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आज़ादी 

इक खुशबू का नाम है, आज़ादी प्रकाश
उछल उछल भुज पाश में भर ले तू आकाश

पवन आज़ाद डोलती, मन की खिड़की खोल
जनगण मन के साथ तू, भारत की जय बोल

आज़ादी का मोल है-प्राण, न जाना भूल
लोहे के शूलों घिरे, आज़ादी के फूल

रोपे थे जब बीज ये, बीत गये कुछ साल
आज़ादी बिरवा लगा, माली तू संभाल

दुश्मन घर बाहर खड़े, आक्रामक गद्दार
सावधान सबको करे, परचम पहरेदार

सोये प्रहरी देश के, देखो इनके ठाठ
चाट रहीं हैं दीमकें, देश द्वार के काठ

राजनीति के पेड़ की, डाल-डाल पे उलूक
बैठे, ताने हर तरफ, साजिश की बंदूक

अपने हित के हेतु जो दें राष्ट्र को तोड़
ऐसे सपने देखती, आंखों को ही फोड़

याद रहे कर्त्तव्य भी, अधिकारों के साथ
संकल्पों का पर्व है, चलो उठाओ हाथ

बुझने हम देंगे नहीं, हो आंधी-बरसात
आज़ादी का दीप यह, जले सदा दिन-रात

माटी मेरे देश की तेरा मेरा साथ
नित नित तुझको नमन, मैं, करूँ लगाऊँ माथ।

मानव धर्म 

मानस जात सब इक है, मानव सभी समान
एक नूर से ऊपजे, भूल गया इन्सान

गाँव शहर जंगल मये, जंगल हैं वीरान
कौन पशु कौन आदमी, कहाँ रहीं पहचान

बाज झपट्टा मारकर नफ़रत का, बलवान
कोमल चिड़िया प्यार की, कर गया लहुलुहान

जहर हवा ने पी लिया, घुटती है अब सांस
पानी से कैसे बुझे खूनी हो जब प्यास

मात-पिता के प्यार का बिखर गया परिवार
घर आंगन सब बंट गये, कितनी उठी दीवार

जात-पात, भाषा धर्म रंगभेद के तीर
मानवता के जिस्म को सतत रहे हैं वीर

मानव कितना मूढ़ है, बुनता मक्कड़ जाल
शीशमहल में बैठकर, पत्थर रहा उछाल

मंदिर मस्जिद लड़ पड़े, जख्मी करम, करीम
रुसवा ‘उसके द्वार पर होते राम रहीम

वक्त के पांव में गड़ी, जंग लगी इक कील
फैल गया है हर तरफ, ज़हरवाद का नील

लाओ वैद हकीम को, चारागर बुलाओ
मानव धर्म बीमार है, इसको तो बचाओ।

काबू रखना क्रोध पर सर पर न चढ़ जाये
मन मुटाव पैदा करे, रक्तचाप बढ़ जाये

ज़हर उगलने को जगह, जो तू उसे पचाये
कालकूट फिर क्रोध का, अमृत में ढल जाये

शब्द कभी मरहम बने, कभी बने वो तीर
जिसके अंदर धंस गये, गये कलेजा चीर

साधू संत महात्मा, गये क्रोध में हार
इस अवगुण के सामने सारे गुण बेकार

उफ़न गया दूध सब, आया जब उफान
चूक ज़रा सी ही करे, सर्वनाश, तूफान

दान क्षमा दीजिये भूल चूक सब भूल
पीर न फिर देंगे कभी उन भूलों के शूल

क्षमाशील होकर अगर दे दो तुम आशीष
झुक जायेंगे आप ही, तने गर्व से शीश

अरि को मित्र बनाना भी हो जाता आसान
उसकी झोली में अगर भरो क्षमा का दान

क्षमाशील हो खोलिये अपने घर के द्वार
स्नेही मन से कीजिये, दुश्मन का सत्कार

क्षमाशील हो मांगना, रे मन! सब की खै़र
छोटों के सिर परसना और बड़ों के पैर

नैतिक मूल्यों की लगी हार बड़े बाज़ार
लुट गये भरे बाज़ार में, ये अमोल उपहार

सच्चाई सिर धुन रही बेबस और लाचार
आज चुनौती है उसे झूठ की जय जयकार

सदाचार का आड़ में पनपा व्यभिचार
भ्रष्टाचार के किले कल होंगे लाचार

धर्म, अर्थ और काम हैं, जीवन के आधार
बिना मोक्ष आधार के हिल जाये संसार

नफरत की इस आग में जल न मरे संसार
बरसा दो निज प्यार की शीतल सी जलधार

इच्छाओं की बाढ़ ये, कुदरत को गई लील
कंकरीट के जंगलों में करती तब्दील

नाश अपना देखेगा पहले यह संसार
आयेगा फिर युग नया, हैं ऐसे आसार

तुम्हें मैंने पा लिया

तुम्हें मैंने पा लिया प्रभु!
आंखें बंदकर, जब मोर पंखों वाले
तुम्हारे किरीट के अद्भुत रंगों को देखती हूँ
तो तुम्हारी मुस्कान
के मोती चमकते है चहुं ओर
बंद आँखों से ही निहारती हूँ
तारों जड़ें आकाश को
तो अनगिन ज्योतिसर््फुलिंगों
में नर्त्तन करते लगते हो
तुम ही मेरे पीताम्बर!
बंद आँखों में ही मैं तुम्हारी
अद्भुत रासलीला का
आनंद उठाती हूँ
हे लीला पुरुष!
तुम मुझे अभिभूत कर देते हो
विभोर कर देते हो
मेरे ज्ञान चक्षुओं को
अपने संस्पर्श से खोल
देते हो और समझा देते
हो स्वधर्म के अर्थ
स्थितप्रज्ञता के अर्थ
कर्मण्यता के अर्थ
कर्मभूमि के अर्थ।

