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Kailash gautam.jpg

गंगा

गंगा की बात क्या करूँ गंगा उदास है, वह जूझ रही ख़ुद से और बदहवास है।
न अब वो रंगोरूप है न वो मिठास है, गंगाजली को जल नहीं गंगा के पास है।

दौड़ा रहे हैं लोग इसे खेत-खेत में, मछली की तरह स्वयं तड़पती है रेत में।
बाँधों के जाल में कहीं नहरों के जाल में, सिर पीट-पीट रो रही शहरों के जाल में।
नाले सता रहे हैं पनाले सता रहे, खा खा के पान थूकने वाले सता रहे।
कुल्हड़ पड़े हैं चाय के पत्ते हैं चाट के, आखिर कहाँ ये जाएँगे धंधे हैं घाट के।
भीटे की तरह बाप रे कूड़े का ढेर है, यह भी है कोई रोग कि ऊपर का फेर है।
असहाय है लाचार है मजबूर है गंगा, अब हैसियत से अपनी बहुत दूर है गंगा।
क्या रही क्या हो गई हैरान है गंगा, शीशे में खुद को देख परेशान है गंगा।
मैदान ही मैदान है मैदान है गंगा, कुछ ही दिनों की देश में मेहमान है गंगा।
गंगा की बात क्या करूँ गंगा उदास है।

पक्का है घाट ठाठ से अहरा लगा रहे, राखी बहा रहे यहीं हाँडी बहा रहे।
जो कुछ बचा है झूठा सो डाल रहे हैं, पत्तल में सब लपेटकर उछाल रहे हैं।
बच्चों का बिछौना भी यहीं साफ हो रहा, गलियों का घिनौना भी यहीं साफ हो रहा।
जूते में लगा गोबर गंगा में धो रहे, आराम बड़ी चीज है मुँह ढँक के सो रहे।
गंगा के पास मुँह नहीं है आजमाइये, सीधी बहाइये इसे उलटी बहाइये।
गंगा की ज़िन्दगी भी कोई ज़िन्दगी है यार, बस गंदगी ही गंदगी है
गंदा सड़ा अख़बार है गंगा में बह रहा, कचरा है खर पतवार है गंगा में बह रहा।
कीचड़ है बदबूदार है गंगा में बह रहा, कबका मरा सियार है गंगा में बह रहा।
गंगा की बात क्या करूँ गंगा उदास है।

आई थी बड़े शौक से ये घर को छोड़कर, विष्णु को छोड़कर के शंकर को छोड़कर।
खोई थी अपने आप में वो कैसी घड़ी थी, सुनते ही भगीरथ की टेर दौड़ पड़ी थी।
नागिन-सी-डोलती कहीं हिरनी-सी उछलती,-आई है मेरे-गाँव-तक ये गिरती सम्हलती।
थकती थी बैठती थी लेती थी साँस फिर, झट कूदती थी। आगे दो चार बाँस फिर
बोझा लिये थी ढाल पर लड़की देहात की, घाटी में नाचती। रही घोड़ी बरात की।
बेकरार-हो-गए करार प्यार से, कल-कल, कल-कल, कल-कल, कल-कल धार-धार-से।
टीलों की प्यास मन से बुझाती चली गंगा, पेड़ों की छाँह छाँह छहाती चली गंगा।
घर-घर का सारा पाप बहाती चली गंगा, उजड़े हुए नगर को बसाती चली गंगा।
गंगा की बात क्या करूँ गंगा उदास है।

गंगा को भगीरथ ने भगीरथ बना दिया, जंगल में हुआ मंगल तीरथ बना दिया।
यों ही नहीं हम पूजते हैं फूल पान से, गंगा ने प्यास रख ली पराशर की शान से।
कितनी-जटिल-थी-देखिये-कितनी-सरल-हुई, कुन्ती-की कर्ण जैसी समस्या भी हल हुई।
केवट ने भी गंगा की बदौलत बना लिया, आई न काम सारी अयोध्या दिखा दिया।
भीष्म की ही माँ नहीं यह माँ है देश की, गरिमा है पूर्वजों की ये गरिमा है देश की।
मुक्ति का है द्वार हमेशा ये खुला है, काशी गवाह है कि यहाँ सत्य तुला है।
केवल नदी नहीं है संस्कार है गंगा, पर्व है ये गीत है त्यौहार है गंगा।
केन्द्र है ये पुण्य का आधार है गंगा, धर्म जाति देश का शृंगार है गंगा।
गंगा की बात क्या करूँ गंगा उदास है।

जिससे भी मिली गंगा आदर से मिली है, नीचे उतर के दौड़ के सागर से मिली है।
घर घर में आर पार की माला इसी से है, जीवन का राग रंग उजाला इसी से है।
मीरा की सिर्फ एक मनौती में आगई, रैदास ने चाहा तो कठौती में आ गई।
ने भेदभाव है यहाँ न जात पाँत है, न ऊँच नीच है यहाँ न छूत छात है।
गणिका का भी धोती है पाप गर्व से गंगा, मिलती रोज रोज नये पर्व से गंगा।
हम भी तो पाप करते है गंगा के भरोसे, काशी में जाके मरते हैं गंगा के भरोसे।
काशी में बड़े मान से सम्मान से गंगा, सजती थी रोज रोज दीपदान से गंगा।
भरती थी दूध फूल और पान से गंगा, बहती थी सुबह शाम इत्मीनान से गंगा।
गंगा की बात क्या करूँ गंगा उदास है।

शंकर से भी ज्यादा है प्यार पारबती से, हँस-हँस के निभाती है यार पारबती से।
दोनो में आज तक कभी ठन-ठन नहीं हुई, ठन-ठन नहीं हुई कभी अनबन नहीं हुई।
परिवार में रहती है ये परिवार की तरह, पानी में नाव, नाव में पतवार की तरह।
रहती है साथ साथ हर एक काम में गंगा, है पारबती घाम में तो घाम में गंगा।
देखा है मैंने जाके गाँव पारबती के, गंगा पखारती है पाँव पारबती के।
घर पारबती का है गंगा का राज है, गंगा की बदौलत ही यहाँ घर की लाज है।
हँस हँस के महादेव को हर हर पुकारती, लेती है बलैया सदा लेती है आरती।
अस्सी निहारती इसे वरुणा निहारती, गंगा बड़ी उदार तू मुर्दा भी तारती।
गंगा की बात क्या करूँ गंगा उदास है।

न पीने के लिये है न नहाने के लिये है, गंगा भी आज खाने कमाने के लिये है।
हर घाट यात्री को फँसाने के लिये है, बोरे में बँधी लाश छिपाने के लिये है।
गंगा में आज नाव दिखाने के लिये है, हथियार और दारू बनाने के लिये है।
आने के लिये है न वो जाने के लिये है, कुछ रात गए खास ठिकाने के लिये है।
गुण्डे हैं बेहयाई है नौका विहार में, छनती हुई ठंडाई है नौका विहार में।
रबड़ी है मलाई है नौका विहार में, सावन की घटा छाई है नौका विहार में।
पर्वत है और राई है नौका विहार में, जितनी गलत कमाई है नौका विहार में।
मालिश के लिये नाई है नौका विहार में, छप्पन छुरी भी आई है नौका विहार में।
गंगा की बात क्या करूँ गंगा उदास है।

जो-कुछ-भी-आज-हो-रहा-गंगा-के-साथ-है, क्या-आप-को पता नहीं कि किसका हाथ है।
देखें तो आज क्या हुआ गंगा का हाल है, रहना मुहाल इसका जीना मुहाल है।
गंगा के पास दर्द है आवाज़ नहीं है, मुँह खोलने का कुल में रिवाज़ नहीं है।
गंगा नहीं रहेगी यही हाल रहा तो, कब तक यहाँ बहेगी यही हाल रहा तो
अब लीजिये संकल्प ये बीड़ा उठाइये, गंगा पर आँच आ रही गंगा बचाइये।
गंगा परंपरा है ये गंगा विवेक है, गंगा ही एक सत्य है गंगा ही टेक है।
गंगा से हरिद्वार है काशी प्रयाग है, गंगा ही घर की देहरी गंगा चिराग है।
गंगा ही ऊर्जा है गंगा ही आग है, गंगा ही दूध-पूत है गंगा सुहाग है।
गंगा की बात क्या करूँ गंगा उदास है ।

कहीं चलो ना, जी !

