लो
कलह करेंगे।
जज़्बातों को
जिबह करेंगे
निर्लज्जों से
निबह करेंगे
सुलगाने को
सुलह करेंगे।
हम ज़ालिम क्यों
जिरह करेंगे
संबंधों में
गिरह करेंगे
रस विशेष में
विरह करेंगे
जो हो, अपनी
तरह करेंगे
रात में चूके
सुबह करेंगे
गुनह करेंगे
पुनह करेंगे
सिक्के की औक़ात
एक बार
बरखुरदार!
एक रुपए के सिक्के,
और पाँच पैसे के सिक्के में,
लड़ाई हो गई,
पर्स के अंदर
हाथापाई हो गई।
जब पाँच का सिक्का
दनदना गया
तो रुपया झनझना गया
पिद्दी न पिद्दी की दुम
अपने आपको
क्या समझते हो तुम!
मुझसे लड़ते हो,
औक़ात देखी है
जो अकड़ते हो!
इतना कहकर मार दिया धक्का,
सुबकते हुए बोला
पाँच का सिक्का-
हमें छोटा समझकर
दबाते हैं,
कुछ भी कह लें
दान-पुन्न के काम तो
हम ही आते हैं।
परदे हटा के देखो
ये घर है दर्द का घर, परदे हटा के देखो,
ग़म हैं हंसी के अंदर, परदे हटा के देखो।
लहरों के झाग ही तो, परदे बने हुए हैं,
गहरा बहुत समंदर, परदे हटा के देखो।
चिड़ियों का चहचहाना, पत्तों का सरसराना,
सुनने की चीज़ हैं पर, परदे हटा के देखो।
नभ में उषा की रंगत, सूरज का मुस्कुराना
ये ख़ुशगवार मंज़र, परदे हटा के देखो।
अपराध और सियासत का इस भरी सभा में,
होता हुआ स्वयंवर, परदे हटा के देखो।
इस ओर है धुआं सा, उस ओर है कुहासा,
किरणों की डोर बनकर, परदे हटा के देखो।
ऐ चक्रधर ये माना, हैं ख़ामियां सभी में,
कुछ तो मिलेगा बेहतर, परदे हटा के देखो।
फिर तो
आख़िर कब तक इश्क
इकतरफ़ा करते रहोगे,
उसने तुम्हारे दिल को
चोट पहुँचाई
तो क्या करोगे?
-ऐसा हुआ तो
लात मारूँगा
उसके दिल को।
-फिर तो पैर में भी
चोट आएगी तुमको।
नया आदमी
डॉक्टर बोला-
दूसरों की तरह
क्यों नहीं जीते हो,
इतनी क्यों पीते हो?
वे बोले-
मैं तो दूसरों से भी
अच्छी तरह जीता हूँ,
सिर्फ़ एक पैग पीता हूँ।
एक पैग लेते ही
मैं नया आदमी
हो जाता हूँ,
फिर बाकी सारी बोतल
उस नए आदमी को ही
पिलाता हूँ।
तो क्या यहीं?
तलब होती है बावली,
क्योंकि रहती है उतावली।
बौड़म जी ने
सिगरेट ख़रीदी
एक जनरल स्टोर से,
और फ़ौरन लगा ली
मुँह के छोर से।
ख़ुशी में गुनगुनाने लगे,
और वहीं सुलगाने लगे।
दुकानदार ने टोका,
सिगरेट जलाने से रोका-
श्रीमान जी!मेहरबानी कीजिए,
पीनी है तो बाहर पीजिए।
बौड़म जी बोले-कमाल है,
ये तो बड़ा गोलमाल है।
पीने नहीं देते
तो बेचते क्यों हैं?
दुकानदार बोला-
इसका जवाब यों है
कि बेचते तो हम लोटा भी हैं,
और बेचते जमालगोटा भी हैं,
अगर इन्हें ख़रीदकर
आप हमें निहाल करेंगे,
तो क्या यहीं
उनका इस्तेमाल करेंगे?
कौन है ये जैनी?
बीवी की नज़र थी
बड़ी पैनी-
क्यों जी,
कौन है ये जैनी?
सहज उत्तर था मियाँ का-
जैनी,
जैनी नाम है
एक कुतिया का।
तुम चाहती थीं न
एक डौगी हो घर में,
इसलिए दोस्तों से
पूछता रहता था अक्सर मैं।
पिछले दिनों एक दोस्त ने
जैनी के बारे में बताया था।
पत्नी बोली-अच्छा!
तो उस जैनी नाम की कुतिया का
आज दिन में
पाँच बार फ़ोन आया था।
कम से कम
एक घुटे हुए नेता ने
छंटे हुए शब्दों में
भावुक तकरीर दी,
भीड़ भावनाओं से चीर दी।
फिर मानव कल्याण के लिए
दिल खोल दान के लिए
अपनी टोपी घुमवाई,
पर अफ़सोस
कि खाली लौट आई।
टोपी को देखकर
नेता जी बोले-अपमान जो होना है सो हो ले।
पर धन्यवाद,
आपकी इस प्रतिक्रिया से
प्रसन्नता छा गई,
कम से कम
टोपी तो वापस आ गई।
तुम से आप
तुम भी जल थे
हम भी जल थे
इतने घुले-मिले थे
कि एक दूसरे से
जलते न थे।
न तुम खल थे
न हम खल थे
इतने खुले-खुले थे
कि एक दूसरे को
खलते न थे।
अचानक हम तुम्हें खलने लगे,
तो तुम हमसे जलने लगे।
तुम जल से भाप हो गए
और ‘तुम’ से ‘आप’ हो गए।
पोल-खोलक यंत्र
ठोकर खाकर हमने
जैसे ही यंत्र को उठाया,
मस्तक में शूं-शूं की ध्वनि हुई
कुछ घरघराया।
झटके से गरदन घुमाई,
पत्नी को देखा
अब यंत्र से
पत्नी की आवाज़ आई-
मैं तो भर पाई!
सड़क पर चलने तक का
तरीक़ा नहीं आता,
कोई भी मैनर
या सली़क़ा नहीं आता।
बीवी साथ है
यह तक भूल जाते हैं,
और भिखमंगे नदीदों की तरह
चीज़ें उठाते हैं।
….इनसे
इनसे तो
वो पूना वाला
इंजीनियर ही ठीक था,
जीप में बिठा के मुझे शॉपिंग कराता
इस तरह राह चलते
ठोकर तो न खाता।
हमने सोचा-
यंत्र ख़तरनाक है!
और ये भी एक इत्तेफ़ाक़ है
कि हमको मिला है,
और मिलते ही
पूना वाला गुल खिला है।
और भी देखते हैं
क्या-क्या गुल खिलते हैं?
अब ज़रा यार-दोस्तों से मिलते हैं।
तो हमने एक दोस्त का
दरवाज़ा खटखटाया
द्वार खोला, निकला, मुस्कुराया,
दिमाग़ में होने लगी आहट
कुछ शूं-शूं
कुछ घरघराहट।
यंत्र से आवाज़ आई-
अकेला ही आया है,
अपनी छप्पनछुरी,
गुलबदन को
नहीं लाया है।
प्रकट में बोला-
ओहो!
कमीज़ तो बड़ी फ़ैन्सी है!
और सब ठीक है?
मतलब, भाभीजी कैसी हैं?
हमने कहा-
भा…भी….जी
या छप्पनछुरी गुलबदन?
वो बोला-
होश की दवा करो श्रीमन्
क्या अण्ट-शण्ट बकते हो,
भाभीजी के लिए
कैसे-कैसे शब्दों का
प्रयोग करते हो?
हमने सोचा-
कैसा नट रहा है,
अपनी सोची हुई बातों से ही
हट रहा है।
सो फ़ैसला किया-
अब से बस सुन लिया करेंगे,
कोई भी अच्छी या बुरी
प्रतिक्रिया नहीं करेंगे।
लेकिन अनुभव हुए नए-नए
एक आदर्शवादी दोस्त के घर गए।
स्वयं नहीं निकले
वे आईं,
हाथ जोड़कर मुस्कुराईं-
मस्तक में भयंकर पीड़ा थी
अभी-अभी सोए हैं।
यंत्र ने बताया-
बिल्कुल नहीं सोए हैं
न कहीं पीड़ा हो रही है,
कुछ अनन्य मित्रों के साथ
द्यूत-क्रीड़ा हो रही है।
अगले दिन कॉलिज में
बी०ए० फ़ाइनल की क्लास में
एक लड़की बैठी थी
खिड़की के पास में।
लग रहा था
हमारा लैक्चर नहीं सुन रही है
अपने मन में
कुछ और-ही-और
गुन रही है।
तो यंत्र को ऑन कर
हमने जो देखा,
खिंच गई हृदय पर
हर्ष की रेखा।
यंत्र से आवाज़ आई-
सरजी यों तो बहुत अच्छे हैं,
लंबे और होते तो
कितने स्मार्ट होते!
एक सहपाठी
जो कॉपी पर उसका
चित्र बना रहा था,
मन-ही-मन उसके साथ
पिकनिक मना रहा था।
हमने सोचा-
फ़्रायड ने सारी बातें
ठीक ही कही हैं,
कि इंसान की खोपड़ी में
सैक्स के अलावा कुछ नहीं है।
कुछ बातें तो
इतनी घिनौनी हैं,
जिन्हें बतलाने में
भाषाएं बौनी हैं।
एक बार होटल में
बेयरा पांच रुपये बीस पैसे
वापस लाया
पांच का नोट हमने उठाया,
बीस पैसे टिप में डाले
यंत्र से आवाज़ आई-
चले आते हैं
मनहूस, कंजड़ कहीं के साले,
टिप में पूरे आठ आने भी नहीं डाले।
हमने सोचा- ग़नीमत है
कुछ महाविशेषण और नहीं निकाले।
ख़ैर साहब!
