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भक्तन को कहा सीकरी सों काम 

भक्तन को कहा सीकरी सों काम।
आवत जात पन्हैया टूटी बिसरि गये हरि नाम॥
जाको मुख देखे अघ लागै करन परी परनाम॥
‘कुम्भनदास’ लाल गिरिधर बिन यह सब झूठो धाम॥

कितै दिन ह्वै जु गए बिनु देखे 

कितै दिन ह्वै जु गए बिनु देखे।
तरुन किसोर रसिक नँदनंदन, कछुक उठति मुख रेखे॥
वह सोभा वह कांति बदन की, कोटिक चंद बिसेषे।
वह चितवनि वह हास मनोहर, वह नागर नट वेषे॥
स्यामसुंदर संग मिलि खेलन की, आवज जीय उपेषे।
‘कुम्भनदास’ लाल गिरधर बिन, जीवन जनम अलेषे॥

माई हौं गिरधरन के गुन गाऊँ

माई हौं गिरधरन के गुन गाऊँ।
मेरे तो ब्रत यहै निरंतर, और न रुचि उपजाऊँ ॥
खेलन ऑंगन आउ लाडिले, नेकहु दरसन पाऊँ।
‘कुंभनदास हिलग के कारन, लालचि मन ललचाऊँ ॥

कहा करौं वह मूरति जिय ते न टरई 

कहा करौं वह मूरति जिय ते न टरई।

सुंदर नंद कुँवर के बिछुरे, निस दिन नींद न परई॥

बहु विधि मिलन प्रान प्यारे की, एक निमिष न बिसरई।

वे गुन समुझि समुझि चित नैननि नीर निरंतर ढरई॥

कछु न सुहाय तलाबेली मनु, बिरह अनल तन जरई।

‘कुंभनदास लाल गिरधन बिनु, समाधान को करई।

सीतल सदन में सीतल भोजन भयौ 

सीतल सदन में सीतल भोजन भयौ,
सीतल बातन करत आई सब सखियाँ ।
छीर के गुलाब-नीर, पीरे-पीरे पानन बीरी,
आरोगौ नाथ ! सीरी होत छतियाँ ॥
जल गुलाब घोर लाईं अरगजा-चंदन,
मन अभिलाष यह अंग लपटावनौ ।
कुंभनदास प्रभु गोवरधन-धर,
कीजै सुख सनेह, मैं बीजना ढुरावनौ ॥

बैठे लाल फूलन के चौवारे 

बैठे लाल फूलन के चौवारे ।
कुंतल, बकुल, मालती, चंपा, केतकी, नवल निवारे ॥
जाई, जुही, केबरौ, कूजौ, रायबेलि महँकारे ।
मंद समीर, कीर अति कूजत, मधुपन करत झकारे ॥
राधारमन रंग भरे क्रीड़त, नाँचत मोर अखारे ।
कुंभनदास गिरिधर की छवि पर, कोटिक मन्मथ वारे ॥

तुम नीके दुहि जानत गैया

तुम नीके दुहि जानत गैया.
चलिए कुंवर रसिक मनमोहन लागौ तिहारे पैयाँ.
तुमहि जानि करि कनक दोहनी घर तें पठई मैया.
निकटहि है यह खरिक हमारो,नागर लेहूँ बलैया.
देखियत परम सुदेस लरिकई चित चहुँटयो सुंदरैया.
कुम्भनदास प्रभु मानि लई रति गिरि-गोबरधन रैया.

संतन को कहा सीकरी सों काम

संतन को कहा सीकरी सों काम?
आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम।।
जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम।।
कुभंनदास लाल गिरिधर बिनु, और सबै बेकाम।।

रसिकिनि रस में रहत गड़ी

रसिकिनि रस में रहत गड़ी।
कनक बेलि वृषभान नन्दिनी स्याम तमाल चढ़ी।।
विहरत श्री गोवर्धन धर रति रस केलि बढ़ी।।

साँझ के साँचे बोल तिहारे

साँझ के साँचे बोल तिहारे।
रजनी अनत जागे नंदनंदन आये निपट सवारे॥१॥
अति आतुर जु नीलपट ओढे पीरे बसन बिसारे।
कुंभनदास प्रभु गोवर्धनधर भले वचन प्रतिपारे॥२॥

आई ऋतु चहूँदिस फूले द्रुम

आई ऋतु चहूँदिस फूले द्रुम कानन कोकिला समूह मिलि गावत वसंत हि।
मधुप गुंजारत मिलत सप्तसुर भयो है हुलास तन मन सब जंतहि॥१॥
मुदित रसिक जन उमगि भरे हैं नहिं पावत मन्मथ सुख अंतहि।
कुंभनदास स्वामिनी बेगि चलि यह समें मिलि गिरिधर नव कंतहि॥२॥

हमारो दान देहो गुजरेटी

हमारो दान देहो गुजरेटी।
बहुत दिनन चोरी दधि बेच्यो आज अचानक भेटी॥१॥
अति सतरात कहा धों करेगी बडे गोप की बेटी।
कुंभनदास प्रभु गोवर्धनध्र भुज ओढनी लपेटी॥२॥

गाय सब गोवर्धन तें आईं 

गाय सब गोवर्धन तें आईं।
बछरा चरावत श्री नंदनंदन, वेणु बजाय बुलाई॥१॥
घेरि न घिरत गोप बालक पें, अति आतुर व्हे धाई।
बाढी प्रीत मदन मोहन सों, दूध की नदी बहाई ॥२॥
निरख स्वरूप ब्रजराज कुंवर को, नयनन निरख निकाई ।
कुंभनदास प्रभु के सन्मुख, ठाडी भईं मानो चित्र लिखाई॥३॥

भक्त इच्छा पूरन श्री यमुने जु करता

भक्त इच्छा पूरन श्री यमुने जु करता ।
बिना मांगे हु देत कहां लौ कहों हेत, जैसे काहु को कोऊ होय धरता ॥१॥
श्री यमुना पुलिन रास, ब्रज बधू लिये पास, मन्द मन्द हास कर मन जू हरता ।
कुम्भन दास लाल गिरिधरन मुख निरखत, यही जिय लेखत श्री यमुने जु भरता ॥२॥

श्री यमुने पर तन मन धन प्राण वारो 

श्री यमुने पर तन मन धन प्राण वारो ।
जाकी कीर्ति विशद कौन अब कहि सकै, ताहि नैनन तें न नेक टारों ॥१॥
चरण कमल इनके जु चिन्तत रहों, निशदिनां नाम मुख तें उचारो ।
कुम्भनदास कहे लाल गिरिधरन मुख इनकी कृपा भई तब निहारो ॥२॥

श्री यमुने अगनित गुन गिने न जाई 

श्री यमुने अगनित गुन गिने न जाई ।
श्री यमुने तट रेणु ते होत है नवीन तनु, इनके सुख देन की कहा करो बडाई ॥१॥
भक्त मांगत जोई देत तिहीं छिनु सो ऐसी को करे प्रण निभाई ।
कुम्भन दास लाल गिरिधरन मुख निरखत, कहो कैसे करि मन अघाई ॥२॥

श्री यमुने रस खान को शीश नांऊ

श्री यमुने रस खान को शीश नांऊ।
ऐसी महिमा जानि भक्त को सुख दान, जोइ मांगो सोइ जु पाऊं ॥१॥

पतित पावन करन नामलीने तरन, दृढ कर गहि चरन कहूं न जाऊं ।
कुम्भन दास लाल गिरिधरन मुख निरखत यहि चाहत नहिं पलक लाऊं ॥२॥

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