अब नहीं
यह विलंबित अर्थच्युत स्वीकार
राघव, अब नहीं।
हिल गये मन के सभी आधार
राघव, अब नहीं!
ओ धरित्री मां! फटो, मुझको संभालो गोद में
यह मिलन की यंत्रणा होगी न अब मुझसे सहन
छीलते अपमान का विष घुल रहा आमोद में
और झुलसाने लगा अभिशाप-सा अंतर्दहन
और ज्यादा दृप्त मन की हार
राघव, अब नहीं!
क्षीरसागर से छलकता क्षार
राघव, अब नहीं!
इस विवश स्वीकार की मैंने न की थी कामना
किन्तु यह दारुण विरह भी तो न मेरा प्रेय था
जिस विकट कटु सत्य का, करती रही मैं सामना
वह किसी निर्मम नियति का मर्मवेधी श्रेय था
पर नियति का स्नेह यह दुर्वार
राघव, अब नहीं!
मरुथलों का मृगजली उपहार
राघव, अब नहीं!
सौंपना तुमको तुम्हारे पुत्र-मेरा धर्म था
यह धरोहर सौंपकर मैं हो गई तुमसे उऋण
भूल बैठी हूं कि मेरा भी हृदय था, मर्म था
अस्मिता मेरी हुई अब तो विरस, कृषकाय तृण
वंचनाओं से पुनः अभिसार
राघव, अब नहीं!
यह अधूरा, विद्ध साक्षात्कार
राघव, अब नहीं!
लोक-मर्यादा-पुरुष तुम बन गये रघुकुल तिलक!
किन्तु मैं रह-रह तुम्हारे यज्ञ की समिधा बनी
सिसकियों में ही सिमटकर रह गई मन की किलक
मैं जली निर्धूम ज्वाला में, व्यथा से अनमनी
आत्मछलना का वही विस्तार
राघव, अब नहीं!
टूटते-बनते विरल आकार
राघव, अब नहीं!
प्रथम दर्शन का वरण, वह राग-क्षण, वह अर्चना
वन-वनांतर की विकल भटकन बनी अवसादमय
व्यंग्य बन रिसती रही आहत, तरल संवेदना
कांपता, हिलता रहा खंडित धुनष-सा यह हृदय
आत्मदंशी मोह की मनुहार
राघव, अब नहीं!
विभ्रमों का निष्करुण व्यापार
राघव, अब नहीं!
आह! वह वनवास, यह निर्वास-सब कुछ तो सहा
दंश लेकर, अग्नि के दाहक निकष पर भी चली
उफ! परीक्षा ही परीक्षा, पर न कुछ भी तो कहा
अश्रुओं के अर्ध्य से देती रही वरणांजली
मुस्कुराता सौम्य हाहाकार
राघव, अब नहीं!
छटपटाती रेत पर जलधार
राघव, अब नहीं!
आह! मिथिला मातृ-भू! मेरे विदेहात्मा पिता!
देह का अंतिम विसर्जन कर रही है जानकी
साथ में लेकर सहज विश्वास-आस्थागर्विता
दे रही निश्छल, सरल निष्काम आहुति प्राण की
शांत लहरों से उठेगा ज्वार
राघव, अब नहीं!
सुन सकोगे ये थके उद्गार
राघव, अब नहीं!
ओ समय! ओ वायु! ओ आकाश! माटी! अग्नि! जल!
ओ पितामह सूर्य! तुम साक्षी बनो इस पर्व के
आज यह निर्लक्ष्य यात्रा-पा रही विश्राम-पल
दे रहे आशीष ये अभिशप्त-से क्षण गर्व के
रिक्तता का अन्यतम आभार
राघव, अब नहीं!
अनमने रोमांच का संचार
राघव, अब नहीं!
-15 मार्च, 1999
वह युग कविता का नहीं
गीतों से सारी दुनिया है उकताई
कविताएं रचना बिसरा प्यारे भाई
यह युग कविता का नहीं, लतीफों का है!
गीतों का कोई मोल नहीं आंकेगा
करुणा में इतना व्यर्थ कौन झांकेगा
फूहड़ मजाक तक अगर न तू उतरा, तो-
सड़कों पर बिखरी हुई धूल फांकेगा
तुझको प्रकाश में आना है यदि भाई
छिछले पानी में तैर, छोड़ गहराई
यह युग कविता का नहीं, लतीफों का है!
जितने भी हैं ये पंत, प्रसाद, निराला
पीछे छोड़ेगा इन्हें लतीफे वाला
यह ठेठ हास्य को गहरा व्यंग्य बताकर
मकड़ी बन, कविता पर बुन देगा जाला
यदि तूने इसकी राह नहीं अपनाई
तो सच कहता हूं, पछतायेगा भाई
यह युग कविता का नहीं, लतीफों का है!
इस युग में जो कविता परस्त रहता है
तू देख रहा है, वही त्रस्त रहता है
चुलबुला आदमी चुहलबाजियां करके
औरों को खुश कर, स्वयं मस्त रहता है
तू बना हुआ ज्यों हो पंखुरी कुम्हलाई
तू खिल वसंत-सा मेरे प्यारे भाई
यह युग कविता का नहीं, लतीफों का है!
-मई, 1975
इक्कीसवीं सदी के पांव
दूर तक रौंदी हुई है दूब,
इक्कीसवीं सदी के पांव आ पहुंचे!
हो गईं चौड़ी बहुत पगडंडियां
जो राजपथ से जा मिलेंगी,
सड़क का आकार लेंगी,
गांव की संस्कृति सहेगी मौन
मौन टूटन
सभ्यता उसको दिखायेगी
अंगूठा
काली झंडियां,
कस्बे, नगर अब महानगरों से
स्वयं हो जायेंगे मंसूब,
इक्कीसवीं सदी के पांव आ पहुंचे!
अब न माओं के लिए
वट-वृक्ष होंगे
अब न तुलसी पर चढ़ेगा जल,
न मंदिर पर कलश होगा,
कथा साईं नहीं अब बांच पायेगा,
नहीं अब हो सकेगा काम वह
जिससे शहर के लोग जायें ऊब,
इक्कीसवीं सदी के पांव आ पहुंचे!
अब न चौपालें रहेंगी,
गांव की पंचायतों में सिर्फ सन्नाटा बजेगा,
नीम-पीपल काटकर
उस जगह कहवाघर बनेगा,
एक टी-हाऊस होगा, क्लब बनेगा,
अब न नौटंकी रहेंगी, सिर्फ बाइस्कोप होगा,
रोशनी से गांव का हर घर सजेगा,
अब मनोरंजन रहेगा खूब,
इक्कीसवीं सदी के पांव आ पहुंचे!
अब कभी होगी न आल्हा,
रागिनी पर अब न मटकेंगे यहां के लोग,
आर्केस्ट्रा-धुनों पर ट्विस्ट, रॉकेन-रॉल होंगे,
और हिप्पी-तर्ज पर चंडू-चरस का दौर
यूनीवर्सिटी के कैम्पसों से
गांव की चौहद्दियों पर दस्तकें देगा,
यहां के लोग जायेंगे नशे में डूब,
इक्कीसवीं सदी के पांव आ पहुंचे!
अब न युवकों-युवतियों में फर्क होगा,
गांव का बेड़ा नहीं अब गर्क होगा,
उस पुरानी और बासी मान्यता के सिन्धु में,
अब गांव की अल्हढ़ किशोरी,
बैल-बॉटम, स्लैक्स, बिकनी, स्कर्ट पहने
फिरेंगी कालोनियों में
ढूंढने अपना नया महबूब,
इक्कीसवीं सदी के पांव आ पहुंचे!
अब यहां के नवयुवक पोशाक पहनेंगे अजूबी-सी
जटा-से केश कंधों तक बढ़ाये,
मूंछ नीची, कलम लंबी, दाढ़ियां बुल्गानिनी
मुंह में चुरुट, पाइप दबाये,
क्रांति की बातें करेंगी
धंसी आंखें, गाल पिचके
ज्यों पुरानी साइकिल की ट्यूब,
इक्कीसवीं सदी के पांव आ पहुंचे!
आदमी को आदमी से जोड़ता
हर पुल ढहेगा
ध्वस्त होगा हर महकता बौर
अब कंप्यूटरों का दौर
मानव-सभ्यता की प्रगति का माध्यम बनेगा
यंत्र के आगे विवश, असहाय-सा हर आदमी
बस भूख, बेकारी सहेगा
और फिर रासायनिक ब्रह्मास्त्र से
विध्वस्त-सा भूगोल होगा क्यूब,
इक्कीसवीं सदी के पांव आ पहुंचे!
-14 अगस्त, 1986
बच पाई है किसकी अस्मिता
पिता
सुनती हो!
आज भी नहीं आया कोई खत!
एक और खाली दिन
हम-तुम ने दिया बिता!
दुखती रग-सी मां से बोले धीमे-धीमे
पोर-पोरटूटते तनावों जैसे पिता!
झर गये अंधेरे में
हरसिंगार, गुलमोहर,
तुलसी मुरझाई है
गाजगिरी शाखों पर;
धूप में झुलसती है
अपनी अपराजिता!
क्या होगा यों ही
मीठे सपने बुनने से,
क्या होगा बांच-बांचकर
अब भृगुसंहिता!