इस यंत्र ने बड़े-बड़े गुल खिलाए हैं
कभी ज़हर तो कभी
अमृत के घूंट पिलाए हैं।
– वह जो लिपस्टिक और पाउडर में
पुती हुई लड़की है
हमें मालूम है
उसके घर में कितनी कड़की है!
– और वह जो पनवाड़ी है
यंत्र ने बता दिया
कि हमारे पान में
उसकी बीवी की झूठी सुपारी है।
एक दिन कविसम्मेलन मंच पर भी
अपना यंत्र लाए थे
हमें सब पता था
कौन-कौन कवि
क्या-क्या करके आए थे।
ऊपर से वाह-वाह
दिल में कराह
अगला हूट हो जाए पूरी चाह।
दिमाग़ों में आलोचनाओं का इज़ाफ़ा था,
कुछ के सिरों में सिर्फ
संयोजक का लिफ़ाफ़ा था।
ख़ैर साहब,
इस यंत्र से हर तरह का भ्रम गया
और मेरे काव्य-पाठ के दौरान
कई कवि मित्र
एक साथ सोच रहे थे-
अरे ये तो जम गया!
जंगल गाथा
1.
एक नन्हा मेमना
और उसकी माँ बकरी,
जा रहे थे जंगल में
राह थी संकरी।
अचानक सामने से आ गया एक शेर,
लेकिन अब तो
हो चुकी थी बहुत देर।
भागने का नहीं था कोई भी रास्ता,
बकरी और मेमने की हालत खस्ता।
उधर शेर के कदम धरती नापें,
इधर ये दोनों थर-थर कापें।
अब तो शेर आ गया एकदम सामने,
बकरी लगी जैसे-जैसे
बच्चे को थामने।
छिटककर बोला बकरी का बच्चा-
शेर अंकल!
क्या तुम हमें खा जाओगे
एकदम कच्चा?
शेर मुस्कुराया,
उसने अपना भारी पंजा
मेमने के सिर पर फिराया।
बोला-
हे बकरी – कुल गौरव,
आयुष्मान भव!
दीर्घायु भव!
चिरायु भव!
कर कलरव!
हो उत्सव!
साबुत रहें तेरे सब अवयव।
आशीष देता ये पशु-पुंगव-शेर,
कि अब नहीं होगा कोई अंधेरा
उछलो, कूदो, नाचो
और जियो हँसते-हँसते
अच्छा बकरी मैया नमस्ते!
इतना कहकर शेर कर गया प्रस्थान,
बकरी हैरान-
बेटा ताज्जुब है,
भला ये शेर किसी पर
रहम खानेवाला है,
लगता है जंगल में
चुनाव आनेवाला है।
2.
पानी से निकलकर
मगरमच्छ किनारे पर आया,
इशारे से
बंदर को बुलाया.
बंदर गुर्राया-
खों खों, क्यों,
तुम्हारी नजर में तो
मेरा कलेजा है?
मगरमच्छ बोला-
नहीं नहीं, तुम्हारी भाभी ने
खास तुम्हारे लिये
सिंघाड़े का अचार भेजा है.
बंदर ने सोचा
ये क्या घोटाला है,
लगता है जंगल में
चुनाव आने वाला है.
लेकिन प्रकट में बोला-
वाह!
अचार, वो भी सिंघाड़े का,
यानि तालाब के कबाड़े का!
बड़ी ही दयावान
तुम्हारी मादा है,
लगता है शेर के खिलाफ़
चुनाव लड़ने का इरादा है.
कैसे जाना, कैसे जाना?
ऐसे जाना, ऐसे जाना
कि आजकल
भ्रष्टाचार की नदी में
नहाने के बाद
जिसकी भी छवि स्वच्छ है,
वही तो मगरमच्छ है.
हम तो करेंगे
हम तो करेंगे
गुनह करेंगे
पुनह करेंगे।
वजह नहीं
बेवजह करेंगे।
कल से ही लो
कलह करेंगे।
जज़्बातों को
जिबह करेंगे
निर्लज्जों से
निबह करेंगे
सुलगाने को
सुलह करेंगे।
हम ज़ालिम क्यों
जिरह करेंगे
संबंधों में
गिरह करेंगे
रस विशेष में
विरह करेंगे
जो हो, अपनी
तरह करेंगे
रात में चूके
सुबह करेंगे
गुनह करेंगे
पुनह करेंगे
आलपिन कांड
बंधुओ, उस बढ़ई ने
चक्कू तो ख़ैर नहीं लगाया
पर आलपिनें लगाने से
बाज़ नहीं आया।
ऊपर चिकनी-चिकनी रैक्सीन
अंदर ढेर सारे आलपीन।
तैयार कुर्सी
नेताजी से पहले दफ़्तर में आ गई,
नेताजी आए
तो देखते ही भा गई।
और,
बैठने से पहले
एक ठसक, एक शान के साथ
मुस्कान बिखेरते हुए
उन्होंने टोपी संभालकर
मालाएं उतारीं,
गुलाब की कुछ पत्तियां भी
कुर्ते से झाड़ीं,
फिर गहरी उसांस लेकर
चैन की सांस लेकर
कुर्सी सरकाई
और भाई, बैठ गए।
बैठते ही ऐंठ गए।
दबी हुई चीख़ निकली, सह गए
पर बैठे-के-बैठे ही रह गए।
उठने की कोशिश की
तो साथ में कुर्सी उठ आई
उन्होंने ज़ोर से आवाज़ लगाई-
किसने बनाई है?
चपरासी ने पूछा- क्या?
क्या के बच्चे कुर्सी!
क्या तेरी शामत आई है?
जाओ फ़ौरन उस बढ़ई को बुलाओ।
बढ़ई बोला-
सर मेरी क्या ग़लती है
यहां तो ठेकेदार साब की चलती है।
उन्होंने कहा-
कुर्सियों में वेस्ट भर दो
सो भर दी
कुर्सी आलपिनों से लबरेज़ कर दी।
मैंने देखा कि आपके दफ़्तर में
काग़ज़ बिखरे पड़े रहते हैं
कोई भी उनमें
आलपिनें नहीं लगाता है
प्रत्येक बाबू
दिन में कम-से-कम
डेढ़ सौ आलपिनें नीचे गिराता है।
और बाबूजी,
नीचे गिरने के बाद तो
हर चीज़ वेस्ट हो जाती है
कुर्सियों में भरने के ही काम आती है।
तो हुज़ूर,
उसी को सज़ा दें
जिसका हो कुसूर।
ठेकेदार साब को बुलाएं
वे ही आपको समझाएं।
अब ठेकेदार बुलवाया गया,
सारा माजरा समझाया गया।
ठेकेदार बोला-
बढ़ई इज़ सेइंग वैरी करैक्ट सर!
हिज़ ड्यूटी इज़ ऐब्सोल्यूटली
परफ़ैक्ट सर!
सरकारी आदेश है
कि सरकारी सम्पत्ति का सदुपयोग करो
इसीलिए हम बढ़ई को बोला
कि वेस्ट भरो।
ब्लंडर मिस्टेक तो आलपिन कंपनी के
प्रोपराइटर का है
जिसने वेस्ट जैसा चीज़ को
इतना नुकीली बनाया
और आपको
धरातल पे कष्ट पहुंचाया।
वैरी वैरी सॉरी सर।
अब बुलवाया गया
आलपिन कंपनी का प्रोपराइटर
पहले तो वो घबराया
समझ गया तो मुस्कुराया।
बोला-
श्रीमान,
मशीन अगर इंडियन होती
तो आपकी हालत ढीली न होती,
क्योंकि
पिन इतनी नुकीली न होती।
पर हमारी मशीनें तो
अमरीका से आती हैं
और वे आलपिनों को
बहुत ही नुकीला बनाती हैं।
अचानक आलपिन कंपनी के
मालिक ने सोचा
अब ये अमरीका से
किसे बुलवाएंगे
ज़ाहिर है मेरी ही
चटनी बनवाएंगे।
इसलिए बात बदल दी और
अमरीका से भिलाई की तरफ
डायवर्ट कर दी-
मेमने ने देखे जब गैया के आंसू
(खेल में मग्न बच्चों को घर की सुध नहीं रहती)
माता पिता से मिला जब उसको प्रेम ना,
तो बाड़े से भाग लिया नन्हा सा मेमना।
बिना रुके बढ़ता गया, बढ़ता गया भू पर,
पहाड़ पर चढ़ता गया, चढ़ता गया ऊपर।
बहुत दूर जाके दिखा, उसे एक बछड़ा,
बछड़ा भी अकड़ गया, मेमना भी अकड़ा।
दोनों ने बनाए अपने चेहरे भयानक,
खड़े रहे काफी देर, और फिर अचानक—
पास आए, पास आए और पास आए,
इतने पास आए कि चेहरे पे सांस आए।
आंखों में देखा तो लगे मुस्कुराने,
फिर मिले तो ऐसे, जैसे दोस्त हों पुराने।
उछले कूदे नाचे दोनों, गाने गाए दिल के,
हरी-हरी घास चरी, दोनों ने मिल के।
बछड़ा बोला- मेरे साथ धक्कामुक्की खेलोगे?
