Skip to content

Krishna-verma-kavitakosh.jpg

सुनो बिटिया

समझ लो एक बात बिटिया
यह जो जीवन है निरा नाटक है
खो मत जाना इसकी चमक में
और न ही फिसलना किसी मुस्कान पर
मुस्कान के पीछे का छल
लूट लेगा बातों-बातों में
और तुम जड़वत् हुई
मलती रह जाओगी हाथ
बिना परखे, बिना सोचे-समझे
कोई वादा न कर बैठना किसी से
बड़ी अलहदा होती हैं
कमसिन उम्र की राहें
बेसाख़्ता चल पड़ते हैं उन पर पाँव
न चाहकर भी
कोई धकेल देता है उस ओर
बस फिसलने से बचना बिटिया
वरना ख़ुद ही भुगतना होगा ताउम्र
कोई दूजा न होगा तुम्हारी ख़ातिर बेचैन
कोई न छाँटेगा सूर्य -रश्मियाँ बन
तुम्हारा कुहासा
कोसती रह जाओगी ख़ुद को
समेटे नहीं सिमटेगी अपनी छटपटाहट
पकड़ नहीं पाओगी काल को मुठ्ठियों में
और हाँ तुम्हारे विश्वास से परे
कोई आकर नहीं सहलाएगा तुम्हारा दुख
उलीच नहीं पाओगी दूर कहीं
मस्तिष्क की घनघनाहट
देखो यह जीवन है
फूँक-फूँक कर रखना क़दम
हौले-हौले दूर तक तौलना निगाहों से
तब उगाना अपना सूरज
अपने भरोसे की हथेली पर।

अभ्यास 

जन्मों से उठाए फिरती हूँ
सौम्यता का बोझ
तभी तो इतनी लचीली है मेरी रीढ़
और कमाल है जज़्ब की शक्ति
समंदर है मेरे भीतर
जिसके तल पर जमा है
संपदा दुख-सुख की
पूछते हो कैसे समा लेती हूँ सब
जी जन्म से अभ्यास जो कर रही हूँ
और आज भी ज़ारी है
पर यूँ न समझ लेना रिक्त हूँ शक्तियों से
मुझमें भी हैं शोले हाँ ये अलग बात है कि
दबा के रखे हैं मुठ्ठियों में
धुँआँ उठता है उनमें भी
पर रोक लेती हूँ भड़कने से
मुझमें भी निहित है पशु
जो निरंतर रहता है चैतन्य
इसीलिए तो बुनती हूँ प्रतिदिन नया कलेवर
चाहती हूँ गिरा रहे परदा बना रहे रोमांच
जानती हूँ हवा दी शोलों को तो
शून्य हो जाओगे तुम
तभी तो बनाए हुए हूँ अभ्यास का अभियान
नहीं चाहती फिर गढ़ा जाए नया इतिहास
लिखे जाएँ सफे तुम्हारी तबाही के
मेरी सोच की शुचिता ही तो
बनाए हुए है तुम्हारा पौरुष
वरना कब का पराजित हो चुका होता
तुम्हारा अहं मेरे अहं से।

गर्म हवाएँ 

कलयुग की काली छाया में
अंधी हुईं हवाएँ
रिश्ते-नाते शेष हो गए
रंग लहू के श्वेत हो गए
घर हो गए सराय
मायावी है समय छली
सूझ-बूझ न एक चली
ख़ाक हुए दिन आने वाले
आदिम तम घिरा गली-गली
घुला विषैला क़ायनात में
कोमल सांसें काठ हो गईं
चिंता का चिंतन रहे चलता
आशाएं बेआस हो गईं
कौन सुने अब किसको रोएं
रात-दिवस बोझिल मन ढोएं
शापित जीवन किया काल ने
सिसक मरीं सब याचनाएँ।

कविता

कविता वह हथियार
बहे ना ख़ून जीत ले जंग
कविता वह उपहार
मिटा दे दिल से दिल के द्वंद्व
कविता वह विश्वास
जला दे अंधकार में दीप
कविता वह प्रयास
बिना सागर हो मोती सीप
कविता वह आधार
दरकने दे ना दिल का प्यार
कविता वह पतवार
डोलती नैया लग जाए पार
कविता वह उद्घोष
उड़ाए बड़े बड़ों के होश
कविता आशुतोष
भटकते दिल पाएं संतोष
कविता पहरेदार
चौकसी करती जो लगातार
कविता कहे उतार
जो तेरे जीवन का व्यवहार
कविता वह मशाल
दिखाए पल में राह सुजान
कविता ऐसा बाना
करे स्याह को झट सूफियाना
कहो न इसको फिक़राबंदी
कविता शब्दों का सम्मेलन।

कैसे कर सकते हो तुम ?

कैसे कर सकते हो तुम
अचानक यूँ बेदख़ल
मेरे वजूद को
अपने प्यार के
कोसे अहसास से ।

समय-असमय
पहरों बाँटे दुख-सुख से
कैसे छोड़ सकते हो
मेरी मौजूदगी को
तन्हाई की कड़क धूप में
अकेला तपने के लिए।

कैसे तज सकते हो
मेरी सत्ता को
घुट कर सिकुड़ जाने को
उदासी की बर्फबारी में।

इतना भी ना सोचा
कि तुम्हारी इस बेरुख़ी से
कैसे पसर जाएगी
अनिश्चितता की धुंध मेरे चारों ओर
और खड़ा रह जाएगा मेरा वजूद
रास्ते पर लगे साइन बोर्ड सा।

ज़रा सा भी ख़्याल ना आया तुम्हें
मेरे पैरों तले की ज़मीन को खिसकाते
किंचित भी मोह ने नहीं झिंझोड़ा तुम्हें
मेरे सर से आकाश को ढलकाते
क्यूँ तनिक भी फिक्र ना हुई तुम्हें मेरी
किसी शून्य में खो जाने की।

देखना ढूँढते रह जाओगे तुम भी
जब लीन हो जाऊँगी मैं
अपनी ही नदी की लहरों में
गुम हो जाऊँगी
अपने आकाश की विभुता
और अपने ही ओसांक में।

क्रियाहीन हो जाएगा जब
तुम्हारे अह्म का सैलाब
तो
ढूँढेगा तुम्हारा बेकल होश
मेरे होने को।

तुम्हारे बिन 

किए जतन मन बहलाने को
मिले ना कोई बहाने
अधरों की हड़ताल देख कर
सिकुड़ गईं मुस्कानें।
मन का शहर रहा करता था
जगमग प्रीतम तुमसे
बिखरा गया सब टूट-टूटकर
चले गए तुम जब से।
चुहल मरा भटकी अठखेली
गुमसुम हुई अकेली
हंसता खिलता जीवन पल में
बन गया एक पहेली।
सिमट गया मन तुझ यादों संग
हृदय कहाँ फैलाऊँ
कहो तुम्हारे बिन कैसे
विस्तार नया मैं पाऊँ।

मर्यादा

कितनी सहजता से
कह दिया सखी तूने
तोड़ देती उस रिश्ते को
तू बँधती इस बंधन में
तो जान पाती
आसान नहीं होता
मर्यादा की गिरहों को खोलना ।
दबानी पड़ती है चाहतें
दायित्व की चट्टान तले
ख़्वाहिशों को मार कर
होंठों की लरजन पर
उगानी पड़ती है हँसी
और गुनगुनानी पड़ती है पीड़ा
प्रेम गीतों की तर्ज़ में
खारी लहरों को मोड़ना पड़ता है
भीतरी समंदर में
सींचना पड़ता है शब्दों को
आँखों की नमी से
खुशी का भ्रम बनाए रखने को
स्याह मन की कालिख़
सजानी होती है डोरों पर
मांग में सिंदूर
माथे पर दिपदिपाता कुमकुम
और हथेलियों पर मेंहदी की महक
सजाए रहना पड़ता है
खोखले रिश्ते को ठोस
दिखाने के लिए
अपनाए बिना अपनाने के ढोंग का
कदम दर कदम तय करना पड़ता है
सफ़र हमसफ़र के संग
दबाने पड़ते हैं तूफान
भीतर ही भीतर बरस के
आसान नहीं होता खोलना
गठबंधन की गाँठ को
रोक लेती है रिश्तों की मर्यादा
चौखट के भीतर
सिमट के रह जाते है कदम
समाजिक खड़िया से खिंची
लक्षमण रेखा के पीछे
सरल नहीं होता सखी
एक औरत होना।

क्यों न बाबा ?

क्यों न भैया- सा मुझको
बाबा तुमने पाला
उसके जीवन भरी रोशनी
मुझे न तनिक उजाला
माखन मिश्री दूध मलाई
न लाड़-प्यार मनुहार
जन्मदिवस भी आम दिवस से
बीते बिन उपहार
न मेले ठेले न स्कूल
न काँधों पे बस्ता
मैं भी तो हूँ अंश तुम्हारा
क्यों न दी फिर समता
कोमल मन मेरा कभी न झाँका
होंद मेरी को तुमने केवल
इक आफ़त सा आँका
वंश रखेगा जीवित भैया
देगा तुम्हें सहारा
इसीलिए घी मक्खन से तर
पोसो उसे निवाला
देकर तो देखा होता मुझको भी
बस मुठ्ठी भर प्यार
मुझसे भी ज़रा जोड़ देखते
भैया वाली तार
रक्त वसा मज्जा मेरी हड्डियाँ
तेरा ही उपहार
मुझ कांधों में भी तेरा पौरुष
ढो लेते समभार
काहे दिया न बाबा मुझको
भैया -सा सम्मान
मेरे जन्मते सोच लिया बस
यह तो पर सामान
मैं भी तो तेरे जीवन का
हूँ अमोल इक हिस्सा
पर हाथों में सौंपने का फिर
कौन गढ़ गया किस्सा
तुम भैया सा थाम लेते जो
बढ़कर मेरा हाथ
टिके न होते ठोस ज़मी पे
तनुजा के थरथरे पाँव
भैया वाले फ्रेम में मढ़ लेते
जो मेरी भी तस्वीर
बदल न जाती क्या बाबुल
तेरी बिटिया की तकदीर।