मां
सुनते हो!
अब झूठी आस न बांधो मन में!
दिन क्या पूरा जीवन
हम-तुम यों रहे बिता!
फटी हुई छाती-सी मां बोली सहमी-सी
मुंह लटका, सुनते घायल सीने-से पिता!
कौन भला कब लौटा है
जाकर महानगर,
नदियों को सदा
लीलता आया है सागर;
बच पाई है आखिर कब
किसकी अस्मिता!
अच्छा यह होगा अब
मन को समझा लें हम,
वरना, यों ही धधकेगी
यह ठंडी चिता!
पुत्र
सुनते हैं!
आज तक नहीं आया है वह क्षण!
जो मैंने तुम सबको
विस्मृत कर, दिया बिता!
ओ मेरी छीजती हुई आशा जैसी मां!
ओ मेरे टूटते मनोबल जैसे पिता!
रिस रहा यहां हर पल
सुलगते सवालों में,
मेमना डरा हो ज्यों
हिंस्रनख शृगालों में;
है जिजीविषा मन की
क्षत-विक्षत, वंचिता!
स्वप्नवती आंखों में
शेष किन्तु किरणें हैं,
शायद बच जाये
आहत रचनाधर्मिता!
-30 अगस्त, 1995
जिन्दगी उलझन भरी
कभी कुछ सत्य दीखे सिर्फ सपने
कभी कुछ स्वप्न दीखे खास अपने
कभी मुंह मोड़ते थे देख दर्पण
कभी सब कुछ किया उस पर समर्पण
कभी वातावरण की दी दुहाई
कभी खुद को टटोला और तोला!
न पछताये कभी तो हाथ से आकाश भी खोकर
कभी कुछ धूल की खातिर गंवादी आंख रो-रोकर
कभी बर्बादियों में हम स्वयं ही रस लिया करते
कभी खुशहालियों में हम स्वयं को कस लिया करते
कभी हम गर्दिशों को झेल जाते हैं सहजता से
कभी आराम के दिन काटते हैं हम विवशता से
कभी सुख के क्षणों को तुच्छ कहकर छोड़ देते हैं
कभी हम दर्द को लंबी उमर से जोड़ देते हैं
कभी हम संयमों को जिन्दगी का सार कहते हैं
कभी कुछ विभ्रमों पर मन हमारा खुद-ब-खुद डोला!
कभी हम हादसों को उंगलियों पर नाप लेते हैं
कभी संभावना के खौफ से ही कांप लेते हैं
कभी तो मुश्किलें हमको बहुत आसान लगती हैं
कभी आसानियां पेचीदगी की खान लगती हैं
कभी पतझड़ हमें महका हुआ मधुमास लगती है
कभी सौरभ हठीले वक्त का परिहास लगती है
कभी हम परिचितों के बीच रहकर ऊब जातेहैं
कभी हम अजनबीपन में उतरकर डूब जाते हैं
कभी हम हो गये दिग्भ्रांत भी, उद्भ्रांत भी पथ पर
कभी हमने स्वयं ही मंजिलों का रास्ता खोला!
कभी हम आग को भी शांत करते हाथ धर-धरकर
कभी चिनगारियों से दूर भागे र्सिु डर-डरकर
कभी हम जा डटे आंधी, घने तूफान के आगे
कभी डरकर हवा के नाम से ही दूर जा भागे
कभी हम जोश में आ, चांद-तारों पर चढ़ा करते
कभी बस दोष सारे सिर्फ किस्मत पर मढ़ा करते
कभी सागर समूचा मुट्ठियों में बांध लेते हैं
कभी छोटी लहर के नाम चुप्पी साध लेेते हैं
कभी हम बन गये हैं चांदनी से भी अधिक शीतल
कभी सूरज-सरीखे बन गये हम आग का गोला!
कभी कड़वा हलाहल हम खुशी से पी लिया करते
कभी परहेज अमृत से, बिना सोचे किया करते
कभी यह जिन्दगी हमको बहुत ही व्यर्थ लगती है
कभी सचमुच किन्हीं गहराइयों का अर्थ लगती है
कभी हम रूढ़ियों में आस्था की बात करते हैं
कभी विद्रोह में उन पर कुठाराघात करते हैं
कभी प्राचीनता बेकार की उलझन लगा करती
कभी यह आधुनिकता खोखला फैशन लगा करती
कभी रंगीनियां हमको बहुत फीकी लगा करतीं
कभी रंगीनियों का हम बदलते नित नया चोला!
हमारी उलझन-भरी है!
और यह उलझन हमें लगती भली है!!
-मई 1974
तेरा दोष
तूने निर्णय लिये और फिर उन पर डटा रहा
तेरा दामन इसीलिए तो झीना-फटा रहा
तेरा है यह दोष कि तू सच कहता है!
बंधु! मसीहा बना रहा तू झूठे, मक्कारों में
नैतिकता का दिया वास्ता स्वार्थी व्यापारों में
मूल्यों के संकट से आखिर सिर्फ तुझे ही भय है
तेरे जैसे का पिस जाना लगता बिल्कुल तय है
अपने ही संदर्भों से तू हरदम कटा रहा
इसीलिए तू घोर यंत्रणा सहता है!
मूल्य बदलते हुए समय को तूने स्वयं नकारा
जीती बाजी भी अक्सर तू इसी वजह से हारा
स्वाभिमान से जीने वाले की होती यह गति है
तूने नहीं किया समझौता, तेरी यही नियति है
तू खंडित व्यक्तित्व लिये टुकड़ों में बंटा रहा
अपने ही प्रश्नों में तू अब दहता है!
ठीक समय पर सही नब्ज को तूने नहीं टटोला
हुआ शिकार गलत अनुमानों का, पर समय न तोला
तूने राजपथों को छोड़ा, पगडंडी अपनाई
कांटे आने ही थे पथ में, अब तू डरता, भाई!
जख्मी पांवों से तू पथ के कांटे हटा रहा
खून पांव से इसीलिए तो बहता है!
छीना झपटी, हाथापाई के इस युग में रहकर
तू निःस्पृह ही बना रहा, अपमान, उपेक्षा सहकर
वर्तमान को भूल, रहा कल्पनालोक में खोया
अपना जीवन-बेड़ा तूने अपने आप डुबोया
ईसा बनकर आदर्शों से चिपटा-सटा रहा,
इसीलिए तू टंगा क्रॉस पर रहता है!
मरु-यात्रा आंखों में
सूनी दोपहरी है
हांफती टिटहरी है
सूरज के अग्निदंश चुभते हैं पांखों में!
कंठ प्यास से चटका
मौसम यह संकट का
तैर रही मरु-यात्रा अकुलाई आंखों में!
बादल रीते-रीते
शीतल वे पल बीते
मोर, सांप, मृग, चीते
एक साथ हैं जीते
प्यास बहुत गहरी है
यातना इकहरी है
झांक रही यहां-वहां महुओं में, दाखों में!
नीर गया तालों से
जूझकर सवालों से
झुलसा दिन, छांह बिना शहतूनी शाखों में!
चीख रहे सन्नाटे
मारे किसने चांटे
जंगल, बस्ती, हाटे
लूओं के खर्राटे
चुप्पी-सी ठहरी है
हर धड़कन बहरी है
चिनगारी सुलगी है फिर उदास राखों में!
रेतीली एक नदी
किसने लाकर घर दी
धूसर दिन के आगे, जलते बैसाखों में!
छांहों वाले पल-छिन
नहीं रहे अब मुमकिन
सह पाना हुआ कठिन
धूलिया, कसैले दिन
ऊंघती मसहरी है
कांपती गिलहरी है
उड़ी चील, नन्हा खरगोश दबा कांखों में!
पिंजरे वाली मुनिया
कहती-सिमटी दुनिया
अपनी तो हर उड़ान बंद है सलाखों में!
-1 मई, 1993
कंप्यूटर
वह चाह रहा है
मैं कंप्यूटर बन जाऊं,
मैं हाड़-मांस का पुतला हूं
यह तथ्य उसे स्वीकार नहीं
मेरा हर संवेदन नकार
वह तुला हुआ है
मुझे मशीन बनाने पर!
बस, यही सोचता है
कंप्यूटर बन जाऊं
कर डालूं सारे गुणा-भाग, सब जोड़-घटा
तैयार आंकड़े भी उसके आगे रख दूं
या निखिल बनर्जी का सितार
बेगम अख्तर की ग़ज़ल उसे सुनवा डालूं
वह थक जाये तो उसका माथा सहलाऊं
कुछ प्यार करूं, बोलं-बतियाऊं, बहलाऊं
हर चीज सुरक्षित रख लूं मैं ‘मैमोरी’ में
जब उसका दिल चाहे तब उसको पेश करूं!
यह सब कुछ है स्वीकार मुझे
पर एक बड़ी कठिनाई है-
वह बस ‘कमांड’ ही देता है
लेकिन कुछ ‘फीड’ नहीं करता!
संपाती-गाथा
सूरज पकड़ने की ललक
बेकार का ही था भरम
अब सोचता खामोश तू, ओ वृद्ध संपाती! तुझे
उद्दाम अति-उत्साह का कैसा मिला कड़वा सबक!