मैं तुम्हें धकेलूंगा, तुम मुझे धकेलोगे।
कभी मेमना धकियाए, कभी बछड़ा धकेले,
सुबहा से शाम तलक. कई गेम खेले।
मेमने को तभी एक आवाज़ आई,
बछड़ा बोला— ये तो मेरी मैया रंभाई।
लेकिन कोई बात नहीं, अभी और खेलो,
मेरी बारी ख़त्म हुई, अपनी बारी ले लो।
सुध-बुध सी खोकर वे फिर से लगे खेलने,
दिन को ढंक दिया पूरा, संध्या की बेल ने।
पर दोनों अल्हड़ थे, चंचल अलबेले,
ख़ूब खेल खेले और ख़ूब देर खेले।
तभी वहां गैया आई बछड़े से बोली—
मालूम है तेरे लिए कितनी मैं रो ली।
दम मेरा निकल गया, जाने तू कहां है,
जंगल जंगल भटकी हूं, और तू यहां है!
क्या तूने, सुनी नहीं थी मेरी टेर?
बछड़ा बोला— खेलूंगा और थोड़ी देर!
मेमने ने देखे जब गैया के आंसू,
उसका मन हुआ एक पल को जिज्ञासू।
जैसे गैया रोती है ले लेकर सिसकी,
ऐसे ही रोती होगी, बकरी मां उसकी।
फिर तो जी उसने खेला कोई भी गेम ना,
जल्दी से घर को लौटा नन्हा सा मेमना।
ठेकेदार भाग लिया
फावड़े ने
मिट्टी काटने से इंकार कर दिया
और
बदरपुर पर जा बैठा
एक ओर
ऐसे में
तसले की मिट्टी ढोना
कैसे गवारा होता ?
काम छोड़ आ गया
फावड़े की बगल में।
धुरमुट की क़ंदमताल…..रुक गई,
कुदाल के इशारे पर
तत्काल,
झाल ज्यों ही कुढ़ती हुई
रोती बड़बड़ाती हुई
आ गिरी औंधे मुंह
रोड़ी के ऊपर।
-आख़िर ये कब तक ?
-कब तक सहेंगे हम ?
गुस्से में ऐंठी हुई
काम छोड़ बैठ गईं
गुनिया और वसूली भी
ईंटों से पीठ टेक,
सिमट आया नापासूत
कन्नी के बराबर।
-आख़िर ये कब तक ?
-कब तक सहेंगे हम ?
गारे में गिरी हुई बाल्टी तो
वहीं-की-वहीं
खड़ी रह गई
ठगी-सी।
सब्बल
जो बालू में धंसी हुई खड़ी थी
कई बार
ज़ालिम ठेकेदार से लड़ी थी।
-आख़िर ये कब तक ?
-कब तक सहेंगे हम ?
-मामला ये अकेले
झाल का नहीं है
धुरमुट चाचा !
कुदाल का भी है
कन्नी का, वसूली का,
गुनिया का, सब्बल का
और नापासूत का भी है,
क्यों धुरमुट चाचा ?
फवड़े ने ज़रा जोश में कहा।
और ठेक पड़ी हथेलियां
कसने लगीं-कसने लगीं
कसती गईं-कसती गईं।
एक साथ उठी आसमान में
आसमान गूंज गया कांप उठा डरकर।
ठेकेदार भाग लिया टेलीफ़ोन करने।
माशो की माँ
नुक्कड़ पर माशो की माँ
बेचती है टमाटर।
चेहरे पर जितनी झुर्रियाँ हैं
झल्ली में उतने ही टमाटर हैं।
टमाटर नहीं हैं
वो सेव हैं,
सेव भी नहीं
हीरे-मोती हैं।
फटी मैली धोती से
एक-एक पोंछती है टमाटर,
नुक्कड़ पर माशो की माँ।
गाहक को मेहमान-सा देखती है
एकाएक हो जाती है काइयाँ
–आठाने पाउ
लेना होय लेउ
नहीं जाउ।
मुतियाबिंद आँखों से
अठन्नी का ख़रा-खोटा देखती है
और
सुतली की तराजू पर
बेटी के दहेज-सा
एक-एक चढ़ाती है टमाटर
नुक्कड़ पर माशो की माँ।
–गाहक की तुष्टि होय
एक-एक चढ़ाती ही जाती है
टमाटर।
इतने चढ़ाती है टमाटर
कि टमाटर का पल्ला
ज़मीन छूता है
उसका ही बूता है।
सूर्य उगा– आती है
सूर्य ढला– जाती है
लाती है झल्ली में भरे हुए टमाटर
नुक्कड़ पर माशो की माँ।
सो तो है खचेरा
गरीबी है- सो तो है,
भुखमरी है – सो तो है,
होतीलाल की हालत खस्ता है – सो तो खस्ता है,
उनके पास कोई रस्ता नहीं है – सो तो है।
पांय लागूं, पांय लागूं
बौहरे आप धन्न हैं,
आपका ही खाता हूं आपका ही अन्न है।
सो तो है खचेरा !
वह जानता है उसका कोई नहीं,
उसकी मेहनत भी उसकी नहीं है –
सो तो है।
क्रम
एक अंकुर फूटा
पेड़ की जड़ के पास ।
एक किल्ला फूटा
फुनगी पर ।
अंकुर बढ़ा
जवान हुआ,
किल्ला पत्ता बना
सूख गया ।
गिरा
उस अंकुर की
जवानी की गोद में
गिरने का ग़म गिरा
बढ़ने के मोद में ।
चेतन जड़
प्यास कुछ और बढ़ी
और बढ़ी ।
बेल कुछ और चढ़ी
और चढ़ी ।
प्यास बढ़ती ही गई,
बेल चढ़ती ही गई ।
कहाँ तक जाओगी बेलरानी
पानी ऊपर कहाँ है ?
जड़ से आवाज़ आई–
यहाँ है, यहाँ है ।
पहले पहले
मुझे याद है
वह
जज़्बाती शुरुआत की
पहली मुलाक़ात
जब सोते हुए उसके बाल
अंगुल भर दूर थे
लेकिन उन दिनों
मेरे हाथ
कितने मज़बूर थे ?
नख़रेदार
भूख लगी है
चलो, कहीं कुछ खाएं ।
देखता रहा उसको
खाते हुए लगती है कैसी,
देखती रही मुझको
खाते हुए लगता हूँ कैसा ।
नख़रेदार पानी पिया
नख़रेदार सिगरेट
ढाई घंटे बैठ वहाँ
बाहर निकल आए ।
किधर गई बातें
चलती रहीं
चलती रहीं
चलती रहीं बातें
यहाँ की, वहाँ की
इधर की, उधर की
इसकी, उसकी
जने किस-किस की,
कि
एकएक
सिर्फ़ उसकी आँखों को देखा मैंने
उसने देखा मेरा देखना ।
और… तो फिर…
किधर गईं बातें,
कहाँ गईं बातें ?
चल दी जी, चल दी
मैंने कहा
चलो
उसने कहा
ना
मैंने कहा
तुम्हारे लिए खरीदभर बाज़ार है
उसने कहा
बन्द
मैंने पूछा
क्यों
उसने कहा
मन
मैंने कहा
न लगने की क्या बात है
उअसने कहा
बातें करेंगे यहीं
मैंने कहा
नहीं, चलो कहीं
झुंझलाई
क्या-आ है ?
मैनें कहा
कुर्ता ख़रीदना है अपने लिए ।
चल दी जी, चल दी
वो ख़ुशी-ख़ुशी जल्दी ।
देह नृत्यशाला
अँधेरे उस पेड़ के सहारे
मेरा हाथ
पेड़ की छाल के अन्दर
ऊपर की ओर
कोमल तव्चा पर
थरथराते हुए रेंगा
और जा पहुँचा वहाँ
जहाँ एक शाख निकली थी ।
काँप गई पत्तियाँ
काँप गई टहनी
काँप गया पूरा पेड़ ।
देह नृत्यशाला
आलाप-जोड़-झाला ।
फिर कभी
एक गुमसुम मैना है
अकेले में गाती है
राग बागेश्री ।
तोता उससे कहे
कुछ सुनाओ तो ज़रा
तो
चोंच चढ़ाकर कहती है
फिर कभी गाऊँगी जी ।
चुटपुटकुले
चुटपुटकुले
ये चुटपुटकुले हैं,
हंसी के बुलबुले हैं।
जीवन के सब रहस्य
इनसे ही तो खुले हैं,
बड़े चुलबुले हैं,
ये चुटपुटकुले हैं।
माना कि
कम उम्र होते
हंसी के बुलबुले हैं,
पर जीवन के सब रहस्य
इनसे ही तो खुले हैं,
ये चुटपुटकुले हैं।
ठहाकों के स्त्रोत
कुछ यहां कुछ वहां के,
कुछ खुद ही छोड़ दिए
अपने आप हांके।
चुलबुले लतीफ़े
मेरी तुकों में तुले हैं,
मुस्काते दांतों की
धवलता में धुले हैं,
ये कविता के
पुट वाले
चुटपुटकुले हैं।
दया
भूख में होती है कितनी लाचारी,
ये दिखाने के लिए एक भिखारी,
लॉन की घास खाने लगा,
घर की मालकिन में
दया जगाने लगा।
दया सचमुच जागी
मालकिन आई भागी-भागी-
क्या करते हो भैया ?