कह दो न इक बार 

ज़रा सोचो तो
तुम्हारी ज़िद के चलते
इस रूठा-रूठी के दौर में
जो मैं हो गई धुँआ
तो कसम ख़ुदा की
छटपटाते रह जाओगे
क्षमा के बोल कहने को
लिपटकर मेरी मृत देह से
गिड़गिड़ाओगे माफ़ी को
पर अफसोस
चाहकर भी कर न पाऊँगी
तुम्हारी इच्छा को पूरा
नाहक ढह जाएगा तुम्हारा पौरुष
अहं की टूटी खाट पर
और तुम्हारे दुख का कागा
लगातार करेगा काँय-काँय
तुम्हारे मन की मुँड़ेर पर
अनुताप में जलते तुम
जुटा न पाओगे हिम्मत उसे उड़ाने की
मुठ्ठी भर मेरी राख को
सीने से लगाकर
ज़ार-ज़ार रोएगी तुम्हारी ज़िद
और मेरी असमर्थता
पोंछ न पाएगी
तुम्हारे पश्चात्ताप के आँसू
सुनो, समय रहते अना को त्याग
समझा क्यों नहीं लेते अपनी
छुई-मुई हुई ज़ुबान को कि बोल दे
खसखस -सा लघुकाय शब्द
जिसका होठों पर आना भर
मुरझाते रिश्ते को कर देते है
फिर से गुलज़ार
सुनो, कह क्यों नहीं देते इक बार
सॉरी।

मुहब्बत

डाल लिये हैं मैंने
तेरे नाम के पूरने
गाचनी लगी
दिल की कोरी तख़्ती पर
प्रीत का पानी मिलाकर
मथ लिया है
स्याही की टिकिया को
प्रेम गीतों की धुन संग
पीपल की छाँव में बैठ
मुहब्बत की क़लम से
पुख़्ता करने को हर्फ़
उन पर
रोज़ फेरती हूँ उन पर स्याही
दिनों-दिन गहराते जा रहे हैं
तेरे नाम के हिज्जे
ख़्याल रहे
फीका न होने पाए कभी
तेरी बेवफ़ाई से
इनका रंग
देखो, शिद्दत से निभाना
लगी को
छलकी जो कभी मेरी आँख
तो रह जाएगी नम
मेरी क़ब्र की मिट्टी
कैसे सो सकूँगी गहरी नींद
फिर सदियों तक
पुरसुकून ज़मीं के नीचे।

ठिठुरे दिन

1
ठिठुरे दिन
कौन करेगा गर्म
सूरज नर्म।
2
लटका पाला
सूर्य की राह देखे
पंछी बेचारा।
3
शीत प्रकंप
काँपते हाड़-मांस
सिहरे मन।
4
जाड़ा ऊँघता
एक हाथ दूजे को
फिरे ढूँढता।
5
रुत का रंग
पंख फैलाए सर्दी
सिकुड़ें हम।
6
कोहरा जवाँ
सिगरेट न बीड़ी
मुख में धुँआ।
7
सर्दी डराए
चाय वाले खोखे का
स्वामी मुस्काए.
8
सूर्य दहाड़े
दिवस सुनहरी
धुंध दरारें।
9
सूरज आए
धूप के कसोरे में
पंछी नहाएँ।
10
धूप को लादे
चपल गिलहरी
चौगिर्द भागे।
11
धूप के साये
आनन्दित कपोत
पंख फुलाएँ।

-0-

मचलें पाँव 

1
मचलें पाँव
कह रहे मन से
आ चलें गाँव।
2
कहता मन
गाँव रहे न गाँव
केवल भ्रम।
3
ली करवट
शहरीकरण ने
गाँव लापता।
4
मेले न ठेले
न खुशियों के रेले
गर्म हवाएँ।
5
वृक्ष न छाँव
नंगी पगडंडियाँ
जलाएँ पाँव।
6
शहरी ताप
चहुँ ओर विकास
मरा है हास।
7
बदले ग्राम
वाहनों के शोर से
चैन हराम।
8
शहरी हुए
गाँव की यादें अब
आँखों से चुएँ।
9
गाँव बेहाल
शहरी हवाओं ने
लूटा ईमान ।
10
सिर पे भार
लाँघे बीहड़ रास्ते
गाँव की नार ।

तुम जो मिले 

1
पत्तियाँ स्पंदी
चाँदनी का कम्पन
हरता मन।
2
अमर होती
मर के घास बुने
चिड़िया नीड़।
3
साहसी घास
डाले न हथियार
जमाए जड़ें।
4
कितना मरे
हरी हो मुसकाए
जीवट घास।
5
आँधी–तूफान
ज़ब्त न कर पाएँ
दूब– मुस्कान।
6
चर रहा है
पल–पल मुझे क्यों
अंजाना डर।
7
तुम जो मिले
जगी हैं बेचैनियाँ
कहो क्या करें!
8
मचली चाह
कल्पना में पगी है
प्यार की राह।
8
भीग गई मैं
सावन की झड़ी-सी
नेह तुम्हारा।
10
बातें तुम्हारी
घोल गईं साँसों में
ललिता छंद।
11
जलाए मन
सुधियों के अंगारे
सिराए कौन।
12
अपनापन
तनिक न खुशबू
निरा छलावा।

मेघ साँवरे 

1
ऋतुगीत गा
बदरा-बिजुरी ने
ढाया ग़ज़ब।
2
मेघ साँवरे
बरसे जमकर
हँसें फुहारें।
3
मिटी तपन
ओर -छोर डूबके
धरा नहाए ।
4
ठंडी औ भीगी
फर्र-फर्र हवाएँ
प्रीत जगाएँ।
5
गिरीं बौछारें
झुलसी दिशाओं की
देह सँवारें।
6
चहक फिरे
चिरैया आँगन में
पंख भिगोए।
7
बदल गए
रंग आबो-हवा के
स्वप्न हमारे।
8
घटा के पाँव
बजी पाजेब बूँदें
छनछनाईं।
9
भीगी फुहारें,
संग लाया सावन
सोंधे त्योहार।
10
सावन फूले
रक्षाबंधन तीज
मेहँदी झूले।
11
उठे हिलोर
छिड़े पुराने तार
याद झंकार।
12
सावन लाए
पीहर की स्मृतियाँ
जी महकाए।
13
वर्षा संदेसा
‘बिटिया लिवा लाओ
भैया को भेजो।’
-0-

अपने डरे

1
पलटा पासा
दिल के शहर में
बसा सन्नाटा।
2
मजमे- मेले
तन्हाइयों के आज
लगे हैं ठेले।
3
अपने डरे
निठुर अवसाद
कौन आ हरे।
4
बिना जंजीर
वक़्त ने बाँधे पाँव
खींच लकीर।
5
वक़्त की शान
डरा सहमा आज
हर इंसान।
6
साँसों को साध
बाँच रही ज़िंदगी
कैसा ये पाठ।
7
ख़ुद ही छली
नंगे पाँव काँच पे
ज़िंदगी चली।
8
बंद संसार
जुड़े यूँ परिवार
ज्यों कारागार।
9
औंधा संसार
बदल गई धार
टूटा आधार।
10
गर्व हौसला
पल में प्रकृति ने
किया खोखला।
11
ढूँढें किनारे
मन की झील तैरे
शंका शिकारे।
12
अदृश्य चाँटा
जड़ा है गाल पर
छाया सन्नाटा।
-0-

खुशियों के जुगनू 

1
कैसा सितम
किया आज वक़्त ने
फिरें ढूँढते
दिल की खुशियों की
हम सब वजह।
2
रोतीं चाहतें
दिलों के दरम्यान
कौन दे रहा
फासलों का पहरा
तड़पते किनारे।
3
कैसे बुझाए
खुशियों के जुगनू
उदासियों की
घिर आईं घटाएँ
मरे बाँसुरी सुर।
4
मन बंजारा
बेचैन भटकता
फिरे आवारा
खोजे तेरी प्रीत को
मिल जाए दोबारा।
5
जेठ की धूप
ठहरी जीवन में
देती आघात
ढूँढ रही ज़िंदगी
बरगद की छाँव।
6
लगी माँगने
मुसकानों का कर्ज़
क्यों ज़िंदगानी
छीन कर वसंत
क्यों दे गई वीरानी।

मिटे संस्कार 

1
भाई से भाई
ना रिश्ता कोई स्थायी
नफ़रत की
माचिस लिये हाथ
स्वयं लगाई आग।
2
मिटे संस्कार
मरा आपसी प्यार
निज आँगन
करके तक़सीम
करें द्वेष व्यापार।
3
कहते हवा
बदली ज़माने की
किसके माथे
मढ़ेगा कोई दोष
बैठे सब ख़ामोश।
4
आपा-धापी में
हड़बड़ाई फिरें
ज़िंदगानियाँ
भूले हैं अपनापा
मन में दु:ख व्यापा।
5
वक़्त निकाल
कर लो स्वजनों से
दो मीठी बात
रहेगा मलाल जो
टँग गए दीवाल।
6
जंगल -बस्ती
घेरे हैं उलझनें
बाँटो दिलासा
मर न जाए कोई
कहीं यूँ बेबसी से।
7
शाह -नवाब
तख़्त रहे न ताज
दंभ क्यों सींचे
आज माटी ऊपर
औ कल होंगे नीचे।
8
रखा संदेह
रूठे रहे हमसे
रूह छूटेगी
क़फ़न उठाकर
रो-रो करोगे बातें।
9
रिश्ते में मोच
मलाल की खोह में
जा बैठे सोच
अमावसी रातें हों
उदासियों के डेरे।
10
रहनुमाई
सौंपी जिन्हें हमने
जले हैं घर
उन्हीं की साजिशों से
कैसे थे मनसूबे!

ज़िंदगी क्या है?