तुम मेरी सांसों में घुलते रहे 

तुम काव्य गंगा बनकर
मेरे हृदय में बहते रहे कृष्ण!
मुझे रसप्लावित करते रहे
मेरी सांसों में बांसुरी
के सुरों से घुलते रहे
मेरे जीवन की माधुरी में छलकते रहे
सोलह कलाओं से सम्पन्न
तुम मेरे इष्टदेव
मुझे सोलह कलाओं
के रंग दिखाते रहे
और मैं झूम-झूम कर गाती रही
तुम्हारे प्रेम के गीत
और विभोर होकर नाचती रही
क्योंकि तुम नचाते रहे।

तुम अकेले ही पर्याप्त हो

हे मेरे मन के रथ के सारथी!
मेरी इच्छाओं
के अश्वों की वल्गा
अब छोड़ना मत।
श्रीकृष्ण, इस जीवन के कुरुक्षेत्र
में तुम अकेले ही मेरे
लिये पर्याप्त हो मेरे शक्तिपुंज।
नहीं चाहिये मुझे धन और सत्ता
के शस्त्रों से सुसज्जित
अठारह अक्षौहिणी सेनायें
श्रीकृष्ण मेरे जीवन के सारथी है
मुझे इतना ही पर्याप्त है।

वास्तव में मैं तुम्हारा अंश हूँ 

हे कृष्ण! इसे मेरा दंभ
न समझना कि मैं तुम्हारे
संग अपना मुकाबला कर रही हूँ
वास्तव में मैं तुम्हारा
ही अंश हूँ! तुम्हारी सुनीति
तुम्हारी राजनीति, तुम्हारी कूटनीति
तुम्हारी व्यवहार नीति जो संसार
को चलाने के लिये अनिवार्य है
अद्भुत रूप से मेरे भीतर समाती
जा रही है।
तुमने अपनी सारी सुंदर
कलाओं को मेरे रक्त में प्रवाहित
कर दिया है कि वे अब
अभिव्यक्ति के विभिन्न छोरो
को छूने को लालायित हो उठी हैं।

मेरे रूप में तुम ही होगे

हे कृष्ण! द्रोपदी का एक दाना मुझे
दे दो और दे दो अपनी सी एक दाने
से तृष्ट होने वाली संतुष्टि! मैं
जग में बांट दूँगी उसे। क्षुघार्त
मानवता की संतुष्टि का अन्न दूँगी
उसके लहुलुहान भागते पैरों
को राहत की सांसे दूँगी
और अपनी सांसे सृष्टि-समाज और
सृजन को समर्पित कर दूँगी
मान-अपमान से परे होकर
जीवन को संवारने के प्रयत्न
करती रहूँगी
हजार-हजार साल तक पीड़ा की
नदी में तैरती रहूँगी।
आवागमन के चक्कर में पड़ी रहूँगी
अग्नि स्नान करती रहूँगी
और दूसरों की पीड़ायें हरती रहूँगी
किन्तु वह मैं नहीं
मेरे रूप में तुम ही
तो होंगे मेरे प्रभु।

कस्तूरी गंध अपनी थी

तमाम उम्र भटकती रही
किसी शाद्वल की खोज में
रसप्लावित होने को
आंख लगी रही
ओयसिस की तलाश में
कदम बहकते रहे
जिं़दगी के वीरान
रेगिस्तान में।
चमकता जल बुलाता रहा
छलावा भटकाता रहा
छलावों की बारम्बारता
पछतावों की आवृत्ति में
टूट-टूट कर जुड़ी रही
थकी नहीं, रुकी नहीं
दौड़ती रही, दौड़ती रही
तृषाकुल मृगी मैं
आखिर मिला तुझको
मरूद्यान
हरा-भरा था, नीलम जड़ा था
अमिय घट लेके
राह में खड़ा था
मरकत का द्वीप
जीवन में लहर गया
वक्त का टुकड़ा ठिठका,
ठहर गया
नीलम की झील में
डूबी उतराई मैं
रसप्लावित हुई मैं
सुरभि की बांहों में
लिपटी पल-पल को जीती रही
बूंद-बूंद पीती रही
अंजलि खुली नहीं
अमिय घट रीत गया
ठहरा हुआ वक्त बीत गया
खोई-खोई सी, ठगी-ठगी सी
खड़ी रही विस्मित, विमुग्धा मैं
चौंकी देखा सपना तिरोहित था
‘ओयसिस’ वह गायब था
सामने फिर वही लम्बा
मरूबल खाता था
पर अब मैं रोती न थी
भरी-भरी सी, तृप्ता मृगी थी
प्यास बुझा ली थी
समूचा ओयसिस मेरे भीतर
लहराता था
कस्तूरी गंध अपनी थी
जान गई
निज को पहचान गई
मन की गुफाओं में
दीपशिखा जलने लगी
निज की पहचान से
स्वयं दमकने लगी
अनहद नाद सुनती
मदमाती खड़ी रही
इस काया कल्प पर
विस्मित विमुग्धा मैं
हवाओं सी हल्की, सुरभित
किरण बनकर, कुलांचे भरने लगी मैं
जीवन के मरू को फिर से
पार करने लगी मैं।