भिखारी बोला
भूख लगी है मैया।
अपने आपको
मरने से बचा रहा हूं,
इसलिए घास ही चबा रहा हूं।
मालकिन ने आवाज़ में मिसरी घोली,
और ममतामयी स्वर में बोली—
कुछ भी हो भैया
ये घास मत खाओ,
मेरे साथ अंदर आओ।
दमदमाता ड्रॉइंग रूम
जगमगाती लाबी,
ऐशोआराम को सारे ठाठ नवाबी।
फलों से लदी हुई
खाने की मेज़,
और किचन से आई जब
महक बड़ी तेज,
तो भूख बजाने लगी
पेट में नगाड़े,
लेकिन मालकिन ले आई उसे
घर के पिछवाड़े।
भिखारी भौंचक्का-सा देखता रहा
मालकिन ने और ज़्यादा प्यार से कहा—
नर्म है, मुलायम है। कच्ची है
इसे खाओ भैया
बाहर की घास से
ये घास अच्छी है !
नन्ही सचाई
एक डॉक्टर मित्र हमारे
स्वर्ग सिधारे।
असमय मर गए,
सांत्वना देने
हम उनके घर गए।
उनकी नन्ही-सी बिटिया
भोली-नादान थी,
जीवन-मृत्यु से
अनजान थी।
हमेशा की तरह
द्वार पर आई,
देखकर मुस्कुराई।
उसकी नन्ही-सचाई
दिल को लगी बेधने,
बोली—
अंकल !
भगवान जी बीमार हैं न
पापा गए हैं देखने।
कितनी रोटी
गांव में अकाल था,
बुरा हाल था।
एक बुढ़ऊ ने समय बिताने को,
यों ही पूछा मन बहलाने को—
ख़ाली पेट पर
कितनी रोटी खा सकते हो
गंगानाथ ?
गंगानाथ बोला—
सात !
बुढ़ऊ बोला—
गलत !
बिलकुल ग़लत कहा,
पहली रोटी
खाने के बाद
पेट खाली कहां रहा।
गंगानाथ,
यही तो मलाल है,
इस समय तो
सिर्फ़ एक रोटी का सवाल है।
नेता जी लगे मुस्कुराने
एक महा विद्यालय में
नए विभाग के लिए
नया भवन बनवाया गया,
उसके उद्घाटनार्थ
विद्यालय के एक पुराने छात्र
लेकिन नए नेता को
बुलवाया गया।
अध्यापकों ने
कार के दरवाज़े खोले
नेती जी उतरते ही बोले—
यहां तर गईं
कितनी ही पीढ़ियां,
अहा !
वही पुरानी सीढ़ियां !
वही मैदान
वही पुराने वृक्ष,
वही कार्यालय
वही पुराने कक्ष।
वही पुरानी खिड़की
वही जाली,
अहा, देखिए
वही पुराना माली।
मंडरा रहे थे
यादों के धुंधलके
थोड़ा और आगे गए चल के—
वही पुरानी
चिमगादड़ों की साउण्ड,
वही घंटा
वही पुराना प्लेग्राउण्ड।
छात्रों में
वही पुरानी बदहवासी,
अहा, वही पुराना चपरासी।
नमस्कार, नमस्कार !
अब आया हॉस्टल का द्वार—
हॉस्टल में वही कमरे
वही पुराना ख़ानसामा,
वही धमाचौकड़ी
वही पुराना हंगामा।
नेता जी पर
पुरानी स्मृतियां छा रही थीं,
तभी पाया
कि एक कमरे से
कुछ ज़्यादा ही
आवाज़ें आ रही थीं।
उन्होंने दरवाजा खटखटाया,
लड़के ने खोला
पर घबराया।
क्योंकि अंदर एक कन्या थी,
वल्कल-वसन-वन्या थी।
दिल रह गया दहल के,
लेकिन बोला संभल के—
आइए सर !
मेरा नाम मदन है,
इससे मिलिए
मेरी कज़न है।
नेता जी लगे मुस्कुराने
पहला क़दम
अब जब
विश्वभर में सबके सब,
सभ्य हैं, प्रबुद्ध हैं
तो क्यों करते युद्ध हैं ?
कैसी विडंबना कि
आधुनिक कहाते हैं,
फिर भी देश लड़ते हैं
लहू बहाते हैं।
एक सैनिक दूसरे को
बिना बात मारता है,
इससे तो अच्छी
समझौता वार्ता है।
एक दूसरे के समक्ष
बैठ जाएं दोनों पक्ष
बाचतीत से हल निकालें,
युद्ध को टालें !
क्यों अशोक जी,
आपका क्या ख़याल है ?
मैंने कहा—
यही तो मलाल है।
बातचीत से कुछ होगा
आपका भरम है,
दरअसल,
ये बातचीत ही तो
लड़ाई का
पहला कदम है।
क्या किया फ़ोटोज़ का ?
सामने खड़ा था स्टाफ़ समूचा
आई. जी. ने रौब से पूछा—
पांच शातिर बदमाशों के
चित्र मैंने भेजे,
कुछ किया
या सिर्फ़ सहेजे ?
इलाक़े में
हो रही वारदातें,
‘क्या कर रही है पुलिस’
ये होती हैं बातें।
रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में
बढ़ रहे हैं खतरे,
और
खुलेआम घूम रहे हैं
जेबकतरे।
चोरी,
डकैती
सेंधमारी,
जेबकतरी
सिलसिला बन गया है रोज़ का,
सिर झुकाए खड़ा था
स्टाफ़ सारा,
आई. जी. ने हवा में
बेंत फटकारा-
कोई जवाब नहीं दिया,
बताइए
इस तरह
सिर मत झुकाइए।
क्या किया है
बताइए ।
वो उचक्के
पूरे शहर को मूंड रहे हैं….
एक थानेदार बोला—
सर !
तीन फ़ोटो मिल गए हैं
दो फ़ोटो ढूँढ़ रहे हैं।
ख़लीफ़ा की खोपड़ी
दर्शकों का नया जत्था आया
गाइड ने उत्साह से बताया—
ये नायाब चीज़ों का
अजायबघर है,
कहीं परिन्दे की चोंच है
कहीं पर है।
ये देखिए
ये संगमरमर की शिला
एक बहुत पुरानी क़बर की है,
और इस पर जो बड़ी-सी
खोपड़ी रखी है न,
ख़लीफा बब्बर की है।
तभी एक दर्शक ने पूछा—
और ये जो
छोटी खोपड़ी रखी है
ये किनकी है ?
गाइड बोला—
है तो ये भी ख़लीफ़ा बब्बर की
पर उनके बचपन की है।
हंसना-रोना
जो रोया
सो आंसुओं के
दलदल में
धंस गया,
और कहते हैं,
जो हंस गया
वो फंस गया
अगर फंस गया,
तो मुहावरा
आगे बढ़ता है
कि जो हंस गया,
उसका घर बस गया।
मुहावरा फिर आगे बढ़ता है
जिसका घर बस गया,
वो फंस गया !
….और जो फंस गया,
वो फिर से
आंसुओं के दलदल में
धंस गया !!
खींचो खींचो
कौन कह मरा है कि
कैमरा हो हमेशा तुम्हारे पास,
आंखों से ही खींच लो
समंदर की लहरें
पेड़ों की पत्तियां
मैदान की घास !
मतपेटी से राजा
भूतपूर्व दस्यू सुन्दरी,
संसद कंदरा कन्दरी !
उन्होंने एक बात कही,
खोपड़ी
चकराए बिना नहीं रही।
माथा ठनका,
क्योंकि
वक्तव्य था उनका
सुन लो
इस चंबल के बीहड़ों की
बेटी से
राजा
पहले पैदा होता था
रानी के पेट से
अब पैदा होता है
मतपेटी से।
बात चुस्त है,
सुनने में भी दुरुस्त है,
लेकिन अशोक चक्रधर
ये सोचकर शोकग्रस्त है
सुस्त है,
कि राजतंत्र
हमने शताब्दियों भोगा
पेट से हो या पेटी से
क्या इस लोकतंत्र में
अब भी
राजा ही पैदा होगा ?
जब भी
इतिहास का
कोई ख़ून रंगा पन्ना
फड़फड़ाया है,
उसने हास-परिहास में नहीं
बल्कि
उदास होकर बताया है—
राजा माने
तलवार,
जब जी चाहे प्रहार।
राजा माने,
गद्दी,
हरम की परम्पराएं भद्दी।
आक़ा-आकाशी,
सेनापतियों सिपहसालारों की अय्याशी।
राजा माने क्रोध,
मदांध प्रतिशोध।
राजा माने
व्यक्तिगत ख़ज़ाना,
लगान वसूलने को
हथेली खुजाना
राजा माने बंदूक
जो निर्बल पर अचूक
मतपेटी से निकले
राजा और रानी वर्तमान में,
साढ़े पांच सौ हैं।
संविधान में
भूतपूर्व दस्यू सुन्दरी और वर्तमान रानी !
दोहरानी नहीं है।
कोई पुरानी कहानी।
अनुरोध है कि
प्रतिशोध को
जातिवादी कढ़ाई में मत रांधना
मतपेटी से निकल कर
कमर पर पेटी मत बांधना।
हमारा लोकतंत्र बड़ा फ़ितना है,
और कवि का सवाल
सिर्फ़ इतना है,
मेहरबानी होगी
अगर आप बताएंगे,
कि प्रजातंत्र में
मतपेटी से
प्रजा के राजा नहीं
शोषित,
पीड़ित
कराहती हुई
अपने लिए
सुख-चैन चाहती हई
प्रजा के सेवक
कब आएंगे ?
