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दोहा / भाग 1

परम पुरुष कवि जानकी, बन्दत हौं सिर नाय।
निज ही अनुभव तें हिए, जो प्रभु जान्यो जाय।।1।।

साँचे कवि कवि जानकी, सोई जानों आप।
गागर में भर देत हैं, जो सागर को आप।।2।।

कवि कटाक्ष कवि जानकी, जानों असि की धार।
बिन दानी बिन सूरमा, कौन सहै यह बार।।3।।

सगुण सरस कवि जानकी, सुवरण सुखद सराग।
इमि कविता अरु कामिनी, पावत हैं बड़ भाग।।4।।

अहो सुजन वह शर कहा, कहा काव्य वह आय।
पर हिय लग कवि जानकी, नहीं बेध जो जाय।।5।।

कबिता में कवि जानकी, दोषहि खोजत मूढ़।
सुन्दर बन में ऊँट ज्यों, इक कंटक तरु ढूँढ़।।6।।

बिधि हरि हर कवि जानकी, जिनके सबै गुलाम।
कुसुमायुध भगवान को, हमारी कोट प्रणाम।।7।।

बिचकौ नहिं कवि जानकी, रस सिंगार लखि मीत।
इहि बिनु जानें मिमि बँधैं, दम्पति डोरी प्रीत।।8।।

लखि सिंगार कवि जानकी, नाक सिकोरौ नाहिं।
इहि अभाव अब ह्वै रह्यो, कलह दम्पतिन माहिं।।9।।

को जाने कवि जानकी, बिना चले यह बाट।
अजब मजा तिन ने लिया, जिन लूटी रस-हाट।।10।।

दोहा / भाग 2

काम घाट कवि जानकी, संगम पर मलमास।
चढ़ै कमल सिव सीस पै, धन्य जन्म है तास।।11।।

घूँघट में कवि जानकी, मुख सोहत इमि जोय।
गह्यो राहु मानों किधौं, ढँप्यो मेघ शशि होय।।12।।

बस कीन्हें कवि जानकी, कैसे री ब्रज-बाम।
सूधे सहज स्वभाव तें, तैंने टेढ़े श्याम।।13।।

कारी सारी में घनी, बुँ की स्वेत सुहाय।
जमुना में कवि जानकी, खिली चमेली आय।।14।।

मधु ऋतु या मधु मास में, मधु को पुण्य महान।
मोहि करौ कवि जानकी, प्रिया अधर मधु दान।।15।।

उलटी गति कवि जानकी, बिरहागिन की जोय।
दूर भये देही जरे, नीरे सीरी होय।।16।।

उल्टी गति कवि जानकी, बिरहानल की आय।
प्रजरै नीर उसीर के, पिय की बात बुझाय।।17।।

द्वार जाय कवि जानकी, गाय बिरह की गाथ।
दरस भीख याचक नयन, पला न पसारत हाथ।।18।।

खिले कमल दृग रूप सर, तिनको सौरभ पाय।
आवत हैं कवि जानकी, अलि नेही नित धाय।।19।।

भीर रूप की है जुरी, परी परब झख केत।
मन धन दै कवि जानकी, दृग छवि सौदा लेत।।20।।

दोहा / भाग 3

रूप सिंधु कवि जानकी, पार न सकहौ पाह।
नैना ज्ञान मलाह की, चलिहै जो न सलाह।।21।।

ललित लता कवि जानकी, जे बन बौरीं बाम।
रसिया तिन रस लैन को, भयो भ्रमर यह श्याम।।22।।

भल बल तें कवि जानकी, प्रजा सीस झुक जाय।
दया नरमियत न्याय बिनु, पै दिल झुकत न आय।।23।।

राज काज कवि जानकी, चलै न उत्तम रूप।
रैयत की मरजी बिना, खुदगरजी से भूप।।24।।

रमा गिरा कवि जानकी, दोऊ उत्त आहिं।
पै विवेक बिन दोउ ही, कोउ काम की नाहिं।।25।।

कोउ लेय कवि जानकी, कोउ देय रस राख।
पै नाहक को शुक्र ने, खोई अपनी आँख।।26।।

शूरन को कवि जानकी, पानी जानों मुक्ख।
नाक न कट्टै नक्ख भर, माथा कट्टै लक्ख।।27।।

निज निज तौ कवि जानकी, सब ही जानत पीर।
पर नर बर बेई अहैं, जो जानैं पर पीर।।28।।

गुजर होत कवि जानकी, बहुतन की जिहि संग।
सोइ धन्य नतु को नहीं, पोषत है निज अंग।।29।।

काक श्वान सम निज उदर, को न भरत संसार।
वही धन्य कवि जानकी, जो कर पर उपकार।।30।।

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