आज का मौसम कितना प्यारा
कहीं चलो ना, जी !
बलिया बक्सर पटना आरा
कहीं चलो ना, जी !

हम भी ऊब गए हैं इन
ऊँची दीवारों से,
कटकर जीना पड़ता है
मौलिक अधिकारों से ।
मानो भी प्रस्ताव हमारा
कहीं चलो ना, जी !

बोल रहा है मोर अकेला
आज सबेरे से,
वन में लगा हुआ है मेला
आज सबेरे से ।
मेरा भी मन पारा -पारा
कहीं चलो ना, जी !

झील ताल अमराई पर्वत
कबसे टेर रहे,
संकट में है धूप का टुकड़ा
बादल घेर रहे ।
कितना कोई करे किनारा
कहीं चलो ना, जी !

सुनती नहीं हवा भी कैसी
आग लगाती है,
भूख जगाती है यह सोई
प्यास जगाती है ।
सूख न जाए रस की धारा
कहीं चलो ना, जी !

बड़की भौजी

जब देखो तब बड़की भौजी हँसती रहती है
हँसती रहती है कामों में फँसती रहती है ।
झरझर झरझर हँसी होंठ पर झरती रहती है
घर का खाली कोना भौजी भरती रहती है ।।

डोरा देह कटोरा आँखें जिधर निकलती है
बड़की भौजी की ही घंटों चर्चा चलती है ।
ख़ुद से बड़ी उमर के आगे झुककर चलती है
आधी रात गए तक भौजी घर में खटती है ।।

कभी न करती नखरा-तिल्ला सादा रहती है
जैसे बहती नाव नदी में वैसे बहती है ।
सबका मन रखती है घर में सबको जीती है
गम खाती है बड़की भौजी गुस्सा पीती है ।।

चौका-चूल्हा, खेत-कियारी, सानी-पानी में
आगे-आगे रहती है कल की अगवानी में ।
पीढ़ा देती पानी देती थाली देती है
निकल गई आगे से बिल्ली गाली देती है ।।

भौजी दोनों हाथ दौड़कर काम पकड़ती है
दूध पकड़ती दवा पकड़ती दाम पकड़ती है ।
इधर भागती उधर भागती नाचा करती है
बड़की भौजी सबका चेहरा बाँचा करती है ।।

फ़ुर्सत में जब रहती है खुलकर बतियाती है
अदरक वाली चाय पिलाती, पान खिलाती है ।
भईया बदल गए पर भौजी बदली नहीं कभी
सास के आगे उल्टे पल्ला निकली नहीं कभी ।।

हारी नहीं कभी मौसम से सटकर चलने में
गीत बदलने में है आगे राग बदलने में ।
मुँह पर छींटा मार-मार कर ननद जगाती है
कौवा को ननदोई कहकर हँसी उड़ाती है ।।

बुद्धू को बेमशरफ कहती भौजी फागुन में
छोटी को कहती है गरी-चिरौंजी फागुन में ।
छ्ठे-छमासे गंगा जाती पुण्य कमाती है
इनकी-उनकी सबकी डुबकी स्वयं लगाती है ।।

आँगन की तुलसी को भौजी दूध चढ़ाती है
घर में कोई सौत न आए यही मनाती है ।
भइया की बातों में भौजी इतना फूल गई
दाल परोसकर बैठी रोटी देना भूल गई ।।

अमौसा के मेला

भक्ति के रंग में रंगल गाँव देखा,
धरम में, करम में, सनल गाँव देखा.
अगल में, बगल में सगल गाँव देखा,
अमौसा नहाये चलल गाँव देखा.

एहू हाथे झोरा, ओहू हाथे झोरा,
कान्ही पर बोरा, कपारे पर बोरा.
कमरी में केहू, कथरी में केहू,
रजाई में केहू, दुलाई में केहू.

आजी रँगावत रही गोड़ देखऽ,
हँसत हँउवे बब्बा, तनी जोड़ देखऽ.
घुंघटवे से पूछे पतोहिया कि, अईया,
गठरिया में अब का रखाई बतईहा.

एहर हउवे लुग्गा, ओहर हउवे पूड़ी,
रामायण का लग्गे ह मँड़ुआ के डूंढ़ी.
चाउर आ चिउरा किनारे के ओरी,
नयका चपलवा अचारे का ओरी.

अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.

(इस गठरी और इस व्यवस्था के साथ गाँव का आदमी जब गाँव के बाहर रेलवे स्टेशन पर आता है तब क्या स्थिति होती है ?)

मचल हउवे हल्ला, चढ़ावऽ उतारऽ,
खचाखच भरल रेलगाड़ी निहारऽ.
एहर गुर्री-गुर्रा, ओहर लुर्री‍-लुर्रा,
आ बीचे में हउव शराफत से बोलऽ

चपायल ह केहु, दबायल ह केहू,
घंटन से उपर टँगायल ह केहू.
केहू हक्का-बक्का, केहू लाल-पियर,
केहू फनफनात हउवे जीरा के नियर.

बप्पा रे बप्पा, आ दईया रे दईया,
तनी हम्मे आगे बढ़े देतऽ भईया.
मगर केहू दर से टसकले ना टसके,
टसकले ना टसके, मसकले ना मसके,

छिड़ल ह हिताई-मिताई के चरचा,
पढ़ाई-लिखाई-कमाई के चरचा.
दरोगा के बदली करावत हौ केहू,
लग्गी से पानी पियावत हौ केहू.
अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.

(इसी भीड़ में गाँव का एक नया जोड़ा, साल भर के अन्दरे के मामला है, वो भी आया हुआ है. उसकी गती से उसकी अवस्था की जानकारी हो जाती है बाकी आप आगे देखिये…)

गुलब्बन के दुलहिन चलै धीरे धीरे
भरल नाव जइसे नदी तीरे तीरे.
सजल देहि जइसे हो गवने के डोली,
हँसी हौ बताशा शहद हउवे बोली.

देखैली ठोकर बचावेली धक्का,
मने मन छोहारा, मने मन मुनक्का.
फुटेहरा नियरा मुस्किया मुस्किया के
निहारे ली मेला चिहा के चिहा के.

सबै देवी देवता मनावत चलेली,
नरियर प नरियर चढ़ावत चलेली.
किनारे से देखैं, इशारे से बोलैं
कहीं गाँठ जोड़ें कहीं गाँठ खोलैं.

बड़े मन से मन्दिर में दर्शन करेली
आ दुधै से शिवजी के अरघा भरेली.
चढ़ावें चढ़ावा आ कोठर शिवाला
छूवल चाहें पिण्डी लटक नाहीं जाला.

अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.

(इसी भीड़ में गाँव की दो लड़कियां, शादी वादी हो जाती है, बाल बच्चेदार हो जाती हैं, लगभग दस बारह बरसों के बाद मिलती हैं. वो आपस में क्या बतियाती हैं …)

एही में चम्पा-चमेली भेंटइली.
बचपन के दुनो सहेली भेंटइली.
ई आपन सुनावें, ऊ आपन सुनावें,
दुनो आपन गहना-गजेला गिनावें.

असो का बनवलू, असो का गढ़वलू
तू जीजा क फोटो ना अबतक पठवलू.
ना ई उन्हें रोकैं ना ऊ इन्हैं टोकैं,
दुनो अपना दुलहा के तारीफ झोंकैं.

हमैं अपना सासु के पुतरी तूं जानऽ
हमैं ससुरजी के पगड़ी तूं जानऽ.
शहरियो में पक्की देहतियो में पक्की
चलत हउवे टेम्पू, चलत हउवे चक्की.

