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आ गया सूरज 

धूप का बस्ता उठाए आ गया सूरज,
बैल्ट किरणों की लगाए, आ गया सूरज!
भोर की बुश्शर्ट पहने
साँझ का निक्कर,
दोपहर में सो गया था
लॉन में थककर।
सर्दियों में हर किसी को भा गया सूरज!
हर सुबह रथ रोशनी का
साथ लाता है,
साँझ की बस में हमेशा
लौट जाता है।
दोस्तों को दोस्ती सिखला गया सूरज!

फूले फूल

फूले फूल!
पत्तों की गोदी में झूल-
फूले फूल!

डुला रही है हवा चँवर
पत्तों में हैं राजकँुवर,
तितली आई सुध बुध भूल
फूले फूल!

लो सुगंध की आई धार,
इसमें है फूलों का प्यार,
उड़ती है क्या रस की धूल
फूले फूल!

मेरे मन में आता मित्र,
मैं उतार लूँ इनके चित्र,
सबके सब शोभा के मूल
फूले फूल!

मनुष्यता का रिपोर्टर 

कवि अमिताभ बच्चन के लिए

जब सारे कविगण
पुरस्कार प्राप्त कर रहे थे
पुरस्कार प्राप्त करके लौटा रहे थे
लौटाकर पुनः पुरस्कार प्राप्त कर रहे थे

तब टोली से बिछुड़ा हुआ कवि काम आया
एक गुमशुदा कवि
जो 1980 से ग़ायब था

वह आया
जब सर्वाधिक ज़रूरत थी एक कवि की
इतनी लम्बी सांस किसी ने नहीं खींची होगी
किसने लगाई होगी इतनी लम्बी घात

वह आया
ग़रीबी की तप्त कर्क रेखा से गुज़रते हुये
मेलों-ठेलों गंदी-बस्तियों गांव-शहर
और उजड़ती जा रही आबादियों की भयानक ख़बरों के साथ

दुश्मनों के तमाम दस्तावेज़ों के साथ

वह एक कवि
जो हर रोज़ एक पोएट्री फ़ाइल करता था
मनुष्यता का एक रिपोर्टर !

सन्देह

आख़िरी पुकार
कभी अनसुनी नहीं रही

मरने-मरने को होते थे कि जी जाते थे

इसी से ईश्वर के होने का सन्देह होता था
कोई था जो हमें बचाता रहता था !

कवियों के कंकाल 

मैं देखना चाहता था कि
शब्दों में कितनी शक्ति बची हुई है

बेचैनी में कितनी बेचैनी
शान्ति में कितनी शान्ति

मैंने देखा प्यार नामक शब्द में
कुछ जलने की गन्ध आ रही थी

झूठ अब उतना झूठा नहीं रहा था
जितने महान थे उतने टुच्चे थे
लुच्चे थे
जितने भी सदाचारी थे

सच्चाई पर अब किसी को यक़ीन नहीं था
धीरज में धैर्य गायब था

पानी अब प्यास नहीं बुझाता था
अग्नि के साथ-साथ चलता था अग्नि-शमन दस्ता

शब्दों के सिर्फ़ खोखल बचे थे
उनका अर्थ सूख गया था

जब भी लिखता था कविता
एक संरचना हाथ आती थी

कवि अब कहाँ थे
हर तरफ़ कवियों के कंकाल थे !

इश्तिहार

इश्तिहार दीवार से मजबूत था

दीवार गिर गई थी
इश्तिहार अभी फड़फड़ा रहा था !

अच्छे दिनों में क्या सब कुछ अच्छा होगा 

अच्छे दिनों में क्या सब कुछ अच्छा होगा

जितने भी बुरे कवि हैं
वे क्या अच्छे दिनों में अच्छे कवि हो जाएँगे

क्या हत्यारे अच्छे हत्यारे पुकारे जाएँगे

क्या डाकू भी सुल्ताना डाकू जैसे अच्छे और नेक होंगे

क्या वेश्याओं को गणिकाएँ कहा जाएगा अच्छे दिनों में

जिसका भी गला रेता जाएगा
अच्छे से रेता जाएगा अच्छे दिनों में

बुरे भी अच्छे हो जाएँगे अच्छे दिनों में

आएँगे
ज़रूर आएँगे अच्छे दिन
किसी दिन वे धड़ाम से गिरेंगे आकर !

अच्छे दिन

अच्छे दिन जब आएँगे
गाजे-बाजे के साथ आएँगे

वे आएँगे हाथी पर सवार होकर

बजती रहेगी दुन्दुभि

उड़ती रहेगी धूल

एक कुचलते हुए कारवाँ की तरह आएँगे अच्छे दिन
लहू से लथ-पथ

ग़रीबों को कुचलता हुआ
सूखे हुए खेतों से गुज़रता हुआ
एक विक्रान्त-विजय-रथ

तमाशा ज़ोर होगा
कुछ ही दिनों में गुज़रेगा राजपथ से
अच्छे दिनों का जुलूस

देर तक उड़ती रहेगी जिसकी ख़ाक !