पूर्ण स्वच्छन्द हूँ मैं 

हवा हूँ हवा मैं
निर्बन्ध, निर्द्वन्द्व हूँ
पूर्ण स्वच्छन्द होकर
हो जाती बंद हूँ
प्रणय के गीतों में
जब भरती छंद हूँ
सांस की सितार में
मेरी झंकार सुन लो
प्यार के एहसास से
सराबोर कर दूँगी
ज़िंदा दिली के जाम
तुम को पिलाकर मैं
वापिस मुड़ जाऊंगी
अन्य दिशा से उठती
आर्त्त पुकार से
जाकर जुड़ जाऊंगी।

हवा गतिमान हूँ 

हवा हूँ, हवा में
मौसम की मस्तियों में
मैं ही तो झूमती हूँ
बादलों की नाव में
होकर सवार मैं आसमां
को चूमती हूँ
आंधी तूफान हूँ
हवा गतिमान हूँ
लू का थपेड़ा भी हूँ
शीतल बयार हूँ
नस-नस में स्पंदन भर दूँ
रग-रग तरंगित कर दूँ
होंठों को हंसाकर मैं
फूल खिलाकर मैं
दूर चली जाऊगी
बांध नहीं पाओगे।

हाँ, मैंने स्वतंत्रता की चाह की

मैंने स्वतंत्र व्यक्तित्व की चाह की
पर मैंने इस चाह में कभी नहीं चाहा
कि मैं अपने पति को प्यार न करूं
घर की जिम्मेदारियों से मुंह मोडूं
या नातों का, रिश्तों का, सम्मान न करूं
मातृत्व को बोझ समझूं, मैं एक सक्षम नारी
पर परिपूर्णता के लिये
मुझे पति का प्रेम चाहिये था।
सुरक्षा के लिए घर चाहिये था
गर्भ के अंधरों के लिये उजाले चाहिये थे
मेरे बच्चे
उन्हें दुनिया में लाकर
अपने वात्सल्य के दड़बे में
पालती, पोसती और समाज
के लिये सक्षम मनुष्य तैयार करती
मुझे सब कुछ मिला
लेकिन सहचरी बनकर नहीं
अनुचरी बनकर
केवल इस एक शब्द ने
इस एक भाव ने
घर की, प्यार की, दाम्पत्य की
परिभाषा बदल दी
मानव ने दानव बनकर
नारी की सांसों पर पहरे बिठा दिये
उसे नज़र बंद कर दिया
घर को कैद में बदल दिया
मेरे अस्तित्व को, छटपटाने के लिये
पिंजर बंद कर दिया
और मैं विद्रोह पर उतर आई।

क्या मैंने भूल की

क्या मैंने भूल की
जो स्वतंत्रता की चाह की
अपने वजूद को पहचान दी।
बाहर प्रखर प्रतिभा की आब थी
कौन बर्दाश्त करता
भीतर धधकती आग थी
मेरे पिंजरे की सलाखों
को बार-बार जलाती
मेरे वजूद का लहुलूहान पंछी
पंख फड़फड़ाता, कटे पंखों से भी
उड़ान की गगन चुम्बी
चाह पूरी कर लेता
और फिर लौटकर
उसी कैद में बंद हो जाता
यह राह मैंने खुद चुनी थी
जाने क्यों! जाने क्यों!!

क्या कहते हैं इसे? 

क्या कहते हैं इसे?
इस विडम्बना को?
जब छुटे हुये तीर
वापिस लौट आते हैं
अनाड़ी शिकारी को ही चुभ जाते हैं
दारुण व्यथा से
चटकती है नस-नस
रक्त धारा में जब
विष कण कहते हैं
क्या कहते हैं
क्या कहते हैं
इस विडम्बना को क्या कहते हैं?

आँधी 

कटखनी कर्कश हवायें
दे रहीं आवाज़
घर के द्वार
सारे बज रहे हैं।
कोशिशों के बावजूद
बंद हो पाती नहीं
प्रबल झंझावात
के खाकर थपेड़े
खुल रही हैं खिड़कियां
तोड़कर कांच
आँधी घुस रही भीतर
लेकर ढेर सा गुबार
दृष्टि ध्ंाधली हो रही है
भर गया है मुंह सारा
धूल से, किरकिराता
बज रही हैं सीटियां
दे रहा दस्तक कोई, मेरे किवाड़ों पर
मैं आतंकित
कैसे खेलूं द्वार
ये संस्कार मेरे बरजते हैं।

हम तुम मोहरे हैं 

मित्र, हम तुम मोहरे हैं
उनके हाथ में।
प्यादे हों या घोड़े
ऊँट या हाथी, राजा या वजीर
हम खुद चलें-हमारी क्या बिसात
ढाई घर की हो-या सीधी-सादी चालें
हमारी किस्मत के खरीदार
निर्धारित करते हैं,
हमारी क्या मजाल, जो सोचें
मिलेगी शह या मात
हम, एक महान षड्यन्त्र
का शिकार होकर भी अनजान
एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी बने
सींचते रहे अपने सर्जकों के
ऐशो आराम के स्वप्न
देते स्वयं को घात-प्रतिघात!
मित्र! आओ छेड़ें जिहाद
सामंती स्वपनों के विरुद्ध
चौखट से बाहर आने की
संभावनायें क्षीण सही
मृत तो नहीं।
आओ जिलायें इन्हें
और रोक दें बढ़ते हुये हाथ।
हाथ, वे, बड़े ताकतवर हैं
हमारा अस्तित्व बहुत कमजोर,
बहुत बौना, भले ही हो
किन्तु हमारा शक्तिपुंज है
अपरिमित और अपराजेय
मुट्ठियां कसें और गुंजा दें मंत्र
प्रतिवाद! प्रतिवाद!! प्रतिवाद!!