पर जल गये तेरे
गिरा फिर लड़खड़ाकर तू विवश
इस अग्निवर्षक व्योम से,
छूकर धधकती धूप को
गलते, पिघलते ही गये फिर
अंग तेरे मोम-से;
लगने लगा जीवन नरक
उत्साह का यह प्रतिचरम
अंधी गुफा में बैठकर बस ऊंघना या सोचना
संतप्त रहना या भिगोना मौन शोकाकुल पलक!
निर्बन्ध यात्रा और
जोखिम से भरी ऊंची उड़ानों का
यही सीमांत है,
झुर्री पड़ी पलकें, जले डैने
अंधेरी खोह का
सीलन-भरा एकांत है;
अभिसार से अभिशाप तक
अब शेष हैं ये आंख नम
बेहद अकेलापन, थकन, कुछ ध्वस्त सपनों की
दिशाहारा जलन, विगलित व्यथा, आकाश तकना एकटक!
अपने विगत संघर्ष की
दुस्साहसों की अधजली
झुलसी पिटारी खोलकर,
तू आज भी जब फड़फड़ाता है
अचानक कसमसाकर
पंख अपने तोलकर;
मन में कहीं जाता दरक
कुछ व्यंग्य, पीड़ा व्यर्थ श्रम
तब-तब सहोदर बंधु, अनुज जटायु की चेतावनी
अपना थका जीवट कहीं मन में जगा देता कसक!
रचने चला इतिहास तू
संकल्प-पुरुषों की तरह
खुद खो गया इतिहास में,
तेरी यशोगाथा मिटी
धूमिल क्षितिज के चित्र-सी
शामिल हुई उपहास में;
उपलब्धि का रीता चषक
टूटन, घुटन, बीमार क्रम
क्षत भोजपत्रों पर उगे निर्जीव अक्षर बांचना
तेरी नियति है क्या यही-अंधी गुफा की गुंजलक!
क्या पा लिया क्या खो दिया
इसका न कर अब आकलन
यह जीत है या हार है,
संघर्ष ही था सामने
यह सोच बस
इस चोट का शायद यही उपहार है;
अब और मत आंखें झपक
घिरता हुआ यह घोर तम
छंटने लगेगा, बंधुवर! गहरी निराशा से उबर
इतिहास है तेरा अभी, तू बन गया जीवित मिथक!
साहस किया तूने, उड़ा
आकाश में, यदि छू न पाया
सूर्य को, तो क्या हुआ,
कैसा ज्वलंत उदाहरण
प्रस्तुत किया,
क्षितिज तूने हुआ;
संभावनाओं का
अब सूर्य में तेरी चमक
तेरे लिए यह सुख परम
लौटा हुआ विश्वास है तू व्यक्ति का-धु्रव और दृढ़
है नई पीढ़ी के लिए, क्या और कुछ बेहतर सबक!
-9 मई, 1995
जेब का सन्नाटा
देखिये, जिस्म में हलचल कोई हरकत ही नहीं,
आज के दौर में जी लेने की हसरत भी नहीं
सो गया जेहन किसी खौफ के अंधियारे में
तीरगी बिखरी हुई सोच के गलियारे में
टूट गिरती है कोई बर्क दरख्तों पे मगर
सैकड़ों बार समेटा है ये दहशत का सफर
फिर उसी दर्द के तहखाने में आ जाता हूं
बारहा अपने ही साये से मैं कतराता हूं
कौन रखता है मेरे सामने ये आईना
इस कदर मौत से बदतर तो नहीं था जीना
इस तरह जीने का आखिर तो कोई होगा सबब
रोज इस खामखयाली में क्यो रहता हूं महब
लोग जब मेरी तलाशी में इधर आयेंगे
मेरे चेहरे की उदासी से दहल जायेंगे
कुछ सवालों के सिवा कुछ भी मेरे पास नहीं
सुगबुगाहट का जरा-सा भी तो अहसास नहीं
सालता बस मुझे दिन-रात यह कांटा है
क्या कहूंगा कि मेरी जेब में सन्नाटा है!
-19 जुलाई, 1977
सोचो! सोचो!
सोचो! सोचो!
यह सुगना
जो कल तक हंसता-मुस्काता था
गीत हर समय ही गाता था
सबके मन को बहलाता था
अब क्यों अक्सर चुप रहता है
इसकी टिटकारी को सहसा
ऐसे कैसे गहन लग गया
गुमसुम आंखों से आंगन को
ऐसे क्यों ताका करता है
जैसे कोई निपट अकेला
डरा आदमी
बियाबान सूने जंगल में
वहशी छायाओं से सहमा
अपनी ही बोली सुनने को तरसे
आकुल होकर चीखे
चीख न पाये
इस सुगना की चुप्पी से घायल है आंगन
सोचो! सोचो!
बिना बात इसके पंखों को
यों मत नोंचो!
-1 फरवरी, 1991
चेहरा
हसीन चेहरा
नफीस चेहरा
वो मेरा ताजातरीन चेहरा
कहां गया
कुछ पता नहीं है
उदास चेहरा
पिटा-पिटा-सा जलील चेहरा
नहीं
ये चेहरा मेरा नहीं है!
मैं बन-संवरकर
जब आइने में
हसीन चेहरे को देखता हूं
तो भोलेपन की जगह
हमेशा
अजीब, विकृत-सा एक चेहरा
इस आइने में से झांकता है
मुझे चिढ़ाता है भूत बनकर!
ये आइने को
क्या हो गया है
या मेरा चेहरा बिगड़ गया है
मुझे ये बिल्कुल पता नहीं है!
वो मेरा चेहरा
हसीन, ताजातरीन चेहरा
जिसे मैं सिरहाने रखके सोता
संवारता हूं सुबह-सवेरे
तमाम दिन भी
वही दमकता, चमकता
मेरा नफीस, दिलकश, हसीन चेहरा
वही अचानक
कहीं हुआ गुम!
ये बदनुमा दाग जैसा चेहरा
मेरा नहीं है
ये आइने को क्या हो गया है!
अगरन इसने रवैया बदला
तो मैं किसी दिन
इसे उठाकर
हजार टुकड़ों में तोड़ दूंगा!
पर अपना चेहरा
कहां से बदलूं
यही है बेचैनी मेरी सारी
जो मेरे चेहरे को
और वहशी बना रही है!
-9 मार्च, 1991
महकेगा चंदन-वन
मधुरिम गीतों के सर्जक-किशन सरोज, बंधु!
करता प्रणाम योगेन्द्र दत्त
स्वीकार करें
‘चंदन वन डूब गया’ पढ़कर लिख रहा पत्र
है जन्म-दिवस भी आज, बधाई मेरी लें!
है धन्य लेखनी, सुफल सृजन
मैं हूं कृतज्ञ
मन मुग्ध हिरन-सा है कस्तूरी गीतों में
हिल रहा ताल-सा
रजनीगंधा-छुअनों से,
जोगी-सा भरमाता एकांत अतीतों में!
आपके अनेकों में से एक प्रशंसक हूं
गीतों को पढ़कर, बंधु!
हो गया गद्गद मन,
भावुक मन
प्रांजल भाषा वाले गीतकार!
यों लगा कि
फिर कुहरे से उभरा चंदन-वन!
कुहरा ही है
जो काव्य-जगत पर मंडराया
पाकर गीतों की धूप
बिखरता जाता है
दशकों से
मटमैला-सा था
कविता-कानन,
यों लगा कि
उसका रूप
निखरता जाता है!
कुछ गीतकार हैं
जो सर्वस्व समर्पित कर
कविता की झोली
रहे आज
गीतों से भर
देवेन्द्र ‘इन्द्र’, भारत भूषण
माहेश्वर जी
खुद आप
प्रेम शर्मा, नईम
बेचैन कुंअर!
ऐसे समर्थ हों गीतकार
तो निश्चय ही
कुहरा छंट जायेगा
फिर होगा मुक्त गगन
भावों, रागों की अगरु-गंध लहरायेगी,
महकेगा, महकेगा गीतों का चंदन-वन!
(किशन सरोज को लिखा पत्र-गीत)
-19 जनवरी, 1986
या बांसुरी
भीम हुए क्लीव
पार्थ हो गये वृहन्नला
भीष्म का
शिखंडी ने
तोड़ दिया हौसला
सम्मुख है प्रश्न
यही सोच रहे कृष्ण
कि अब पांचजन्य फूंकें
या बांसुरी बजायें!
केवल अभिमन्यु
लिये
रथ का टूटा पहिया
जूझ रहा है
विषाक्त
छल-भरी विषमता से,
पग-पग पर चक्रव्यूह
भेदन दुष्कर
लेकिन
लड़ना है
फिर भी
अपनी सीमित क्षमता से;
अंधे धृतराष्ट्र थके
सुलझाते गुत्थियां
गांधारी विवश
बंधीं आंखों पर पट्टियां
कूट शकुनि-चाल
उठ रहे कई सवाल
कि इस मसखरे समय को
हम क्या सबक सिखायें!
अश्वत्थामा हताश
मणिविहीन मस्तक है
ज्योति-पंख सपनों की
हुईं भू्रण-हत्याएं
मृत्यु-गंध उठती है
क्षितिजों के आर-पार
दंशित है व्योम
घिरीं सर्पीली संध्याएं
मूल्य बिकाऊ
विवेक संदेहों पर टिका
नैतिकता, छद्म की
निभाती है भूमिका
द्रोण, विदुर मौन
भला उत्तर दे कौन
कि अब गूंगी मर्यादा को
किस तरह बचायें!