बुरे दिन-1

 बुरे दिन पूछकर नहीं आते

वे ऐसे आते हैं जैसे गए ही नहीं थे यहीं छिपे हुए थे कुर्सी के पीछे खाट के नीचे कोट की जेब में या फिर हम उन्हें भूलवश दराज़ में रखकर भूल गए हों

जबकि अच्छे दिन पूछकर आते हैं अतिथि की तरह दो-चार दिन में लौट जाने के लिए

बुरे दिन आपको सबसे अच्छी कविताएँ याद दिलाते हैं जिन्हें हम अच्छे दिनों में भूल जाते हैं कई बिसरी हुई कहानियाँ याद आती हैं बुरे दिनों में और कोई करुण-किरवानी जैसा राग अहर्निश बजता रहता है बुरे दिनों में

बुरे दिन आकर बच्चों की तरह पाँवों से लिपट जाते हैं जिन्हें मैं रावळगाँव की टॉफियां खिलाकर बहलाता रहता हूँ

बुरे से अच्छा क्या होगा
बुरे दिन मेरे सबसे अच्छे दिन थे

बुरे दिनो
मत छोड़ना मेरा साथ
तुम्हारे लिए मेरे दरवाज़े हमेशा खुले हैं !

बुरे दिन-2 

जब अच्छे दिन आ जाएँगे
तब बुरे दिन कहाँ जाएँगे

क्या वे किसानों की तरह पेड़ों से लटककर आत्महत्या कर लेंगे या किसी नदी में डूब जाएँगे या रेल की पटरियों पर कट जाएँगे

नहीं बुरे दिन कहीं नहीं जाएँगे
यहीं रहेंगे हमारे आसपास
अच्छे दिनों के इन्तिज़ार में नुक्कड़ पर ताश खेलते हुए

बुरे दिन ज़िन्दा रहेंगे
पताका बीड़ी पीते हुए

बुरे दिनों के बग़ैर यह दुनिया बरबाद हो जाएगी
लगभग नष्टप्राय लगभग आभाहीन लगभग निष्प्रभ

बुरे दिनों से ही
दुनिया में यह झिलमिल है, अभागो !

आवाज़

कोई भी बता देगा
पठानों की गली का रास्ता
अन्धेरी कोठरियों की एक लम्बी कतार
जिधर से गुजरते हुए डर दबोच लेता है
दहशत में भूल जाता है आदमी आज़ादी का साल

यह इस क़स्बे की सबसे भयानक जगह है
जिसके नीचे दबी हैं पुरखों की हड्डियाँ
लकड़ी के दरवाज़े लोहे की साँकलें एक जीवित भाषा
हमारा सबसे अनमोल खज़ाना दबा है
इन खण्डहरों के नीचे

इन कोठरियों में रात बिताते हैं भिखारी
बच्चे गिल्ली डण्डा खेलते हैं
जुआरी चढ़ जाते हैं छतों पर
क़स्बे की लड़कियाँ यही पर जानती हैं
पहले चुम्बन का स्वाद

यहीं से शुरू होती है इस क़स्बे की कहानी
यहीं पर ख़त्म होगी
इस कहानी के बीच कहीं ज़िक्र होगा
यहाँ के बाशिन्दों का
जो हमारे जन्म से बहुत पहले
घर छोड़ कर चले गए थे

अब भी सुनाई पडती है
दुसरे मुल्क से आती उनकी आवाज़

रचनाकाल : 1988

भारतनामा 

1.

विजया और सारासव के
मिश्र पेय की
ख़ुमारी में
आज से ‪
भारतनामा
कविता-श्रृँखला का
प्रारम्भ करता हूँ।

2.

ऐसा भी समय आएगा
किसने सोचा था

देखना पड़ेगा यह नग्न-नृत्य
ख़ून के धब्बे
अन्धेरी सीढ़ियाँ

इस वेश्यालय से भी आख़िर हमें गुज़रना था !

3.

व्यर्थ ही समय बरबाद किया

भारत-भवन के बाहर था
भारत !

4.

फ़िरदौसी ने लिखा था शाहनामा
मैं लिखता हूँ भारतनामा

मेरे लिए भी कोई सज़ा मुक़र्रर रखना
कोई कारागार तैयार
नीम और अश्वत्थ के दरख़्तों से घिरा हुआ कारागार !

5.

यमुना जो एक नदी थी
आज है भिखारन

मैली-कुचैली तार-तार-वस्त्र

कल लोहे के पुल से गुज़रते हुए
मैंनें भी डाला एक सिक्का
उसके कटोरे में !

6.

इस दरिया से उस दरिया तक
इस सहरा से उस सहरा तक
फैला हुआ था हिन्दुस्तान

ईरान हमारा पड़ोस था
बगदाद हमारे सपनों का नगर

फ़ारसी जैसे हमारी ज़बान थी !

7.

धर्म हो या नहीं
पर अधर्म न हो

रोशनी हो या न हो
अन्धेरा न हो

प्यार हो या नहीं
नफ़रत नहीं हो

न्याय हो या नहीं
अन्याय न हो

यह आर्यावर्त की नई प्रार्थना थी
नई आयत नई ऋचा नया राष्ट्र-गीत

नया आर्त्तनाद !

8.