मने मन जरै आ गड़ै लगली दुन्नो
भया तू तू मैं मैं, लड़ै लगली दुन्नो.
साधु छुड़ावैं सिपाही छुड़ावैं
हलवाई जइसे कड़ाही छुड़ावै.

अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.

(कभी-कभी बड़ी-बड़ी दुर्घटनायें हो जाती हैं. दो तीन घटनाओं में मैं खुद शामिल रहा, चाहे वो हरिद्वार का कुंभ हो, चाहे वो नासिक का कुंभ रहा हो. सन ५४ के कुंभ में इलाहाबाद में ही कई हजार लोग मरे. मैंने कई छोटी-छोटी घटनाओं को पकड़ा. जहाँ जिन्दगी है, मौत नहीं है. हँसी है दुख नहीं है….)

करौता के माई के झोरा हेराइल
बुद्धू के बड़का कटोरा हेराइल.
टिकुलिया के माई टिकुलिया के जोहै
बिजुरिया के माई बिजुरिया के जोहै.

मचल हउवै हल्ला त सगरो ढुढ़ाई
चबैला के बाबू चबैला के माई.
गुलबिया सभत्तर निहारत चलेले
मुरहुआ मुरहुआ पुकारत चलेले.

छोटकी बिटउआ के मारत चलेले
बिटिइउवे प गुस्सा उतारत चलेले.

गोबरधन के सरहज किनारे भेंटइली.

(बड़े मीठे रिश्ते मिलते हैं.)
गोबरधन के सरहज किनारे भेंटइली.
गोबरधन का संगे पँउड़ के नहइली.
घरे चलतऽ पाहुन दही गुड़ खिआइब.
भतीजा भयल हौ भतीजा देखाइब.

उहैं फेंक गठरी, परइले गोबरधन,
ना फिर फिर देखइले धरइले गोबरधन.

अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.

(अन्तिम पंक्तियाँ हैं. परिवार का मुखिया पूरे परिवार को कइसे लेकर के आता है यह दर्द वही जानता है. जाड़े के दिन होते हैं. आलू बेच कर आया है कि गुड़ बेच कर आया है. धान बेच कर आया है, कि कर्ज लेकर आया है. मेला से वापस आया है. सब लोग नहा कर के अपनी जरुरत की चीजें खरीद कर चलते चले आ रहे हैं. साथ रहते हुये भी मुखिया अकेला दिखाई दे रहा है….)

केहू शाल, स्वेटर, दुशाला मोलावे
केहू बस अटैची के ताला मोलावे
केहू चायदानी पियाला मोलावे
सुखौरा के केहू मसाला मोलावे.

नुमाइश में जा के बदल गइली भउजी
भईया से आगे निकल गइली भउजी
आयल हिंडोला मचल गइली भउजी
देखते डरामा उछल गइली भउजी.

भईया बेचारु जोड़त हउवें खरचा,
भुलइले ना भूले पकौड़ी के मरीचा.
बिहाने कचहरी कचहरी के चिंता
बहिनिया के गौना मशहरी के चिंता.

फटल हउवे कुरता टूटल हउवे जूता
खलीका में खाली किराया के बूता
तबो पीछे पीछे चलल जात हउवें
कटोरी में सुरती मलत जात हउवें.

अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.

सिर पर आग (कविता)

सिर पर आग
पीठ पर पर्वत
पाँव में जूते काठ के
क्या कहने इस ठाठ के ।।

यह तस्वीर
नई है भाई
आज़ादी के बाद की
जितनी क़ीमत
खेत की कल थी
उतनी क़ीमत
खाद की
सब
धोबी के कुत्ते निकले
घर के हुए न घाट के
क्या कहने इस ठाठ के ।।

बिना रीढ़ के
लोग हैं शामिल
झूठी जै-जैकार में
गूँगों की
फ़रियाद खड़ी है
बहरों के दरबार में
खड़े-खड़े
हम रात काटते
खटमल
मालिक खाट के
क्या कहने इस ठाठ के ।।

मुखिया
महतो और चौधरी
सब मौसमी दलाल हैं
आज
गाँव के यही महाजन
यही आज ख़ुशहाल हैं
रोज़
भात का रोना रोते
टुकड़े साले टाट के
क्या कहने इस ठाठ के ।।

सब जैसा का तैसा 

कुछ भी बदला नहीं फलाने !
सब जैसा का तैसा है
सब कुछ पूछो, यह मत पूछो
आम आदमी कैसा है ?

क्या सचिवालय क्या न्यायालय
सबका वही रवैया है
बाबू बड़ा न भैय्या प्यारे
सबसे बड़ा रुपैया है
पब्लिक जैसे हरी फ़सल है
शासन भूखा भैंसा है ।

मंत्री के पी. ए. का नक्शा
मंत्री से भी हाई है
बिना कमीशन काम न होता
उसकी यही कमाई है
रुक जाता है, कहकर फ़ौरन
`देखो भाई ऐसा है’ ।

मन माफ़िक सुविधाएँ पाते
हैं अपराधी जेलों में
काग़ज़ पर जेलों में रहते
खेल दिखाते मेलों में
जैसे रोज़ चढ़ावा चढ़ता
इन पर चढ़ता पैसा है ।

सन्नाटा 

कलरव घर में नहीं रहा सन्नाटा पसरा है
सुबह-सुबह ही सूरज का मुँह उतरा-उतरा है ।

पानी ठहरा जहाँ, वहाँ पर
पत्थर बहता है
अपराधी ने देश बचाया
हाक़िम कहता है
हाक़िम का भी अपराधी से रिश्ता गहरा है ।

हँसता हूँ जब तुम कबीर की
साखी देते हो
पैर काटकर लोगों को
बैसाखी देते हो
दहशत में है आम आदमी, तुमसे ख़तरा है ।

ठगा गया है आम आदमी
आया धोखे में
घर में भूत जमाए डेरा
देव झरोखे में
गूंगों की पंचायत करने वाला बहरा है ।

जैसा तुम बोओगे भाई !
वैसा काटोगे
भैंसे की मन्नत माने हो
भैंसा काटोगे
तेरी बारी है चोरी की, तेरा पहरा है ।

वे और हम 

स्वयं विचरते रहे सदा स्वच्छन्द दिशाओं में
हम सबको उलझाए रक्खा नीति-कथाओं में ।

हर पीढ़ी में छले गए हम
गुरुओं-प्रभुओं से
जीए भी तो इनके ही
खूँटे पर पशुओं से
घुट-घुट कर रह गई हमारी चीख़ गुफ़ाओं में ।

इन्हीं महंतों-संतों ने
कठघरा बनाया है
पाप-पुण्य औ स्वर्ग-नरक
इनकी ही माया है
अपने रहते प्रावधान से ये धाराओं में ।

हम होते हैं हवन
और ये होता होते हैं
कान फूँकते जहाँ
वहाँ हम श्रोता होते हैं
जनम-जनम यजमान सरीखे हम अध्यायों में ।

जैसे गोरे वैसे काले
कोई फ़र्क़ नहीं
सुनते जाओ करते जाओ
तर्क-वितर्क नहीं
कभी नहीं बर्दाश्त इन्हें अपनी सुविधाओं में ।

ममता से करुणा से 

ममता से, करुणा से, नेह से दुलार से
घाव जहाँ भी देखो, सहलाओ प्यार से ।

नारों से भरो नहीं
भरो नहीं वादों से
अंतराल भरो सदा
गीतों-संवादों से
हो जाएँगे पठार शर्तिया कछार से ।

भटके ना राहगीर
कोई अँधियारे में
दीये की तरह जलो
घर के गलियारे में
लड़ो आर-पार की लड़ाई अंधकार से ।

हाथ बनो, पैर बनो
राह बनो जंगल में
लहरों में नाव बनो
सेतु बनो दलदल में
प्यासों की प्यास हरो पानी की धार से ।