1
थोड़ी रंगीन
है थोड़ी- सी रुमानी
ज़िंदगी क्या है?
अनूठा- सा गणित
है प्यार की कहानी।
2
ऊँची-नीची -सी
हैं पथरीली राहें
कैसे बताएँ
बहते दरिया की
है ये कोई रवानी।
3
कर्मों से बँधी
मूल्यों में ढली हुई
वंश- निशानी
भोली कुछ नादाँ-सी
है थोड़ी -सी सयानी।
4
बड़ी कठिन
ज़िंदगी की किताब
पढ़ें तो कैसे
पल-पल बदलती
ये अपने मिज़ाज।
5
बची न वफ़ा
रिश्तों की बेदर्दी से
रोई ज़िंदगी
बाकी अब जीने का
दस्तूर है निभाना।

इतनी चाह

1
तरसा मन
करूँ तुमसे बातें
रूठा क्यूँ रिश्ता
दहके दिन मेरे
जलती रहीं रातें।
2
दे देते यदि
अँजुरी भर प्यार
जी लेते हम
पतझर ऋतु में
बनकर बहार।
3
सिर्फ अपना
प्यार तो समर्पण
ढूँढे क्यों ख़ता
बन जा तू क़ाबिल
बेकार ना आज़मा।
4
यूँ ना तड़पा
और चुप रहके
न पीड़ा बढ़ा
कह ग़म अपने
हर लूँ मैं अँधेरे।
5
हुआ बेरंग
जीवन बिन तेरे
टूटी है आस
पनघट पे बैठी
रही प्यासी ही प्यास।
6
इतनी चाह-
फूलें -फलें संबंध
सच्ची हो वफ़ा
आए नहीं दरार
पलता रहे प्यार।
7
तुम क्या मिले
बने शूल राहों के
फूलों के गुंचे
राहें हुईं आसान
सुख मेहरबान।

लम्पट काल

1
लम्पट काल
झूठ का बोल-बाला
झूठ का सुर ताल
झूठ आयाम
झूठ का गुनगान
सत्य हुआ अनाम।
2
बेपरवाह
रहता अनगढ़
होता ख़ूबसूरत
सज्जित हुआ
घिरा दिखावे में औ
जीवन हुआ ध्वस्त।
3
ढलान पर
पग हों नियंत्रित
पथ चढ़ाइयों के
करें स्वागत
पार्थ बनना सीख
वक़्त के सारथी का।
3
कैसी भी पीर
अपनी या पराई
नहीं कोई अंतर
धूप-छाँव का
है जुदा विभाजन
सबकी ज़िंदगी का।
4
दुनिया है ये
साहिल न सहारा
ना ही कोई किनारा
हैं तन्हाइयाँ
मरी यहाँ रौनकें
केवल रुसवाइयाँ।
5
बाँटते रहे
समझ कर प्यार
ये खुशीयाँ उधार
लौटाया नहीं
जब तूने उधार
मरा दिल घाटे से।
6
बुनी चाहतें
पिरोते रहे ख़्वाब
तुम्हारी दुआओं में
होती शिद्दत
पाते प्रेम, रहती
ना ख़ाली फरियाद।
7
दोनों अदृश्य
प्रार्थना औ विश्वास
अजब अहसास
असंभव को
संभव करने की
क्षमता बेहिसाब।
8
पीड़ा क्या हास
कटा करवटों में
उम्र का बनवास
नित आँसुओं
ने लिखा चेहरे पे
नूतन इतिहास।
9
फुर्सत मिले
तो पढ़ लेना कभी
पानी की तहरीरें
हज़ारों साल
पुराने अफ़साने
हैं हर दरिया के।

अँधियारी राहें 

10
करते रहें
नेकियाँ दिन-रात
नेकियों के चिराग़
रौशनी देंगे
आने वाले वक़्त की
अँधियारी राहों को।
11
सीखो जीने का
हुनर कलम से
अपनी हर बूँद
ख़र्च करती
औरों के जीवन को
सवाया बनाने में।
12
बन न पाई
छाँव कभी ज़िंदगी
शहतूत-सी ठंडी
चुभती रही
बबूल- सी, रेत सी
किरकिराती रही।
13
दमन करो
नफ़रत का प्यारे
छोड़ो द्वेष लड़ाई
मन देहरी
धरो दीप नेह का
हर्षेंगे रघुराई।
14
रखती नहीं
हवा कभी हिसाब
कितने छाले पाँव
साँस बाँटती
फिरे शहर भर
गली-गली औ गाँव।
15
लफ्ज़ों का होता
अपना ही संसार
कुछ बनें रक्षक
कुछ करते
ग़ुलामी, कुछ प्यार
कुछ केवल वार।
16
अपने जाये
हुए जब पराये
विवश ताल-तट
डूबीं इच्छाएँ
अजब दुख झेले
रह गए अकेले।
17
भाग रही है
ये सुख भोगी देह
कर क़दमताल
हाँफता हुआ
चल रहा बेबस
पीछे बावरा मन।
18
बैठते तुम
जो बुज़ुर्गों के पास
तो मिलता तज़ुर्बा
चंद लम्हों में
अद्भुत व अनोखा
बचता भटकाव।

क़ायनात बेहाल

19
प्रत्येक भीड़
कुम्भ का मेला नहीं
भीड़ भेड़ क्या फ़र्क
देख कूदना
कौन जाने किधर
हाँक दे गडरिया।
20
दृढ़ संकल्प
जाग्रत मनोवांछा
तभी लक्ष्य हो प्राप्त
खड़े पानी में
कश्तियाँ तैराने से
मिले कब किनारे।
21
नई उम्रों की
देख ख़ुदमुख्तारी
रुष्ट हो गए राम
कतरे पर,
ताले उड़ान पर
लो भुगतो अंजाम।
22
कोरोना काल
निगलता बंदों को
क़ायनात बेहाल
मन हैरान
आलमी अज़ाब का
कैसे होगा निदान!
23
टोह न चाप
भोंका कोरोना का
खंज़र चुपचाप
मिले सबक़
मूरख बंदे तुझे
चली वक़्त ने चाल।
24
बाँधा स्त्री को
सीमित कीं सीमाएँ
तुम कैसे अंजान
परिधि-घिरी
अविरल विशाल
छोड़ो बुनना जाल।
25
सब्ज़ पत्तों पे
मौसम का क़हर
ज़र्द दोपहरियाँ
तपे पहर
पी रहीं उदासियाँ
जुदाई का ज़हर।
26
अंजाम नहीं
होता बेक़रारी का
फिर भी बेक़रार
इंसाँ बहता
अपनी रवानी में
दरिया रवानी-सा।

आँखों में बरसातें

27
सह न पाया
तुमसे मिली ईर्ष्या
नफ़रत दुत्कार,
लौटा रहा हूँ-
शब्दों में पिरोकर
लय-तुक के साथ।
28
होती नहीं यूँ
लगती है ज़िंदगी
दूर से ही हसीन
होंठों पे हँसी
आदमक़द दर्द
सीने में हैं आसीन।
29
वक़्त का शाप
दफ़न हैं रौनकें
बर्फ़ हुए जज़्बात
कोरों पे खड़े
गूँगे आँसू कहते-
दर्द किसे बताएँ?
30
नींद बेज़ार
बैठी सोच आँखों में
दिल हुआ अज़ार
कैसा सजाती
हमारी ख़ुदगर्ज़ियाँ
ये मौत का बाज़ार
31
करवटों में
चुभती बीती बातें
सोने नहीं देती हैं
छाया सन्नाटा
फटे दिल का आसमाँ
आँखों में बरसातें।
32
तत्पर रहा
बनने के फेर में
मचा दिया अँधेर
जम के मिटा
फेंटा जब वक़्त ने
ख़्वाहिशें हुईं ढेर
22
ख़ाली हैं खीसे
छाई हैं उदासियाँ
ग़ुरबतों का दौर
सिक्के टटोलें
हाथ देख जेब में
उँगलियों के पोर।
34
आसमान की
करो न कभी हद
भले कहे दुश्मन
विचार करो-
बात हो पते की तो
कभी न करो रद्द।

जानते तो हो

Krishna-verma-kavitakosh.jpg

सुनो बिटिया

समझ लो एक बात बिटिया
यह जो जीवन है निरा नाटक है
खो मत जाना इसकी चमक में
और न ही फिसलना किसी मुस्कान पर
मुस्कान के पीछे का छल
लूट लेगा बातों-बातों में
और तुम जड़वत् हुई
मलती रह जाओगी हाथ
बिना परखे, बिना सोचे-समझे
कोई वादा न कर बैठना किसी से
बड़ी अलहदा होती हैं
कमसिन उम्र की राहें
बेसाख़्ता चल पड़ते हैं उन पर पाँव
न चाहकर भी
कोई धकेल देता है उस ओर
बस फिसलने से बचना बिटिया
वरना ख़ुद ही भुगतना होगा ताउम्र
कोई दूजा न होगा तुम्हारी ख़ातिर बेचैन
कोई न छाँटेगा सूर्य -रश्मियाँ बन
तुम्हारा कुहासा
कोसती रह जाओगी ख़ुद को
समेटे नहीं सिमटेगी अपनी छटपटाहट
पकड़ नहीं पाओगी काल को मुठ्ठियों में
और हाँ तुम्हारे विश्वास से परे
कोई आकर नहीं सहलाएगा तुम्हारा दुख
उलीच नहीं पाओगी दूर कहीं
मस्तिष्क की घनघनाहट
देखो यह जीवन है
फूँक-फूँक कर रखना क़दम
हौले-हौले दूर तक तौलना निगाहों से
तब उगाना अपना सूरज
अपने भरोसे की हथेली पर।

अभ्यास 

जन्मों से उठाए फिरती हूँ
सौम्यता का बोझ
तभी तो इतनी लचीली है मेरी रीढ़
और कमाल है जज़्ब की शक्ति
समंदर है मेरे भीतर
जिसके तल पर जमा है
संपदा दुख-सुख की
पूछते हो कैसे समा लेती हूँ सब
जी जन्म से अभ्यास जो कर रही हूँ
और आज भी ज़ारी है
पर यूँ न समझ लेना रिक्त हूँ शक्तियों से
मुझमें भी हैं शोले हाँ ये अलग बात है कि
दबा के रखे हैं मुठ्ठियों में
धुँआँ उठता है उनमें भी
पर रोक लेती हूँ भड़कने से
मुझमें भी निहित है पशु
जो निरंतर रहता है चैतन्य
इसीलिए तो बुनती हूँ प्रतिदिन नया कलेवर
चाहती हूँ गिरा रहे परदा बना रहे रोमांच
जानती हूँ हवा दी शोलों को तो
शून्य हो जाओगे तुम
तभी तो बनाए हुए हूँ अभ्यास का अभियान
नहीं चाहती फिर गढ़ा जाए नया इतिहास
लिखे जाएँ सफे तुम्हारी तबाही के
मेरी सोच की शुचिता ही तो
बनाए हुए है तुम्हारा पौरुष
वरना कब का पराजित हो चुका होता
तुम्हारा अहं मेरे अहं से।

गर्म हवाएँ 

कलयुग की काली छाया में
अंधी हुईं हवाएँ
रिश्ते-नाते शेष हो गए
रंग लहू के श्वेत हो गए
घर हो गए सराय
मायावी है समय छली
सूझ-बूझ न एक चली
ख़ाक हुए दिन आने वाले
आदिम तम घिरा गली-गली
घुला विषैला क़ायनात में
कोमल सांसें काठ हो गईं
चिंता का चिंतन रहे चलता
आशाएं बेआस हो गईं
कौन सुने अब किसको रोएं
रात-दिवस बोझिल मन ढोएं
शापित जीवन किया काल ने
सिसक मरीं सब याचनाएँ।

कविता

कविता वह हथियार
बहे ना ख़ून जीत ले जंग
कविता वह उपहार
मिटा दे दिल से दिल के द्वंद्व
कविता वह विश्वास
जला दे अंधकार में दीप
कविता वह प्रयास
बिना सागर हो मोती सीप
कविता वह आधार
दरकने दे ना दिल का प्यार
कविता वह पतवार
डोलती नैया लग जाए पार
कविता वह उद्घोष
उड़ाए बड़े बड़ों के होश
कविता आशुतोष
भटकते दिल पाएं संतोष
कविता पहरेदार
चौकसी करती जो लगातार
कविता कहे उतार
जो तेरे जीवन का व्यवहार
कविता वह मशाल
दिखाए पल में राह सुजान
कविता ऐसा बाना
करे स्याह को झट सूफियाना
कहो न इसको फिक़राबंदी
कविता शब्दों का सम्मेलन।

कैसे कर सकते हो तुम ?