-6 जनवरी, 1992
चालीस सीढ़ी पार कर
चालीस सीढ़ी पार कर
गुंजाइशों को हारकर
बैठे हुए मन मारकर योगेन्द्र तुम!
दुनिया भले कुछ भी कहे
यों व्यंग्य भी तुमने सहे
हर बार चर्चा का-रहे हो केन्द्र तुम!
अब और क्या दुविधा रही
तुम सोचते बेकार ही
चीजें सदा अनुसार ही चलतीं कहां!
क्या पा लिया संघर्ष में
पहुंचा गया अपकर्ष में
उस मूल्य, उस आदर्श में गलती कहां!
तुम चेतना संपन्न गति
घनघोर प्रत्युत्पन्न मति
भीतर रहे अवसन्न अति चुपचाप-से!
सारी तरल गरमाहटें
अब बन गईं कड़वाहटें
आतीं नहीं अब आहटें उस थाप से!
तुम दूसरों से हो अलग
अविकल्प, धु्रव, ज्योतिर्विहग
तुमको तुम्हारी यह सजगता खा गई!
है किस कथा का अंश यह
मन में तुम्हारे दंश यह
निर्गन्ध-सी निर्वंश यह प्रतिभा गई!
निर्धूम जलते रात-दिन
पीते सतत हिम की अगिन
डूबासरल मन का पुलिन किस बाढ़ में!
लेकर विरल खंडित हृदय
हर ओर सहकर लोकभय
धंसते रहे निर्मम समय की दाढ़ में!
अपने समय से सीखते
जो थे न तुम, वह दीखते
अब क्यों वृथा ही चीखते हो यार तुम!
तुम पृष्ठ थे इतिहास के
अब पात्र हो उपहास के
ओझल, विगत आभास के आकार तुम!
सीखा न जीवन का गणित
झेली अस्वीकृति की तड़ित
तुम अब हतप्रभ-से, जड़ित-से हो गये!
खोजी जहां तुमने वजह
तुमको मिली केवल सतह
तल से अतल तक नागदह में खो गये!
देखी समय की बेरुखी
तुम हो गये बेहद दुखी
घुटता रहा ज्वालामुखी भीतर कहीं!
तुम क्यों बने इतने कड़े
देखी विसंगति, फट पड़े
क्यों मूक दर्शक बन खड़े, देखा नहीं!
व्यापार हों रिश्ते जहां
मन खोलना कैसा वहां
स्वीकार की सुविधा कहां उपलब्ध है!
क्या है गलत, क्या है सही
यह कब बताती है बही
अब मान भी लो, बस यही प्रारब्ध है!
आधे-अधूरे से नमन
बीते सभी आवागमन
करते नदी के आचमन की याद क्यों!
ये मौन छूटे हाशिये
अब हैं तुम्हारे ही लिए
बैठे हुए मन में लिये अवसाद क्यों!
-24 सितंबर, 1990
एक कथा-गीत
रात बारिश हुई
और ढह गया!
इस बहाने
दुखों की कथा कह गया!
फर्श गीला हुआ, छत टपकती रही
भूख को, नींद आकर थपकती रही
मां सिसकती रही और बूढे पिता
बांचते ही रहे मौन भृंगुसंहिता
रात बारिश हुई
जल-प्रलय-सी मची
थरथराई जमीं
घर का अहसास ही
बाढ़ में बह गया!
भीगकर घर के वासी हुए तर-ब-तर
छलनी छत के तले, सब हुए दर-ब-दर
ढूंढते कोई कोना सुरक्षित, जहां
एक छत हो, न हो, पर, खुला आसमां
रात बारिश हुई
आसमां से
अकस्मात बिजली गिरी
घर का सपना
तड़ककर गिरा, ढह गया!
रामप्यारी उठी और घर से चली
त्रस्त होती हुई भूख-के दाह में
भेड़िये आ गये, धर दबोचा उसे
जिस्म टूटा, तड़पता रहा राह में
रात बारिश हुई
खून बहता रहा
फिर नदी बन गई
पर कहीं
एक चिथड़ा पड़ रह गया!
भोर होते-न-होते खबर आ गई
घर-गली क्या जगी, पूरा कस्बा जगा
एक गली के किनारे पड़ी लाश थी
पूरा कस्बा खड़ा देखता था ठगा
रात बारिश हुई
रामप्यारी हुई
‘राम-प्यारी’ मगर
कस्बा खामोश बन
हादसा सह गया!
घर की चौखट पकड़कर जो रोये पिता
दरकी दीवार सहसा तड़कने लगी
भड़भड़ाकर गिरी छत के शहतीर में
सर्द माथे की नस-नस फड़कने लगी
रात बारिश हुई
घर की जर्जर शिराओं में
पानी भरा
नींव धंसने लगी
और घर ढह गया!
घर भी क्या था, कहीं था रेहन पर रखा
उम्र बेटी की चुभती थी ज्यों बघनखा
बूढ़े मां-बाप को फिक्र थी बस यही
कर दें बेटी के अब हाथ पीले कहीं
रात बारिश हुई
हाथ क्या
देह पूरी ही पीली हुई
मन-पखेरू उड़ा
यह गया, वह गया!
लाल-पीली लपट, नीली-नीली चिता
जिसमें जलती थी खामोश भृगुसंहिता
यह महास्वप्न के टूटने की कथा
था खुली आंख का सच, ये सपना न था
रात बारिश हुई
नम हवा को
लगातार घिसता हुआ
एक शोला
भड़कता रहा, झह गया!
-1 मई, 1984
भ्रमित विहग सा भटक रहा मन
भ्रमित विहग सा भटक रहा मन
गली-गली हर गांव
भरी दुपहरी जली ज़िन्दगी
ढूँढ़ न पाई छांव
आयासों से भी ऊँचे हैं
मंज़िल के आयाम
पँहुच न पाए चलते चलते
लगी बोलने शाम
ठगे गए संकल्प अधूरे
थके हुए हैं पांव
विश्वासों की तहें टटोलीं
लगा नहीं कुछ हाथ
कभी नहीं कोई दे पाया
दो पल का भी साथ
द्वार सभी हैं बन्द कहीं भी
मिलता ठौर न ठांव
कविताएँ लिख-लिखकर काटीं
दिन यों हुआ व्यतीत
उकताहट से भरा हुआ मन
रचें कहाँ से गीत
राग हुए बेसुरे और सुर
हुए ’कुहू’ से ’कांव’
यह भरा दिन भी
आह !
यह भरा दिन भी
घुल गया तनावों में !
बुझे हुए रिश्तों को, आँसू से नहलाना ।
सिर-विहीन गुड़िया से, उखड़ा मन बहलाना ।।
पिस गया हरापन भी
अनकहे दबावों में !
क़हक़हों, ठहाकों के, बाद का अकेलापन ।
भीड़, समारोहों के, बीच में उगा निर्जन !
छीन गया अपनापन
टूटते लगावों में
रोज़ का यही किस्सा घर से बाहर जाना ।
सड़कों से एक नया, हादसा उठा लाना ।
छूटते ज़रूरी सन्दर्भ,
रख-रखावों में !
सांत्वना, भरोसा या गहरी आत्मीयता ।
शब्दों का खेल सिर्फ़ हमदर्दी लापता ।
खो गया सहज बचपन
रेशमी भुलावों में !
यात्रा पिछत्तर वर्ष की
कवि देवेन्द्र शर्मा इन्द्र के पिछत्तर वर्ष के पूरे होने पर
भीगा हुआ मन का पुलिन
है व्यक्त कर पाना कठिन
यह शुभ दिवस है जन्म दिन उस सूर्य का ।
जिससे प्रकाशित हृद-गगन
है गंधमय जिसका सृजन
आलोकधर्मा प्रतिफलन वैदूर्य का ।
बेहद सहज बेहद सरल
देता अमृत ,पीकर गरल
बाहर सरस भीतर तरल वह कब विरत।
कुछ वेदना कुछ हर्ष की
संघर्ष की उत्कर्ष की
यात्रा पिछत्तर वर्ष की जारी सतत ।
देवेन्द्र शर्मा इन्द्र ने
रचकर रखे जो सामने
वे ग्रन्थ अब मानक बने हैं काव्य के ।
साक्षी चिरंतन प्यास के
उत्सव पगे उपवास के
वे पृष्ठ है इतिहास के साहित्य के।
दोहा गजल नवगीत क्या
ऊर्जस्वियों को शीत क्या
उनके लिए विपरीत क्या होगा समय ।
वह शुभ्र शुभ उज्ज्वल सुभग
सबमें मिले सबसे अलग
रस छंद गंधों में सजग रहते अभय।
कितना विपुल उनका सृजन
है श्रेष्ठता का स्वस्त्ययन
उपलब्धियों का आयतन भुजपाश में।
हम धन्य जो उनसे जुड़े
उनकी दिशा में ही मुड़े
कुछ दूर तक हम भी उड़े आकाश में।
चलती रहे यह सर्जना
बाधा न कोई वर्जना
कूके सदा संवेदनाओं की पिकी।
ऐसा सुखद बानक बने
आत्मीय क्षण ये हों घने
है कामना यो ही मने शतवार्षिकी।
उसी राह में, उसी मोड़ पर
उसी राह में, उसी मोड़ पर
चले गये हम जिसे छोड़कर
वह गुजरा कल हाथ जोड़कर बुला रहा है!