इस प्रजातंत्र में
प्रजा के सेवक कब आएंगे ?
गति का कुसूर
क्या होता है कार में-
पास की चीज़ें पीछे दौड़ जाती है
तेज़ रफ़तार में!
और ये शायद
गति का ही कुसूर है
कि वही चीज़
देर तक साथ रहती है
जो जितनी दूर है।
मंत्रिमंडल विस्तार
आप तो जानते हैं
सपना जब आता है
तो अपने साथ लाता है
भूली-भटकी भूखों का
भोलाभाला भंडारा।
जैसे
हमारे केन्द्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार
हे करतार !
सत्तर मंत्रियों के बाद भी
लंबी कतार।
अटल जी बोले—
अशोक !
कैसे लगाऊं रोक ?
इतने सारे मंत्री हो गए,
और जो नहीं हो पाए
वो दसियों बार रो गए।
इतने विभाग कहां से लाऊं,
सबको मंत्री कैसे बनाऊं ?
मैंने कहा—
अटल जी !
जानता हूं
जानता हूं, आपकी पीड़ा,
कॉकरोच से भी ज़्यादा
जानदार होता है—
कुर्सी का कीड़ा !
कुलबुलाता है, छटपटाता है,
पटकी देने की
धमकी से पटाता है।
मैं जानता हूं
कुर्सी न पाने वाले
घूम रहे हैं उखड़े-उखड़े,
और ख़ुश करने के चक्कर में
अपने किए हैं
एक-एक विभाग के
दो-दो टुकड़े।
मेरे सुझाव पर विचार करिए
अब दो के चार करिए।
वे बोले—
कैसे ?
मैंने कहा—
ऐसे
जैसे आपने
मानव संसाधन से
खेलकूद मंत्रालय अलगाया है,
इस तरह से
एक कैबिनेट मंत्री बढ़ाया है।
अब ये जो मंत्रालय है
खेलकूद का
यहां दो लोग मज़ा ले सकते हैं
एक अमरूद का।
एक को बनाइए खेल मंत्री,
दूसरे को कूद मंत्री।
सारा काम लोकतंत्री !!
अटल जी बोले—
अशोक !
इसी बात का तो है शोक।
अपने काबीना में
जितने मंत्री हैं
आधे खेल मंत्री
आधे कूदमंत्री हैं।
असंतुष्ट
दुष्ट खेल, खेल रए ऐं,
वक्ष पर
प्रत्यक्ष दंड पेल रए ऐं।
हमीं जानते ऐं कैसे झेल रए ऐं।
मैंने कहा—
बिलकुल मत झेलिए।
खुलकर खोलिए।
सबको ख़ुश करने के चक्कर में
लगे रहे
और विहिप की व्हिप पर
सिर्फ़ राम नाम जपना है,
तो याद रखिए
सत्ता में बने रहना
सपना है।
देश को नहीं चाहिए
कोई व्यक्तिगत
या धार्मिक वर्जना,
देश को चाहिए
हर क्षेत्र में सर्जना।
देश को नहीं चाहिए
फ़कत उद्घोषण,
देश को चाहिए
जन-जन का पोषण।
रोटी का सवाल
कितनी रोटी
गाँव में अकाल था,
बुरा हाल था।
एक बुढ़ऊ ने
समय बिताने को,
यों ही पूछा
मन बहलाने को-
ख़ाली पेट पर
कितनी रोटी खा सकते हो
गंगानाथ ?
गंगानाथ बोला-
सात !
बुढ़ऊ बोला-
ग़लत !
बिलकुल ग़लत कहा,
पहली रोटी
खाने के बाद
पेट ख़ाली कहाँ रहा।
गंगानाथ,
यही तो मलाल है,
इस समय तो
सिर्फ़ एक रोटी का सवाल है।
जिज्ञासा
एकाएक मंत्री जी
कोई बात सोचकर
मुस्कुराए,
कुछ नए से भाव
उनके चेहरे पर आए।
उन्होंने अपने पी.ए. से पूछा—
क्यों भई,
ये डैमोक्रैसी क्या होती है ?
पी.ए. कुछ झिझका
सकुचाया, शर्माया।
-बोलो, बोलो
डैमोक्रैसी क्या होती है ?
-सर, जहां
जनता के लिए
जनता के द्वारा
जनता की
ऐसी-तैसी होती है,
वहीं डैमोक्रैसी होती है।
डैमोक्रैसी
पार्क के कोने में
घास के बिछौने पर लेटे-लेटे
हम अपनी प्रेयसी से पूछ बैठे—
क्यों डियर !
डैमोक्रैसी क्या होती है ?
वो बोली—
तुम्हारे वादों जैसी होती है !
इंतज़ार में
बहुत तड़पाती है,
झूठ बोलती है
सताती है,
तुम तो आ भी जाते हो,
ये कभी नहीं आती है !
एक विद्वान से पूछा
वे बोले—
हमने राजनीति-शास्त्र
सारा पढ़ मारा,
डैमोक्रैसी का मतलब है—
आज़ादी, समानता और भाईचारा।
आज़ादी का मतलब
रामनाम की लूट है,
इसमें गधे और घास
दोनों को बराबर की छूट है।
घास आज़ाद है कि
चाहे जितनी बढ़े,
और गदहे स्वतंत्र हैं कि
लेटे-लेटे या खड़े-खड़े
कुछ भी करें,
जितना चाहें इस घास को चरें।
और समानता !
कौन है जो इसे नहीं मानता ?
हमारे यहां—
ग़रीबों और ग़रीबों में समानता है,
अमीरों और अमीरों में समानता है,
मंत्रियों और मंत्रियों में समानता है,
संत्रियों और संत्रियों में समानता है।
चोरी, डकैती, सेंधमारी, बटमारी
राहज़नी, आगज़नी, घूसख़ोरी, जेबकतरी
इन सबमें समानता है।
बताइए कहां असमनता है ?
और भाईचारा !
तो सुनो भाई !
यहां हर कोई
एक-दूसरे के आगे
चारा डालकर
भाईचारा बढ़ा रहा है।
जिसके पास
डालने को चारा नहीं है
उसका किसी से
भाईचारा नहीं है।
और अगर वो बेचारा है
तो इसका हमारे पास
कोई चारा नहीं है।
फिर हमने अपने
एक जेलर मित्र से पूछा—
आप ही बताइए मिस्टर नेगी।
वो बोले—
डैमोक्रैसी ?
आजकल ज़मानत पर रिहा है,
कल सींखचों के अंदर दिखाई देगी।
अंत में मिले हमारे मुसद्दीलाल,
उनसे भी कर डाला यही सवाल।
बोले—
डैमोक्रैसी ?
दफ़्तर के अफ़सर से लेकर
घर की अफ़सरा तक
पड़ती हुई फ़टकार है !
ज़बानों के कोड़ों की मार है
चीत्कार है, हाहाकार है।
इसमें लात की मार से कहीं तगड़ी
हालात की मार है।
अब मैं किसी से
ये नहीं कहता
कि मेरी ऐसी-तैसी हो गई है,
कहता हूं—
मेरी डैमोक्रैसी हो गई है !
रिक्शेवाला
आवाज़ देकर
रिक्शेवाले को बुलाया
वो कुछ
लंगड़ाता हुआ आया।
मैंने पूछा—
यार, पहले ये तो बताओगे,
पैर में चोट है कैसे चलाओगे ?
रिक्शेवाला कहता है—
बाबू जी,
रिक्शा पैर से नहीं
पेट से चलता है।
ओज़ोन लेयर
पति-पत्नी में
बिलकुल नहीं बनती है,
बिना बात ठनती है।
खिड़की से निकलती हैं
आरोपों की बदबूदार हवाएं,
नन्हे पौधों जैसे बच्चे
खाद-पानी का इंतज़ाम
किससे करवाएं ?
होते रहते हैं
शिकवे-शिकायतों के
कंटीले हमले,
सूख गए हैं
मधुर संबंधों के गमले।
नाली से निकलता है
घरेलू पचड़ों के कचरों का
मैला पानी,
नीरस हो गई ज़िंदगानी।
संबंध
लगभग विच्छेद हो गया है,
घर की ओज़ोन लेयर में
छेद हो गया है।
सब्ज़ी मंडी से
ताज़ी सब्ज़ी लाए गुप्ता जी
तो खन्ना जी मुरझा गए,
पांडे जी
कृपलानी के फ़्रिज को
आंखों-ही-आंखों में खा गए
जाफ़री के
नए-नए सोफ़े को
काट गई
कपूर साहब की
नज़रों की कुल्हाड़ी,
सुलगती ही रहती है
मिसेज़ लोढ़ा की
ईर्ष्या की काठ की हांडी।
सोने का सैट दिखाया
सरला आंटी ने
तो कट के रह गईं
मिसेज़ बतरा,
उनकी इच्छाओं की क्यारी में
नहीं बरसता है
ऊपर की कमाई के पानी का
एक भी क़तरा।
मेहता जी का
जब से प्रमोशन हुआ है,
शर्मा जी के अंदर कई बार
ज़बर्दस्त भूक्षरण हुआ है।
बीहड़ हो गई है
आपस की राम-राम,
बंजर हो गई है
नमस्ते दुआ सलाम।
बस ठूंठ-जैसा
एक मक़सद-विहीन सवाल है—
‘क्या हाल है ?’