कैसे कर सकते हो तुम
अचानक यूँ बेदख़ल
मेरे वजूद को
अपने प्यार के
कोसे अहसास से ।

समय-असमय
पहरों बाँटे दुख-सुख से
कैसे छोड़ सकते हो
मेरी मौजूदगी को
तन्हाई की कड़क धूप में
अकेला तपने के लिए।

कैसे तज सकते हो
मेरी सत्ता को
घुट कर सिकुड़ जाने को
उदासी की बर्फबारी में।

इतना भी ना सोचा
कि तुम्हारी इस बेरुख़ी से
कैसे पसर जाएगी
अनिश्चितता की धुंध मेरे चारों ओर
और खड़ा रह जाएगा मेरा वजूद
रास्ते पर लगे साइन बोर्ड सा।

ज़रा सा भी ख़्याल ना आया तुम्हें
मेरे पैरों तले की ज़मीन को खिसकाते
किंचित भी मोह ने नहीं झिंझोड़ा तुम्हें
मेरे सर से आकाश को ढलकाते
क्यूँ तनिक भी फिक्र ना हुई तुम्हें मेरी
किसी शून्य में खो जाने की।

देखना ढूँढते रह जाओगे तुम भी
जब लीन हो जाऊँगी मैं
अपनी ही नदी की लहरों में
गुम हो जाऊँगी
अपने आकाश की विभुता
और अपने ही ओसांक में।

क्रियाहीन हो जाएगा जब
तुम्हारे अह्म का सैलाब
तो
ढूँढेगा तुम्हारा बेकल होश
मेरे होने को।

तुम्हारे बिन 

किए जतन मन बहलाने को
मिले ना कोई बहाने
अधरों की हड़ताल देख कर
सिकुड़ गईं मुस्कानें।
मन का शहर रहा करता था
जगमग प्रीतम तुमसे
बिखरा गया सब टूट-टूटकर
चले गए तुम जब से।
चुहल मरा भटकी अठखेली
गुमसुम हुई अकेली
हंसता खिलता जीवन पल में
बन गया एक पहेली।
सिमट गया मन तुझ यादों संग
हृदय कहाँ फैलाऊँ
कहो तुम्हारे बिन कैसे
विस्तार नया मैं पाऊँ।

मर्यादा

कितनी सहजता से
कह दिया सखी तूने
तोड़ देती उस रिश्ते को
तू बँधती इस बंधन में
तो जान पाती
आसान नहीं होता
मर्यादा की गिरहों को खोलना ।
दबानी पड़ती है चाहतें
दायित्व की चट्टान तले
ख़्वाहिशों को मार कर
होंठों की लरजन पर
उगानी पड़ती है हँसी
और गुनगुनानी पड़ती है पीड़ा
प्रेम गीतों की तर्ज़ में
खारी लहरों को मोड़ना पड़ता है
भीतरी समंदर में
सींचना पड़ता है शब्दों को
आँखों की नमी से
खुशी का भ्रम बनाए रखने को
स्याह मन की कालिख़
सजानी होती है डोरों पर
मांग में सिंदूर
माथे पर दिपदिपाता कुमकुम
और हथेलियों पर मेंहदी की महक
सजाए रहना पड़ता है
खोखले रिश्ते को ठोस
दिखाने के लिए
अपनाए बिना अपनाने के ढोंग का
कदम दर कदम तय करना पड़ता है
सफ़र हमसफ़र के संग
दबाने पड़ते हैं तूफान
भीतर ही भीतर बरस के
आसान नहीं होता खोलना
गठबंधन की गाँठ को
रोक लेती है रिश्तों की मर्यादा
चौखट के भीतर
सिमट के रह जाते है कदम
समाजिक खड़िया से खिंची
लक्षमण रेखा के पीछे
सरल नहीं होता सखी
एक औरत होना।

क्यों न बाबा ?

क्यों न भैया- सा मुझको
बाबा तुमने पाला
उसके जीवन भरी रोशनी
मुझे न तनिक उजाला
माखन मिश्री दूध मलाई
न लाड़-प्यार मनुहार
जन्मदिवस भी आम दिवस से
बीते बिन उपहार
न मेले ठेले न स्कूल
न काँधों पे बस्ता
मैं भी तो हूँ अंश तुम्हारा
क्यों न दी फिर समता
कोमल मन मेरा कभी न झाँका
होंद मेरी को तुमने केवल
इक आफ़त सा आँका
वंश रखेगा जीवित भैया
देगा तुम्हें सहारा
इसीलिए घी मक्खन से तर
पोसो उसे निवाला
देकर तो देखा होता मुझको भी
बस मुठ्ठी भर प्यार
मुझसे भी ज़रा जोड़ देखते
भैया वाली तार
रक्त वसा मज्जा मेरी हड्डियाँ
तेरा ही उपहार
मुझ कांधों में भी तेरा पौरुष
ढो लेते समभार
काहे दिया न बाबा मुझको
भैया -सा सम्मान
मेरे जन्मते सोच लिया बस
यह तो पर सामान
मैं भी तो तेरे जीवन का
हूँ अमोल इक हिस्सा
पर हाथों में सौंपने का फिर
कौन गढ़ गया किस्सा
तुम भैया सा थाम लेते जो
बढ़कर मेरा हाथ
टिके न होते ठोस ज़मी पे
तनुजा के थरथरे पाँव
भैया वाले फ्रेम में मढ़ लेते
जो मेरी भी तस्वीर
बदल न जाती क्या बाबुल
तेरी बिटिया की तकदीर।

कह दो न इक बार 

ज़रा सोचो तो
तुम्हारी ज़िद के चलते
इस रूठा-रूठी के दौर में
जो मैं हो गई धुँआ
तो कसम ख़ुदा की
छटपटाते रह जाओगे
क्षमा के बोल कहने को
लिपटकर मेरी मृत देह से
गिड़गिड़ाओगे माफ़ी को
पर अफसोस
चाहकर भी कर न पाऊँगी
तुम्हारी इच्छा को पूरा
नाहक ढह जाएगा तुम्हारा पौरुष
अहं की टूटी खाट पर
और तुम्हारे दुख का कागा
लगातार करेगा काँय-काँय
तुम्हारे मन की मुँड़ेर पर
अनुताप में जलते तुम
जुटा न पाओगे हिम्मत उसे उड़ाने की
मुठ्ठी भर मेरी राख को
सीने से लगाकर
ज़ार-ज़ार रोएगी तुम्हारी ज़िद
और मेरी असमर्थता
पोंछ न पाएगी
तुम्हारे पश्चात्ताप के आँसू
सुनो, समय रहते अना को त्याग
समझा क्यों नहीं लेते अपनी
छुई-मुई हुई ज़ुबान को कि बोल दे
खसखस -सा लघुकाय शब्द
जिसका होठों पर आना भर
मुरझाते रिश्ते को कर देते है
फिर से गुलज़ार
सुनो, कह क्यों नहीं देते इक बार
सॉरी।

मुहब्बत

डाल लिये हैं मैंने
तेरे नाम के पूरने
गाचनी लगी
दिल की कोरी तख़्ती पर
प्रीत का पानी मिलाकर
मथ लिया है
स्याही की टिकिया को
प्रेम गीतों की धुन संग
पीपल की छाँव में बैठ
मुहब्बत की क़लम से
पुख़्ता करने को हर्फ़
उन पर
रोज़ फेरती हूँ उन पर स्याही
दिनों-दिन गहराते जा रहे हैं
तेरे नाम के हिज्जे
ख़्याल रहे
फीका न होने पाए कभी
तेरी बेवफ़ाई से
इनका रंग
देखो, शिद्दत से निभाना
लगी को
छलकी जो कभी मेरी आँख
तो रह जाएगी नम
मेरी क़ब्र की मिट्टी
कैसे सो सकूँगी गहरी नींद
फिर सदियों तक
पुरसुकून ज़मीं के नीचे।

ठिठुरे दिन

1
ठिठुरे दिन
कौन करेगा गर्म
सूरज नर्म।
2
लटका पाला
सूर्य की राह देखे
पंछी बेचारा।
3
शीत प्रकंप
काँपते हाड़-मांस
सिहरे मन।
4
जाड़ा ऊँघता
एक हाथ दूजे को
फिरे ढूँढता।
5
रुत का रंग
पंख फैलाए सर्दी
सिकुड़ें हम।
6
कोहरा जवाँ
सिगरेट न बीड़ी
मुख में धुँआ।
7
सर्दी डराए
चाय वाले खोखे का
स्वामी मुस्काए.
8
सूर्य दहाड़े
दिवस सुनहरी
धुंध दरारें।
9
सूरज आए
धूप के कसोरे में
पंछी नहाएँ।
10
धूप को लादे
चपल गिलहरी
चौगिर्द भागे।
11
धूप के साये
आनन्दित कपोत
पंख फुलाएँ।

-0-

मचलें पाँव 

1
मचलें पाँव
कह रहे मन से
आ चलें गाँव।
2
कहता मन
गाँव रहे न गाँव
केवल भ्रम।
3
ली करवट
शहरीकरण ने
गाँव लापता।
4
मेले न ठेले
न खुशियों के रेले
गर्म हवाएँ।
5
वृक्ष न छाँव
नंगी पगडंडियाँ
जलाएँ पाँव।
6
शहरी ताप
चहुँ ओर विकास
मरा है हास।
7
बदले ग्राम
वाहनों के शोर से
चैन हराम।
8
शहरी हुए
गाँव की यादें अब
आँखों से चुएँ।
9
गाँव बेहाल
शहरी हवाओं ने
लूटा ईमान ।
10
सिर पे भार
लाँघे बीहड़ रास्ते
गाँव की नार ।