वही एक कच्चा-पक्का घर
टूटा- फूटा ढाँचा जर्जर
उसका वह बेहद अपना स्वर याद आ रहा
जिसमें देखा स्वप्न सुनहरा
नेह- छोह में डूबा गहरा
मां का और पिता का चेहरा थरथरा रहा
आशीषों वाला वह निर्झर
तपते माथे पर ठंडक धर
थके पलों में थपकी देकर सुला रहा है!
जिसमें हमने खोलीं आँखें
जहां उगी थीं नन्ही पाँखें
उसी पेड़ की हरियल शाखें टेर रही हैं
उसकी कँपती हुई पसलियाँ
झेल चुकीं जो कई बिजलियाँ
अब तन- मन पर नर्म उंगलियां फेर रही हैं
सपनों, इच्छाओं, चाहों में
महकी हुई सैरगाहों में
अपनी स्नेहातुर बाँहों में झुला रहा है!
हम नाहक ही उससे बिछुड़े
जितना फैले, उतना सिकुड़े
भीतर-भीतर बेहद निचुड़े, पछताए हैं
बाँधे थे जो भी मंसूबे
किसी अतल में वे जा डूबे
हम इस विस्थापन से ऊबे, उकताए हैं
धड़क रहा उस कल में जीवन
उसमें घुला हुआ अपनापन
उसका द्वार सनातन आँगन खुला रहा है!
हम रीते,पर वह प्रेमाकुल
उसके लिए हुए हम व्याकुल
वह भी हमसे मिलने को कुलमुला रहा है!
आने वाले कल की सोचो
यों न आज का गला दबोचो
आने वाले कल की सोचो
पूछेगी जब अगली पीढ़ी
बन्धु ! कहो, क्या उत्तर दोगे ?
कल पूछेंगे लोग कि तुमने
असहनीय को सहा भला क्यों
अपनी विद्रोही आत्मा को
अपने पैरों से कुचला क्यों
जैसे अब हो, क्या वैसे ही
तब भी, बस, ख़ामोश रहोगे ?
पूछेंगे वे, हर अनीति को
तुमने चुप स्वीकार किया क्यों
स्वर न उठाया क्यों विरोध में
कभी नहीं प्रतिकार किया क्यों
उनके प्रश्नों के उत्तर में
तब भी क्या चुप्पी साधोगे ?
प्रश्न उठेंगे, घटनाक्रम में
तुमने क्या भूमिका निभाई
कहाँ-कहाँ तुम रहे उपस्थित
कहाँ-कहाँ पर आग बुझाई
तर्क अकर्मकता का, आखिर
किस-किसको तुम समझाओगे ?
सच जब लहूलुहान पड़ा था
क्या मरहम का लेप किया था
छोड़ नपुंसक तटस्थता को
क्या कुछ हस्तक्षेप किया था
प्रश्नों से टकराओगे या
कतराकर बगलें झाँकोगे ?
कल जब न्यायालय में होंगी
मौन सफ़ेदी, मुखर सियाही
किसके प्रबल पक्ष में दोगे
तुम अपनी निष्पक्ष गवाही
चट्टानों-से अडिग रहोगे
या कि हवा के साथ बहोगे ?
अभी सोच लो, समय न करता
कभी किसी की, कहीं प्रतीक्षा
सही-ग़लत के निर्णय में वह
करता है बेबाक समीक्षा
आज अगर तुम सम्भल न पाए
तो फिर कल कैसे सम्भलोगे ?
तीर्थ-यात्रा की चढ़ाई में
तीर्थ-यात्रा की चढ़ाई में
पीठ पर जो हमें ढोता है
वह हमारी ज़िन्दगी के सब
हाँ, वही तो पाप धोता है !
शिखर पर हम गर्व से बनते
जहाँ अपने मुँह मियाँ मिट्ठू
वहाँ पहुँचाता हमें वह ही
हम जिसे कहते महज पिट्ठू
उस सफलता का सही श्रेयी
हाँ, वही मज़दूर होता है !
सीढ़ियाँ चढ़ने-उतरने का
उसे जो अभ्यास होता है
वस्तुतः वह तप, कड़ी मेहनत
भूख का इतिहास होता है
वह हमारे नेह-धागे में
पुण्य के मनके पिरोता है !
सेतुबन्धों के प्रयोजन में
राम की नन्ही गिलहरी-सा
जागता रहता सतत अविचल
वह सदा निर्द्वन्द्व प्रहरी-सा
हाँ, उसी के आसरे अक्सर
भक्त भी निश्चिन्त सोता है !
त्याग क्या, तप क्या, तपस्या क्या
सभी से अनजान है बिल्कुल
पर हमारी प्रार्थनाओं के
रचा करता वह निरन्तर पुल
पुण्य का जो फल हमें मिलता
वह उसी के बीज बोता है !
बन्धु, उतारो छद्म मुखौटा
ऐसा क्या हो गया अचानक
जाग गई कैसे नैतिकता !
बन्धु, आप तो रहे अलौकिक
पाई कैसे यह लौकिकता !
बनने चले तपस्वी, त्यागी
यह क्या कोई नया खेल है
बन्धु, आपकी मूल प्रकृति से
यह नाटक खाता न मेल है
आप हंस की चाल चल रहे
भूले अपनी स्वाभाविकता !
भला आपका रिश्ता क्या है
नीर-क्षीर वाले विवेक से
रहा आपको मतलब केवल
अपने ही राज्याभिषेक से
ऐसे में नैतिक विरोध की
समझ न आई प्रासंगिकता !
जुगत-जुगाड़ों, जोड़-तोड़ में
आप कुशल थे, पारँगत थे
मक्खन और मलाई चट कर
उसे हजम करने में रत थे
वैयक्तिकता छोड़, अचानक
कैसे सूझी सामाजिकता !
बने पक्षधर और हितैषी
सहसा जिनके खड़े साथ हैं
उनके ही निर्दोष लहू से
स्वयं आपके रँगे हाथ हैं
क्या यह कोई नया पैंतरा
या बदली है वैचारिकता !
नौ सौ चूहे खाकर जैसे
धूर्त बिलैया हज को जाती
कुछ वैसे ही आप जोश में
फुला रहे हैं अपनी छाती
अजब कला है रँग-बदल की
कैसी गजब व्यावहारिकता !
जो है बिकता, वह कब टिकता
भौतिक सुख की यही क्षणिकता
सत्य सनातन है मौलिकता
शेष अन्यथा सब कुछ सिकता
छल-प्रपँच तो अस्थायी है
टिकती केवल प्रामाणिकता !
बन्धु, उतारो छद्म मुखौटा
अपनाओ कुछ नैसर्गिकता !
सीकरी न जाएँ, तो और क्या करें
सीकरी न जाएँ, तो और क्या करें
हम कल के कवि कुम्भनदास तो नहीं !
घर बैठे कवि को अब कौन पूछता
होगा सर्जक महान, काव्य-देवता
हमको क्या, हम हैं सामान्य नागरिक
कोई साहित्यकार ख़ास तो नहीं !
स्वाभिमान, गरिमा का अर्थ क्या भला
सार्थक है युक्ति की, प्रपँच की कला
हम जीवित वर्तमान का मुहावरा
हम कोई मुर्दा इतिहास तो नहीं !
होंगे वे और कि जो साधनाव्रती
हम साधन-सन्धानों के हिमायती
आज आत्म-विज्ञापन सूत्र समय का
ऋषि-मुनि-सा मन अपने पास तो नहीं !
बिसरे तो बिसरे हरिनाम, क्या करें
आत्मा से अब कितना और हम डरें
कोई मृतप्राय वस्तु क्यों हमें ठगे
भीतर ज़िन्दा वह अहसास तो नहीं !
दरबारों में जाकर दें न हाज़िरी
तो कैसे पूरा हो ध्येय आख़िरी
टूटी, तो ले लेंगे और पनहिया
घर बैठे रहेंगे उदास तो नहीं !
होता है सफल वही, जो बिकता है
कौन यहाँ कब तक आख़िर टिकता है
जीवन के लघु प्रसँग हैं, क्षेपक हैं
हम कोई ग्रन्थ, उपन्यास तो नहीं !
हमें चाहिए यश, वैभव, उपाधियाँ
प्रतिभा, तप, श्रम, चिन्तन व्यर्थ व्याधियाँ
राजा, सामन्तों की चाकरी भली
अन्यथा मिलेगा मधुमास तो नहीं !
प्रार्थनाओं से कुछ न हुआ
वही रहा परिणाम
प्रार्थनाओं से कुछ न हुआ !
अनहोनी की आशँका से
मन कातर-कातर
क्रमशः चुकता चला गया
भीतर का वैश्वानर
हुआ विधाता वाम
वन्दनाओं से कुछ न हुआ !
मन में लगता रहा
दुराशँकाओं का जमघट
दूर नहीं हो पाया
यों ही बना रहा सँकट
कुछ न आ सका काम
अर्चनाओं से कुछ न हुआ !