दस की भरी तिजोरी 

सौ में दस की भरी तिजोरी नब्बे खाली पेट
झुग्गीवाला देख रहा है साठ लाख का गेट ।

बहुत बुरा है आज देश में
लोकतंत्र का हाल
कुत्ते खींच रहे हैं देखो
कामधेनु की खाल
हत्या, रेप, डकैती, दंगा
हर धंधे का रेट ।

बिकती है नौकरी यहाँ पर
बिकता है सम्मान
आँख मूँद कर उसी घाट पर
भाग रहे यजमान
जाली वीज़ा पासपोर्ट है
जाली सर्टिफ़िकेट ।

लोग देश में खेल रहे हैं
कैसे कैसे खेल
एक हाथ में खुला लाइटर
एक हाथ में तेल
चाहें तो मिनटों में कर दें
सब कुछ मटियामेट ।

अंधी है सरकार-व्यवस्था
अंधा है कानून
कुर्सीवाला देश बेचता
रिक्शेवाला ख़ून
जिसकी उंगली है रिमोट पर
वो है सबसे ग्रेट ।

सच कहता हूँ मैं 

तुमने छुआ, जगा मन मेरा
सच कहता हूँ मैं
मेरा तो अब हुआ सबेरा
सच कहता हूँ मैं ।

काया पलट गई मेरी
दिनचर्या बदल गई
जैसे कोई फाँस फँसी थी
ख़ुद ही निकल गई
ख़ूब मिला तू रैन-बसेरा
सच कहता हूँ मैं ।

सारी उलझन सुलझ गई है
तेरे दर्शन से
मेरे मन में समा गया तू
मन के दर्पण से

मैं हूँ तेरा साँप-सँपेरा
सच कहता हूँ मैं
आधा-तीहा नहीं रहा मैं
पूरमपूर हुआ
जैसा बाहर वैसा भीतर
मैं भरपूर हुआ
हुई रोशनी, छँटा अँधेरा
सच कहता हूँ मैं ।

कविता मेरी

आलंबन, आधार यही है, यही सहारा है
कविता मेरी जीवन शैली, जीवन धारा है

यही ओढ़ता, यही बिछाता
यही पहनता हूँ
सबका है वह दर्द जिसे मैं
अपना कहता हूँ
देखो ना तन लहर-लहर
मन पारा-पारा है।

पानी-सा मैं बहता बढ़ता
रुकता-मुड़ता हूँ
उत्सव-सा अपनों से
जुड़ता और बिछुड़ता हूँ
उत्सव ही है राग हमारा
प्राण हमारा है ।

नाता मेरा धूप-छाँह से
घाटी टीलों से
मिलने ही निकला हूँ
घर से पर्वत-झीलों से
बिना नाव-पतवार धार में
दूर किनारा है ।

नौरंगिया

देवी-देवता नहीं मानती, छक्का-पंजा नहीं जानती
ताकतवर से लोहा लेती, अपने बूते करती खेती,
मरद निखट्टू जनख़ा जोइला, लाल न होता ऐसा कोयला,
उसको भी वह शान से जीती, संग-संग खाती, संग-संग पीती
गाँव गली की चर्चा में वह सुर्ख़ी-सी अख़बार की है
नौरंगिया गंगा पार की है ।

कसी देह औ’ भरी जवानी शीशे के साँचे में पानी
सिहरन पहने हुए अमोले काला भँवरा मुँह पर डोले
सौ-सौ पानी रंग धुले हैं, कहने को कुछ होठ खुले हैं
अद्भुत है ईश्वर की रचना, सबसे बड़ी चुनौती बचना
जैसी नीयत लेखपाल की वैसी ठेकेदार की है ।
नौरंगिया गंगा पार की है ।

जब देखो तब जाँगर पीटे, हार न माने काम घसीटे
जब तक जागे, तब तक भागे, काम के पीछे, काम के आगे
बिच्छू, गोंजर, साँप मारती, सुनती रहती विविध-भारती
बिल्कुल है लाठी सी सीधी, भोला चेहरा बोली मीठी
आँखों में जीवन के सपने तैय्यारी त्यौहार की है ।
नौरंगिया गंगा पार की है ।

ढहती भीत पुरानी छाजन, पकी फ़सल तो खड़े महाजन
गिरवी गहना छुड़ा न पाती, मन मसोस फिर-फिर रह जाती
कब तक आख़िर कितना जूझे, कौन बताए किससे पूछे
जाने क्या-क्या टूटा-फूटा, लेकिन हँसना कभी न छूटा
पैरों में मंगनी की चप्पल, साड़ी नई उधार की है ।
नौरंगिया गंगा पार की है।

सियाराम 

सियाराम का मन रमता है नाती-पोतों में
नहीं भागता मेले-ठेले बागों-खेतों में

बच्चों के संग सियाराम भी सोते जगते हैं
बच्चों में रहते हैं हरदम बच्चे लगते हैं

टाफ़ी खाते, बिस्कुट खाते ठंडा पीते हैं
टी.वी. के चैनल से ज्यादा चैनल जीते हैं

घोड़ा बनते इंजन बनते गाल फुलाते हैं
गुब्बारे में हवा फूँकते और उड़ाते हैं

सियाराम की दिनभर की दिनचर्या बदल गई
नहीं कचहरी की चिन्ता, बस आई निकल गई

चश्मे का शीशा फूटा औ’ छतरी टूट गई
भूल गए भगवान सुबह की पूजा छूट गई

जाने किसके नाम

जाने किसके नाम
हवा बिछाती पीले पत्ते
रोज सुबह से शाम।

टेसू के फूलों में कोई मौसम फूट रहा
टीले पर रुमाल नाव में रीबन छूट रहा
बंद गली के सिर आया है
एक और इल्जाम।

क्या कहने हैं पढ़ने लायक सरसों के तेवर
भाभी खातिर कच्ची अमियाँ बीछ रहे देवर
नये -नये अध्याय खोलते
नए नए आयाम।

टूट रही है देह सुबह से उलझ रही आँखे
फिर बैठी मुंडेर पर मैना फुला रही पाँखे
मेरे आंगन महुआ फूला
मेरी नींद हराम।

कैसे कैसे लोग

यह कैसी अनहोनी मालिक यह कैसा संयोग
कैसी-कैसी कुर्सी पर हैं कैसे-कैसे लोग ?

जिनको आगे होना था
वे पीछे छूट गए
जितने पानीदार थे शीशे
तड़ से टूट गए
प्रेमचंद से मुक्तिबोध से कहो निराला से
क़लम बेचने वाले अब हैं करते छप्पन भोग ।।

हँस-हँस कालिख बोने वाले
चाँदी काट रहे
हल की मूँठ पकड़ने वाले
जूठन चाट रहे
जाने वाले जाते-जाते सब कुछ झाड़ गए
भुतहे घर में छोड़ गए हैं सौ-सौ छुतहे रोग ।।

धोने वाले हाथ धो रहे
बहती गंगा में
अपने मन का सौदा करते
कर्फ्यू-दंगा में
मिनटों में मैदान बनाते हैं आबादी को
लाठी आँसू गैस पुलिस का करते जहाँ प्रयोग ।।

आँगन गायब हो गया

घर फूटे गलियारे निकले आँगन गायब हो गया
शासन और प्रशासन में अनुशासन ग़ायब हो गया ।

त्यौहारों का गला दबाया
बदसूरत महँगाई ने
आँख मिचोली हँसी ठिठोली
छीना है तन्हाई ने
फागुन गायब हुआ हमारा सावन गायब हो गया ।

शहरों ने कुछ टुकड़े फेंके
गाँव अभागे दौड़ पड़े
रंगों की परिभाषा पढ़ने
कच्चे धागे दौड़ पड़े
चूसा ख़ून मशीनों ने अपनापन ग़ायब हो गया ।

नींद हमारी खोई-खोई
गीत हमारे रूठे हैं
रिश्ते नाते बर्तन जैसे
घर में टूटे-फूटे हैं
आँख भरी है गोकुल की वृंदावन ग़ायब हो गया ।।