मुसलमान आए तलवार लेकर
यहूदी आए बाज़ार लेकर
क्रिस्तान आए चमत्कार लेकर

लेकिन इस महादेश में
पौराणिक काल से ही
बन्दर समुद्र लाँघते रहे हैं !

9.

हम हिन्दू नहीं थे
उन्होंने हमें हिन्दू कहा

हिन्दू कोई धर्म नहीं है
यह एक स्थान-वाचक संज्ञा है

जन्म-भूमि ही हमारा धर्म है !

10.

कभी हम नदियों के लिए लड़े
राज्य और भूमि के लिए किए युद्ध
स्वर्ण और स्त्री के लिए हमने बहाया ख़ून

उत्तर से दक्षिण
पूर्व से पश्चिम
इस भूमि का कण-कण हमारे रक्त से सिंचित है !

11.

शक आए कुषाण आए हूण आए यवन आए

क़ातिल आए
लुटेरे आए
फ़क़ीर आए
दरवेश आए

कोई जल-मार्ग से आया
कोई थल-मार्ग से

इस द्वार से कोई निराश नहीं लौटा
कोई नहीं लौटा
यहाँ से ख़ाली हाथ !

12.

अधिकतर तो यहीं पर बस गए
जो आए थे तलवारें चमकाते
अरबी घोड़ों पर सवार

दर्रों घाटियों मैदानों पहाड़ों नदियों रेगिस्तानों और जंगलों को पार करते हुए

गये नहीं वापस
हिन्द की मिट्टी रास आई उनको
अन्ततः यहीं पर हुए सुपुर्द-ए-ख़ाक !

13.

सुबह-ए-बनारस थी
शाम-ए-अवध थी
साँय-साँय करती शब-ए-सहरा थी

और इस देश की दोपहरें
पसीने और ख़ून से लथपथ
और कोलतार की तरह पिघली हुई थीं !

14.

विंध्य और हिमालय के मध्य स्थित देश को
आर्यावर्त कहा जाता था
जिसे पुण्यभूमि भी कहा गया

शरावती नदी के पूर्व और दक्षिण में स्थित यह देश भारतवर्ष कहलाया
जो सम्पूर्ण जम्बूद्वीप का नवमांश है

भू भूमि अचला अनन्ता रसा विश्वम्भरा स्थिरा धरा धरित्री थरणी क्षोणि ज्या काश्यपी क्षिति सर्वसहा वसुमती वसुधा उर्वी वसुन्धरा गोत्रा कु: पृथिवी पृथ्वी क्षमा अवनि मेदिनी और मही

हम इस पृथ्वी को 27 नामों से पुकारते थे

विपुला गह्वरी धात्री गौ: इला कुम्भिनी भूतधात्री रत्नगर्भा जगती सागराम्बरा भी इसी पृथ्वी के नाम हैं
पर प्रक्षिप्त

इस महादेश में अन्न और शब्दों की कभी कमी नहीं रही !

15.

कोई मगध का था
कोई श्रावस्ती कोई अवन्ती
कोई मरकत-द्वीप का था

कोई आया उज्जयिनी से
कोई पाटलिपुत्र कोई अंग-देश
कोई दूर समरकन्द से आया

कोई नहीं था भारत का
कोई नहीं आया भारत से

भारत कल्पना में एक देश था
एक मुसव्विर का ख़्वाब
एक कवि की कल्पना
किसी ध्रुपद-गायक की नाभि से उठा दीर्घ-आलाप

मैं एक काल्पनिक देश की
काल्पनिक कहानी लिखता हूँ !

16.

कितने जलाशय थे कितने जलाधार
कुछ तो अथाह जल वाले ह्रद।

आहाव। और निपानम् नामक हौज़ थे

अंधुः प्रहिः कूपः उद्पानम् नामक कुएँ थे जिनके जगत को हम वीनाहः कहते थे और जिस रस्सी से पानी निकालते थे उस यन्त्र या गडारी को नेमिः या त्रिका कहा जाता था

पुष्करिणी और खातम् जैसे छोटे-छोटे पोखर थे और जो पोखर देवालय के समीप होते थे उन्हें अखातम् देवखातकम् कहते थे और जिन अगाध जलाशयों में कमल खिलते थे वे पद्माकर और तड़ाग थे

वैशंत: पल्लवम् अल्पसर जैसे पानी के गढ़े क़दम-क़दम पर थे
वापी और दीर्घिका जैसी बावलियाँ थीं
पानी को बाँधने के आधार थे

असंख्य नदियाँ थीं और नदियों को भी हम नदी सरित: तरंगिणी शैवलिनी तटिनी ह्रदनी धुनी स्रोतवती द्वीपवती स्रवंती निम्नगा आपगा जैसे कई नामों से पुकारते थे

गंगा यमुना नर्मदा सतलज देविका सरयू विपाशा शरावती वेत्रवती चन्द्रभागा सरस्वती कावेरी गोदावरी जैसी अनगिन नदियाँ थीं और उनके अनगिन नाम थे

इस महादेश में असंख्य जलस्रोत थे !

17.

भारत एक खोया हुआ देश है

सबको अपना-अपना
भारत खोजना पड़ता है

मैं भी इस भू-भाग पर भटकता हुआ
अपना भारत खोज रहा हूँ !