चित्त रहा उद्विग्न
दुराशँकाएँ नहीं टलीं
हाथ लगी उम्मीदें
भूलभुलैया में फिसलीं
कर्म हुआ निष्काम
कामनाओं से कुछ न हुआ !
जो होना था, वही हुआ
दुर्नियति नहीं बदली
व्यर्थ हुआ जप-तप
पत्थर की मूर्ति नहीं पिघली
पसरा दर्द अनाम
याचनाओं से कुछ न हुआ !
निष्फल हुए प्रयास
दुआएँ भी बेकार हुईं
झूठे पड़े उपाय
युक्तियाँ मिथ्याचार हुईं
केवल दुख अविराम
साँत्वनाओं से कुछ न हुआ !
विगलित हुए प्रणाम
साधनाओं से कुछ न हुआ !
जागो, हे गीत-पुरुष ! माँग है समय की
जागो, हे गीत-पुरुष !
माँग है समय की ।
सम्भले कुछ बिगड़ी गति
छन्द और लय की !
सोने का समय नहीं
यह जाग्रति-वेला
चहल-पहल, कलरव का
लगना है मेला
क्षितिज बाट जोह रहा
बस सूर्योदय की !
बीत गया शीत
हुआ सूर्य उत्तरायण
शरशैया छोड़ो
सम्वेदना-परायण
करनी है यात्रा
ब्रह्माण्ड के वलय की !
तिमिस्रान्ध वसुधा पर
भोर नई जागे
फैले आलोक
धुन्ध, अन्धकार भागे
प्रसरित हो गन्ध चतुर्दिक
प्रभा मलय की !
रचनी है एक नई
सृष्टि छन्दधर्मी
रँगों का इन्द्रधनुष
बुनो, रँगकर्मी !
नभ गाथा बाँचेगा
पुनः दिग्विजय की !
है किंकर्तव्य समय
कुछ न सूझ पड़ता
शिलीभूत हिम पिघले
टूटे हर जड़ता
लाज रखो इस अधीर
युग के अनुनय की !
शब्दों को मिले अर्थ
अभिप्राय, आशय
क्षुधा को प्रभूत अन्न
तृषा को जलाशय
दिव्यता मिले मन को
भव्य हिमालय की !
तुलसी-गन्ध माँ
लम्बी गीति-रचना ‘तुलसी-गन्ध माँ’ का एक अंश
सहा माँ ने उम्र-भर
हर दर्द धरती की तरह !
ज़िन्दगी ने जो दिया, करती रही स्वीकार वह
बर्फ़ हो चाहे चुभीला या जला अँगार वह
मान अपना छोड़कर करती रही मनुहार वह
लुटाती ही रही सब पर स्नेह, उच्छल प्यार वह
सब सहा चुपचाप उसने
की नहीं कोई जिरह !
की नहीं कोई शिकायत व्यस्तता की, काम की
थी न चिन्ता या कि इच्छा उसे अपने नाम की
थी समर्पित एक चेरी स्वयं आठों याम की
लिये मन में अनवरत-सी वह उदासी शाम की
अधर पर मुस्कान भर
खिलती रही जैसे सुबह !
स्नेह से भरपूर थी, लेकिन स्वयँ रीती रही
आँसुओं से घाव मन के मौन ही सींती रही
कुछ नहीं उसने कहा, घुटती रही, जीती रही
आपबीती को हवन कर सिर्फ़ जगबीती रही
कभी अपने त्रास की
पूछी नहीं उसने वजह !
सीख ही पाई न ममता तर्क या कोई बहस
सदा आँचल में रहा भीगा हुआ कोई परस
छाँह उसकी बेअसर करती रही भीषण उमस
पर्व-सा मनता रहा उसकी छुअन से हर दिवस
सेज फूलों की सुखद
लगती रही हर नागदह !
अजब महानगरी यह
भन्ते ! अजब महानगरी यह !
कपिलवस्तु से वैशाली तक
कैसा हाहाकार मचा है
तक्षशिला से नालन्दा तक
केवल यह सम्वाद बचा है
किसने यह षड्यन्त्र रचा है
विकट भयावह हुई परिस्थिति
स्थितियाँ हुईं निरन्तर दुर्वह !
श्रेष्ठिजनों के विरुद-गान में
धूलि-धूसरित होते अन्त्यज
अन्धकार इस ओर सघन, तो
है उस ओर अनोखी सज-धज
विस्मित करता है यह अचरज
आपा-धापी सत्य यहाँ का
कैसा निग्रह, क्या अपरिग्रह !
बोधिवृक्ष के नीचे बैठे
आकुल-व्याकुल मौन तथागत
भिक्षु भ्रमण में हैं भरमाए
श्रमण शिविर में हैं चिन्तनरत
हर दर्शन लगता क्षत-विक्षत
मृगदावों में, चैत्यवनों में
जले सूक्तियों के सब सँग्रह !
व्यक्ति, व्यक्ति के बीच बना जो
कब का टूट चुका है वह पुल
यशोधराओं के इंगित पर
उद्धत हुए तरुण-वय राहुल
त्रस्त हो रहा हंसों का कुल
देवदत्त से हार गया है
हर गौतम का थका अनुग्रह !
हम न द्रोही, हम न चारण
हम न द्रोही, हम न चारण
हम न लँका के विभीषण
हो रहे पल-पल तिरस्कृत
हस्तिनापुर में विदुर हम !
क्या यहाँ का मान, क्या सम्मान
कैसी पद-प्रतिष्ठा
हो जहाँ गिरवी रखी सँचेतना
हर मूल्य-निष्ठा
हैं अवाँछित हम सभा में
जी रहे हैं दुर्दशा में
देवताओं-बीच मानो
आ गए कोई असुर हम !
नय, अनय के बीच हमने
खींच दी क्या स्पष्ट रेखा
अन्धता क्या, चक्षुओं तक ने
हमें हंसकर न देखा
यह विवशता थी हमारी
कर न पाए चाटुकारी
नृप-सुहाती कह सकें कुछ
कब रहे इतने चतुर हम !
पद-प्रतिष्ठा से अनावश्यक
बन्धे बूढ़े पितामह
देखते असहाय-से भवितव्य
कुरुकुल का भयावह
मौन कृप हैं, द्रोण चुप हैं
स्यात् सत्ता के मधुप हैं
लालची, लोभी नहीं हैं
इसलिए लगते निठुर हम !
चाहिए कुछ भी न हमको
स्वस्थ मूल्यों को बचाते
और इसके लिए ही
अपमान पी-पीकर पचाते
हम नहीं पासे शकुनि के
अंश वेदव्यास मुनि के
जो उचित, कहते वही बस
सत्यदर्शी हैं मुकुर हम !
कब रहे धृतराष्ट्र को प्रिय
चुभ रहे दुर्योधनों को
हेय ही समझा हमारे
नीतिगत संशोधनों को
साधते बस सही सुर हम
रह नहीं पाए मधुर हम
अल्पमत में सदा रहते
हैं न सँख्या में प्रचुर हम !
चिड़िया कभी नहीं आएगी
चली गई बस्ती से आख़िर
चिड़िया कभी नहीं आएगी !
नन्हे-नन्हे पँखों वाली
चिड़िया फुदकी डाली-डाली
कितनी कोमल, कितनी प्यारी
घर-भर में लाई ख़ुशहाली
उसकी याद रहेगी, लेकिन
मन को सदा भिगो जाएगी !
चिड़िया से थी घर में रौनक
बस्ती-भर में चहल-पहल थी
वह थी, तो घर भी ज़िन्दा था
और ज़िन्दगी की हलचल थी
उसके बिना समूची बस्ती
पर ख़ामोशी-सी छाएगी !
चिड़िया चहकी घर-आँगन में
चिड़िया डोली वन-उपवन में
चिड़िया को ले गए शिकारी
जाने किस बीहड़ निर्जन में
बस्ती गुमसुम है, उदास है
चिड़िया अब न कहीं गाएगी !
कितना क्रूर, नृशंस, नराधम
कैसा दल था बहेलियों का
प्रश्नाकुल बस्ती में कोई
मिला न उत्तर पहेलियों का
बस्ती की क़िस्मत फूटी है
सिर धुन-धुनकर पछताएगी !
पर उत्तर तो देना होगा
मौन सुलगते इन प्रश्नों का
क्या इतना ही दारुण होगा
अन्त भविष्यत् के सपनों का
कातर चीख़ भला यों कब तक
तहख़ानों से टकराएगी !
शिकारियों के इस कुकृत्य को
समय कभी क्या माफ़ करेगा
चिड़िया अगर नहीं है, तो क्या
कोई तो इनसाफ़ करेगा
तब तक चिड़िया की क्षत आत्मा
सबके सिर पर मण्डराएगी !
गंगा का अवतरण
उतर रही है स्वर्गधाम से
गँगा का क्या ठाठ-बाट है !
चीर पहाड़ों की छाती को
इठलाती, बलखाती आती
बढ़ी चली आ रही वेग से
सबल शिलाओं से टकराती
कहीं धरातल ऊबड़-खाबड़
कहीं सरल, सीधा-सपाट है !