तुम जो मिले 

1
पत्तियाँ स्पंदी
चाँदनी का कम्पन
हरता मन।
2
अमर होती
मर के घास बुने
चिड़िया नीड़।
3
साहसी घास
डाले न हथियार
जमाए जड़ें।
4
कितना मरे
हरी हो मुसकाए
जीवट घास।
5
आँधी–तूफान
ज़ब्त न कर पाएँ
दूब– मुस्कान।
6
चर रहा है
पल–पल मुझे क्यों
अंजाना डर।
7
तुम जो मिले
जगी हैं बेचैनियाँ
कहो क्या करें!
8
मचली चाह
कल्पना में पगी है
प्यार की राह।
8
भीग गई मैं
सावन की झड़ी-सी
नेह तुम्हारा।
10
बातें तुम्हारी
घोल गईं साँसों में
ललिता छंद।
11
जलाए मन
सुधियों के अंगारे
सिराए कौन।
12
अपनापन
तनिक न खुशबू
निरा छलावा।

मेघ साँवरे 

1
ऋतुगीत गा
बदरा-बिजुरी ने
ढाया ग़ज़ब।
2
मेघ साँवरे
बरसे जमकर
हँसें फुहारें।
3
मिटी तपन
ओर -छोर डूबके
धरा नहाए ।
4
ठंडी औ भीगी
फर्र-फर्र हवाएँ
प्रीत जगाएँ।
5
गिरीं बौछारें
झुलसी दिशाओं की
देह सँवारें।
6
चहक फिरे
चिरैया आँगन में
पंख भिगोए।
7
बदल गए
रंग आबो-हवा के
स्वप्न हमारे।
8
घटा के पाँव
बजी पाजेब बूँदें
छनछनाईं।
9
भीगी फुहारें,
संग लाया सावन
सोंधे त्योहार।
10
सावन फूले
रक्षाबंधन तीज
मेहँदी झूले।
11
उठे हिलोर
छिड़े पुराने तार
याद झंकार।
12
सावन लाए
पीहर की स्मृतियाँ
जी महकाए।
13
वर्षा संदेसा
‘बिटिया लिवा लाओ
भैया को भेजो।’
-0-

अपने डरे

1
पलटा पासा
दिल के शहर में
बसा सन्नाटा।
2
मजमे- मेले
तन्हाइयों के आज
लगे हैं ठेले।
3
अपने डरे
निठुर अवसाद
कौन आ हरे।
4
बिना जंजीर
वक़्त ने बाँधे पाँव
खींच लकीर।
5
वक़्त की शान
डरा सहमा आज
हर इंसान।
6
साँसों को साध
बाँच रही ज़िंदगी
कैसा ये पाठ।
7
ख़ुद ही छली
नंगे पाँव काँच पे
ज़िंदगी चली।
8
बंद संसार
जुड़े यूँ परिवार
ज्यों कारागार।
9
औंधा संसार
बदल गई धार
टूटा आधार।
10
गर्व हौसला
पल में प्रकृति ने
किया खोखला।
11
ढूँढें किनारे
मन की झील तैरे
शंका शिकारे।
12
अदृश्य चाँटा
जड़ा है गाल पर
छाया सन्नाटा।
-0-

खुशियों के जुगनू 

1
कैसा सितम
किया आज वक़्त ने
फिरें ढूँढते
दिल की खुशियों की
हम सब वजह।
2
रोतीं चाहतें
दिलों के दरम्यान
कौन दे रहा
फासलों का पहरा
तड़पते किनारे।
3
कैसे बुझाए
खुशियों के जुगनू
उदासियों की
घिर आईं घटाएँ
मरे बाँसुरी सुर।
4
मन बंजारा
बेचैन भटकता
फिरे आवारा
खोजे तेरी प्रीत को
मिल जाए दोबारा।
5
जेठ की धूप
ठहरी जीवन में
देती आघात
ढूँढ रही ज़िंदगी
बरगद की छाँव।
6
लगी माँगने
मुसकानों का कर्ज़
क्यों ज़िंदगानी
छीन कर वसंत
क्यों दे गई वीरानी।

मिटे संस्कार 

1
भाई से भाई
ना रिश्ता कोई स्थायी
नफ़रत की
माचिस लिये हाथ
स्वयं लगाई आग।
2
मिटे संस्कार
मरा आपसी प्यार
निज आँगन
करके तक़सीम
करें द्वेष व्यापार।
3
कहते हवा
बदली ज़माने की
किसके माथे
मढ़ेगा कोई दोष
बैठे सब ख़ामोश।
4
आपा-धापी में
हड़बड़ाई फिरें
ज़िंदगानियाँ
भूले हैं अपनापा
मन में दु:ख व्यापा।
5
वक़्त निकाल
कर लो स्वजनों से
दो मीठी बात
रहेगा मलाल जो
टँग गए दीवाल।
6
जंगल -बस्ती
घेरे हैं उलझनें
बाँटो दिलासा
मर न जाए कोई
कहीं यूँ बेबसी से।
7
शाह -नवाब
तख़्त रहे न ताज
दंभ क्यों सींचे
आज माटी ऊपर
औ कल होंगे नीचे।
8
रखा संदेह
रूठे रहे हमसे
रूह छूटेगी
क़फ़न उठाकर
रो-रो करोगे बातें।
9
रिश्ते में मोच
मलाल की खोह में
जा बैठे सोच
अमावसी रातें हों
उदासियों के डेरे।
10
रहनुमाई
सौंपी जिन्हें हमने
जले हैं घर
उन्हीं की साजिशों से
कैसे थे मनसूबे!

ज़िंदगी क्या है?

1
थोड़ी रंगीन
है थोड़ी- सी रुमानी
ज़िंदगी क्या है?
अनूठा- सा गणित
है प्यार की कहानी।
2
ऊँची-नीची -सी
हैं पथरीली राहें
कैसे बताएँ
बहते दरिया की
है ये कोई रवानी।
3
कर्मों से बँधी
मूल्यों में ढली हुई
वंश- निशानी
भोली कुछ नादाँ-सी
है थोड़ी -सी सयानी।
4
बड़ी कठिन
ज़िंदगी की किताब
पढ़ें तो कैसे
पल-पल बदलती
ये अपने मिज़ाज।
5
बची न वफ़ा
रिश्तों की बेदर्दी से
रोई ज़िंदगी
बाकी अब जीने का
दस्तूर है निभाना।

इतनी चाह

1
तरसा मन
करूँ तुमसे बातें
रूठा क्यूँ रिश्ता
दहके दिन मेरे
जलती रहीं रातें।
2
दे देते यदि
अँजुरी भर प्यार
जी लेते हम
पतझर ऋतु में
बनकर बहार।
3
सिर्फ अपना
प्यार तो समर्पण
ढूँढे क्यों ख़ता
बन जा तू क़ाबिल
बेकार ना आज़मा।
4
यूँ ना तड़पा
और चुप रहके
न पीड़ा बढ़ा
कह ग़म अपने
हर लूँ मैं अँधेरे।
5
हुआ बेरंग
जीवन बिन तेरे
टूटी है आस
पनघट पे बैठी
रही प्यासी ही प्यास।
6
इतनी चाह-
फूलें -फलें संबंध
सच्ची हो वफ़ा
आए नहीं दरार
पलता रहे प्यार।
7
तुम क्या मिले
बने शूल राहों के
फूलों के गुंचे
राहें हुईं आसान
सुख मेहरबान।

लम्पट काल

1
लम्पट काल
झूठ का बोल-बाला
झूठ का सुर ताल
झूठ आयाम
झूठ का गुनगान
सत्य हुआ अनाम।
2
बेपरवाह
रहता अनगढ़
होता ख़ूबसूरत
सज्जित हुआ
घिरा दिखावे में औ
जीवन हुआ ध्वस्त।
3
ढलान पर
पग हों नियंत्रित
पथ चढ़ाइयों के
करें स्वागत
पार्थ बनना सीख
वक़्त के सारथी का।
3
कैसी भी पीर
अपनी या पराई
नहीं कोई अंतर
धूप-छाँव का
है जुदा विभाजन
सबकी ज़िंदगी का।
4
दुनिया है ये
साहिल न सहारा
ना ही कोई किनारा
हैं तन्हाइयाँ
मरी यहाँ रौनकें
केवल रुसवाइयाँ।
5
बाँटते रहे
समझ कर प्यार
ये खुशीयाँ उधार
लौटाया नहीं
जब तूने उधार
मरा दिल घाटे से।
6
बुनी चाहतें
पिरोते रहे ख़्वाब
तुम्हारी दुआओं में
होती शिद्दत
पाते प्रेम, रहती
ना ख़ाली फरियाद।
7
दोनों अदृश्य
प्रार्थना औ विश्वास
अजब अहसास
असंभव को
संभव करने की
क्षमता बेहिसाब।
8
पीड़ा क्या हास
कटा करवटों में
उम्र का बनवास
नित आँसुओं
ने लिखा चेहरे पे
नूतन इतिहास।
9
फुर्सत मिले
तो पढ़ लेना कभी
पानी की तहरीरें
हज़ारों साल
पुराने अफ़साने
हैं हर दरिया के।

अँधियारी राहें 

10
करते रहें
नेकियाँ दिन-रात
नेकियों के चिराग़
रौशनी देंगे
आने वाले वक़्त की
अँधियारी राहों को।
11
सीखो जीने का
हुनर कलम से
अपनी हर बूँद
ख़र्च करती
औरों के जीवन को
सवाया बनाने में।
12
बन न पाई
छाँव कभी ज़िंदगी
शहतूत-सी ठंडी
चुभती रही
बबूल- सी, रेत सी
किरकिराती रही।
13
दमन करो
नफ़रत का प्यारे
छोड़ो द्वेष लड़ाई
मन देहरी
धरो दीप नेह का
हर्षेंगे रघुराई।
14
रखती नहीं
हवा कभी हिसाब
कितने छाले पाँव
साँस बाँटती
फिरे शहर भर
गली-गली औ गाँव।
15
लफ्ज़ों का होता
अपना ही संसार
कुछ बनें रक्षक
कुछ करते
ग़ुलामी, कुछ प्यार
कुछ केवल वार।
16
अपने जाये
हुए जब पराये
विवश ताल-तट
डूबीं इच्छाएँ
अजब दुख झेले
रह गए अकेले।
17
भाग रही है
ये सुख भोगी देह
कर क़दमताल
हाँफता हुआ
चल रहा बेबस
पीछे बावरा मन।
18
बैठते तुम
जो बुज़ुर्गों के पास
तो मिलता तज़ुर्बा
चंद लम्हों में
अद्भुत व अनोखा
बचता भटकाव।