18.

एक महादेश था
बिखरा हुआ मलबे का ढ़ेर

एक महाकाव्य था
जला हुआ
जिसकी राख चारों दिशाओं में उड़ती थी !

वह काहे का देश
किस बात का महादेश
जहाँ ग़रीब की न हो समाई

हा हा
भारत-दुर्दशा देखी न जाई !

रेख़ते के बीज 

उर्दू-हिन्दी शब्दकोष पर एक लम्बा पर अधूरा वाक्य

एक दिन मैं दुनिया जहान की तमाम महान बातों महान साहित्य महान कलाओं से ऊब-उकताकर उर्दू-हिन्दी शब्दकोष उठाकर पढ़ने लगा जिसे उर्दू में लुग़त कहा जाता है यह तो पता था लेकिन दुर्भाग्यवश यह पता नहीं था कि यह एक ऐसा आनंद-सागर है जिसके सिर्फ़ तटों को छूकर मैं लौटता रहा तमाम उम्र अपनी नासमझी में कभी किसी नुक़्ते-उच्चारण-अर्थात के बहाने मैं सिर्फ़ जलाशयों में नहाता रहा इस महासमुद्र को भूलकर और यह भूलकर कि यह लुग़त दुनिया के तमाम क्लासिकों का जन्मदाता है और एक बार तो न जाने किस अतीन्द्रिय-दिव्य प्रेरणा से इसे मैंने कबाड़ी के तराज़ू पर रखकर वापस उठा लिया था इसकी काली खुरदरी जिल्द का स्पर्श किसी आबनूस के ठण्डे काष्ठ-खण्ड को छूने जैसा था जिससे बहुत दिनों तक मैं अख़बारों के ढेर को दबाने का काम लेता रहा जिससे वे उड़ नहीं जाएँ अख़बारी हवाओं में इसे यूँ समझिए कि मेरे पास एक अनमोल ख़ज़ाना था जिसे मैं अपनी बेख़बरी में सरे-आम रखे हुए था यह वाक्य तो मैंने बहुत बाद में लिखा कि एक शब्दकोष के पीले-विदीर्ण-जीर्ण पन्नों पर मत जाओ कि दुनिया के तमाम आबशार यहीं से निकलते हैं कि इसकी थरथराती आत्मा में अब तक की मनुष्यता की पूरी कहानी लिखी हुई है कि इसकी पुरानी जर्जर काया में घुसना बरसों बाद अपने गाँव की सरहदों में घुसना है कि मैंने इसके भीतर जाकर जाना कि कितनी तरह की नफ़रतें होती हैं कितनी तरह की मुहब्बतें कैसे-कैसे जीने के औज़ार कैसी-कैसी मरने की तरक़ीबें कि इसकी गलियों से गुज़रना एक ऐसी धूल-धूसरित सभ्यता से गुज़रना था जहाँ इतिहास धूल-कणों की तरह हमारे कन्धों पर जमता जाता है और महाभारत की तरह जो कुछ भी है इसके भीतर है इसके बाहर कुछ नहीं है एक प्राचीन पक्षी के पंखों की फड़फड़ाहट है एक गोल गुम्बद से हम पर रोशनी गिरती रहती है जितने भी अब तक उत्थान-पतन हैं सब इसके भीतर हैं इतिहास की सारी लड़ाइयाँ इसके भीतर लड़ी गईं शान्ति के कपोत भी इसके भीतर से उड़ाए गए लेकिन वे इसकी काली-गठीली जिल्द से टकराकर लहूलुहान होते रहे और यह जो रक्त की ताज़ा बूँदें टपक रही हैं यह इसकी धमनियों का गाढ़ा काला लहू है जो हमारे वक़्त पर बदस्तूर टपकता रहता है जो निश्चय ही मनुष्यता की एक निशानी है और हमारे ज़िन्दा रहने का सबूत गुम्बदों पर जब धूप चमक रही हो तब यह एक पूरी दुनिया से सामना है यह एक चलती हुई मशीन है वृक्षों के गठीले बदन को चीरती हुई एक आरा मशीन जिसका चमकता हुआ फाल एक निरन्तर धधकती अग्नि से तप्त-तिप्त जहाँ काठ के रेशे हम पर रहम की तरह बरसते हैं पतझड़ के सूखे पत्तों की तरह अपने रंग-रेशों-धागों को अपनी आत्मा से सटाए हुए हम हमारे इस समय में गुज़रते रहते हैं यह जानते हुए कि जिन-जिन ने भी इन शब्दों को बरता है वे हमारे ही भाई-बन्द हैं एक बहुत बड़ा सँयुक्त परिवार जिसके सदस्य रोज़ी-रोटी की तलाश में उत्तर से पच्छिम व पूरब से दक्खिन यानी सभी सम्भव दिशाओं में गए और वह बूढ़ा फ़क़ीर जो रेख़ते के बीज धरती पर बिखेरता हुआ दक्खिन से पूरब की तरफ आ रहा था जिसे देखकर धातु-विज्ञानियों ने लौह-काष्ठ और चूने के मिश्रण से जिस धातु का निर्माण किया उससे मनुष्य ने नदियों पर पुल बनाए लोहे और काष्ठ के बज्जर पुल जिन पर से पिछली कई शताब्दियों से नदियों के नग्न शरीर पर कलकल गिर रही है चूना झर रहा हैं अंगार बरस रहा