काँटा हुई तुलसी

लहलहाते खेत जैसे दिन हमारे
थार कच्चा खा गए ।

सूखकर काँटा हुई तुलसी
हमारी आस्था
धर्म सिर का बोझ, साहस
रास्ते से भागता
शाप जैसे भोगते
संकल्प मृग हम तृण धरे पथरा गए ।।

पर्व जैसे देह के जेवर
उतरते जा रहे
संस्कारों की बनावट आज
कीड़े खा रहे
गुनगुनाते आइने थे
वक़्त के हाथों गिरे चिहरा गए ।।

ना-नुकुर हीला-हवाली और
अस्फुट ग़ालियाँ
भाइयों की हरक़तें हैं
झनझनाती थालियाँ
एक अनुभव साढ़े-साती
रत्न जैसे दोस्त भी कतरा गए ।।

गुपतेसरा 

गुपतेसरा ने खोली है दुकान गाँव में
काट रहा चाँदी वह बेईमान गाँव में ।
गाँजा है, भाँग है, अफ़ीम, चरस-दारू है
ठेंगे पर देश और संविधान गाँव में ।

चाय पान बीड़ी सिगरेट तो बहाना है
असली है चकलाघर बेज़ुबान गाँव में ।
बम चाकू बंदूकों पिस्तौलों का धंधा
हथियारों की जैसे एक खान गाँव में ।

बिमली का पेट गिरा कमली का फूला है
सोते हैं थाने के दो दीवान गाँव में ।
खिसकी है पाँव की ज़मीन अभी थोड़ी-सी
बाक़ी है गिरने को आसमान गाँव में ।

सूखा है पाला है बाढ़ है वसूली है
किसको दे कंधे का हल किसान गाँव में ।
गुपतेसरा गुंडा है और पहुँच वाला है
कैसे हो लोगों को इत्मीनान गाँव में ।

घर फूटे गलियारे निकले

घर फूटे गलियारे निकले आँगन ग़ायब हो गया
शासन और प्रशासन में अनुशासन ग़ायब हो गया।

त्यौहारों का गला दबाया
बदसूरत महँगाई ने
आँख मिचोली हँसी-ठिठोली
छीना है तन्हाई ने
फागुन ग़ायब हुआ हमारा सावन ग़ायब हो गया ।

शहरों ने कुछ टुकड़े फेंके
गाँव अभागे दौड़ पड़े
रंगों की परिभाषा पढ़ने
कच्चे धागे दौड़ पड़े

चूसा खून मशीनों ने अपनापन ग़ायब हो गया ।

नींद हमारी खोई-खोई
गीत हमारे रूठे हैं
रिश्ते नाते बर्तन जैसे
घर में टूटे-फूटे हैं

आँख भरी है गोकुल की वृंदावन ग़ायब हो गया ।

दूर होने दो अँधेरा

दूर
होने दो अँधेरा
अब घरों से
दूर होने दो ।

और ताज़ा कर सके
माहौल को जो
साज़ ऐसा दो
बाँध ले
गिरते समय के मूल्य को
अंदाज़ ऐसा दो
आग बोओ
और काटो
रोशनी भरपूर होने दो ।।

हम सँवारेंगे
हरे पन्ने
गुलाबी धूप के अक्षर
दूर तक
गूँजे दिशाओं में
पसीने के उभरते स्वर
कल खिलेगा
और तोड़ो पर्वतों को
चूर होने दो ।।

कैसी चली हवा

बूँद-बूँद सागर जलता है
पर्वत रवा-रवा
पत्ता-पत्ता चिनगी मालिक कैसी चली हवा ?

धुआँ-धुआँ चंदन वन सारा
चिता सरीखी धरती
बस्ती-बस्ती लगती जैसे
जलती हुई सती
बादल वरुण इंद्र को शायद मार गया लकवा ।।

चोरी छिपे ज़िंदगी बिकती
वह भी पुड़िया-पुड़िया
किसने ऐसा पाप किया है
रोटी हो गई चिड़िया
देखें कब जूठा होता है मुर्चा लगा तवा ।।

किसके लिए ध्वजारोहण अब
और सुबह की फेरी
बाबू भइया सब बोते हैं
नागफनी झरबेरी
ऐरे-ग़ैरे नत्थू-खैरे रोज़ दे रहे फतवा ।।

अग्नि परीक्षा एक तरफ़ है
एक तरफ़ है कोप-भवन
कभी अकेले कभी दुकेले
रोज़ हो रहा चीरहरण
फ़रियादी को कच्ची फाँसी कौन करे शिकवा ।।

गान्ही जी

सिर फूटत हौ, गला कटत हौ, लहू बहत हौ, गान्‍ही जी
देस बंटत हौ, जइसे हरदी धान बंटत हौ, गान्‍ही जी
बेर बिसवतै ररूवा चिरई रोज ररत हौ, गान्‍ही जी
तोहरे घर क’ रामै मालिक सबै कहत हौ, गान्‍ही जी

हिंसा राहजनी हौ बापू, हौ गुंडई, डकैती, हउवै
देसी खाली बम बनूक हौ, कपड़ा घड़ी बिलैती, हउवै
छुआछूत हौ, ऊंच नीच हौ, जात-पांत पंचइती हउवै
भाय भतीया, भूल भुलइया, भाषण भीड़ भंड़इती हउवै

का बतलाई कहै सुनै मे सरम लगत हौ, गान्‍ही जी
केहुक नांही चित्त ठेकाने बरम लगत हौ, गान्‍ही जी
अइसन तारू चटकल अबकी गरम लगत हौ, गान्‍ही जी
गाभिन हो कि ठांठ मरकहीं भरम लगत हौ, गान्‍ही जी

जे अललै बेइमान इहां ऊ डकरै किरिया खाला
लम्‍बा टीका, मधुरी बानी, पंच बनावल जाला
चाम सोहारी, काम सरौता, पेटैपेट घोटाला
एक्‍को करम न छूटल लेकिन, चउचक कंठी माला

नोना लगत भीत हौ सगरों गिरत परत हौ गान्‍ही जी
हाड़ परल हौ अंगनै अंगना, मार टरत हौ गान्‍ही जी
झगरा क’ जर अनखुन खोजै जहां लहत हौ गान्‍ही जी
खसम मार के धूम धाम से गया करत हौ गान्‍ही जी

उहै अमीरी उहै गरीबी उहै जमाना अब्‍बौ हौ
कब्‍बौ गयल न जाई जड़ से रोग पुराना अब्‍बौ हौ
दूसर के कब्‍जा में आपन पानी दाना अब्‍बौ हौ
जहां खजाना रहल हमेसा उहै खजाना अब्‍बौ हौ

कथा कीर्तन बाहर, भीतर जुआ चलत हौ, गान्‍ही जी
माल गलत हौ दुई नंबर क, दाल गलत हौ, गान्‍ही जी
चाल गलत, चउपाल गलत, हर फाल गलत हौ, गान्‍ही जी
ताल गलत, हड़ताल गलत, पड़ताल गलत हौ, गान्‍ही जी

घूस पैरवी जोर सिफारिश झूठ नकल मक्‍कारी वाले
देखतै देखत चार दिन में भइलैं महल अटारी वाले
इनके आगे भकुआ जइसे फरसा अउर कुदारी वाले
देहलैं खून पसीना देहलैं तब्‍बौ बहिन मतारी वाले

तोहरै नाव बिकत हो सगरो मांस बिकत हौ गान्‍ही जी
ताली पीट रहल हौ दुनिया खूब हंसत हौ गान्‍ही जी
केहु कान भरत हौ केहू मूंग दरत हौ गान्‍ही जी
कहई के हौ सोर धोवाइल पाप फरत हौ गान्‍ही जी

जनता बदे जयंती बाबू नेता बदे निसाना हउवै
पिछला साल हवाला वाला अगिला साल बहाना हउवै
आजादी के माने खाली राजघाट तक जाना हउवै
साल भरे में एक बेर बस रघुपति राघव गाना हउवै