क़ायनात बेहाल

19
प्रत्येक भीड़
कुम्भ का मेला नहीं
भीड़ भेड़ क्या फ़र्क
देख कूदना
कौन जाने किधर
हाँक दे गडरिया।
20
दृढ़ संकल्प
जाग्रत मनोवांछा
तभी लक्ष्य हो प्राप्त
खड़े पानी में
कश्तियाँ तैराने से
मिले कब किनारे।
21
नई उम्रों की
देख ख़ुदमुख्तारी
रुष्ट हो गए राम
कतरे पर,
ताले उड़ान पर
लो भुगतो अंजाम।
22
कोरोना काल
निगलता बंदों को
क़ायनात बेहाल
मन हैरान
आलमी अज़ाब का
कैसे होगा निदान!
23
टोह न चाप
भोंका कोरोना का
खंज़र चुपचाप
मिले सबक़
मूरख बंदे तुझे
चली वक़्त ने चाल।
24
बाँधा स्त्री को
सीमित कीं सीमाएँ
तुम कैसे अंजान
परिधि-घिरी
अविरल विशाल
छोड़ो बुनना जाल।
25
सब्ज़ पत्तों पे
मौसम का क़हर
ज़र्द दोपहरियाँ
तपे पहर
पी रहीं उदासियाँ
जुदाई का ज़हर।
26
अंजाम नहीं
होता बेक़रारी का
फिर भी बेक़रार
इंसाँ बहता
अपनी रवानी में
दरिया रवानी-सा।

आँखों में बरसातें

27
सह न पाया
तुमसे मिली ईर्ष्या
नफ़रत दुत्कार,
लौटा रहा हूँ-
शब्दों में पिरोकर
लय-तुक के साथ।
28
होती नहीं यूँ
लगती है ज़िंदगी
दूर से ही हसीन
होंठों पे हँसी
आदमक़द दर्द
सीने में हैं आसीन।
29
वक़्त का शाप
दफ़न हैं रौनकें
बर्फ़ हुए जज़्बात
कोरों पे खड़े
गूँगे आँसू कहते-
दर्द किसे बताएँ?
30
नींद बेज़ार
बैठी सोच आँखों में
दिल हुआ अज़ार
कैसा सजाती
हमारी ख़ुदगर्ज़ियाँ
ये मौत का बाज़ार
31
करवटों में
चुभती बीती बातें
सोने नहीं देती हैं
छाया सन्नाटा
फटे दिल का आसमाँ
आँखों में बरसातें।
32
तत्पर रहा
बनने के फेर में
मचा दिया अँधेर
जम के मिटा
फेंटा जब वक़्त ने
ख़्वाहिशें हुईं ढेर
22
ख़ाली हैं खीसे
छाई हैं उदासियाँ
ग़ुरबतों का दौर
सिक्के टटोलें
हाथ देख जेब में
उँगलियों के पोर।
34
आसमान की
करो न कभी हद
भले कहे दुश्मन
विचार करो-
बात हो पते की तो
कभी न करो रद्द।

जानते तो हो

Krishna-verma-kavitakosh.jpg

सुनो बिटिया

समझ लो एक बात बिटिया
यह जो जीवन है निरा नाटक है
खो मत जाना इसकी चमक में
और न ही फिसलना किसी मुस्कान पर
मुस्कान के पीछे का छल
लूट लेगा बातों-बातों में
और तुम जड़वत् हुई
मलती रह जाओगी हाथ
बिना परखे, बिना सोचे-समझे
कोई वादा न कर बैठना किसी से
बड़ी अलहदा होती हैं
कमसिन उम्र की राहें
बेसाख़्ता चल पड़ते हैं उन पर पाँव
न चाहकर भी
कोई धकेल देता है उस ओर
बस फिसलने से बचना बिटिया
वरना ख़ुद ही भुगतना होगा ताउम्र
कोई दूजा न होगा तुम्हारी ख़ातिर बेचैन
कोई न छाँटेगा सूर्य -रश्मियाँ बन
तुम्हारा कुहासा
कोसती रह जाओगी ख़ुद को
समेटे नहीं सिमटेगी अपनी छटपटाहट
पकड़ नहीं पाओगी काल को मुठ्ठियों में
और हाँ तुम्हारे विश्वास से परे
कोई आकर नहीं सहलाएगा तुम्हारा दुख
उलीच नहीं पाओगी दूर कहीं
मस्तिष्क की घनघनाहट
देखो यह जीवन है
फूँक-फूँक कर रखना क़दम
हौले-हौले दूर तक तौलना निगाहों से
तब उगाना अपना सूरज
अपने भरोसे की हथेली पर।

अभ्यास 

जन्मों से उठाए फिरती हूँ
सौम्यता का बोझ
तभी तो इतनी लचीली है मेरी रीढ़
और कमाल है जज़्ब की शक्ति
समंदर है मेरे भीतर
जिसके तल पर जमा है
संपदा दुख-सुख की
पूछते हो कैसे समा लेती हूँ सब
जी जन्म से अभ्यास जो कर रही हूँ
और आज भी ज़ारी है
पर यूँ न समझ लेना रिक्त हूँ शक्तियों से
मुझमें भी हैं शोले हाँ ये अलग बात है कि
दबा के रखे हैं मुठ्ठियों में
धुँआँ उठता है उनमें भी
पर रोक लेती हूँ भड़कने से
मुझमें भी निहित है पशु
जो निरंतर रहता है चैतन्य
इसीलिए तो बुनती हूँ प्रतिदिन नया कलेवर
चाहती हूँ गिरा रहे परदा बना रहे रोमांच
जानती हूँ हवा दी शोलों को तो
शून्य हो जाओगे तुम
तभी तो बनाए हुए हूँ अभ्यास का अभियान
नहीं चाहती फिर गढ़ा जाए नया इतिहास
लिखे जाएँ सफे तुम्हारी तबाही के
मेरी सोच की शुचिता ही तो
बनाए हुए है तुम्हारा पौरुष
वरना कब का पराजित हो चुका होता
तुम्हारा अहं मेरे अहं से।

गर्म हवाएँ 

कलयुग की काली छाया में
अंधी हुईं हवाएँ
रिश्ते-नाते शेष हो गए
रंग लहू के श्वेत हो गए
घर हो गए सराय
मायावी है समय छली
सूझ-बूझ न एक चली
ख़ाक हुए दिन आने वाले
आदिम तम घिरा गली-गली
घुला विषैला क़ायनात में
कोमल सांसें काठ हो गईं
चिंता का चिंतन रहे चलता
आशाएं बेआस हो गईं
कौन सुने अब किसको रोएं
रात-दिवस बोझिल मन ढोएं
शापित जीवन किया काल ने
सिसक मरीं सब याचनाएँ।

कविता

कविता वह हथियार
बहे ना ख़ून जीत ले जंग
कविता वह उपहार
मिटा दे दिल से दिल के द्वंद्व
कविता वह विश्वास
जला दे अंधकार में दीप
कविता वह प्रयास
बिना सागर हो मोती सीप
कविता वह आधार
दरकने दे ना दिल का प्यार
कविता वह पतवार
डोलती नैया लग जाए पार
कविता वह उद्घोष
उड़ाए बड़े बड़ों के होश
कविता आशुतोष
भटकते दिल पाएं संतोष
कविता पहरेदार
चौकसी करती जो लगातार
कविता कहे उतार
जो तेरे जीवन का व्यवहार
कविता वह मशाल
दिखाए पल में राह सुजान
कविता ऐसा बाना
करे स्याह को झट सूफियाना
कहो न इसको फिक़राबंदी
कविता शब्दों का सम्मेलन।

कैसे कर सकते हो तुम ?

कैसे कर सकते हो तुम
अचानक यूँ बेदख़ल
मेरे वजूद को
अपने प्यार के
कोसे अहसास से ।

समय-असमय
पहरों बाँटे दुख-सुख से
कैसे छोड़ सकते हो
मेरी मौजूदगी को
तन्हाई की कड़क धूप में
अकेला तपने के लिए।

कैसे तज सकते हो
मेरी सत्ता को
घुट कर सिकुड़ जाने को
उदासी की बर्फबारी में।

इतना भी ना सोचा
कि तुम्हारी इस बेरुख़ी से
कैसे पसर जाएगी
अनिश्चितता की धुंध मेरे चारों ओर
और खड़ा रह जाएगा मेरा वजूद
रास्ते पर लगे साइन बोर्ड सा।

ज़रा सा भी ख़्याल ना आया तुम्हें
मेरे पैरों तले की ज़मीन को खिसकाते
किंचित भी मोह ने नहीं झिंझोड़ा तुम्हें
मेरे सर से आकाश को ढलकाते
क्यूँ तनिक भी फिक्र ना हुई तुम्हें मेरी
किसी शून्य में खो जाने की।

देखना ढूँढते रह जाओगे तुम भी
जब लीन हो जाऊँगी मैं
अपनी ही नदी की लहरों में
गुम हो जाऊँगी
अपने आकाश की विभुता
और अपने ही ओसांक में।

क्रियाहीन हो जाएगा जब
तुम्हारे अह्म का सैलाब
तो
ढूँढेगा तुम्हारा बेकल होश
मेरे होने को।

तुम्हारे बिन 

किए जतन मन बहलाने को
मिले ना कोई बहाने
अधरों की हड़ताल देख कर
सिकुड़ गईं मुस्कानें।
मन का शहर रहा करता था
जगमग प्रीतम तुमसे
बिखरा गया सब टूट-टूटकर
चले गए तुम जब से।
चुहल मरा भटकी अठखेली
गुमसुम हुई अकेली
हंसता खिलता जीवन पल में
बन गया एक पहेली।
सिमट गया मन तुझ यादों संग
हृदय कहाँ फैलाऊँ
कहो तुम्हारे बिन कैसे
विस्तार नया मैं पाऊँ।

मर्यादा

कितनी सहजता से
कह दिया सखी तूने
तोड़ देती उस रिश्ते को
तू बँधती इस बंधन में
तो जान पाती
आसान नहीं होता
मर्यादा की गिरहों को खोलना ।
दबानी पड़ती है चाहतें
दायित्व की चट्टान तले
ख़्वाहिशों को मार कर
होंठों की लरजन पर
उगानी पड़ती है हँसी
और गुनगुनानी पड़ती है पीड़ा
प्रेम गीतों की तर्ज़ में
खारी लहरों को मोड़ना पड़ता है
भीतरी समंदर में
सींचना पड़ता है शब्दों को
आँखों की नमी से
खुशी का भ्रम बनाए रखने को
स्याह मन की कालिख़
सजानी होती है डोरों पर
मांग में सिंदूर
माथे पर दिपदिपाता कुमकुम
और हथेलियों पर मेंहदी की महक
सजाए रहना पड़ता है
खोखले रिश्ते को ठोस
दिखाने के लिए
अपनाए बिना अपनाने के ढोंग का
कदम दर कदम तय करना पड़ता है
सफ़र हमसफ़र के संग
दबाने पड़ते हैं तूफान
भीतर ही भीतर बरस के
आसान नहीं होता खोलना
गठबंधन की गाँठ को
रोक लेती है रिश्तों की मर्यादा
चौखट के भीतर
सिमट के रह जाते है कदम
समाजिक खड़िया से खिंची
लक्षमण रेखा के पीछे
सरल नहीं होता सखी
एक औरत होना।

क्यों न बाबा ?