है और जिसके कूल-किनारों पर क़ातिल अपने रक्तारक्त हथियार धो रहे हैं वे बाहर ही करते हैं क़त्ले-आम ताण्डव बाहर ही मचाते हैं क़ातिल सिर्फ़ मुसीबत के दिनों में ही आते हैं किसी शब्दकोष की जीर्ण-शीर्ण काया में सर छिपाने वे ख़ामोश बैठे रहते हैं सर छिपाए क़ाज़ी क़ायदा क़ाबू क़ादिर और क़ाश के बग़ल में और क़ाबिले-ज़िक्र बात यह है कि क़ानून और क़ब्रिस्तान इसके आगे बैठे हुए हैं पिछली कई सदियों से और और इसके आगे बैठे क़ाबिलियत और क़ाबिले-रहम पर हम तरस खाते रहते हैं जैसे मर्ग के एक क़दम आगे ही मरकज़ है और यह कहने में क्या मुरव्वत करना कि मृत्यु के एकदम पास मरम्मत का काम चलता रहता है और बावजूद क़ातिलों को पनाह देने के यह दुनिया की सबसे पवित्र किताब है जबकि दुनिया के तमाम धर्मग्रन्थों को हर साल निर्दोष लोगों के रक्त से नहलाने की प्राचीन प्रथा चलती आती है इस तरह पीले नीले गुलाबी हरे रेशम वस्त्रों में लिपटे हुए धर्मग्रन्थ मनुष्य के ताज़ा खून की तरह प्रासंगिक बने रहते हैं जबकि यहाँ दरवाज़े से झाँकते ही हमें दरिन्दे और दरवेश एक से लबादे ओढ़े हुए एक साथ नज़र आते हैं लुग़त के एक ही पन्ने पर गुज़र-बसर करते और उस काल्पनिक और पौराणिक धार की याद दिलाते हुए जहाँ शेर और बकरी एक साथ पानी पीते थे और यह तो सर्वथा उचित ही है कि शराब शराबख़ाना शराबख़ोर और शराबी एक ही इलाक़े में शिद्दत से रहें लेकिन क्या यह हैरान करने वाली बात नहीं कि शराफ़त जितनी शराबी के पास है उतने पास किसी के नहीं हालाँकि शर्मिन्दगी उससे दो-तीन क़दम दूर ही है यह कोई शिगूफ़ा नहीं मेरा शिकस्ता दिल ही है जो इतिहास की अब तक की कारगुज़ारियों पर शर्मसार है जिसका हिन्दी अर्थ लज्जित बताया गया है जिसके लिए मैं शर्मिन्दा हूँ और इसके लिए फिर लज्जित होता हूँ कि मुझे अब तक क्यों नहीं पता था कि मांस के शोरबे को संस्कृत में यूष कहा जाता है शोरिश विप्लव होता है १८५७ जैसा धूल उड़ाता हुआ एक कोलाहल और इस समय मैं जो उर्दू-हिन्दी शब्दकोष पढ़ रहा हूँ जिसके सारे शब्द कुचले और सताए हुए लोगों की तरह जीवित हैं इसके सारे शब्द १८५७ के स्वतंत्रता-सेनानी हैं ये सूखे हुए पत्ते हैं किसी महावृक्ष के जिससे अभी तक एक प्राचीन संगीत क्रंदन की तरह राहगीरों पर झरता रहता है यह एक ऐसी गोर है जिसके नीचे नमक की नदियाँ लहराती रहती हैं आँधियों में उड़ता हुआ एक तम्बू जो जैसा भी है हमारा आसरा है एक मुकम्मल भरोसा कि यह हमें आगामी आपदाओं से बचाएगा कहीं से भी खोलो इस कोहे-गिराँ को यह कहीं से भी समाप्त नहीं होता है न कहीं भी शुरू जैसे सुपुर्द का मानी हुआ हस्तांतरित तो क्या कि शराब का मटका और सुपुर्दगी होते ही हवालात में बदल जाता है गाने-बजाने का सामान होता है साज़ पर वह षड्यंत्र भी होता है मरते समय की तकलीफ़ को सकरात कहते हैं शब्द है तो मानना ही पड़ेगा कि वह चीज़ अभी अस्तित्व में है सकरात की तकलीफ़ में भी शब्द ही हमारे काम आएँगे यह भरोसा हमें एक शब्दकोष से मिलता है जिसे मैं क्लासिकों का क्लासिक कहता हूँ जिस उर्दू-हिन्दी शब्दकोष को मैं इस समय पढ़ रहा हूँ उसे ख़रीद लाया था सात बरस पहले एक रविवार दिल्ली के दरियागंज से एक किताबों के ढेर से फ़क़त बीस रुपयों में उस कुतुब फ़रोश को भला क्या पता कि गाँधी की तस्वीर वाले एक मैले-कुचैले कागज़ के बदले में आबे-हयात बेच रहा है वह एक समूची सभ्यता का सौदा कर रहा है सरे-राह जिसमें सकरात के फ़ौरन बाद सुकूत है और इसके बाद सुकून इसके बाद एक पुरानी रिहाइश है जहाँ हम सबको पहुँचना है काँटों से भरा एक रेशम-मार्ग सिल्क जिसे कभी कौशेय कभी पाट कभी डोरा कभी रेशम कहा गया