जवाब को भी जैसे
अकाल ने छुआ है
मुर्दनी अंदाज़ में—
‘आपकी दुआ है।’
अधिकांश लोग नहीं करते हैं
चंदा देकर
एसोसिएशन की सिंचाई,
सैक्रेट्री
प्रैसीडेंट करते रहते हैं
एक दूसरे की खिंचाई।
खुल्लमखुल्ला मतभेद हो गया है,
कॉलोनी की ओज़ोन लेयर में
छेद हो गया है।
बरगद जैसे बूढ़े बाबा को
मार दिया बनवारी ने
बुढ़वा मंगल के दंगल में,
रमतू भटकता है
काले कोटों वाली कचहरी के
जले हुए जंगल में।
अभावों की धूल
और अशिक्षा के धुएं से
काले पड़ गए हैं
गांव के कपोत
सूख गए हैं
चौधरियों की उदारता के
सारे जलस्रोत।
उद्योग चाट गए हैं
छोटे-मोटे धंधे,
कमज़ोर हो गए हैं
बैलों के कंधे।
छुट्टल घूमता है
सरपंच का बिलौटा,
रामदयाल
मानसून की तरह
शहर से नहीं लौटा।
सुजलाम् सुफलाम्
शस्य श्यामलाम् धरती जैसी
अल्हड़ थी श्यामा।
सब कुछ हो गया
लेकिन न शोर हुआ
न हंगामा।
दिल दरक गया है
लाखों हैक्टेअर
परती धरती की तरह
श्यामा का चेहरा
सफ़ेद हो गया है,
गांव की ओज़ोन लेयर में
छेद हो गया है।
हंसो और मर जाओ
हंसो, तो
बच्चों जैसी हंसी,
हंसो, तो
सच्चों जैसी हंसी।
इतना हंसो
कि तर जाओ,
हंसो
और मर जाओ।
हँसो और मर जाओ
चौथाई सदी पहले
लगभग रुदन-दिनों में
जिनपर
हम
हंसते-हंसते मर गए
उन
प्यारी बागेश्री को
समर-पति की ओर
स-समर्पित
श्वेत या श्याम
छटांक का ग्राम
धूम या धड़ाम
अविराम या जाम,
जैसा भी है
ये था उन दिनों का-
काम
रंग जमा लो
पात्र
पतिदेव
श्रीमती जी
भाभी
टोली नायक
टोली उपनायक
टोली नायिका
टोली उपनायिका
भूतक-1
भूतक-2
भूतक-3
भूतक-4
बिटिया
(पतिदेव दबे पांव घर आए और मूढ़े के पीछे छिपने लगे। उनकी सात बरस की बिटिया ने उन्हें छिपते हुए देख लिया।)
पतिदेव : (फ़िल्म ‘हकीक़त’ की गीत-पैरौडी)
मैं ये सोचकर अपने घर में छिपा हूं
कि वो घेर लेंगे
सताएंगे मुझको
मगर ना तो देखा
न रंग ही लगाया
न की छेड़खानी
न चंगुल में आया
मैं आहिस्ता-आहिस्ता
बाहर से आया
यहां आ के मैं
लापता हो गया हूं।
(हाथ में गुलाल की तश्तरी लिए हुए श्रीमती जी दूसरे कमरे से इस कमरे में आती हैं। यहां पतिदेव छिपे बैठे हैं। श्रीमती जी नाचते हुए गाती हैं।)
श्रीमती जी: (फ़िल्मी गीत ‘कहां चल दिए, इधर तो आओ’, की पैरौडी)
कहां छिप गए
इधर तो आओ
थोड़ा-सा गुलाल
गाल पे लगाओ
भोले सितमगर होली मनाओ
होली तो मनाओ
होली मनाओ।
(बिटिया ने पापा को छिपाते हुए देखा था। वह मम्मी को क्लू देने लगी )
बिटिया : (फ़िल्म ‘मासूम’ की गीत-पैरौडी)
कमरे में टाटी
टाटी पे मूढ़ा
मूड़े के पीछे हैं कोई जमूड़ा
थोड़ा-थोड़ा-थोड़ा मम्मी
कम्बल उसने ओढ़ा।
(इंटरल्यूड के रूप में लकड़ी की काठी वाला संगीत चल रहा है। श्रीमती जी बिटिया का इशारा समझकर मूढ़े के पीछे जाती हैं। श्रीमान पतिदेव मुस्कुराते हुए उठते हैं पर गुलाल की थाली देखकर सहम जाते हैं। श्रीमती जी थाली उनकी तरफ़ बढ़ाती हैं। पतिदेव शर्माते हुए थोड़ा-सा गुलाल उनके गाल पर लगाते हैं। बिटिया इन्हें देखकर प्रसन्न होती है। फिर श्रीमती जी चुटकी भर गुलाल पतिदेव की मांग में भर देती हैं। बिटिया खिलखिलाती है। श्रीमती जी पूरी थाली पतिदेव के सिर पर उलट देती हैं। पतिदेव सिर फड़फड़ाते हैं, गुलाल उड़ता है। अगले गीत की रिद्म शुरु हो जाती है।)
पतिदेव : (मन्ना डे का गाया हुआ गीत)
कहां लाके मारा रे
मारा रे मआराआरे
कहां लाके मारा रे।
(पैरौडी ‘लागा चुनरी में दाग़’)
डाला सिर पे गुलाल
हटाऊं कैसे ?
धुलवाऊं कैसे ?
डाला…
होली मेरीजान की दुश्मन
है जी का जंजाल
बाहर से मैं आया बचकर
घर में मला गुलाल।
ओ ऽऽ होली निगोड़ी से खुद को
बचाऊं कैसे, कहीं जाऊं कैसे ?
डाला सिर पे गुलाल,
हटाऊं कैसे)
(दूसरे कमरे से भाभी आती है और इतराते हुए गाती है)
भाभी (पैरौडी-माइ नेम इज लखन)
धिनाधिन ता…
रम्पम्पम रम्पम्पम
ए जी ओ जी लो जी सुनो जी
मैं तुम्हारी भौजी अब मत डरो जी
जो इसने कर डाला
वो तुम करो जी
टैट फ़ौर का टिट
टिट फ़ौर टैट
बिल्कुल राइट है दैट
इसको कर दो तुम सैट
इसको कर दो तुम सैट।
(पतिदेव भाभी की बातों से उत्साहित नहीं हुए, मायूस हैं। बिटिया अपने मम्मी-पापा को देखकर गाती है।)
बिटिया : है ना
बोलो बोलो
पापा को मम्मी से
मम्मी को पापा से खार है
खार है।
है ना बोलो बोलो
है ना बोलो बोलो।
होली मां को प्यारी है
की पूरी तैयारी है
पापा लेकिन डरते हैं
सबसे छिपते फिरते हैं।
है ना बोलो बोलो
है ना बोलो बोलो।
(बाहर से कुछ शोर-शराबे की आवाज़ें आती हैं, तीन का ध्यान उधर जाता है। ‘गोरी का साजन, साजन की गोरी’ संगीत शुरू हो जाता है। बाहर रंग से लबरेज़ होली की टोली है। टोली नायक गाता है।)
टोली नायक : पैरौडी ‘गोरी का साजन, साजन की गोरी’)
होली के भडुए
भडुओं की होली
लो जी शुरू हो गई सरस टोली
टररम्पम्पम
वो आ रही है मस्ती में देखो
भंग की खा करके गोली टरम्पम्पम
टोली नायिका :
होली के भडुए
भडुओ की होली
लो जी..
टोली उपनायक : दरवाज़ा खटखटाकर गाता है। पैरोडी ‘जरा मन की किवडिया खोल’)
होटल में लफड़ा
जागो जागो हिन्दुस्तानी,
करता ये मालिक मनमानी।
प्लेट में पूरी
अभी बची हुई है
और भाजी के लिए मना जी !
वा….जी !
हम ग्राहक, तू है दुकान…
पर हे ईश्वर करुणानिधान !
कुछ अक़्ल भेज दो भेजे में
इस चूज़े के लिए,
अरे हम बने तुम बने
इक दूजे के लिए।
भाजी पर कंट्रोल करेगा,
हमसे टालमटोल करेगा
देश का पैसा गोल करेगा,
इधर हार्ट में होल करेगा
तो देश का बच्चा बच्चा बच्चू,
चेहरे पर तारकोल करेगा।
सुनो साथियो !
इस पाजी ने मेरी प्लेट में
भाजी की कम मात्रा की थी,
नमक टैक्स जब लगा
तो अपने गांधी जी ने
डांडी जी की यात्री की थी।
पैसा पूरा, प्याली खाली,
हमने भी सौगंध उठा ली-
यह बेदर्दी नहीं चलेगी,
अंधेरगर्दी नहीं चलेगी।
जनशोषण करने वालों को
बेनकाब कर
अपना आईना दिखलाओ,
आओ आओ,
ज़ालिम से मिलकर टकराओ।
पल दो पल का है ये जीवन
तुम जीते जी सिर न झुकाओ,
अत्याचारी से भिड़ जाओ।
नेता इससे मिले हुए
वोटर के आगे झूठ गा रहे,
भ्रष्टाचार और बेईमानी
दोनों मिलकर ड्यूट गा रहे।
घोटालों के महल हवेली,
भारत मां असहाय अकेली !
तड़प रही है भूखी प्यासी,
अब हम सारे भारतवासी,
जब साथ खड़े हो जाएंगे,
तो एक नया इतिहास बनाएंगे।
भारत मां के सपूतो
इस मिट्टी के माधो,
अब चुप्पी मत साधो !