नई पीढ़ी के नाम 

ओ नई पीढ़ी!
इस पुरातन और नूतन
संधि युग में
मैं तुझे उपहार देती हूँ
अपनी आग का अंगार देती हूँ
इस कामना के साथ
कि यह प्रेरणा का स्रोत हो स्फुलिंग
तुम्हारी चेतना की आग को
प्रज्जवलित कर दे
जो जुल्म के जंगलों को राख कर दे
जीर्ण, जर्जर और बर्बर
भवन और अट्टालिकायें
सत्ता के निर्मम गढ़ों को
नष्ट कर दे
और फिर निर्माण की कल्याणकारी
कल्पना ले
खंडहरों को साफ कर दे
और ले संकल्प का दीपक
जो निराशा का घना अंधकार काटे
जो विश्व में आस्था के फूल बांटे
जो धरा के पत्र पर
खुशबुओं के लेख लिख दे
ओ नई पीढ़ी
मुझे आश्वस्त कर तू
मैं तुम्हारे पुख्त कंधों पर
जिं़दगी और युद्ध का भार देती हूँ
क्रांति का भार देती हूँ
मैं सुलगती आग अपना प्यार देती हूँ।

तुलसी जिन्दाबाद!

बहुत साल पहले
मुझे इस शाला में
बड़े स्नेह से
रोपा गया था…
काश! इस पौधे को
लगातार स्नेह से सींचा
गया होता तो आज मैं
एक बृहद घेरे वाला
हरित, फलित
बिरवा होती…
सींचे न जाने के बावजूद
मैंने अपनी जड़ें नहीं छोड़ी
बरसाती पानी पीकर भी
मैंने अपने अस्तित्व
को बचाये रखा
किन्तु आज ये कौन
से हाथ मुझे नेस्तोनाबूद
करने को तैयार हो उठे हैं।
मुझे उखाड़ फेंकने को
बेकरार….
उन्हें नहीं मालूम
यह समूचा वातावरण
जिसमें कितने ही सालों से
मेरी भीनी खुशबू घुलती रही है
मेरे बौने से अस्तित्व ने
प्रदूषण को दूर करने के
हज़ारों-हज़ार नन्हें-नन्हें
प्रयास किये हैं।
यह समूचा वातावरण
लरज़ उठेगा।
हवा की सरगोशियां, ख़ामोश
गुपचुप कानाफूसियां
विद्रोह को जन्म देंगी
और रोक देंगी कुठार लिये हाथों को
मेरे होंठों की हल्की सी
जुम्बिश और मेरी आंखों में
लरजती हुई नमी और उस
नमी से झांकती चिंगारी
शोले भड़का देगी
समूचा वातावरण गूंज उठेगा नारों से
प्रतिवाद! प्रतिवाद! तुलसी, जिंदाबाद!

योद्धा 

आराम के सपने न देखो
शान्ति के श्वेत झंडे मत झुलाओ…
मत उतारो कवच
रहो तुम तैयार
लेके निज हथियार
जंग जारी है…
तुम तो योद्धा सदा से
युद्ध करना ही तुम्हारी नियति
फिर भला कैसी विरक्ति
रक्त को उतप्त रहने दो
शक्ति की केंचुल उतारो मत
उत्साह को मत शिथिल होने दो
कि जंग जारी है…
सइ समय तुम हो अकेले
खाइयों में सुन रहे
हो ठांय-ठांय, बम धड़ाकों की
और गोले बारूदों की
डरो मत!
कुमुक पहुंचेगी जल्द
पर होशियार!
मौत की चुनौतियां
हों स्वीकार
जब तक न हो अशेष
खून की हर बूंद
लड़ते रहो योद्धा
कि जंग जारी है।

युद्ध होता है कभी अनिवार्य भी 

युद्ध के विरुद्ध हैं सदैव हम
रुद्ध करता है वो विकास को
जन्म देता हर तरफ विनाश को
जन्म देता भूख और संत्रास को
किन्तु होता है कभी अनिवार्य भी
युद्ध होता है तभी स्वीकार्य भी
जब हो अत्याचार के प्रतिकार के लिये
लुट रहे स्वत्व और अधिकार के लिए
दुष्ट दानवों के संहार के लिये
और मातृभूमि के उद्धार के लिये
पाप नहीं, पुण्य होता युद्ध वो
न्याय के लिये है प्रतिबद्ध जो
इसलिये
यंत्रणाओं, यातनाओं के विरुद्ध युद्ध कर!
आतताई अपदाओं के विरुद्ध युद्ध कर!
बलात्कारी शक्तियों के विरुद्ध युद्ध कर!
स्वयंभू आक्रान्ताओं के विरुद्ध युद्ध कर!
शहीद की गुहार है
न्याय की पुकार है
जाग साथी! धर्म धर
निर्भय हो, हो निडर
एकता के वास्ते
न्याय समता के लिये
स्वतंत्रता के वास्ते
युद्ध कर! युद्ध कर!! युद्ध कर!!!