गोमुख से ऋषिकेश पधारी
आ पहुँची है मैदानों में
देवभूमि के देव छोड़कर
घुलती-मिलती इनसानों में
इतराती चल रही बीच में
इधर घाट है, उधर घाट है !
सँकरी राह छोड़कर पीछे
अतुल-विपुल विस्तार ले रही
पर्वत पर सिमटी-सिकुड़ी थी
अब व्यापक आकार ले रही
तटबन्धों को तोड़ रही है
कितना चौड़ा हुआ पाट है !
मन्दिर, भवन, सीढ़ियाँ, झूले
सन्त, महन्त, पुजारी, पण्डे
संन्यासी, श्रद्धालु भक्तजन
सबके अपने-अपने झण्डे
आश्रमवासी, मठाधीश हैं
सबकी अपनी अलग हाट है !
तीर्थकाम, निष्काम पर्यटक
भावुक जन, भोले अभ्यागत
धरती पर उतरी गँगा का
विह्वल मन से करते स्वागत
वंदन, कीर्तन, भजन, आरती
दृश्य भव्य, अद्भुत, विराट है !
साज-सिंगार किया गँगा ने
पहन सेतु की चपल मेखला
बनी मत्स्यकन्या-सी अनुपम
शांत, सौम्य, निर्मला, उज्ज्वला
केशराशि है हरित वनस्पति
शैल-शिखर उन्नत ललाट है !
कलाकार-मन मुग्ध-मुदित है
गाये क्या, चारण न भाट है !
बिटिया आएगी
जोह रहा हूँ बाट अभी तक
बिटिया आएगी !
आएगी, आते ही
बिस्तर पर पड़ जाएगी !
कह देगी – आराम करूँगी
बहुत थक गई हूँ
करते-करते काम सुबह से
बहुत पक गई हूँ
आंखें मून्दे-मून्दे ही
कुछ पल सुस्ताएगी !
छोटी बहन कहेगी – दीदी,
कुछ तो बातें कर
दिन-भर की अनुपस्थिति का
कुछ तो हरजाना भर
बिटिया उसके प्रश्नों से
रह-रह कतराएगी !
माँ अपनी ममता उण्डेलकर
उसे दुलारेगी
चाय बनाकर उसे
उठाएगी, पुचकारेगी
अपने हाथों से उसका
माथा सहलाएगी !
वह बोलेगी – मैं मनुष्य हूँ
कितना भार सहूँ
मैं मशीन की तरह
बताओ, कब तक लगी रहूँ
माँ स्नेहिल थपकी से
उसका मन बहलाएगी !
मैं कह दूँगा – छोड़ नौकरी
क्या मजबूरी है ?
हद से ज़्यादा निष्ठा भी
क्या बहुत ज़रूरी है ?
बिटिया कुछ न कहेगी
वह केवल मुस्काएगी !
पर यह सम्भव कहाँ
कि यह तो ख़ामख़ायाली है
बिटिया ने तो चुप रहने की
क़सम उठा ली है
चित्र-जड़ी वह यादों की ही
प्यास बुझाएगी !
बिटिया चली गई दुनिया से
अब क्या आएगी !
घर से घर का-सा वास्ता न रहा
घर से घर का-सा वास्ता न रहा,
अब वो टूटा-सा आइना न रहा ।
अब मैं अपने निशाँ कहाँ ढूँढूँ,
शहर में कोई मक़बरा न रहा ।
सोचकर बोलता हूँ मैं सबसे,
बात करने का अब मज़ा न रहा ।
चल कि अब रास्ता बदल लें हम,
अब कोई और रास्ता न रहा ।
मोड़ हैं, मरहले भी हैं, लेकिन
वो तग़ाफ़ुल, वो हादसा न रहा ।
अब चला है वो तोड़ने चुप्पी,
जब कोई उस पे मुद्दआ न रहा ।
हाय वो जुस्तजू, वो बेचैनी,
बीच का अब वो फ़ासला न रहा ।
जब ज़मीं पर उतर ही आए, तो
कामयाबी का भी नशा न रहा ।
ज़िन्दगी का नहीं रहा मक़सद,
अब कोई मुग़ालता न रहा ।
तू क्यों सूली चढ़ा जा रहा, क्या तू कोई ईसा है?
तू क्यों सूली चढ़ा जा रहा, क्या तू कोई ईसा है ?
यह क्या कम है, कानों में दुनिया उँड़ेलती सीसा है !
लोग तरक्की करते-करते कितने आगे निकल गए,
तू क्यों कहता दौर हमारा गुज़री हुई सदी-सा है ।
कल तक तो वह चेहरा था कश्मीर की घाटी-सा सुन्दर,
अब वह चेहरा चक्रवात में उजड़ा हुआ उड़ीसा है ।
तू उस ईश्वर की तलाश में कहाँ-कहाँ पर भटक रहा,
सच तो ये है, तेरा घर ही क़ाबा और क़लीसा है ।
बिस्मिल्लाह ने शहनाई में कैसा जादू घोल दिया,
फिर बरसों के बाद अचानक ज़ख़्म पुराना टीसा है ।
रौंदे हुए शहर के लोगों के मेले क्या, उत्सव क्या,
रातें पहियों ने कुचली हैं, दिन चक्की ने पीसा है ।
एक हवा का झोंका है वो, तपते हुए मरुथल में,
इस रेतीले महानगर में, उसका नाम नदी-सा है ।
मेहराब थी जो सिर पे, धमक से बिखर गई
मेहराब थी जो सिर पे, धमक से बिखर गई ।
मीनार इस तरह हिली, बुनियाद डर गई ।
हम सोचते ही रह गए, कैसे ये सब हुआ,
निकली कहाँ से बात, कहाँ तक ख़बर गई !
तुम क्या गए, शहर की ही रौनक हवा हुई,
पीली उदासियाँ थीं, जहाँ तक नज़र गई ।
हमने तो हँस के हाल ही पूछा था आपसे,
इतनी-सी बात आपको इतनी अखर गई !
मैंने ख़ुशी को पास बुलाया था प्यार से,
लेकिन ‘वो’ मेरे पास से होकर गुज़र गई ।
अपनों की बात आपने समझी नहीं कभी,
ग़ैरों की बात कैसे जेहन में उतर गई !
हम जुड़े,पर अवान्छितों की तरह
हम जुड़े,पर अवान्छितों की तरह ।
पाए वरदान शापितों की तरह ।
हम उपेक्षित हैं गो की सम्मानित,
फ्रेम में हैं सुभाषितों की तरह ।
दिग्विजय की महानता ढोते,
जी रहे हैं पराजितों की तरह ।
डस गए साँप की तरह सहसा,
जो थे कल तक समर्पितों की तरह ।
चाँदनी, जंगल, मरुस्थल, भीड़, चौराहे, नदी
चांदनी, जंगल, मरुस्थल, भीड़, चौराहे, नदी ।
हर कहीं हिरनी बनी भटकी हुई है जिन्दगी ।
टूटने का दर्द तुमको ही नहीं है आइनों,
जिस्म के इस फ्रेम में चटकी हुई है जिन्दगी ।
चुप्पियों के इस शहर में ऊँघती निस्तब्धता
छटपटाहट एक आहट की, हुई है जिन्दगी ।
आ कि अब मृतप्राय-से-इतिहास को ज़िन्दा करें
आ, कि अब मृतप्राय-से-इतिहास को ज़िन्दा करें ।
आदमियत के दबे एहसास को ज़िन्दा करें ।
साँस है तो आस है — कहते चले आए बुजुर्ग,
चल, कि जीने, के लिए अब आस को ज़िन्दा करें ।
रेत में प्यासे हिरन को ज़िन्दा रखता है सराब,
वास्तविक चाहे न हो, आभास को ज़िन्दा करें ।
ऐसे मौसम में, जहाँ सच बोलना दुश्वार हो,
मौन रहने के कठिन अभ्यास को ज़िन्दा करें ।
हर तरफ अन्धी सियासत है, बताओ क्या करें ?
हर तरफ अन्धी सियासत है, बताओ क्या करें ?
रेहन में पूरी रियासत है, बताओ क्या करें ?
झुण्ड पाग़ल हाथियों का, रौंदता है शहर को
और अंकुश में महावत है, बताओ क्या करें ?
जुल्म की दिलकश अदाएँ, रेशमी रंगीनियाँ,
गिड़गिड़ाती-सी बगावत है, बताओ क्या करें ?
आँख में अंगार, मन में क्षोभ, साँसों में घुटन
ये बुजुर्गों की विरासत है, बताओ क्या करें ?