क्रांति का बिगुल बजाओ,
मेरी आवाज़ सुनो,
टकराने का अंदाज़ चुनो।
अगर तुम्हें अपना ज़मीर
ज़रा भी प्यारा है,
तो हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में
संघर्ष हमारा नारा है।
भोजन प्रशंसा
बागेश्वरी, हृदयेश्वरी, प्राणेश्वरी।
मेरी प्रिये !
तारीफ़ के वे शब्द
लाऊं कहां से तेरे लिये ?
जिनमें हृदय की बात हो,
बिन कलम, बिना दवात हो।
मन-प्राण-जीवन संगिनी,
अर्द्धांगिनी,
….न न न न न….पूर्णांगिनी।
खाकर ये पूरी और हलुआ,
मस्त ललुआ !
(थाली के व्यंजन गिनते हुए)
एक, दो, तीन, चार, पांच, छः, सात
बज उठी सतरंगिनी,
सतव्यंजनी-सी रागिनी।
तेरी अंगुलियां…
भव्य हैं तेरी अंगुलियां
दिव्य हैं तेरी अंगुलियां।
कोमल कमल के नाल सी,
हर पल सक्रिय
मैं आलसी।
तो…
तेरी अंगुलियां,
स्वाद का जादू बरसता,
नाचतीं मेरी अंतड़ियां।
खन खनन बरतन
किचिन में जब करें,
तो सुरों के झरने झरें।
हृदय बहता,
लगे जैसे जुबिन मेहता,
बजाए साज़ अनगिन,
ताक धिन धिन
ताक धिन धिन
ताक धिन धिन
एक आर्केस्ट्रा…
वहाँ भाजी नहीं ऐक्स्ट्रा !
यहां थाली
मसालों की महक-सी
ज्यों ही उठाती है,
लकप कर भूख
प्यारे पेट में बाजे बजाती है,
ये जिव्हा लार की गंगो-जमुन
मुख में बहाती है,
मधुर स्वादिष्ट मोहक
इंद्रधनुषों को सजाती है,
चटोरी चेतना थाली कटोरी देखकर
कविता बनाती है।
कि पूरी चंद्रमा सी
और इडली पूर्णमासी।
मन-प्रिया सी दाल वासंती,
लगे, चटनी अमृतवंती।
यही ऋषिगण कहा करते,
यही है सार वेदों का,
हमारे कॉन्स्टीट्यूशन के
सारे अनुच्छेदों का,
कि यदि स्वादिष्ट भोजन
मिले घर में,
इस उदर में
ही बना है
मोक्ष का वह द्वार,
जिसमें है महा उद्धार।
हे बागेश्वरी !
हृदयेश्वरी !!
प्राणेशवरी !!!
तेरे लिए मेरे हृदय में प्यार,
अपरंपार !
मनोहर को विवाह-प्रेरणा
रुक रुक ओ टेनिस के बल्ले,
जीवन चलता नहीं इकल्ले !
अरे अनाड़ी,
चला रहा तू बहुत दिनों से
बिना धुरी के अपनी गाड़ी !
ओ मगरुरी !
गांठ बांध ले,
इस जीवन में गांठ बांधना
शादी करना
बहुत ज़रूरी।
ये जीवन तो है टैस्ट मैच,
जिसमें कि चाहिए
बैस्ट मैच।
पहली बॉल किसी कारण से
यदि नौ बॉल हो गई प्यारे !
मत घबरा रे !
ओ गुड़ गोबर !
बचा हुआ है पूरा ओवर।
बॉल दूसरी मार लपक के,
विकिट गिरा दे
पलक झपक के।
प्यारे बच्चे !
माना तूने प्रथम प्रेम में
खाए गच्चे।
तो इससे क्या !
कभी नहीं करवाएगा ब्या ?
अरे निखट्टू !
बिना डोर के बौड़म लट्टू !
लट्टू हो जा किसी और पर
शीघ्र छांट ले दूजी कन्या,
मां खुश होगी
जब आएगी उसके घर में
एक लाड़ली जीवन धन्या।
अरे अभागे !
बतला क्यों शादी से भागे ?
एकाकी रस्ता शूलों का,
शादी है बंधन फूलों का।
सिर्फ़ एक सुर से
राग नहीं बनता,
सिर्फ़ एक पेड़ से
बाग नहीं बनता।
स्त्री-पुरुष ब्रह्म की माया
इन दोनों में जीवन समाया।
सुख ले मूरख !
स्त्री-पुरुष परस्पर पूरक।
अकल के ढक्कन !
पास रखा है तेरे मक्खन।
खुद को छोड़ ज़रा सा ढीला,
कर ले माखन चोरी लीला।
छोरी भी है, डोरी भी है
कह दे तो पंडित बुलवाऊं,
तेरी सप्तपदी फिरवाऊं ?
अरे मवाली !
मेरे उपदेशों को सुनकर
अंदर से मत देना गाली।
इस बात में बड़ा मर्म है, कि गृहस्थ ही
सबसे बड़ा धर्म है।
ये बताने के लिए
तेरी मां से
रिश्वत नहीं खाई है,
और न ये समझना
कि इस रिटार्यड अध्यापक ने
अपनी ओर से बनाई है।
ये बात है बहुत पुरानी,
जिसको कह गए हैं
बडे-बड़े संत
बड़े-बड़े ज्ञानी।
ओ अज्ञानी !
बहुत बुरा होगा अगर तूने
मेरी बात नहीं मानी !
चांद उधर पूनम का देखा
इधर मचलने लगे जवानी,
चांद अगर सिर पर चढ़ जाए
हाय बुढ़ापे तेरी निशानी !
मुरझाए फूलों के गमले !
भाग न मुझसे थोड़ा थम ले !
बुन ले थोड़े ख्बाव रुपहले,
ब्याह रचा ले
गंजा हो जाने से पहले।
बहन जी ! निराश न हों
ये एक दिन
अपना इरादा ज़रूर बदलेगा,
ज़रूर बदलेगा।
जैसे चींटियां चट्टान पर
छोड़ जाती हैं लीक,
जैसे कुएं की रस्सी
पत्थर को कर लेती है
अपने लिए ठीक !
ऐसे ही
इसका अटल निर्णय भी बदलेगा
कविताएं सुन-सुन कर
पत्थर दिल ज़रूर पिघलेगा।
डॉण्ट वरी !
पुस्तक की भूमिका
देते हुए एन.डी.टी.वी. का हवाला,
एक दिन घर पर आई
रेवती नाम की बाला।
प्यारी सी उत्साही कन्या
शहंशाही काठी में स्वनामधन्या।
यानि करुणा-मानवता की
निर्मल नदी,
विचारों में अग्रणी इक्कीसवीं सदी।
नए प्रस्ताव की
झुलाते हुए झोली,
रेवती बोली-
हमारे ‘गुड मार्निंग इंडिया’ में
एक सैक्शन है ‘फ़नीज़’,
आप उसमें जोक्स जैसी
कुछ कविताएं सुनाइए प्लीज़।
कोई सद्भाव से आए घर की दहलीज़
तो मना कैसे कर सकता था
ये नाचीज़।
झट से राज़ी हो गया,
फ़ौरन ‘हां जी’ हो गया।
इस ‘हां जी’ के पीछे थी एक बात और,
प्रणय राय को मानता हूं
भारत में छोटे परदे पर
सूचना-संचार का सिरमौर।
विनम्र, तेजस्वी, शालीन,
संतुलित, त्वरित सधी हुई तत्कालीन
धीर-गम्भीर भाषा,
आंखों में भविष्यत् के लिए
घनघोर आशा।
न बड़बोलापन है न लफ़्फ़ाजी,
इसलिए भी हो गई
मेरी शीघ्र ‘हां जी’।
फिर स्मिता शिबानी के साथ
रखी गई मुलाकात,
हास्य को लेकर हुई
संजीदा बहस-बात।
थोड़ी-थोड़ी हिन्दी, ज़्यादा अंग्रेज़ी,
एक-एक बात मैंने मन में सहेजी।
चमत्कृत सा हतप्रभ सा सुनता रहा,
मेरी बारी आई तो मैंने कहा-
जहां तक मैंने आपकी ज़रूरतें समझी हैं,
उसके अनुरूप मेरे पास
एक चरित्र बौड़म जी हैं।
लक्ष्मण के कॉमन मैन जैसे,
और सुनें तो हसें
सोचें तो रोएं !
शिबानी बोली-
चलिए शूट करते हैं
वक्त क्यों खोएं ?
तो लगभग एक साल से
बौड़म जी अपने विभिन्न रूपों में
छोटे परदे पर आ रहे हैं,
मुझसे एक सम्भ्रांत मज़दूर चेतना से
कविताएं लिखवा रहे हैं।
ये बात मैंने आपको इसलिए बताई
कि इन कविताओं में
एन.डी.टी.वी. की डिमाण्ड पर
माल किया गया है सप्लाई।
इस सकंलन में
ऐसी बहुत सी कविताएं नहीं हैं
जो उन्होंने परदे पर दिखाईं,
लेकिन ऐसी कई हैं
जो अब तक नहीं आईं।
कुछ बढ़ाईं, कुछ काटीं,
कुछ छीली, कुछ छांटीं।
कुछ में परिहास है, कुछ में उपहास है
कुछ में शुद्ध अहसास है,
कहीं सुने-सुनाए का विकास है
कहीं प्राचीन को नया लिबास है
पर एक बात ख़ास है-
कि पचासवीं वर्षगांठ है ये आज़ादी की
इसलिए कविताओं की संख्या भी पचास है।
कितने प्यारे हैं हमारे सुधीर भाई
जिन्होंने बौड़म जी की एक-एक तस्वीर
बड़ी मौहब्बत से बनाई,
और धन्य है नरेन्द्र जी का अपनापा
कि पुस्तक को त्वरित गति से छापा
अब आपके पास है पुस्तक
पुस्तक में कविताएं,
चलें पन्ने पलटें और ग़ौर फरमाएं।
प्रतिक्रिया भी दें इनकों पढ़ने के बाद,
धन्यवाद !