कुड़ी होने की सजा

कुड़ी होने की सजा
दादा दे तो समझ में आता है
पर दादी क्यों देती है
जो खुद भी कुड़ी जात है
पापा दें, तो कोई बात नहीं
पर माँ दे तो बहुत तकलीफ
होती है
मेरी हम शक्ल! मेरी हमजात!!
ओ मेरी दादी! ओ मेरी माँ!!
ओ पकी उम्र की कुड़ियों!
जब वसंत तुम्हारे जिस्मों पर
तुम्हारे होठों पर, तुम्हारे बालों पर
तुम्हारी चालों पर उतरा होगा
तो तुम भी इतराई होगी
गदराते जिस्मों की खुशबू से
खुद भी महकी होगी, बगिया महकाई
होगी
कुड़ी होने की सजा भोगी होगी
मार खाई होगी। गर्दन झुकाई होगी
पर कटवाये होंगे
सपनों के आसमान टूटे होंगे
ज़मीन पर आईं होगी
पर सुनो और बुढ़ाती कुड़ियों!
यह कुड़ी
दुनिया को रचने वाली
पालन-पोषण करने वाली
भविष्य की माँ
तुम्हारे दर्दों की, तुम्हारी पीड़ाओं की
तुम्हारी यातनाओं और तुम्हारे शोषण की
सारी अग्नि समेट कर
यह ऐलान करती है
कि यह कुड़ी पंख न कटने देगी
भरेगी उड़ान।
छू लेगी आसमान
आज़ाद हवाओं को
विशाल खलाओं को
अपने वजूद में भरकर
लौटेगी ज़मीन पर
जियेगी अपनी शर्तों पर
अपने छन्दों पर
एक सम्मानित जीवन
भरपूर सुन्दर जीवन
लड़की होने की सजा नहीं
सम्मान पायेगी
और खुले गले से
खुलकर गायेगी
जिं़दगी के गीत।

प्यार जीतेगा हमारा

आज मैं आधुनिक नारी
होकर भी तुम्हारी टूटी प्रत्यंचा हूँ
सिर पटकती हूँ किनारों पर
जहाँ हम तुम मिले थे
पहली बार। बार-बार
जोहती हूँ बाट मेरे प्यार
पलक पाँवड़ों को बिछाये
खड़ी प्रतीक्षारत, खोले द्वार
मैं तुम्हारे प्यार में पागल
कोसने देती, रही फटकार खुद को
जब भी आते हो अचानक
क्यों मैं जाती हार?
समर्पित होने को तैयार
पिघलता है अहम् सारा
मूक स्वाभिमान
तोड़ पाती क्यों न मैं अनुबंध?
भाल में अंकित किये
नियति ने क्यों छल छंद?
जीत जाओ मनु
जाऊँ मैं भले ही हार
यह भी मुझे स्वीकार
तुम्हारी जीत मेरी जीत
तुम्हारी हार, मेरी हार
क्योंकि अक्षुण्ण मेरा प्यार
प्यार भीगी मैं, सुकोमल नार
प्यार जीतेगा हमारा
है मुझे विश्वास
युग युगों की प्यास लेकर
लौट आओगे, हमारे पास।

एक विकलांग नारी का अन्तर्द्वन्द्व

तुमने ओढ़ा था मुझे
माथे पर चन्दन की तरह
मैं अभी भी खुशबू में पगी
लिपटी हूँ वहाँ। मंदिर
में पुजी दीपशिखा सी
जाना तुमने। मेरे लुंज-पंुज
जीवन को गति दी
है, अपनी बलिष्ठ भुजाओं
का सहारा देकर
मैं किस मुँह से कहूँ
आभारी हूँ बहुत। शब्द
असमर्थ हैं आभार प्रकट
करने को

जब यज्ञ में आहुति का
समय आया था। जब भांवर
पड़ने लगी थी मेरी। मैंने
सोचा था चिता धधकी है
मेरी बड़े छल से बुलाये
गये पहुने, लौट जायेंगे
मुझे ठुकरा के चले जायेंगे
मेरा निश्चय था कि जल
जाऊँगी, मर जाऊँगी,
कुंठाओं भरे जीवन को
खत्म कर दूँगी
चरणों पे-
तुम्हारे, सिर को धरे।
मैं उठी कि गिरी
मेरा काँपा हिया। कांटें
उग आये तन-मन पे
मैंने महसूस किया
फुफकारा है प्रवंचित नाग
विष उगलेगा अभी
डस लेगा अभी सबको, सबको,
विद्युत सी ही मैं लपक उठी
पकड़ा जो तुम्हारे कदमों को
झटका जो दिया, फैंका तुमने
तब घूंघट उलट पड़ा मेरा
आँखें टकराई आँखों से
तुमने क्या पाया दृष्टि में?
कि तुम कीलित से खड़े
रहे निश्चल निर्वाक
निरखने में
शायद फिर
से तुम ठगे गये, शायद
फिर से तुम छले गये अपने
ही उर की करुणा से

भूले मृग शावक सा चेहरा
कितना सुन्दर हो आया था
लटकी टाँगों का बोझ तुम्हें
शायद हल्का था जान पड़ा
दाता! मेरे, सब भूल-भाल
जब तुमने मुझे उठाया था…
मृत्यु का निश्चय फिसल गया…

फूलों की मानिन्द मृदुल जान
तुम मुझे सजाते आये हो
अपने श्रम सीकर से मेरा
उपवन लहराते आये हो
हर सुविधा है उपलब्ध मुझे
यह कुटिया मेरी हरी-भरी
लगती है जैसे स्वर्ग मुझे।
पर क्यों कांटे से कसकता
मन कभी-कभी
रिसते नासूर सा टीसता
मन कभी-कभी
उद्बुद्ध चेतना चीख-चीख
उठती है क्यों?
मैं मर जाऊँ, मैं खप जाऊँ
मैं मुक्त करूँ साथी तुमको
तुम क्यों कारा में बंद हुये?
मुझको सम्पन्न बनाकर तुम
कितने विपन्न हो आये हो
यह दीन-हीन, श्रीहीन मुख
कर जाता मुझको चूर-चूर
रख देता दिल को चीर-चीर
माथे पर चमें स्वेद कण
हैं आग लगाते हृदय में
कितना थोड़ा सा अन्तराल
पर कितने प्रौढ़ लगा करते
जर्जर से तुम, पतझड़ लगते
मुर्झाये से ये शिशु पल्लव
कर्त्तव्य भार से दबे हुये
यह शमित, नमित बचपन
उनका
यह दबी घुटी सी
किलकारी
करती उर पर है
वज्राघात
दूधिया उज्ज्वल
तन-मन उनका
कितने चुप से
कितने विनीत
जी होता कर लूँ प्राणाघात
छुटकारा दूँ तुमको, उनको
यह अपंग तन, विकलांग मन
सुलगा है गीली लकड़ी सा
जिसका कड़वा विष भरा
धुँआ मुझको विषाक्त कर जाता है।

क्यों दिया मुझे जीवन दाता!
मैं शिला अहिल्या सी बनकर
सोई रहती, खोई रहती।
क्यों राम बने? क्यों मुक्त किया?