अइसन चढ़ल भवानी सीरे ना उतरत हौ गान्‍ही जी
आग लगत हौ, धुवां उठत हौ, नाक बजत हौ गान्‍ही जी
करिया अच्‍छर भंइस बराबर बेद लिखत हौ गान्‍ही जी
एक समय क’ बागड़ बिल्‍ला आज भगत हौ गान्‍ही जी

आई नदी

आई नदी गाँव में अब की डटी रही पखवारे भर
दुनिया भर से अपनी बस्ती कटी रही पखवारे भर

घड़ी-पहर भी झड़ी न टूटी, लगी रही पखवारे भर
सूरज के संग धूप भी जैसे भगी रही पखवारे भर

तीज-पर्व में मजा न आया आग लगी गुड़धानी में
पुरखों की जो रहा निशानी बैठ गया घर पानी में

इतना पानी चढ़ा कि उलटी बही गाँव में धारा भी
पकड़ी गई सरीहन चोरी, पकड़ा गया छिनारा भी

मरे पचासों, बहे सैंकड़ों कम हो गए मवेशी कितने
स्टीमर से बाढ़ देखने आए-गए विदेशी कितने

चीफ़ मिनिस्टर ऊपर-ऊपर बाढ़ देखकर चले गए
बाढ़-पीड़ितों में काग़ज़ की नाव फेंककर चले गए

गई नाव में माचिस लेने लौटी नहीं दुलारी घर
गाँव बहुत गुस्सा है तब से बाढ़-शिविर अधिकारी पर

गाँव गया था गाँव से भागा

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
रामराज का हाल देखकर
पंचायत की चाल देखकर
आँगन में दीवाल देखकर
सिर पर आती डाल देखकर
नदी का पानी लाल देखकर
और आँख में बाल देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
सरकारी स्कीम देखकर
बालू में से क्रीम देखकर
देह बनाती टीम देखकर
हवा में उड़ता भीम देखकर
सौ-सौ नीम हक़ीम देखकर
गिरवी राम-रहीम देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
जला हुआ खलिहान देखकर
नेता का दालान देखकर
मुस्काता शैतान देखकर
घिघियाता इंसान देखकर
कहीं नहीं ईमान देखकर
बोझ हुआ मेहमान देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
नए धनी का रंग देखकर
रंग हुआ बदरंग देखकर
बातचीत का ढंग देखकर
कुएँ-कुएँ में भंग देखकर
झूठी शान उमंग देखकर
पुलिस चोर के संग देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
बिना टिकट बारात देखकर
टाट देखकर भात देखकर
वही ढाक के पात देखकर
पोखर में नवजात देखकर
पड़ी पेट पर लात देखकर
मैं अपनी औकात देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
नए नए हथियार देखकर
लहू-लहू त्योहार देखकर
झूठ की जै-जैकार देखकर
सच पर पड़ती मार देखकर
भगतिन का शृंगार देखकर
गिरी व्यास की लार देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
मुठ्ठी में कानून देखकर
किचकिच दोनों जून देखकर
सिर पर चढ़ा ज़ुनून देखकर
गंजे को नाख़ून देखकर
उज़बक अफ़लातून देखकर
पंडित का सैलून देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

रस्ते में बादल 

रस्ते में बादल
दो चार छू गए
घर बिजली के नंगे
तार छू गए ।।

आँगन से भागे दालान में गए
एक अदद मीठी मुस्कान में गए
अँधियारे सौ-सौ
त्यौहार छू गए ।।

बाँहों में झील भरे ताल भरे हम
फूलों से लदी-लदी डाल भरे हम
केवड़े कदंब
बार-बार छू गए ।।

बरखा में हरे-हरे धान की छुवन
नहले पर दहला मेहमान की छुवन
घर बैठे –
बदरी केदार छू गए ।।

यही सोच कर 

यही सोचकर आज नहीं निकला –
गलियारे में
मिलते ही पूछेंगे बादल
तेरे बारे में ।

लहराते थे झील-ताल, पर्वत
हरियाते थे
हम हँसते थे झरना-झरना हम
बतियाते थे
इन्द्रधनुष उतरा करता था
एक इशारे में ।

छूती थी पुरवाई खिड़की, बिजली
छूती थी
झूला छूता था, झूले की कजली –
छूती थी
टीस गई बरसात भरी
पिछले पखवारे में ।

जंगल में मौसम सोने का हिरना
लगता था
कितना अच्छा चाँद का नागा करना-
लगता था
मन चकोर का बसता है
अब भी अंगारे में ।।

हिरना आँखें 

हिरना आँखें झील-झील
गलियारे पिया असाढ़ में,
गलियारे की नीम, निमौली-
मारे पिया असाढ़ में ।।

मेहँदी पहन रही पुरवाई
उतरी नदी पहाड़ों से
देख रहे हैं उड़ते बादल
हम अधखुले किवाड़ों से
आग लगाकर भाग रहे
आवारे पिया असाढ़ में ।।

दूर कहीं बरसा है पानी
सोंधी गंध हवाओं में
सिर धुनती लौटेंगी लहरें
कल से इन्हीं दिशाओं में
रेत की मछली छू जाती
अनियारे पिया असाढ़ में ।।

दिन भर देते हाथ बुलाते
टीले हरे कछारों में
देह हुई है महुवर जैसी
आज मधुर बौछारों में
इंद्रधनुष की छाँह, और
उद्गारे पिया असाढ़ में ।।

वसंती दोहे

गोरी धूप कछार की हम सरसों के फूल ।
जब-जब होंगे सामने तब-तब होगी भूल ।।

लगे फूँकने आम के बौर गुलाबी शंख ।
कैसे रहें क़िताब में हम मयूर के पंख ।।

दीपक वाली देहरी तारों वाली शाम ।
आओ लिख दूँ चँद्रमा आज तुम्हारे नाम ।।

हँसी चिकोटी गुदगुदी चितवन छुवन लगाव ।
सीधे-सादे प्यार के ये हैं मधुर पड़ाव ।।

कानों में जैसे पड़े मौसम के दो बोल ।
मन में कोई चोर था, भागा कुंडी खोल ।।

रोली-अक्षत छू गए खिले गीत के फूल ।
खुल करके बातें हुई मौसम के अनुकूल ।।

पुल बोए थे शौक से, उग आई दीवार ।
कैसी ये जलवायु है, हे मेरे करतार ।।

बादल टूटे ताल पर 

बादल
टूटे ताल पर |
आटा सनी हथेली जैसे
भाभी पोंछ गई
शोख ननद के गाल पर |

कजलीवन लौटी पुरवाई
गाता विन्ध्याचल
गंगा में जौ बोता खुलकर
इन्द्रधनुष आंचल
मीठा -मीठा चुंबन हँसकर
मौसम पार गया
नई फसल के भाल पर |

बंद गली की कसम न टूटी
गाड़ी छूट गई
लहरों में ही आर -पार की
माला टूट गई
तन जैसे पिंजरे का पंछी
मन का हाल वही
जैसे ढूध उबाल पर |

यह कैसी अनहोनी मालिक

यह कैसी अनहोनी मालिक
यह कैसा संयोग |
कैसी -कैसी कुर्सी पर हैं
कैसे -कैसे लोग |

जिनको आगे होना था
वो पीछे छूट गये
जितने पानीदार थे शीशे
तड़ से टूट गये
प्रेमचन्द से मुक्तिबोध से
कहो निराला से
कलम बेचने वाले अब हैं
करते छप्पन भोग |

हँस -हँस कालिख बोने वाले
चांदी काट रहे
हल की मूठ पकड़ने वाले
जूठन चाट रहे
जाने वाले जाते -जाते
सब कुछ झाड़ गये
भुतहे घर में छोड़ गये हैं
सौ -सौ छुतहे रोग |

धोने वाले हाथ धो रहे
बहती गंगा में
अपने मन का सौदा करते
कर्फ्यू दंगा में
मिनटों में मैदान बनाते हैं
आबादी को
लाठी ,आँसू गैस पुलिस का
करते जहाँ प्रयोग |

