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चंदबरदाई की रचनाएँ

प्रन्म्म प्रथम मम आदि देव

प्रन्म्म प्रथम मम आदि देव
ऊंकार सब्द जिन करि अछेव
निरकार मध्य साकार कीन
मनसा विलास सह फल फलीन
बरन्यौ आदि-करता अलेख
गुन सहित गुननि नह रूप रेख
जिहि रचे सुरग भूसत पताल
जम ब्रम्ह इन्द्र रिषी लोकपाल
असि-लक्ख-चार रच जीव जंत
बरनंत ते न लहों अंत
करि सके न कोई अग्याहि भंग
धरि हुकुम सिस दुख सहे अंग
दिनमान देव रवि रजनि भोर
उग्गई बनें प्रभु हुकुम जोर
ससि सदा राति अग्या अधीन
उग्गैएँ अकास होय कला हीन
परिमान अप्प लंघै न कोई
करै सोई क्रम प्रभु हुकुम जोई
बरन्यौ वेड ब्रह्मा अछेह
जल थलह पूरि रह्यौ देह-देह .

तन तेज तरनि ज्यों घनह ओप

तन तेज तरनि ज्यों घनह ओप .
प्रगटी किरनि धरि अग्नि कोप .

चन्दन सुलेप कस्तूर चित्र .
नभ कमल प्रगटी जनु किरन मित्र.

जनु अग्निं नग छवि तन विसाल .
रसना कि बैठी जनु भ्रमर व्याल .

मर्दन कपूर छबि अंग हंति .
सिर रची जानि बिभूति पंति .

कज्जल सुरेष रच नेन संति .
सूत उरग कमल जनु कोर पंति.

चंदन सुचित्र रूचि भाल रेष.
रजगन प्रकास तें अरुन भेष .

रोचन लिलाट सुभ मुदित मोद .
रवि बैठी अरुन जनु आनि गोद.

धूसरस भूर बनि बार सीस.
छबि बनी मुकुट जनु जटा ईस.

धमकन्त धरनि इत लत घात.
इक श्वास उड़त उपवनह पात.

विश्शीय चरित ए चंद भट्ट .
हर्षित हुलास मन में अघट्ट

कुछ छंद

१.

‘चन्द’ प्यारो मितु, कहो क्यों पाईऐ
करहु सेवा तिंह नित, नहिं चितह भुलाईऐ
गुनि जन कहत पुकार, भलो या जीवनो
हो बिन प्रीतम केह काम, अमृत को पीवनो।

२.

अंतरि बाहरि ‘चन्द’ एक सा होईऐ
मोती पाथर एक, ठउर नहिं पाईऐ
हिये खोटु तन पहर, लिबास दिखाईऐ
हो परगटु होइ निदान, अंत पछुताईऐ।

३.

जब ते लागो नेहु, ‘चन्द’ बदनाम है
आंसू नैन चुचात, आठु ही जाम है
जगत माहिं जे बुधिवान सभ कहत है
हो नेही सकले संग नाम ते रहत है।

४.

सभ गुण जो प्रवीण, ‘चन्द’ गुनवंतु है
बिन गुण सब अधीन, सु मूरखु जंतु है
सभहु नरन मैं ताकु, होइ जो या समैं
हो हुनरमन्द जो होइ, समो सुख सिउं रमैं।

५.

‘चन्द’ गरज़ बिन को संसार न देखीऐ
बेगरज़ी अमोल रत्न चख पेखीऐ
रंक राउ जो दीसत, है संसार मैं
हो नाहिं गरज़ बिन कोऊ, कीयो विचार मैं।

६.

‘चन्द’ राग धुनि दूती प्रेमी की कहैं
नेमी धुन सुन थकत, अचंभौ होइ रहै
बजत प्रेम धुनि तार, अक्ल कउ लूट है
हो श्रवण मध्य होइ पैठत, कबहू न छूट है।

७.

‘चन्द’ प्रेम की बात, न काहूं पै कहो
अतलस खर पहराय, कउन खूबी चहों
बुधिवान तिंह जान, भेद निज राखई
हो देवै सीस उतारि, सिररु नहिं भाखई।

८.

‘चन्द’ माल अर मुल्क, जाहिं प्रभु दीयो है
अपनो दीयो बहुत, ताहिं प्रभु लीयो है
रोस करत अज्ञानी, मन का अंध है
हो अमर नाम गोबिन्द, अवरु सब धन्द है।

९.

‘चन्द’ जगत मो काम सभन को कीजीऐ
कैसे अम्बर बोइ, खसन सिउं लीजीऐ
सोउ मर्द जु करै मर्द के काम कउ
हो तन मन धन सब सउपे, अपने राम कउ।

१०.

‘चन्द’ प्यारनि संगि प्यार बढाईऐ
सदा होत आनन्द राम गुण गाईऐ
ऐसो सुख दुनिया मैं, अवर न पेखीऐ
हो मिलि प्यारन कै संगि, रंग जो देखीऐ।

११.

‘चन्द’ नसीहत सुनीऐ, करनैहार की
दीन होइ ख़ुश राखो, खातर यार की
मारत पाय कुहाड़ा, सख्ती जो करै
हो नरमायी की बात, सभन तन संचरै।

१२.

‘चन्द’ कहत है काम चेष्टा अति बुरी
शहत दिखायी देत, हलाहल की छुरी
जिंह नर अंतरि काम चेष्टा अति घनी
हो हुइ है अंत खुआरु, बडो जो होइ धनी।

१३.

‘चन्द’ प्यारे मिलत होत आनन्द जी
सभ काहूं को मीठो, शर्बत कन्द जी
सदा प्यारे संगि, विछोड़ा नाहिं जिस
हो मिले मीत सिउं मीत, एह सुख कहे किस।

१४.

‘चन्द’ कहत है ठउर, नहीं है चित जिंह
निस दिन आठहु जाम, भ्रमत है चित जिंह
जो कछु साहब भावै, सोई करत है
हो लाख करोड़ी जत्न, किए नहीं टरत है।

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