मैं पुष्पित हूँ, अभिसिंचित हूँ,
अभिषिक्त तुम्हारे द्वारा हूँ
मैं शस्य श्यामला बनी धरा
जिसके अन्तर में ज्वाला है
जानेगा कौन यह बिथा कथा

मैं पंख कटे पक्षी जैसी
फड़फड़ करती हूँ पिंजरे में
मेरे तन-मन और नस-नस में
है आग अनोखी लगी हुई
मैं कैसे काटूँ यह बंधन
मैं क्यों कर बन जाऊँ कृतघ्न
निर्दोष तुम्हारी दया दृष्टि ने ही
मुझको मथ डाला है
निष्पाप रहा करुणा सागर
लहरों सा मुझे उछाला है
बेदाग तुम्हारी कीर्ति को
मैं दाग़ लगाऊँ कैसे तो
रे मर जाऊँ कैसे तो
आँसू छलकाऊँ कैसे तो
फिर भी मुस्काते जाना है
बस आँसू पीते जाना है
बेबस हो जीते जाना है।

अंधेरा बीत जायेगा 

धरती के नापाक पशुओं से
घिरी मैं अपहृता हूँ
अपहृता या बिथा कथा
कुछ भी कहो
क्या फर्क
पड़ता है
चाहते हो
जानना ग़र नाम मेरा
तो सुनो…
मैं जुबेदा हूँ किसी रहमान की
माधवी हूँ मैं किसी मृगांक की
विश्वविद्यालय की मैं मायरा नामी
छात्रा हूँ
सिल्हट की
सलमा, सकीना
राजशाही
में मरे किसी लाल की जननी हूँ मैं
मैं ज्वाला हूँ, कावेरी नाम मेरा
मैं गुलेराना, तबस्सुम नाम मेरा
गोल्डा हूँ मैं, मरियम नाम मेरा
मैं भवानी हूँ सरबजीत नाम मेरा
सैकड़ों हैं नाम-असली नाम मेरा
अपहृता-बस अपहृता है नाम मेरा

मूंद कर बैठे रहें ‘वे’ नयन
‘वे’ बने जो शान्ति के ठेकेदार
अमन के हैं रहनुमा जो
राजनीति के
खिलाड़ी शानदार
हाय! घिनौने दाँव पेंच!
लोलुप राष्ट्रों के लपलपाते
दो मुँही साँप
लीलने को
तन मेरा जुट गये
छीलने-
को देश मेरा जुट गये
न सुनें ‘वे’ दास्तां मेरी
मैं विश्व की नारियों से
दास्तां अपनी कहूँगी
आह्वान करती हूँ जगत की
शक्तियों का मैं
मैं-मैं नहीं मेरा प्रेत है
बहनों! मेरी माताओं!! मेरी बेटियों!!!
रोंगटे सबके खड़े कर देगा मेरा प्रेत
सबकी पुतलियों में प्रतिबिम्बत
करके बर्बर, वहशियों के नाच को

सुन सखि, एक दिन मैं गा रही
थी एक सुन्दर गीत
छात्रावास के
सुशान्त कक्ष में कि-‘‘धाँय!धाँय!!
धम-धमाका, शोर-चीखें!!
गड्डमड्ड सब हो गया
बूट ठोंकते
वे दरिन्दे आन पहुंचे कक्ष में
बाज का सा वह झपट्टा क्या कभी
कोई भूल सकता है
गले में फँस
गई चीखें, आँख में जम गया पानी
और मैं लुट गई
लुटती रही; लुटती रही-फिर मर गई
और सुन, मेरी माँ!
एक दिन मैं गोद में ले ‘लाल’
बैठी थी
दूध पीता ‘लाल मेरा
और प्रिय मेरा-शिशुअलक में
उंगली घुमाता
ताकता था
स्नेह से
कि शोर करते, गरजते
और धड़धड़ाते ढोर घुस आये
ढोर थे या चोर थे; मेरे पति को
ले चले घसीट कर
जब मैं
चिल्लायी-लाल मेरा खींचके
उछाल फेंका हवा में बड़े जोर से
फाड़ डाले वस्त्र मेरे
नोच डाले अंग
और
जिस तिस के संग….

