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मयंक अवस्थी की रचनाएँ

तारों से और बात में कमतर नहीं हूँ मैं

तारों से और बात में कमतर नहीं हूँ मैं
जुगनू हूँ इसलिये कि फ़लकपर नहीं हूँ मैं

सदमों की बारिशें मुझे कुछ तो घुलायेंगी
पुतला हूँ ख़ाक का कोई पत्थर नहीं हूँ मैं

दरिया-ए-ग़म में बर्फ के तोदे की शक्ल में
मुद्दत से अपने क़द के बराबर नहीं हूँ मैं

उसका ख़याल उसकी ज़ुबाँ उसके तज़्किरे
उसके क़फ़स से आज भी बाहर नहीं हूँ मैं

मैं तिश्नगी के शहर पे टुकड़ा हूँ अब्र का
कोई गिला नहीं कि समन्दर नहीं हूँ मैं

टकरा के आइने से मुझे इल्म हो गया
किर्चों से आइने की , भी बढकर नहीं हूँ मैं

क्यूँ ज़हर ज़िन्दगी ने पिलाया मुझे “मयंक”
वो भी तो जानती थी कि ,शंकर नहीं हूं मैं

मेरी ही धूप के टुकड़े चुरा के लाता है

मेरी ही धूप के टुकड़े चुरा के लाता है
मेरा ही चाँद मुझे कहकशाँ दिखाता है

ये किसकी प्यास से दरिया का दिल है ख़ौफज़दा
हवा भी पास से ग़ुज़रे तो थरथराता है

बदन की प्यास वो शै है कि कोई सूरज भी
सियाह झील की बाँहों में डूब जाता है

अना के दार पे इक शाहराह खुलती है
जिसे कि बस कोई मंसूर देख पाता है

बदनफरोश हो गये हैं रूह के रहबर
ये वक्त देखिये अब और क्या दिखाता है

कोई हक़ीर भटकता है शाहराहों पर
अना का दश्त मुझे रास्ता दिखाता है

सादगी पहचान जिसकी ख़ामुशी आवाज़ है

सादगी पहचान जिसकी ख़ामुशी आवाज़ है
सोचिये उस आइने से क्यों कोई नाराज़ है

बेसबब सायों को अपने लम्बे क़द पे नाज़ है
ख़ाक में मिल जायेंगे ये शाम का आग़ाज़ है

यूँ हवा लहरों पे कुछ तह्रीर करती है मगर
झूम कर बहत है दरिया का यही अन्दाज़ है

देख कर शाहीं को पिंजरे में पतिंगा कुछ कहे
जानता वो भी है किसमे कुव्वते-परवाज़ है

क्यो मुगन्नी के लिये बैचैन है तू इस क़दर
ऐ दिले नादाँ कि तू तो इक शिकस्ता साज़ है

ये ज़ुबाँ और ये नज़र उस पर बराहना ख्वाहिशें
दाश्ताओं सी तेरी सीरत तेरा अन्दाज़ है

बिखर जाये न मेरी दास्ताँ तहरीर होने तक

बिखर जाये न मेरी दास्ताँ तहरीर होने तक
ये आँखें बुझ न जायें ख़्वाब की ताबीर होने तक

चलाये जा अभी तेशा कलम का कोहे –ज़ुल्मत पर
सियाही वक़्त भी लेती है जू-ए-शीर होने तक

इसी ख़ातिर मेरे अशआर अब तक डायरी में हैं
किसी आलम में जी लेंगे ये आलमगीर होने तक

तेरे आग़ाज़ से पहले यहाँ जुगनू चमकते थे
ये बस्ती मुफ़लिसों की थी तेरी जागीर होने तक

मुझे तंज़ो-मलामत की बड़ी दरकार है यूँ भी
अना को सान भी तो चाहिये शमशीर होने तक

ये क्यों लगता है अपनी ज़ात का हिस्सा नहीं हूँ मैं
मेरा अहसास भारतवर्ष था कश्मीर होने तक

मुहब्बत आखिरश ले आयी है इक बन्द कमरे में
तेरी तस्वीर अब देखूँगा खुद तस्वीर होने तक

जब ख़ुद में कुछ मिला न ख़दो –ख़ाल की तरह

जब ख़ुद में कुछ मिला न ख़दो –ख़ाल की तरह
कुछ आइने में ढूँढ लिया बाल की तरह

सोई हुई है सुबह की तलवार जब तलक
ये शब है जुगनुओं के लिये ढाल की तरह

कुछ रोशनी के दाग़ ,उजाले का एक ज़ख़्म
कुछ तो है शब के दिल में ज़रो-माल की तरह

तहरीर कर रही है मिरी पस्त तिश्नगी
झीलों को पानियों के बिछे जाल की तरह

नागिन है कोई बेल शजर बाख़बर नहीं
केंचुल चढी हो तन पे अगर छाल की तरह

मैं मोरनी बना के उन्हें आप हो गया
इस घर की मुर्गियों के लिये दाल की तरह

फिर भी तमाम दाग़ छुपाये न छुप सके
गो चाँदनी बदन पे रही शाल की तरह

बस आइने से एक मुलाकात के सबब
लम्हात हो गये हैं महो-साल की तरह

तुम झुक गये “ मयंक” ज़माने के सामने
फूलों से और फलों से लदी डाल की तरह

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