पांच सीढ़ियां
बौड़म जी स्पीच दे रहे थे मोहल्ले में,
लोग सुन ही नहीं पा रहे थे हो-हल्ले में।
सुनिए सुनिए ध्यान दीजिए,
अपने कान मुझे दान दीजिए।
चलिए तालियां बजाइए,
बजाइए, बजाइए
समारोह को सजाइए !
नहीं बजा रहे कोई बात नहीं,
जो कुछ है वो अकस्मात नहीं।
सब कुछ समझ में आता है,
फिर बौड़म आपको जो बताता है
उस पर ग़ौर फरमाइए फिलहाल-
हमारी आज़ादी को पचास साल
यानि पांच दशक बीते हैं श्रीमान !
उन पांच दशकों की हैं
पांच सीढ़ियां, पांच सोपान।
इस दौरान
हम समय के साथ-साथ आगे बढ़े हैं,
अब देखना ये है कि
हम इन पांच सीढ़ियों पर
उतरे हैं या चढ़े हैं।
पहला दशक, पहली सीढ़ी-सदाचरण
यानि काम सच्चा करने की इच्छा,
दूसरा दशक, दूसरी सीढ़ी-आचरण
यानि उसके लिए प्रयास अच्छा।
तीसरा दशक, तीसरी सीढ़ी-चरण
यानि थोड़ी गति, थोड़ा चरण छूना,
चौथा दशक, चौथी सीढ़ी-रण
यानि आपस की लड़ाई
और जनता को चूना।
पांचवां दशक, पांचवीं सीढ़ी बची-न !
यानि कुछ नहीं
यानि शून्य, यानि ज़ीरो,
लेकिन हम फिर भी हीरो।
बताइए अब क्या करना है
कि बौड़म जी ने एक ही शब्द के जरिए
पिछले पांच दशकों की
झनझनाती हुई झांकी दिखाई।
पहले सदाचरण
फिर आचरण
फिर चरण
फिर रण
और फिर न !
यही तो है पांच दशकों का सफ़र न !
मैंने पूछा-
बौड़म जी, बताइए अब क्या करना है ?
वे बोले-
करना क्या है
इस बचे हुए शून्य में
रंग भरना है।
और ये काम
हम तुम नहीं करेंगे,
इस शून्य में रंग तो
अगले दशक के
बच्चे ही भरेंगे।
पचास साल का इंसान
पचास साल का इंसान
न बूढ़ा होता है न जवान
न वो बच्चा होता है
न बच्चों की तरह
कच्चा होता है।
वो पके फलों से लदा
एक पेड़ होता है,
आधी उम्र पार करने के कारण
अधेड़ होता है।
पचास साल का इंसान
चुका हुआ नहीं होता
जो उसे करना है
कर चुका होता है,
जवानों से मीठी ईर्ष्या करता है
सद्भावना में फुका होता है
शामिल नहीं होता है
बूढ़ों की जमात में,
बिदक जाता है
ज़रा सी बात में।
बच्चे उससे कतराते हैं
जवान सुरक्षित दूरी अपनाते हैं,
बूढ़े उसके मामलों में
अपना पांव नहीं फंसाते हैं।
क्योंकि वो वैल कैलकुलेटैड
कल्टीवेटैड
पूर्वनियोजित और बार बार संशोधित
पंगे लेता है,
अपने पकाए फल,
अपनी माया, अपनी छाया
आसानी से नहीं देता है।
वो बरगद नहीं होता
बल्कि अगस्त महीने का
मस्त लेकिन पस्त
आम का पेड़ होता है,
जी हां, पचास का इंसान अधेड़ होता है।
यही वह उमर है जब
जब कभी कभी अंदर
बहुत अंदर कुछ क्रैक होता है,
हिम्मत न रखे तो
पहला हार्ट-अटैक होता है।
झटके झेल जाता है,
ज़िन्दगी को खेल जाता है।
क्योंकि उसके सामने
उसी का बनाया हुआ
घौंसला होता है,
इसीलिए जीने का हौसला होता है।
बौड़म जी बोले-
पचास का इंसान
चुलबुले बुलबुलों का एक बबाल है,
पचास की उमर
उमर नहीं है
ट्रांज़ीशन पीरियड है
संक्रमण काल है।
तेरा इस्तेकबाल है
कि हमारी आज़ादी भी
पचास की पूरी होने आई।
उसका भी लगभग यही हाल है
अपने ऊपर मुग्ध है निहाल है
ऊपरी वैभव का इंद्रजाल है
पुरानी ख़ुशबुओं का रुमाल है
समय के ग्राउंड की फुटबाल है
एक तरफ चिकनी तो
दूसरी तरफ रेगमाल है
संक्रमण के कण कण में वाचाल है
फिर भी खुशहाल है
क्योंकि दुनिया के आगे
विशालतम जनतंत्र की इकलौती मिसाल है।
ओ आज़ादी।
उमरिया की डगरिया के
पचासवें स्वर्ण मील पत्थर पर
तेरा इस्तेकबाल है !
आम की पेटी
गांव में ब्याही गई थी
बौड़म जी की बेटी,
उसने भिजवाई एक आम की पेटी।
महक पूरे मुहल्ले को आ गई,
कइयों का तो दिल ही जला गई।
कुछ पड़ौसियों ने द्वार खटखटाया
एक स्वर आया-
बौड़म जी, हमें मालूम है कि आप
आम ख़रीद कर नहीं लाते हैं,
और ये भी पता है कि
बेटी के यहां का कुछ नहीं खाते हैं।
हम चाहते हैं कि
आपका संकट मिटवा दें,
इसलिए सलाह दे रहे हैं कि
आप इन्हें पड़ौस में बंटवा दें।
हम लोग ये आम खाएंगे,
और आपकी बेटी के गुन गाएंगे।
श्रीमती बौड़म बोलीं-
वाह जी वाह !
अपने पास ही रखिए अपनी सलाह !
इन आमों को हम
बांट देंगे कैसे ?
बेटी को भेज देंगे इनके पैसे।
क्या बात कर दी बच्चों सी !
जवाब में बोला दूसरा पड़ौसी-
भाभी जी गुस्सा मत कीजिए,
देखिए ध्यान दीजिए !
ये गाँव के उम्दा आम हैं
लंगड़ा और दशहरी,
और हम लोग ठहरे शहरी।
इन आमों के तो
बाज़ार में दर्शन ही नहीं हुए हैं,
और अगर हो भी जाएं
तो भावों ने आसमान छुए हैं।
अब आपको कोई कैसे समझाए
कि अगर आपने ये आम खाए
तो मार्केट रेट लगाने पर
ये पेटी खा जाएगी पूरी तनख़ा
ऊपर से जंजाल मन का
कि बेटी को अगर भेजे कम पैसे,
तो स्वर्ग में स्थान मिलेगा कैसे ?
श्रीमती बौड़म फिर से भड़कीं
बिजली की तरह कड़कीं-
ठीक है, हमें नर्क मिलेगा मरने के बाद,
लेकिन आप चाहें
तो यहीं चखा दूं उसका स्वाद ?
पड़ौसी ये रूप देखकर डर गए,
एक एक करके अपने घर गए।
ये बात मैंने आपको इसलिए बताई,
कि बेटी की आम की पेटी
बौड़म दम्पति के लिए बन गई दुखदाई।
एक तो आमों की महक जानलेवा
फिर सुबह से किया भी नहीं था कलेवा।
हाय री बदनसीबी,
गुमसुम लाचार मियां-बीबी !
बार-बार पेटी को निहारते,
आखिर कब तलक मन को मारते !
अचानक बिना कुछ भी बोले,
उन्होंने पेटी के ढक्कन खोले।
जमकर आम खाए और गुठलियां भी चूंसीं,
एक दूसरे को समझाया-
ये सब बातें हैं दकियानूसी !
बेटी हमारी है
और ये पेटी भी हमारी है।
खुद खाएंगे
जिसको मन चाहेगा खिलाएंगे
पड़ौसियों को जलाएंगे,
और बेटी को सम्पत्ति में हिस्सा देंगे।
आमों के पैसे नहीं भिजवाएंगे।
ये आम ख़ास हैं नहीं हैं आम,
बेटी का प्यार हैं ये
और प्यार का कैसा दाम ?
बौड़म जी बस में
बस में थी भीड़
और धक्के ही धक्के,
यात्री थे अनुभवी,
और पक्के ।
पर अपने बौड़म जी तो
अंग्रेज़ी में
सफ़र कर रहे थे,
धक्कों में विचर रहे थे ।
भीड़ कभी आगे ठेले,
कभी पीछे धकेले ।
इस रेलमपेल
और ठेलमठेल में,
आगे आ गए
धकापेल में ।
और जैसे ही स्टाप पर
उतरने लगे
कण्डक्टर बोला-
ओ मेरे सगे !
टिकिट तो ले जा !
बौड़म जी बोले-
चाट मत भेजा !
मैं बिना टिकिट के
भला हूँ,
सारे रास्ते तो
पैदल ही चला हूँ ।