यह एक सिलसिलाबंदी है एक पंक्तिबद्धता जो हमारे पैदा होने से बहुत पहले से चली आती है क्या आप जानते हैं कि समंदर एक कीड़े का नाम है जो आग में रहता है ऐसी ऐसी हैरत अंगेज़ आश्चर्यकारी बातें इन लफ़्ज़ों से बसंत के बाद की मलयानिल वायु में मंजरियों की तरह झरती रहती हैं ऐसे ऐसे रोज़गार आँखों के सामने से गुज़रते हैं मसलन संगसाज़ उस आदमी को कहते हैं जो छापेख़ाने में पत्थर को ठीक करता और उसकी ग़लतियाँ बनाता था और यह देखकर हम कितने सीना सिपर हो जाते थे कि हर आपत्ति-विपत्ति का सामना करने को तैयार रहने वालों के लिए भी एक लफ़्ज़ बना है तथा जिसे काया प्रवेश कहते हैं अर्थात अपनी रूह को किसी दूसरे के जिस्म में दाखिल करने के इल्म को सीमिया कहते हैं जो लोग यह सोच रहे हैं कि अश्लीलता और भौंडापन इधर हाल की इलालातें हैं उन्हें यह जानना चाहिए कि यह उरयानी बहुत पुरानी है पुरानी से भी पुरानी दो पुरानी से भी अधिक पुरानी काशी की तरह पुरानी लोलुपता जितनी पुरानी लालसा और कामशक्तिवर्द्धक तेल तमा जितनी पुरानी और जिसमें उग्रता, प्रचंडता और सख्त तेज़ी जैसी चीज़ें हों उसे तूफ़ान कहा जाता है और आदत अपने आप में एक इल्लत है जैसा कि पूर्वकथन है कि इसे कहीं से भी पढ़ा जा सकता है कहीं पर भी समाप्त किया जा सकता है फिर से शुरू करने के लिए एक शब्द के थोड़ी दूर पीछे चलकर देखो तुम्हें वहाँ कुछ जलने की गंध आएगी एक आर्त्तनाद सुनाई पड़ेगा कुछ शब्द तो लुटेरों के साथ बहुत दूर तक चले आए लगभग गिड़गिड़ाते रहम की भीख माँगते हुए शताब्दियों के इस सफ़र में शब्द थोड़े थक गए हैं फिर भी वे सिपाहियों की तरह सन्नद्ध हैं रेगिस्तान नदियों समन्दरों पहाड़ों के रास्ते वे आए हैं इतनी दूर से ये शब्द विजेताओं की रख हैं जो यहाँ से दूर फ़ारस की खाड़ी तक उड़ रही है इनका धूल धूसरित चेहरा ही इनकी पहचान है ये अपने बिछड़े हुओं के लिए बिलखते हैं और एक भविष्य में होने वाले हादसे का सोग मनाते हैं और इनके बच्चे काले तिल के कारण अलग से पहचाने जाते हैं यहाँ उक़ाब को गरुड़ कहते हैं जिसे किसने देखा है एक ग़रीबुल-वतन के लिए भी यहाँ एक घर है कहने के लिए कंगाल भी यहाँ सरमाएदार की तरह क़ाबिज़ है यह एक ऐसा भूला हुआ गणतंत्र है जहाँ करीम और करीह पड़ोसी की तरह रहते हैं यह अब तक की मनुष्यता की कुल्लियात है हर करवट बैठ चुके ऊँट का कोहान एक ऐसा गुज़रगाह जिसपर गुज़िश्ता समय की पदचाप गूँज रही है और इससे गुज़रते हुए ही हम यह समझ सकते हैं कि हमारा यह उत्तर-आधुनिक समय दर अस्ल देरीदा-हाल नहीं बल्कि दरीदा-हाल है किंवा यह फटा-पुराना समय पहनकर ही हम इस नए ज़माने में रह सकते हैं यह जानते हुए कि लिफ़ाफ़ा ख़त भेजने के ही काम नहीं आता हम चाहें तो इसे मृत शरीरों पर भी लपेट सकते हैं एक निरंतर संवाद एक मनुष्य का दूसरे से लगातार वाकोपवाक एक अंतहीन बातचीत कई बार तो यह शब्दकोष जले हुए घरों का कोई मिस्मार नगर लगता है जहाँ के बाशिंदे उस अज्ञात लड़ाई में मारे गए जो इतिहास में दर्ज नहीं है एक कोई डूबा हुआ जहाज़ एक ज़ंग खाई ज़ंजीर टूटा हुआ कोई लंगर एक सूखा हुआ समुद्र उजाड़ रेगिस्तान एक वीरान बंदरगाह एक उजड़ा हुआ भटियारख़ाना इसी तरह धीरे धीरे हमारी आँखें खुलती हैं और हवा के झोंकों से जब गुज़िश्ता गर्द हटती है तब हमारा एक नई दुनिया से सामना होता है जहाँ विपत्तियों-आपदाओं और बुरे वक़्त में इस शब्दकोष से हम उस प्राचीन बूढ़े नाविक की तरह एक प्रार्थना बना सकते हैं;
एक जीर्णशीर्ण शब्दकोष इससे अधिक क्या कर सकता है कि वह मुसीबत के दिनों में मनुष्यता के लिए एक प्रार्थना बन जाए, भले ही वह अनसुनी रहती आई हो।

