आँखों में कैसा पानी बंद है क्यूँ आवाज़
आँखों में कैसा पानी बंद है क्यूँ आवाज़
अपने दिल से पूछो जानाँ मेरी चुप का राज़
उसके ज़ख़्म को सहना रहना उस में ही महसूर
उस के ज़ुल्म पे हँस कर कहना तेरी उम्र दराज़
तेरी मर्ज़ी ख़ुशियों के या छेड़ ग़मों के राग
तू मेरी सुर-ताल का मालिक मैं हूँ तेरा साज़
दिल की हर धड़कन का मौजिब दीद शुनीद तिरी
सीने में जलती साँसों का तू ही एक जवाज़
और सी और हुआ है साजन ज़ीस्त का हर मफ़्हूम
और सी और हुई है मेरी सोचों की परवाज़
तुझ बिन कौन बनेगा ख़ाली आँखें गुंग सदा
तुझ बिन जान करेगा ‘ताहिर’ किस से राज़ नियाज़
बुझ रही है आँख ये जिस्म है जुमूद में
बुझ रही है आँख ये जिस्म है जुमूद में
ऐ मकीन-ए-शहर-ए-दिल आ मिरी हुदूद में
पड़ गई दराड़ सी क्या दरून-ए-दिल कहीं
आ गई शिकस्तगी क्यूँ मिरे वजूद में
ख़्वाहिश-ए-क़दम कि हों उस तरफ़ ही गामज़न
दिल की आरजू रहे उस की ही क़ुयूद में
रंग क्या अजब दिया मेरी बेवफ़ाई को
उस ने यूँ किया कि मेरे ख़त जलाए ऊद में
तू ने जो दिया हमें उसे से बढ़ के देंगे हम
बेवफ़ाई असल ज़र नफ़रतों को सूद में
बाम-ए-इंतिज़ार पर देखता हूँ दो दिए
झाँकता हूँ जब कभी रफ़्तगाँ के दूद में
मुझे वो छोड़ कर जब से गया है इंतिहा है
मुझे वो छोड़ कर जब से गया है इंतिहा है
रग-ओ-पय में फ़ज़ा-ए-कर्बला है इंतिहा है
मिरे हालात हैं नाराज़ इस पे क्या करूँ मैं
गुरेज़ाँ आसमानों से दुआ है इंतिहा है
ग़म ओ आलाम हैं या हसरतें हैं ज़िंदगी में
तुम्हारे बाद बाक़ी क्या बचा है इंतिहा है
फ़क़त तुम ही नहीं नाराज़ मुझ से जान-ए-जानाँ
मिरे अंदर का इंसाँ तक ख़फ़ा है इंतिहा है
कहीं मंज़र असालीब-ए-हवस के चार-सू है
कहीं पे ख़ून-आलूदा फ़ज़ा है इंतिहा है
ख़मोशी तोड़ दे ऐ ख़ालिक-ए-अर्ज़-ओ-समा अब
तिरी मख़्लूक़ बन बैठी ख़ुदा है इंतिहा है
ग़ज़ल जो तुम पे ‘ताहिर’ ने लिखी थी जान-ए-‘ताहिर’
वही है ज़ीनत-ए-बाम-ए-बक़ा है इंतिहा है
हर एक रस्ता-ए-पायाब से निकलना है
हर एक रस्ता-ए-पायाब से निकलना है
सराब-ए-उम्र के हर बाब से निकलना है
सर-ए-अनासिर-ए-कामयाब से निकलना है
शुमार-ए-नादिर-ओ-नायाब से निकलना है
तवील-तर से किसी ख़्वाब में उतरने को
हर एक शख़्स को इस ख़्वाब से निकलना है
लहू लहू सर-ए-मिज़्गाँ तुलू होना है
किनार-ए-ख़ित्ता-ए-पुर-आब से निकलना है
उसे भी पर्दा-ए-तहज़ीब को गिराना है
मुझे भी पैकर-ए-नायाब से निकलना है
सुकून लम्हा-ए-भारी ने ही उगलना है
तो चैन अर्सा-ए- बे-ताब से निकलना है
नहीं है रहना उसे भी बहार में ‘ताहिर’
मुझे भी मौसम-ए-शादाब से निकलना है