संतों के चरण पड़े

संतों के चरण पड़े
रेत में कछार खो गये |

पौ फटते ही ग्रहण लगा
और उग्रह होते शाम हो गयी
जब से मरा भगीरथ गंगा
घड़ियालों के नाम हो गयी
आंगन में अजगर लेटे हैं
पथ के दावेदार खो गये |

हल्दी रंगे सगुन के चावल
राख हो गये हवन कुंड में
उजले धुले शहर गीतों के
झुलस रहे हैं धुआँ धुन्ध में
नये पराशर हुए अवतरित
कुहरे में भिनसार खो गये |

आश्वासन कोरे थे कितने
कितने वादे झूठे थे
ऐश महल में वही हैं कल जो
कोपभवन में रूठे थे
आज उन्हीं के गले ढोल है
कल जिनके त्यौहार खो गये |

काली काली घटा देखकर 

काली -काली घटा देखकर
जी ललचाता है |
लौट चलो घर पंछी
जोड़ा ताल बुलाता है |

सोंधी -सोंधी
गंध खेत की
हवा बाँटती है
सीधी सादी राह
बीच से
नदी काटती है
गहराता है रंग और
मौसम लहराता है |

कैसे -कैसे
दृश्य नाचने लगे
दिशाओं में
मेरी प्यास
हमेशा चातक रही
घटाओं में
बींध रहा है गीत प्यार का
कैसा नाता है
सन्नाटे में
आंगन की बिरवाई
टीस रही
मीठी -मीठी छुवन
और
अमराई टीस रही
पागल को जैसे कोई
पागल समझाता है |

कैसे कैसे तलवे 

कैसे कैसे तलवे अब सहलाने पड़ते हैं
कदम कदम पर सौ सौ बाप बनाने पड़ते हैं

क्या कहने हैं दिन बहुरे हैं जब से घूरों के
घूरे भी अब सिर माथे बैठाने पड़ते हैं

शायद उसको पता नहीं वो गाँव की औरत है
इस रस्ते में आगे चलकर थाने पड़ते हैं

काम नहीं होता है केवल अर्जी देने से
कुर्सी कुर्सी पान फूल पहुँचाने पड़ते हैं

इस बस्ती में जीने के दस्तूर निराले हैं
हर हालत में वे दस्तूर निभाने पड़ते हैं

हँस हँस करके सारा गुस्सा पीना पड़ता है
रो रोकर लोहे के चने चबाने पड़ते हैं

फूला है

फूला है गलियारे का
कचनार पिया
तुम हो जैसे
सात समन्दर पार पिया |

हरे- भरे रंगों का मौसम
भूल गये
खुले -खुले अंगों का मौसम
भूल गये
भूल गये क्या
फागुन के दिन चार पिया |

जलते जंगल कि हिरनी
प्यास हमारी
ओझल झरने की कलकल
याद तुम्हारी
कहाँ लगी है आग
कहाँ है धार पिया |

दुनियां
भूली है अबीर में
रोली में
हरे पेड़ की
खैर नहीं है
होली में
सहन नहीं होती
शब्दों की मार पिया |

कचहरी न जाना

भले डांट घर में तू बीबी की खाना
भले जैसे-तैसे गिरस्ती चलाना
भले जा के जंगल में धूनी रमाना
मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना
कचहरी न जाना
कचहरी न जाना

कचहरी हमारी तुम्हारी नहीं है
कहीं से कोई रिश्तेदारी नहीं है
अहलमद से भी कोरी यारी नहीं है
तिवारी था पहले तिवारी नहीं है

कचहरी की महिमा निराली है बेटे
कचहरी वकीलों की थाली है बेटे
पुलिस के लिए छोटी साली है बेटे
यहाँ पैरवी अब दलाली है बेटे

कचहरी ही गुंडों की खेती है बेटे
यही ज़िन्दगी उनको देती है बेटे
खुले आम कातिल यहाँ घूमते हैं
सिपाही दरोगा चरण चूमते है

कचहरी में सच की बड़ी दुर्दशा है
भला आदमी किस तरह से फँसा है
यहाँ झूठ की ही कमाई है बेटे
यहाँ झूठ का रेट हाई है बेटे

कचहरी का मारा कचहरी में भागे
कचहरी में सोये कचहरी में जागे
मर जी रहा है गवाही में ऐसे
है तांबे का हंडा सुराही में जैसे

लगाते-बुझाते सिखाते मिलेंगे
हथेली पर सरसों उगाते मिलेंगे
कचहरी तो बेवा का तन देखती है
कहाँ से खुलेगा बटन देखती है

कचहरी शरीफों की खातिर नहीं है
उसी की कसम लो जो हाज़िर नहीं है
है बासी मुँह घर से बुलाती कचहरी
बुलाकर के दिन भर रुलाती कचहरी

मुकदमें की फाइल दबाती कचहरी
हमेशा नया गुल खिलाती कचहरी
कचहरी का पानी जहर से भरा है
कचहरी के नल पर मुवक्किल मरा है

मुकदमा बहुत पैसा खाता है बेटे
मेरे जैसा कैसे निभाता है बेटे
दलालों नें घेरा सुझाया-बुझाया
वकीलों नें हाकिम से सटकर दिखाया

धनुष हो गया हूँ मैं टूटा नहीं हूँ
मैं मुट्ठी हूँ केवल अंगूंठा नहीं हूँ
नहीं कर सका मैं मुकदमें का सौदा
जहाँ था करौदा वहीं है करौदा

कचहरी का पानी कचहरी का दाना
तुम्हे लग न जाये तू बचना बचाना
भले और कोई मुसीबत बुलाना
कचहरी की नौबत कभी घर न लाना

कभी भूल कर भी न आँखें उठाना
न आँखें उठाना न गर्दन फँसाना
जहाँ पांडवों को नरक है कचहरी
वहीं कौरवों को सरग है कचहरी। ।

फूल हँसो, गंध हँसो 

फूल हँसों गंध हँसों प्यार हँसो तुम
हँसिया की धार! बार-बार हँसो तुम।

हँसो और धार-धार तोड़कर हँसो
पुरइन के पात लहर ओढ़कर हँसो
जाडे की धूप आर-पार हँसों तुम
कुहरा हो और तार-तार हँसो तुम।

गुबरीले आंगन दालान में हँसो
ओ मेरी लौंगकली! पान में हँसो
बरखा की पहली बौछार हँसो तुम
घाटी के गहगहे कछार हँसों तुम।

हरसिंगार की फूली टहनियाँ हँसो
निंदियारी रातों की कुहनियाँ हँसो
बाँहों के आदमकद ज्वार हँसो तुम
मौसम की चुटकियाँ हजार हँसो तुम।

दोहे 

नये साल में रामजी, इतनी-सी फरियाद,
बना रहे ये आदमी, बना रहे संवाद।
नये साल में रामजी, बना रहे ये भाव,
डूबे ना हरदम, रहे पानी ऊपर नाव ।
नये साल में रामजी, इतना रखना ख्याल,
पांव ना काटे रास्ता, गिरे न सिर पर डाल।
नये साल में रामजी, करना बेड़ा पार,
मंहगाई की मार से, रोये ना त्यौहार ।
नये साल में रामजी, कहीं न हो हड़ताल,
ज्यादातर हड़ताल के, अगुवा आज दलाल।
नये साल में रामजी, बिगड़े ना भूगोल,
गैस रसोईं को मिले, गाड़ी को पेट्रोल ।
नये साल में रामजी, सुख बांटे मेहमान,
ज्यों का त्यों साबुत मिले, घर का हर सामान।
नेताओं को रामजी, देना बुद्धि विवेक,
सबका मन हो आईना, नीयत सबकी नेक।
नये साल में रामजी, कटे न मेरी बात,
रंगों की सौगात में, खुशबू हो इफ़रात ।
नये साल में रामजी, पाजी जायें जेल,
बार-बार है प्रार्थना, मिले न उनको बेल।
नये साल में रामजी, दुहरायें ना भूल,
पास न हो प्रस्ताव फिर, कोई ऊलजलूल ।
नये साल में रामजी, सपने हों साकार,
साथ भगीरथ के चले, जैसे जल की धार ।
नये साल में रामजी, ना हो भारत बंद,
हरदम छाया ही रहे, पब्लिक मे आनंद ।