कृष्ण कल्पित की यह अद्भुत कविता सम्बोधन के समकालीन युवा कविता विशेषांक (2010) में छपी।

साइकिल की कहानी

यह मनुष्य से भी अधिक मानवीय है
चलती हुई कोई उम्मीद
ठहरी हुई एक संभावना
उड़ती हुई पतंग की अंगुलियों की ठुमक
और पांवों में चपलता का अलिखित आख्यान
इसे इसकी छाया से भी पहचाना जा सकता है
मूषक पर गणेश
बैल पर शिवजी
सिंह पर दुर्गा
मयूर पर कार्तिक
हाथी पर इन्द्र
हंस पर सरस्वती
उल्लू पर लक्ष्मी
भैंसे पर यमराज
बी. एम. डब्ल्यू पर महाजन
विमान पर राष्ट्राध्यक्ष
गधे पर मुल्ला नसरूद्दीन
रेलगाड़ी पर भीड़
लेकिन साइकिल पर हर बार कोई मनुष्य
कोई हारा-थका मजदूर
स्कूल जाता बच्चा
या फिर पटना की सड़कों पर
जनकवि लालधुआं की पत्नी
कैरियर पर सिलाई मशीन बांधे हुए
साइकिल अकेली सवारी है दुनिया में
जो किसी देवता की नहीं है
साइकिल का कोई शोकगीत नहीं हो सकता
वह जीवन की तरफ दौड़ती हुई अकेली
मशीन है मनुष्य और मशीन की यह सबसे प्राचीन
दोस्ती है जिसे कविता में लिखा पंजाबी कवि
अमरजीत चंदन ने और सिनेमा में दिखाया
वित्तोरिया देसीका ने ’बाइसिकल थीफ’ में
गरीबी यातना और अपमान की जिन
अंधेरी और तंग गलियों में
मनुष्यता रहती है
वहां तक सिर्फ साइकिल जा सकती है
घटना-स्थल पर पायी गयी सिर्फ इस बात से
हम इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते कि
साइकिल का इस्तेमाल मनुष्यता के विरोध में
किया गया जब लाशें उठा ली गयी थीं
और बारूद का धुआं छट गया था तब
साइकिल के दो चमक​​ते हुए चक्के सड़क के
बीचों-बीच पड़े हुए थे घंटी बहुत दूर
जा गिरी थी और वह टिफिन कैरियर जिसमें
रोटी की जगह बम रखा हुआ था कहीं
खलाओं में खो गया था।
एक साइकिल की कहानी
अंततः एक मनुष्य की कहानी है !

काश! करघे पर बुनी जा सकती शराब

एक शराबी की सूक्तियाँ

अब मेरी आत्मा पर यह बोझ असह्य है. यह ‘भारी पत्थर’ अब इस ‘नातवां’ से नहीं उठता। लगभग दो साल होने को आए, जब इस नामुराद को, काली स्याही से लिखे इन पन्नों का बण्डल जयपुर के एक सस्ते शराबघर में पड़ा मिला था। इसके बाद पटना, कोलकाता और फिर दिल्ली। हर जगह एक अज्ञात काली छाया मेरे वजूद पर छाई रही। इस दौरान एक अजीब-सा अवसाद भरा नशा मुझ पर लगातार तारी रहा है।

मैं इसके लिए किसी ओझा, तान्त्रिक या कापालिक के पास नहीं गया। मैंने ख़ुद यह ‘भूत’ उतारने का फ़ैसला किया और इस ‘कितबिया’ को प्रकाशित कराने का जोखिम उठाया। शायद इसी तरह इन ‘शापित’ पंक्तियों से मेरा छुटकारा सम्भव हो। यह राजकमल चौधरी का नहीं — मेरा ‘मुक्तिप्रसंग’ है। इति।
कृष्ण कल्पित, 30 अक्टूबर, 2006, जयपुर

तेजसिंह जोधा के लिए या भागीरथ सिंह ‘भाग्य’ किंवा अशोक शास्त्री, स्वर्गीय राजिन्दर बोहरा, विनय श्रीकर अथवा मधुकर सिंह के लिए; थिएटर रोड, कोलकाता की सागरिका घोष के साथ।

मस्जिद ऐसी भरी भरी कब है
मैकदा इक जहान है गोया।
— मीर तकी मीर

“मैं तो अपनी आत्मा को भी शराब में घोलकर पी गया हूँ, बाबा! मैं कहीं का नहीं रहा; मैं तबाह हो गया — मेरा क़िस्सा ख़त्म हो गया, बाबा! लोग किसलिए इस दुनिया में जीते हैं?”