क्यों न भैया- सा मुझको
बाबा तुमने पाला
उसके जीवन भरी रोशनी
मुझे न तनिक उजाला
माखन मिश्री दूध मलाई
न लाड़-प्यार मनुहार
जन्मदिवस भी आम दिवस से
बीते बिन उपहार
न मेले ठेले न स्कूल
न काँधों पे बस्ता
मैं भी तो हूँ अंश तुम्हारा
क्यों न दी फिर समता
कोमल मन मेरा कभी न झाँका
होंद मेरी को तुमने केवल
इक आफ़त सा आँका
वंश रखेगा जीवित भैया
देगा तुम्हें सहारा
इसीलिए घी मक्खन से तर
पोसो उसे निवाला
देकर तो देखा होता मुझको भी
बस मुठ्ठी भर प्यार
मुझसे भी ज़रा जोड़ देखते
भैया वाली तार
रक्त वसा मज्जा मेरी हड्डियाँ
तेरा ही उपहार
मुझ कांधों में भी तेरा पौरुष
ढो लेते समभार
काहे दिया न बाबा मुझको
भैया -सा सम्मान
मेरे जन्मते सोच लिया बस
यह तो पर सामान
मैं भी तो तेरे जीवन का
हूँ अमोल इक हिस्सा
पर हाथों में सौंपने का फिर
कौन गढ़ गया किस्सा
तुम भैया सा थाम लेते जो
बढ़कर मेरा हाथ
टिके न होते ठोस ज़मी पे
तनुजा के थरथरे पाँव
भैया वाले फ्रेम में मढ़ लेते
जो मेरी भी तस्वीर
बदल न जाती क्या बाबुल
तेरी बिटिया की तकदीर।

कह दो न इक बार 

ज़रा सोचो तो
तुम्हारी ज़िद के चलते
इस रूठा-रूठी के दौर में
जो मैं हो गई धुँआ
तो कसम ख़ुदा की
छटपटाते रह जाओगे
क्षमा के बोल कहने को
लिपटकर मेरी मृत देह से
गिड़गिड़ाओगे माफ़ी को
पर अफसोस
चाहकर भी कर न पाऊँगी
तुम्हारी इच्छा को पूरा
नाहक ढह जाएगा तुम्हारा पौरुष
अहं की टूटी खाट पर
और तुम्हारे दुख का कागा
लगातार करेगा काँय-काँय
तुम्हारे मन की मुँड़ेर पर
अनुताप में जलते तुम
जुटा न पाओगे हिम्मत उसे उड़ाने की
मुठ्ठी भर मेरी राख को
सीने से लगाकर
ज़ार-ज़ार रोएगी तुम्हारी ज़िद
और मेरी असमर्थता
पोंछ न पाएगी
तुम्हारे पश्चात्ताप के आँसू
सुनो, समय रहते अना को त्याग
समझा क्यों नहीं लेते अपनी
छुई-मुई हुई ज़ुबान को कि बोल दे
खसखस -सा लघुकाय शब्द
जिसका होठों पर आना भर
मुरझाते रिश्ते को कर देते है
फिर से गुलज़ार
सुनो, कह क्यों नहीं देते इक बार
सॉरी।

मुहब्बत

डाल लिये हैं मैंने
तेरे नाम के पूरने
गाचनी लगी
दिल की कोरी तख़्ती पर
प्रीत का पानी मिलाकर
मथ लिया है
स्याही की टिकिया को
प्रेम गीतों की धुन संग
पीपल की छाँव में बैठ
मुहब्बत की क़लम से
पुख़्ता करने को हर्फ़
उन पर
रोज़ फेरती हूँ उन पर स्याही
दिनों-दिन गहराते जा रहे हैं
तेरे नाम के हिज्जे
ख़्याल रहे
फीका न होने पाए कभी
तेरी बेवफ़ाई से
इनका रंग
देखो, शिद्दत से निभाना
लगी को
छलकी जो कभी मेरी आँख
तो रह जाएगी नम
मेरी क़ब्र की मिट्टी
कैसे सो सकूँगी गहरी नींद
फिर सदियों तक
पुरसुकून ज़मीं के नीचे।

ठिठुरे दिन

1
ठिठुरे दिन
कौन करेगा गर्म
सूरज नर्म।
2
लटका पाला
सूर्य की राह देखे
पंछी बेचारा।
3
शीत प्रकंप
काँपते हाड़-मांस
सिहरे मन।
4
जाड़ा ऊँघता
एक हाथ दूजे को
फिरे ढूँढता।
5
रुत का रंग
पंख फैलाए सर्दी
सिकुड़ें हम।
6
कोहरा जवाँ
सिगरेट न बीड़ी
मुख में धुँआ।
7
सर्दी डराए
चाय वाले खोखे का
स्वामी मुस्काए.
8
सूर्य दहाड़े
दिवस सुनहरी
धुंध दरारें।
9
सूरज आए
धूप के कसोरे में
पंछी नहाएँ।
10
धूप को लादे
चपल गिलहरी
चौगिर्द भागे।
11
धूप के साये
आनन्दित कपोत
पंख फुलाएँ।

-0-

मचलें पाँव 

1
मचलें पाँव
कह रहे मन से
आ चलें गाँव।
2
कहता मन
गाँव रहे न गाँव
केवल भ्रम।
3
ली करवट
शहरीकरण ने
गाँव लापता।
4
मेले न ठेले
न खुशियों के रेले
गर्म हवाएँ।
5
वृक्ष न छाँव
नंगी पगडंडियाँ
जलाएँ पाँव।
6
शहरी ताप
चहुँ ओर विकास
मरा है हास।
7
बदले ग्राम
वाहनों के शोर से
चैन हराम।
8
शहरी हुए
गाँव की यादें अब
आँखों से चुएँ।
9
गाँव बेहाल
शहरी हवाओं ने
लूटा ईमान ।
10
सिर पे भार
लाँघे बीहड़ रास्ते
गाँव की नार ।

तुम जो मिले 

1
पत्तियाँ स्पंदी
चाँदनी का कम्पन
हरता मन।
2
अमर होती
मर के घास बुने
चिड़िया नीड़।
3
साहसी घास
डाले न हथियार
जमाए जड़ें।
4
कितना मरे
हरी हो मुसकाए
जीवट घास।
5
आँधी–तूफान
ज़ब्त न कर पाएँ
दूब– मुस्कान।
6
चर रहा है
पल–पल मुझे क्यों
अंजाना डर।
7
तुम जो मिले
जगी हैं बेचैनियाँ
कहो क्या करें!
8
मचली चाह
कल्पना में पगी है
प्यार की राह।
8
भीग गई मैं
सावन की झड़ी-सी
नेह तुम्हारा।
10
बातें तुम्हारी
घोल गईं साँसों में
ललिता छंद।
11
जलाए मन
सुधियों के अंगारे
सिराए कौन।
12
अपनापन
तनिक न खुशबू
निरा छलावा।

मेघ साँवरे 

1
ऋतुगीत गा
बदरा-बिजुरी ने
ढाया ग़ज़ब।
2
मेघ साँवरे
बरसे जमकर
हँसें फुहारें।
3
मिटी तपन
ओर -छोर डूबके
धरा नहाए ।
4
ठंडी औ भीगी
फर्र-फर्र हवाएँ
प्रीत जगाएँ।
5
गिरीं बौछारें
झुलसी दिशाओं की
देह सँवारें।
6
चहक फिरे
चिरैया आँगन में
पंख भिगोए।
7
बदल गए
रंग आबो-हवा के
स्वप्न हमारे।
8
घटा के पाँव
बजी पाजेब बूँदें
छनछनाईं।
9
भीगी फुहारें,
संग लाया सावन
सोंधे त्योहार।
10
सावन फूले
रक्षाबंधन तीज
मेहँदी झूले।
11
उठे हिलोर
छिड़े पुराने तार
याद झंकार।
12
सावन लाए
पीहर की स्मृतियाँ
जी महकाए।
13
वर्षा संदेसा
‘बिटिया लिवा लाओ
भैया को भेजो।’
-0-

अपने डरे

1
पलटा पासा
दिल के शहर में
बसा सन्नाटा।
2
मजमे- मेले
तन्हाइयों के आज
लगे हैं ठेले।
3
अपने डरे
निठुर अवसाद
कौन आ हरे।
4
बिना जंजीर
वक़्त ने बाँधे पाँव
खींच लकीर।
5
वक़्त की शान
डरा सहमा आज
हर इंसान।
6
साँसों को साध
बाँच रही ज़िंदगी
कैसा ये पाठ।
7
ख़ुद ही छली
नंगे पाँव काँच पे
ज़िंदगी चली।
8
बंद संसार
जुड़े यूँ परिवार
ज्यों कारागार।
9
औंधा संसार
बदल गई धार
टूटा आधार।
10
गर्व हौसला
पल में प्रकृति ने
किया खोखला।
11
ढूँढें किनारे
मन की झील तैरे
शंका शिकारे।
12
अदृश्य चाँटा
जड़ा है गाल पर
छाया सन्नाटा।
-0-

खुशियों के जुगनू 

1
कैसा सितम
किया आज वक़्त ने
फिरें ढूँढते
दिल की खुशियों की
हम सब वजह।
2
रोतीं चाहतें
दिलों के दरम्यान
कौन दे रहा
फासलों का पहरा
तड़पते किनारे।
3
कैसे बुझाए
खुशियों के जुगनू
उदासियों की
घिर आईं घटाएँ
मरे बाँसुरी सुर।
4
मन बंजारा
बेचैन भटकता
फिरे आवारा
खोजे तेरी प्रीत को
मिल जाए दोबारा।
5
जेठ की धूप
ठहरी जीवन में
देती आघात
ढूँढ रही ज़िंदगी
बरगद की छाँव।
6
लगी माँगने
मुसकानों का कर्ज़
क्यों ज़िंदगानी
छीन कर वसंत
क्यों दे गई वीरानी।