रामधनी की दुलहिन 

रामधनी की दुलहिन
मुँह पर
उजली धूप
पीठ पर काली बदली है |

…रामधनी की दुलहिन
नदी नहाकर निकली है |

इसे देखकर
जल जैसे
लहराने लगता है ,
थाह लगाने वाला
थाह लगाने लगता है ,

होठों पर है हँसी
गले
चाँदी की हँसली है |

गाँव-गली
अमराई से
खुलकर बतियाती है ,
अक्षत -रोली
और नारियल
रोज़ चढ़ाती है ,

ईख के मन में
पहली-पहली
कच्ची इमली है |

लहरों का कलकल
इसकी
मीठी किलकारी है ,
पान की आँखों में
रहती
यह धान की क्यारी है ,

क्या कहना है परछाई का
रोहू मछली है |

दुबली -पतली
देह बीस की
युवा किशोरी है ,
इसकी अँजुरी
जैसे कोई
खीर कटोरी है ,

रामधनी कहता है
हँसकर
कैसी पगली है |

राहुल होना खेल नहीं 

राहुल होना खेल नहीं, वह सबसे अलग निराला था,
अद्भुत जीवट वाला था, वह अद्भुत साहस वाला था ।

रमता जोगी बहता पानी, कर्मयोग था बाँहों में,
होकर जैसे मील का पत्थर, वह चलता था राहों में ।

मुँह पर चमक आँख में करुणा, संस्कार का धनी रहा,
संस्कार का धनी रहा, वह मान-प्यार का धनी रहा ।

बाँधे से वह बँधा नहीं, है घिरा नहीं वह घेरे से,
जलता रहा दिया-सा हरदम, लड़ता रहा अँधेरे से ।

आँधी आगे रुका नहीं, वह पर्वत आगे झुका नहीं,
चलता रहा सदा बीहड़ में, थका नहीं वह चुका नहीं ।

पक्का आजमगढ़िया बाभन, लेकिन पोंगा नहीं रहा,
जहाँ रहा वह रहा अकेला, उसका जोड़ा नहीं रहा ।

ठेठ गाँव का रहने वाला, खाँटी तेवर वाला था,
पंगत मे वह प्रगतिशील था, नये कलेवर वाला था ।

जाति-धर्म से ऊपर उठ कर, खुल कर हाथ बँटाता था,
इनसे उनसे सबसे उसका, भाई-चारा नाता था ।

भूख-गरीबी-सूखा-पाला, सब था उसकी आँखों में,
क्या-क्या उसने नहीं लिखा है, रह कर बन्द सलाखों में ।

साधक था, आराधक था, वह अगुआ था, अनुयायी था,
सर्जक था, आलोचक था, वह शंकर-सा विषपायी था. ।

सुविधाओं से परे रहा, वह परे रहा दुविधाओं से,
खुल कर के ललकारा उसने, मंचों और सभाओं से ।

माघ-पूस में टाट ओढ़ कर जाड़ा काटा राहुल ने,
असहायों लाचारों का दुःख हँस कर बाँटा राहुल ने ।

कौन नापने वाला उसको, कौन तौलने वाला है?
जिसका कि हर ग्रन्थ हमारी आँख खोलने वाला है ।

परिव्राजक, औघड़, गृहस्थ था, वह रसवन्त वसन्त रहा,
जीवन भर जीवन्त रहा वह, जीवन भर जीवन्त रहा ।

तेज धूप में 

तेज़ धूप में
नंगे पाँव
वह भी रेगिस्तान में,
मेरे जैसे जाने कितने
हैं इस हिन्दुस्तान में ।

जोता-बोया-सींचा-पाला
बड़े जतन से देखा भाला
कटी फ़सल तो
साथ महाजन भी
उतरे खलिहान में ।

जाने क्या-क्या टूटा-फूटा
हँसी न छूटी गीत न छूटा
सदा रह
तिरसठ का नाता
बिरहा और मचान में ।

जीना भी है मरना भी है
मुझको पार उतरना भी है
यही सोचता रहा
बराबर
बैठा कन्यादान में ।

उतरे नहीं ताल पर पंछी

उतरे नहीं ताल पर पंछी
बादल नहीं घिरे
हम बंजारे
मारे-मारे
दिन भर आज फिरे ।

गीत न फूटा
हँसी न लौटी
सब कुछ मौन रहा,
पगडंडी पर आगे-आगे
जाने कौन रहा
हवा न डोली
छाँह न बोली
ऐसे मोड़ मिले ।

आर-पार का न्योता देकर
मौसम चला गया
हिरन अभागा उसी रेत में
फिर-फिर छला गया
प्यासे ही रह गए
हमारे
पाटल नहीं खिले ।

मन दो टूक हुआ है
सपने
चकनाचूर हुए
जितनी दूर नहीं सोचे थे
उतनी दूर हुए
रात गए
आँगन में सौ-सौ
तारे टूट गिरे ।

बारिश में घर लौटा कोई 

      बारिश में घर लौटा कोई
दर्पण देख रहा
न्यूटन जैसे पृथ्वी का
आकर्षण देख रहा ।

धान-पान-सी आदमकद
हरियाली लिपटी है,
हाथों में हल्दी पैरों में
लाली लिपटी है
भीतर ही भीतर कितना
परिवर्तन देख रहा ।

गीत-हँसी-संकोच-शील सब
मिले विरासत में
जो कुछ है इस घर में सब कुछ
प्रस्तुत स्वागत में

कितना मीठा है मौसम का
बंधन देख रहा ।

नाच रही है दिन की छुवन
अभी भी आँखों में,
फूलझरी-सी छूट रही है
वही पटाखों में
लगता जैसे मुड़-मुड़ कोई
हर क्षण देख रहा ।

दिन भर चाह रही होठों पर,
दिन भर प्यास रही
रेशम जैसी धूप रही
मखमल-सी घास रही
आँख मूँदकर
सुख
सर्वस्व समर्पण देख रहा ।

बीते दिन

बीते दिन
मैं भूल नहीं पाता,
था कोई जो
मुझे देखकर
मई जून की तेज़ धूप में
मेरे आगे हो जाता था
बादल, पेड़, खुला छाता ।

मन से जुड़ता
चुटकी लेता
ताने कसता था,
खिल उठता था ताल
चाँद पानी में हँसता था
मैं उसकी आँखों में सोता
वह मेरी साँसों में गाता ।

कैसे-कैसे शहर और
कैसी यात्राएँ हैं,
तेज़ धार में हाथ थामकर
साथ नहाए हैं
कितना सहज समर्पण था वह
कैसा था स्वाभाविक नाता

कैसी-कैसी सीमाएँ थीं
कैसे घेरे थे,
शामें थीं रसवंत और
जीवंत सबेरे थे
तन जैसे लहराता रहता
रस जैसे मौसम बरसाता ।

छुट्टियाँ होती हैं लेकिन

छुट्टियाँ होती हैं लेकिन
क्या बताएँ छुट्टियों में हम
अब नहीं घर से निकलते
रंग लेकर राग लेकर
एक आदिम आग लेकर
मुट्ठियों में हम ।

धूप-झरना, फूल-पत्ते
गुनगुनाती घाटियाँ
ले गईं सब कुछ उड़ाकर
सभ्यता की आँधियाँ
घर गृहस्थी दोस्त दफ़्तर
बोझ सब लगते समय पर
जी रहे बस औपचारिक
चिट्ठियों में हम ।

कल्पनाएँ प्रेम की
संवेदनाएँ प्रेम की
विज्ञापनों में आ गईं
सारी ऋचाएँ प्रेम की
थे गीत-वंशी कहकहे
क्या-क्या नहीं भोगे सहे
ईंधन हुए
कैसा समय की
भट्ठियों में हम ।

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