तड़फड़ाते शिशु को संगीन
की जब नोक पर रख
एक झंडे की तरह ऊपर
उठाते थे, मेरा कलेजा
दरकता, मैं चीखती, दो-चार कुत्ते
झपटते थे और मुझको नोंचते
थे, पीसते थे। और फिर मरी
मुझको ‘वे ले गये थे शिविर
अपने में
माँ! हर किसी
की हवस का मैं ग्रास बन गई थी

और सुन, बहना, सुनाऊं
जुल्म की और जब्र की मैं
दास्ताँ तुमको। बम-धड़ाके गोलियों
के शोर में संत्रस्त हो सब बैठे
रहते अपने-अपने कोटरों में।
बीमार, मेरा बाप बूढ़ा, मैं
उसे चावल खिलाती थी-कि
लग गई आग चारों ओर-कि ‘वे’
कुत्ते, कमीने, पाप के पुतले
हवा में ज़हर भरते
आन धमके झोंपड़ी में
काँपते, मेरे बाप की दाढ़ी पकड़ कर
चकर घिन्नी सा घुमाकर, दूर
अति, जा दूर पटका। चीख ही
बस गूंजती रह गई मेरे कान में
और तारे नाच गये पुतलियों के सामने

फिर मुझे कुछ सुध नहीं।
किस किसने रौंदा, किसने कुचला
और कितने ही जनों की वासना को
तृप्त मैंने कर दिया

आँख जब खोली तो पाया अनगिनत
लाशों के बीच
चील, कौये, गिद्ध गीदड़
आ जुटे थे। नोचते थे बोटियाँ उन
मृतजनों की, वहशियों की गोलियों
ने भूल डाला था जिन्हें

सामने थे रक्तरंजित पाट
‘नदिया’ के
कि जिसमें खून बहता था
मेरे बन्धुजनों का
और मेरे
देा के अनगिनत बच्चे, बेटियाँ
निर्वसन हो, चिथड़ी हुई, कुचली हुई
वीरान सड़कों पर पड़ीं चुपचाप
लेटी थीं
धज्जियां मेरी उड़ीं
अस्मतें मेरी लुटीं
उजड़ गए जिंदगी के हरित-रूपम-वन
और ‘वे’ सब ‘वे बड़े’ सब देखते रहे
अपने दखल को टालते रहे
न सुने ‘वे’ दास्तां मेरी
पर विश्व की नारियों! तुम तो सुनो
सुनो मेरी ध्वस्त अस्मत की जरा
पुकार तो सुनो
जूझते जनतंत्र
की हुंकार तो सुनो
आदम के बहते
लोहू की ललकार तो सुनो
नारियो, जागो ज़रा, आँख तुम खोलो ज़रा,
शक्तियाँ तोलो ज़रा
समवेत स्वर बोलो ज़रा
नुच गई इस देह में बस शेष दो आँखें
अभी भी चमकती हैं, जिन्हें इन्तज़ार
उप पावन घड़ी का
जब जगेगा शिव पापघट रीत जायेगा
नई सुबह होगी अंधेरा बीत जायेगा

बी-नारी दूसरा-चित्र 

यह, बेचारी औरत है
देह की ठठरी में
पेट की गठरी में
फिर एक बच्चा
बार-बार बनती है जच्चा
चार बजे उठती है
बीड़ी सुलगाती है
बिन दूध, गुड़ की
‘चा’ सब को पिलाती है
फिर काम पर जाती है।
घर-घर जाकर बर्तन मांजती है
झाड़ती, बुहारती है
जाड़े में ठिठुरती हुई
तीन गज के कपड़े से
लाज को ढकती हुई
छोटी सी चदरिया
सिर पर लिपटा कर
चुप्पी की चेपियां
मुंह पर चिपकाकर
गली-गली जाती है
यदा-कदा बीच में
बीड़ी सुलगाती है
जरा सा सुस्ताती है
अकड़ी हुई देह को
सीधा करने लगती है
याद कुछ आता है
तो फिर चलने लगती है
पैंरों को घसीटती है
बिवाईयां टीसती हैं
सूजी हुई उंगलियां
और गले हुए पोर हैं
दर्द पुर-ज़ोर है
रिसता हुआ खून है
पाँवों पर, कंधों पर
जीवन का बोझ है
सम्हलती, संभालती,
कदम-कदम डालती
आगे बढ़ती जाती है
पपड़ी जमे होंठ हैं
धुंआख सा रंग है
उजाले कहाँ, बस
स्याहियां ही संग हैं
पच्चीस की उम्र में
पचास की लगती है
भूख से बेहाल,
फटेहाल…
जिये जाती है
ज़िन्दगी की गाड़ी को
आगे लिये जाती है।

रिश्तों की लाशें 

गांठ तो पक्की थी
धागे ही कच्चे थे
सो टूट गये
नेह के वे सारे
सम्बोधन ही छूट गये।
हम कायर हैं
दब्बू हैं-
संस्कारों के पिट्ठू हैं
हंसते हैं रोते हैं
रिश्तों की लाशों को
रो-रोकर ढोते हैं।

क्या मैं तुमको भूली?

सारी उम्र सोई, जागती
आँखों से
और जागती रही सोई आँखों से
दर्द का दीप जलाकर
तुम तो चले गये
किधर गुम हो गये
मुझे जगराते देकर
मैंने जलाकर रखा
यादों का दीया
अपने खून से
और दौड़ती रही
बदह्वास-
अंधे भटकावों को
कंटीले अटकावों को
फलांगती रही मौन-
पर पंख न फड़फड़ाने दिया
तुम्हारी याद के पाखी को
कौन सा इतिहास रचती रही
तुम्हें भुलाने की ज़िद में?
भुलाकर तुम्हें
नाचती रही अंगारों पर
इस तरह तुम्हें मैं भूली
मगर क्या मैं तुमको भूली?

कब तक सहती मैं? 