सोच कर बोलता हूँ मैं सबसे
सोच कर बोलता हूँ मैं सबसे,
बात करने का अब मज़ा न रहा ।
हाय वो जुस्तजू, वो बेचैनी,
बीच का अब वो फ़ासला न रहा ।
अब चला है वो तोड़ने चुप्पी,
जब कोई उसपे मुद्दआ न रहा ।
हर क़दम पर एक क़ौमी गीत गाते जाइए
हर क़दम पर एक क़ौमी गीत गाते जाइए ।
मुफ़लिसों की खाल का जूता बनाते जाइए ।
ज़िन्दगी की तल्ख़ क़ीमत हम चुकाएँगे मगर,
आप इस तकलीफ़ का ज़ज्बा भुनाते जाइए ।
पीजिए रंगीन मौसम की महक वाला अरक,
वक़्त का कड़वा ज़हर हमको पिलाते जाइए ।
क़ामयाबी का है ये नुस्ख़ा इसे मत भूलिए,
आप जिस सीढ़ी चढ़े, उसको गिराते जाइए ।
जिन्हें सुने तो कोई बेनक़ाब हो जाए
जिन्हें सुने तो कोई बेनक़ाब हो जाए,
किसी से भूलकर ऐसे सवाल मत करना ।
उसूल, दोस्ती, ईमान, प्यार, सच्चाई,
तुम अपनी ज़िन्दगी इनसे मुहाल मत करना ।
जिन्हें सुने तो कोई बेनक़ाब हो जाए,
किसी से भूलकर ऐसे सवाल मत करना ।
उसूल, दोस्ती, ईमान, प्यार, सच्चाई,
तुम अपनी ज़िन्दगी इनसे मुहाल मत करना ।
साज-सजावट, यह गुलकारी, यह फुलवारी आपकी है
साज-सजावट, यह गुलकारी, यह फुलवारी आपकी है ।
यह मेहमाननवाज़ी, यह सब ख़ातिरदारी आपकी है !
ख़ुशबू, रँगत, ये फव्वारे, सब तैयारी आपकी है,
ऐशो-इशरत, हर अय्याशी, मनसबदारी आपकी है !
सौम्य, शिष्ट, शालीन लग रहे, क्या ऐयारी आपकी है,
उधर कैमरा भी चालू है, सब हुशियारी आपकी है !
कभी नुमाइश करते अपनी, कभी छिपाते हैं ख़ुद को,
ज़ाहिर हो या पोशीदा हो, लीला सारी आपकी है !
माल तिजोरी से ग़ायब है, आप बताएँ, कैसे है,
आप तिजोरी के मालिक हैं, चौकीदारी आपकी है !
आग लगी है चौराहे पर, घर तक भी आ जाएगी,
अपने घर को आप बचाएँ, ज़िम्मेदारी आपकी है !
आप पैरवी करते उनकी, जो गुनाह में शामिल हैं,
औरों पर इल्ज़ाम लगाते, क्या लाचारी आपकी है !
आप तमाशा रहे देखते, कितने लोग शहीद हुए,
आप बढ़ें अब, आगे आएँ, अब तो बारी आपकी है !
शेर से कैसे बचना है, यह पूछ रहे हैं हमसे क्यों,
हम क्या जानें, आप करें तय, शेर-सवारी आपकी है !
हर महफ़िल में, हर मौक़े पर थी दुश्वारी, क्या करते
हर महफ़िल में, हर मौक़े पर थी दुश्वारी, क्या करते,
भक्तजनों के बीच में रहकर रायशुमारी क्या करते !
सन्त खड़े जयकार कर रहे, ज्वाला देवी रूठ रहीं,
ऐसे में हम ध्वजा-नारियल-पान-सुपारी क्या करते !
गले लगाने को थे लेकिन पीछे हटना पड़ा हमें,
दिखी रामनामी चोले में छिपी कटारी, क्या करते !
नामुराद के थे मुरीद सब बहस-जिरह पर आमादा,
लाइलाज थी दीवानेपन की बीमारी, क्या करते !
उसके घर में आग लगी, तो मदद माँगने आ पहुँचा,
अपने घर में फेंकी उसने ख़ुद चिनगारी, क्या करते !
हम शिकार की खोज में निकले, मगर शिकार हुए ख़ुद ही,
मिले एक से एक धुरन्धर बड़े शिकारी, क्या करते !
दाना डाला, पाला-पोसा, मगर न अपने हो पाए,
आँगन में चुग रहे कबूतर चढ़े अटारी, क्या करते !
घर के मालिक ने ही घर में सेन्ध लगाई चुपके से,
आप बताएँ, ऐसे में हम पहरेदारी क्या करते !
जीता हुआ मुक़दमा हारे, मुंसिफ़ से कुछ गिला नहीं,
जो गवाह थे, उनकी ही थी कारगुज़ारी, क्या करते !
इतने चौकीदार हो गए गली-मोहल्लों, कूचों में,
चौकीदारों की बस्ती में चौकीदारी क्या करते !
बदले कुछ तस्वीर, सरासर जिम्मेदारी थी उनकी,
हमने ही अपने सिर पर ली जिम्मेदारी, क्या करते !
सपने देखे, कोशिश भी की, जीत का तोहफ़ा मिले हमें,
पर क़िस्मत में लिखी हुई थी मात करारी, क्या करते !
जिन्हें होश में लाना था औरों को, ख़ुद बेहोश हुए,
हम पर भी अरसे तक छाई रही ख़ुमारी, क्या करते !
हम गप्पी कहलाते
करते हम दिन-रात
हवा से बात
नहीं धरती पर आते;
हम बातों के शेर
न करते देर
दूर की कौड़ी लाते!
हमने सूरज-चाँद
सभी को फाँद
सितारों को चूमा है;
नभ में चारों ओर
मचाता शोर
हमारा मन घूमा है
ऊँचे, बड़े पहाड़
और ये ताड़
हमारे आगे झुकते;
हम धरती के लाल
बजाते गाल
नहीं तिल भर भी रुकते!
हम यारों के यार
लुटाते प्यार
सभी का मन बहलाते;
पर किस्मत का फेर
बड़ा अँधेर
कि हम गप्पी कहलाते!
हवा चली
अभी यहाँ, अभी वहाँ
रुकी कहाँ, गई कहाँ,
नगर-डगर, गली-गली
हवा चली, हवा चली!
इसे उठा, उसे पटक
यहाँ अटक, वहाँ मटक,
कहीं सटक, कहीं गटक
कभी कहीं गई भटक-
मची अजीब खलबली!
हवा चली, हवा चली!
पहाड़ को बुहारती
बहार को सँवारती,
गुबार को पुकारती
बुखार को उतारती-
हुई उड़ंच मनचली!
हवा चली, हवा चली!
कभी खड़ी, कभी पड़ी
कभी लगा रही झड़ी,
मचान, छान, झोपड़ी
धमाल, धमा-चौकड़ी
कहीं बुरी, कहीं भली!
हवा चली-हवा चली!
अगर कहीं गई बिफर
हिला दिए किले-शिखर,
महल हुए तितर-बितर
कभी इधर, कभी उधर-
निडर चपल, उतावली!
हवा चली-हवा चली!
पान वाले
पान वाले, पान वाले!
पान दे हमको बनाकर,
ओ अनोखी शान वाले!
गोलटा देशी न भाते,
बस बनारस का लगा दे।
खा सकें पत्ता, सपत्ता,
इसलिए छोटा उठा ले!
पान वाले, पान वाले!
देख चूना कम लगाना,
ढेर-सा कत्था चढ़ाना।
मुँह रचाना है हमें बस,
कहीं पड़ जाएँ न छाले!
पान वाले, पान वाले!
डालना मीठी सुपारी,
खुशबुओं वाली फुहारी।
और पीपरमेंट भी कुछ,
जो हमारा मन उछाले!
पान वाले, पान वाले!
सौंफ मिसरी खूब रखना,
पर न तंबाकू बुरकना।
एक भी पत्ती पड़ी तो
हम न जाएँगे सँभाले!
पान वाले, पान वाले!
-साभार: नंदन, जनवरी, 2006, 20
आम आए
लौटकर बनवास से
जैसे अवध में राम आए,
साल भर के बाद ऐसे ही
अचानक आम आए!
छुट्टियों के दिन
उमस, लू से भरे होने लगे थे,
हम घनी अमराइयों की
छाँह में सोने लगे थे।
मन मनौती-सी मनाता था
कि जल्दी घाम आए!
गरम लूओं के थपेड़ों से भरा
मौसम बिता कर,
ककड़ियाँ, तरबूज, खरबूजे
चले बिस्तर उठाकर।
सोचते थे हम कि कब
वह बादलों की शाम आए!
बारिशों के साथ फिर आया
हवा का एक झोंका,
देर तक चलता रहा फिर
सिलसिला-सा खुशबुओं का!
लाल पीले हरे-
खुशियों से भरे पैगाम आए
चूस लें या काटकर खा लें
रसीले हैं अजब ये
आम है बरसात के बादाम
ढाते हैं गज़ब ये
दशहरी, तोता परी, लँगड़ा
सफेदा नाम आए!
ओ नदी
ओ सुहानी नदी,
ओ सयानी नदी,
दे हमें सिर्फ
दो घूँट पानी नदी!
तू पहाड़ी उतरकर
यहाँ आ गई,
अब यहीं पर ठहर
तू हमें भा गई।
दूर हमसे न जा
बाँसुरी सी बजा,
तू बनी जा रही क्यों
विरानी नदी!
प्यार करती हुई
धूप को छाँव को,
अब शहर को चली
छोड़कर गाँव को।
तू हमें साथ ले
थाम ये हाथ ले,
ले चलेंगे तुझे
राजधानी नदी!
यों ना जल्दी मचा
सब्र कर कुछ अभी,
हाँ, तुझे भी समंदर
मिलेगा कभी।
गाँव, जंगल, शहर
जाएँगे सब ठहर
खत्म हो जाएगी
सब कहानी नदी।