“लोग दुनिया को बेहतर बनाने के लिए जीते हैं, प्यारे। उदाहरण के लिए एक से एक बढ़ई हैं दुनिया में, सभी दो कौड़ी के… फिर एक दिन उनमें ऐसा बढ़ई पैदा होता है, जिसकी बराबरी का कोई बढ़ई दुनिया में पहले हुआ ही नहीं था — सबसे बढ़-चढ़ कर, जिसका कोई जवाब नहीं… और वह बढ़इयों के सारे काम को एक निखार दे देता है और बढ़इयों का धन्धा एक ही छलाँग में बीस साल आगे पहुँच जाता है… दूसरों के मामले में भी ऐसा ही होता है… लुहारों में, मोचियों में, किसानों में… यहाँ तक कि शराबियों में भी!”
मक्सिम गोर्की
नाटक ‘तलछट’ से

पूर्व कथन

यह जीर्ण-शीर्ण पाण्डुलिपि एक सस्ते शराबघर में पड़ी हुई थी — जिस गोल करके धागे में बाँधा गया था। शायद इसे वह अधेड़ आदमी छोड़ गया था, जो थोड़ा लंगाकर चलता था। उत्सुकतावश ही मैंने इस पाण्डुलिपि को खोल कर देखा। पाण्डुलिपि क्या थी — पन्द्रह-बीस पन्नों का एक बण्डल था। शराबघर के नीम अन्धेरे में अक्षर दिखाई नहीं पड़ रहे थे — हालाँकि काली स्याही से उन्हें लिखा गया था। हस्तलिपि भी उलझन भरी थी। शराबघर के बाहर आकर मैंने लैम्पपोस्ट की रोशनी में उन पन्नों को पढ़ा तो दंग रह गया। यह कोई साल भर पहले की बात है, मैंने उसके बाद कई बार इन फटे-पुराने पन्नों के अज्ञात रचयिता को ढूँढ़ने की कोशिश की; लेकिन नाकाम रहा। हारकर मैं उस जीर्ण-शीर्ण पाण्डुलिपि में से चुनिन्दा पंक्तियों / सूक्तियों / कविताओं को अपने नाम से प्रकाशित करा रहा हँ — इस शपथ के साथ कि ये मेरी लिखी हुई नहीं है और इस आशा के साथ कि ये आवारा पंक्तियाँ आगामी मानवता के किसी काम आ सकेंगी।
कृ० क०

अकेला नहीं सोया

स्त्रियों के साथ कम
अधिकतर मैं अपनी बरबादियों के साथ सोया

एक दिन मुझे हँसते-हँसते नींद आ गई
एक दिन मैं रोते-रोते सो गया

थोड़ी दूर साथ चलने के बाद सब चले गए
पर दुर्भाग्य ने मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा

एक दिन जब मैं सोकर उठा तो देखा
एक क़िताब मेरे सीने से लिपटी हुई है

एक दिन मैं भूखा सो गया
एक दिन किसी ने खाना खिला दिया तो नींद आ गई

एक दिन मैं रेलवे-स्टेशन की बैंच पर बैठे-बैठे सो गया
एक दिन मैं डी०टी०सी० की बस में खड़े-खड़े सो गया

एक दिन जब मैं नींद के सागर में डूब रहा था
तो कोई मुझे हल्के-हल्के थपकियाँ दे रहा था

मैं जागा रहा या सोता
मेरा चश्मा और क़लम मेरे आसपास रहे

एक दिन रात को जब भारतीय हॉकी टीम मध्यान्तर तक 3:1 से आगे थी तो मुझे नींद आ गई और जब सुबह जागा तो पता चला भारत जर्मनी से 4:3 से हार गया है

जब भी सोया
किसी के साथ सोया
मैं अकेला कभी नहीं सोया

एक अदृश्य चादर मुझ पर हमेशा तनी रही !

ख़राब कवि-1 

कविता अच्छी भले न हो
लेकिन उसे ख़राब नहीं होना चाहिए

अच्छा कवि जानता है कि वह अच्छा कवि है
ख़राब कवि नहीं मानता कि वह ख़राब कवि है

अच्छे कवि शराब पीकर ख़राब होते देखे गए हैं
लेकिन ख़राब कवि बिना शराब पिए ही ख़राब कवि थे

ख़राब कवि शराब नहीं ख़िज़ाब प्रेमी होते हैं
जिसे वे अपने सफ़ेद बालों में किसी महँगे सैलून में नहीं
अपनी दाई से लगवाते हैं
जिनका मुख्य काम झाडू-पोंछा और बरतन माँजना होता है
इससे पैसे की बचत तो होती ही है
प्रेम भी बढ़ता है और जनवाद को भी गति मिलती है

इन दिनों दिल्ली देश की ही नहीं
ख़राब कवियों की भी राजधानी थी

दिल्ली में ख़राब कवि सिर्फ़ बिहार से ही नहीं
देश के हर इलाके से हर रोज़ आ रहे थे

और ख़राब कवयित्रियाँ
ख़राब कवियों के सान्निध्य में और ख़राब होती जाती थीं !

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