क्यों त्रिशंकु से लटकते
रहे तुम?
किया था प्यार तो
शर्म कैसी थी इज़हार में
क्यों लगती थी हार पौरुष
की इसमें?
नार से प्यार?
तौबा! तौबा!!
नार से रार ही था
तुम्हारा दर्शन।
पर कब तक सहती मैं
तुम्हारी मार?
मेरे वजूद का लहूलुहान
पक्षी कर बैठा विद्रोह-
उड़ने को तैयार कटे पंखों
से भी। लगाया न अनुलेप
आहत तन-मन पर
सिर्फ दी लताड़
कसमसाते जिस्मों को।
मसलते रहे बांहों के हार
और तार चाहतो के तोड़ते रहे
और कदम दर कदम
उतरते गये मौत की वादी में
न इस पर, न उस पार
जीवन और मृत्यु के बीच
झूलते रहे त्रिशंकु से
क्यों? क्यों? क्यों?

क्या सब जानते थे तुम

ज्योतिषी थे तुम
ज्योतिष तो पक्का था
जानते थे सब कुछ तुम
कल मेरे सामने
जंगल होगा जीवन का
रेत का समंदर होा
पहाड़ होंगे मुसीबतों के
हांेगे आंधी, तूफान
पथ न आसान होंगे
होंगे शूल और अंगार
मुझको अकेले ही
फलांगने होंगे।
प्रहारों से अपने
फौलाद बनाते थे
मुझ पर चलाते थे
अपने जहरीले तीर
जहर पिला कर तुम
चखाते रहे स्वाद ज़हर का
लैन्ज़ की मदद से
हाथों की लकीरों को
पढ़ डाला था तुमने
माथे के आईने पर
नियति के लेखों को भी
पढ़ लिया था तुमने
तुम क्या जानते थे
सब कुछ जानते थे?

राग-विराग से परे प्रेम 

राग-विराग की
चक्की में पिस कर
पया है प्रेम को।
कुंदन बनाया है
मिलन और बिछोह
की भट्टी के ताप ने।
पाया है आत्ममोती
मंथन के तन-मन के-
पिलाया है अमृत
ज़हर के प्यालों ने
दंशित एहसासो
और अनबुझी प्यासों ने
तड़पा-तड़पा और
तरसा-तरसा कर
बनाया है योगी, रोगी
को, भोगी को
प्याला है प्रेम का
हाथ में अब उसके
निराला है अमृत
उस प्याले का-
जाती हूँ झूम-झूम
पिलाती हूँ सबको दो घूंट
जीवन की मधुशाला में
बिखराती हूँ आसव
उत्सव मनाती हूँ
हर पल पल-पल
मृत्यु का जीवन का।

खुदा खुद पूछता है 

चूम लूं तेरी जुबां को मैं
तेरे ख़्यालों और बयां को मैं
नाज़ मुझको है बहुत
तेरे इलाही हुस्न पर
इल्म तेरे और फन पर
तेरे रूहानी फलक पर
शुक्रिया रब का
जो बख्शा नूर मुझको
किया है मालामाल उसने
मेरी अना के पाक दामन को।
खुदी इतनी बुलंद पर हुई है
खुदा खुद पूछता मुझसे
‘बता तेरी रज़ा क्या है’?
‘बता तेरी रज़ा क्या है’?

तुम याद आते रहे

जीवन के हर रण में
तुम याद आते रहे कृष्ण!
मन का अभिमन्यु
जब-जब भी षड्यंत्रकारी
शक्तियों से घिरता
तुम अपने दिपदिप स्वरूप
से उसे आश्वस्त करते श्रीकृष्ण!
तुम्हारी अंगुलि पर घूमता
सुदर्शन चक्र
उसे चक्रव्यूहों को
भेदकर आगे बढ़ने
को तत्पर करता
घबरा कर रण छोड़ते
मेरी आस्था के अर्जुन
को ओज से भर कर
फिर तुम रणक्षेत्र में
सन्नद कर देते-माधव!
कर्त्तव्य पथ पर
अग्रसर कर देते कृष्ण!
अनजाने ही मेरा
जीवन कृष्णमय हो उठा
राधा नहीं
कोई गोपी नहीं
मीरा बन गई मैं
तुम नचाते रहे
मैं नाचती रही कृष्ण!
रसप्लावित हो मदमस्त
गाती रही। यह मेरा सौभाग्य था
कि मैंने तुम्हारा और तुमने मेरा
दामन कभी न छोड़ा।

तुमने मुझे रसप्लावित रखा 

यह तुम थे कि मैं अंगारों
पर भी नाच सकी श्री कृष्ण
यूं कि जैसे फूलों की घाटी
पसरी हो पांवों तले
यह तुम्हें थे रसराज!
जिसने जीवन के गरल
को अपनी करुणाभ
दृष्टि से पीयूष बना
कर मेरे गले में उडेंला
जीवन के मरू में तुम्हारा
ही प्यारा बरसता रहा
भिगोता रहा
हां उसी ने, उसी ने मुझे
रस प्लावित रखा,
मेरी धरती को सूखने
से बचाये रखा।

जागो मानसी 

तुम आज़ाद देश की नारी
मत कहना किस्मत की मारी
लो अधिकार बनो अधिकारी
जर्जर संस्कारों को त्यागो
जागो मानुषी, जागो
देवी, दासी, नहीं दानवी
मात्र बनी रहो मानवी
लेकर आन-बान-शान भी
अपनी लगन में लगो
जागो, मानवी, जागो।
इतिहास मानसी है भयभीता
आज बरजती तुमको सीता
दु्रपद सुता कहती बन गीता
झूठे आदर्शों को त्यागो
जागो, मानसी, जागो
नारी की गरिमा बनी रहे
अधिकार चेतना जगी रहे
न कर्मबोध में कमी रहे
नर सम नारी अनुरागो
जागो, नारी जागो
जंग लगे कवचों को छोड़ दो
इतिहासों को नया मोड़ दो।
नये-नये अध्याय जोड़ दो
चिर बंध दासता त्यागो
जागो भद्रे जागो।

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