मिटे संस्कार 

1
भाई से भाई
ना रिश्ता कोई स्थायी
नफ़रत की
माचिस लिये हाथ
स्वयं लगाई आग।
2
मिटे संस्कार
मरा आपसी प्यार
निज आँगन
करके तक़सीम
करें द्वेष व्यापार।
3
कहते हवा
बदली ज़माने की
किसके माथे
मढ़ेगा कोई दोष
बैठे सब ख़ामोश।
4
आपा-धापी में
हड़बड़ाई फिरें
ज़िंदगानियाँ
भूले हैं अपनापा
मन में दु:ख व्यापा।
5
वक़्त निकाल
कर लो स्वजनों से
दो मीठी बात
रहेगा मलाल जो
टँग गए दीवाल।
6
जंगल -बस्ती
घेरे हैं उलझनें
बाँटो दिलासा
मर न जाए कोई
कहीं यूँ बेबसी से।
7
शाह -नवाब
तख़्त रहे न ताज
दंभ क्यों सींचे
आज माटी ऊपर
औ कल होंगे नीचे।
8
रखा संदेह
रूठे रहे हमसे
रूह छूटेगी
क़फ़न उठाकर
रो-रो करोगे बातें।
9
रिश्ते में मोच
मलाल की खोह में
जा बैठे सोच
अमावसी रातें हों
उदासियों के डेरे।
10
रहनुमाई
सौंपी जिन्हें हमने
जले हैं घर
उन्हीं की साजिशों से
कैसे थे मनसूबे!

ज़िंदगी क्या है?

1
थोड़ी रंगीन
है थोड़ी- सी रुमानी
ज़िंदगी क्या है?
अनूठा- सा गणित
है प्यार की कहानी।
2
ऊँची-नीची -सी
हैं पथरीली राहें
कैसे बताएँ
बहते दरिया की
है ये कोई रवानी।
3
कर्मों से बँधी
मूल्यों में ढली हुई
वंश- निशानी
भोली कुछ नादाँ-सी
है थोड़ी -सी सयानी।
4
बड़ी कठिन
ज़िंदगी की किताब
पढ़ें तो कैसे
पल-पल बदलती
ये अपने मिज़ाज।
5
बची न वफ़ा
रिश्तों की बेदर्दी से
रोई ज़िंदगी
बाकी अब जीने का
दस्तूर है निभाना।

इतनी चाह

1
तरसा मन
करूँ तुमसे बातें
रूठा क्यूँ रिश्ता
दहके दिन मेरे
जलती रहीं रातें।
2
दे देते यदि
अँजुरी भर प्यार
जी लेते हम
पतझर ऋतु में
बनकर बहार।
3
सिर्फ अपना
प्यार तो समर्पण
ढूँढे क्यों ख़ता
बन जा तू क़ाबिल
बेकार ना आज़मा।
4
यूँ ना तड़पा
और चुप रहके
न पीड़ा बढ़ा
कह ग़म अपने
हर लूँ मैं अँधेरे।
5
हुआ बेरंग
जीवन बिन तेरे
टूटी है आस
पनघट पे बैठी
रही प्यासी ही प्यास।
6
इतनी चाह-
फूलें -फलें संबंध
सच्ची हो वफ़ा
आए नहीं दरार
पलता रहे प्यार।
7
तुम क्या मिले
बने शूल राहों के
फूलों के गुंचे
राहें हुईं आसान
सुख मेहरबान।

लम्पट काल

1
लम्पट काल
झूठ का बोल-बाला
झूठ का सुर ताल
झूठ आयाम
झूठ का गुनगान
सत्य हुआ अनाम।
2
बेपरवाह
रहता अनगढ़
होता ख़ूबसूरत
सज्जित हुआ
घिरा दिखावे में औ
जीवन हुआ ध्वस्त।
3
ढलान पर
पग हों नियंत्रित
पथ चढ़ाइयों के
करें स्वागत
पार्थ बनना सीख
वक़्त के सारथी का।
3
कैसी भी पीर
अपनी या पराई
नहीं कोई अंतर
धूप-छाँव का
है जुदा विभाजन
सबकी ज़िंदगी का।
4
दुनिया है ये
साहिल न सहारा
ना ही कोई किनारा
हैं तन्हाइयाँ
मरी यहाँ रौनकें
केवल रुसवाइयाँ।
5
बाँटते रहे
समझ कर प्यार
ये खुशीयाँ उधार
लौटाया नहीं
जब तूने उधार
मरा दिल घाटे से।
6
बुनी चाहतें
पिरोते रहे ख़्वाब
तुम्हारी दुआओं में
होती शिद्दत
पाते प्रेम, रहती
ना ख़ाली फरियाद।
7
दोनों अदृश्य
प्रार्थना औ विश्वास
अजब अहसास
असंभव को
संभव करने की
क्षमता बेहिसाब।
8
पीड़ा क्या हास
कटा करवटों में
उम्र का बनवास
नित आँसुओं
ने लिखा चेहरे पे
नूतन इतिहास।
9
फुर्सत मिले
तो पढ़ लेना कभी
पानी की तहरीरें
हज़ारों साल
पुराने अफ़साने
हैं हर दरिया के।

अँधियारी राहें 

10
करते रहें
नेकियाँ दिन-रात
नेकियों के चिराग़
रौशनी देंगे
आने वाले वक़्त की
अँधियारी राहों को।
11
सीखो जीने का
हुनर कलम से
अपनी हर बूँद
ख़र्च करती
औरों के जीवन को
सवाया बनाने में।
12
बन न पाई
छाँव कभी ज़िंदगी
शहतूत-सी ठंडी
चुभती रही
बबूल- सी, रेत सी
किरकिराती रही।
13
दमन करो
नफ़रत का प्यारे
छोड़ो द्वेष लड़ाई
मन देहरी
धरो दीप नेह का
हर्षेंगे रघुराई।
14
रखती नहीं
हवा कभी हिसाब
कितने छाले पाँव
साँस बाँटती
फिरे शहर भर
गली-गली औ गाँव।
15
लफ्ज़ों का होता
अपना ही संसार
कुछ बनें रक्षक
कुछ करते
ग़ुलामी, कुछ प्यार
कुछ केवल वार।
16
अपने जाये
हुए जब पराये
विवश ताल-तट
डूबीं इच्छाएँ
अजब दुख झेले
रह गए अकेले।
17
भाग रही है
ये सुख भोगी देह
कर क़दमताल
हाँफता हुआ
चल रहा बेबस
पीछे बावरा मन।
18
बैठते तुम
जो बुज़ुर्गों के पास
तो मिलता तज़ुर्बा
चंद लम्हों में
अद्भुत व अनोखा
बचता भटकाव।

क़ायनात बेहाल

19
प्रत्येक भीड़
कुम्भ का मेला नहीं
भीड़ भेड़ क्या फ़र्क
देख कूदना
कौन जाने किधर
हाँक दे गडरिया।
20
दृढ़ संकल्प
जाग्रत मनोवांछा
तभी लक्ष्य हो प्राप्त
खड़े पानी में
कश्तियाँ तैराने से
मिले कब किनारे।
21
नई उम्रों की
देख ख़ुदमुख्तारी
रुष्ट हो गए राम
कतरे पर,
ताले उड़ान पर
लो भुगतो अंजाम।
22
कोरोना काल
निगलता बंदों को
क़ायनात बेहाल
मन हैरान
आलमी अज़ाब का
कैसे होगा निदान!
23
टोह न चाप
भोंका कोरोना का
खंज़र चुपचाप
मिले सबक़
मूरख बंदे तुझे
चली वक़्त ने चाल।
24
बाँधा स्त्री को
सीमित कीं सीमाएँ
तुम कैसे अंजान
परिधि-घिरी
अविरल विशाल
छोड़ो बुनना जाल।
25
सब्ज़ पत्तों पे
मौसम का क़हर
ज़र्द दोपहरियाँ
तपे पहर
पी रहीं उदासियाँ
जुदाई का ज़हर।
26
अंजाम नहीं
होता बेक़रारी का
फिर भी बेक़रार
इंसाँ बहता
अपनी रवानी में
दरिया रवानी-सा।

आँखों में बरसातें

27
सह न पाया
तुमसे मिली ईर्ष्या
नफ़रत दुत्कार,
लौटा रहा हूँ-
शब्दों में पिरोकर
लय-तुक के साथ।
28
होती नहीं यूँ
लगती है ज़िंदगी
दूर से ही हसीन
होंठों पे हँसी
आदमक़द दर्द
सीने में हैं आसीन।
29
वक़्त का शाप
दफ़न हैं रौनकें
बर्फ़ हुए जज़्बात
कोरों पे खड़े
गूँगे आँसू कहते-
दर्द किसे बताएँ?
30
नींद बेज़ार
बैठी सोच आँखों में
दिल हुआ अज़ार
कैसा सजाती
हमारी ख़ुदगर्ज़ियाँ
ये मौत का बाज़ार
31
करवटों में
चुभती बीती बातें
सोने नहीं देती हैं
छाया सन्नाटा
फटे दिल का आसमाँ
आँखों में बरसातें।
32
तत्पर रहा
बनने के फेर में
मचा दिया अँधेर
जम के मिटा
फेंटा जब वक़्त ने
ख़्वाहिशें हुईं ढेर
22
ख़ाली हैं खीसे
छाई हैं उदासियाँ
ग़ुरबतों का दौर
सिक्के टटोलें
हाथ देख जेब में
उँगलियों के पोर।
34
आसमान की
करो न कभी हद
भले कहे दुश्मन
विचार करो-
बात हो पते की तो
कभी न करो रद्द।

जानते तो हो

जानते तो हो
नहीं पसंद मुझे
सवार होना
पाल लगी नाव में,
गवारा नहीं
मुझे हवा की मर्ज़ी
मान चलना
झेलूँ आवारगियाँ
मैं क्यों उसकी
भरोसेमंद हुईं
कब हवाएँ
बदलकर रुख़
गिरा दें पाल
छोड़ दे कहीं कश्ती
वो मझधार
जानती हूँ-तुम ना
थामोगे पतवार।

Leave a Reply

Your email address will not be published.