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योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ की रचनाएँ

पहली बारिश की बून्दों-सा

नई बहू घर में आई है
बन्दनवार लगे

चीज़ों से जुड़ना बतियाना
पीछे छूट गया
पहली बारिश की बूँदों-सा
सब कुछ नया-नया
कुछ महका-सा कुछ बहका-सा
यह संसार लगे

संकेतों की भाषा नूतन
अर्थ गढ़े पल-पल
मूक-बधिर अँखियाँ भी करतीं
कभी-कभी बेकल
गन्ध नहाई हवा सुबह की
भी अंगार लगे

परीलोक की किसी कथा-सा
आने वाला कल
ऊबड़-खाबड़ धरा कहीं पर
और कहीं समतल
कोमल मन में आशंकाओं
के अम्बार लगे ।

सागर चिन्तित हुआ 

नयनों ने मन के द्वारे पर
स्वप्न सजाए हैं

सागर चिंतित हुआ देखकर
सूखी हुई नदी
किंकर्तव्यविमूढ़ बन रही
फिर भी आज सदी
अम्मा ने उलझे प्रश्नों के
हल बतलाए हैं

कोरे काग़ज़ का सदियों से
यह इतिहास रहा
मौन साधकर सदा लेखनी
का ही दास रहा
मुनिया ने कुछ रंग-बिरंगे
चित्र बनाए हैं

निराकार मन की होती ज्यों
कोई थाह नहीं
अन्तहीन नभ में वैसे ही
निश्चित राह नहीं
नन्हीं चिड़िया ने उड़ने को
पर फैलाए हैं ।

धूल चढ़ी सरकारी फ़ाइल

किसको चिन्ता किस हालत में
कैसी है अब माँ

सूनी आँखों में पलती हैं
धुँधली आशाएँ
हावी होती गई फ़र्ज़ पर
नित्य व्यस्तताएँ
जैसे ख़ालीपन काग़ज़ का
वैसी है अब माँ

नाप-नापकर अँगुल-अँगुल
जिनको बड़ा किया
डूब गए वे सुविधाओं में
सब कुछ छोड़ दिया
ओढ़े-पहने बस सन्नाटा
ऐसी है अब माँ

फ़र्ज़ निभाती रही उम्र-भर
बस पीड़ा भोगी
हाथ-पैर जब शिथिल हुए तो
हुई अनुपयोगी
धूल चढ़ी सरकारी फाइल
जैसी है अब माँ

छोटा बच्चा पूछ रहा है 

छोटा बच्चा पूछ रहा है
कल के बारे में

साज़िश रचकर भाग्य समय ने
कुछ ऐसे बांटा
कृष्ण पक्ष है, आँधी भी है
पथ पर सन्नाटा
कौन किसे अब राह दिखाए
इस अँधियारे में

अर्न्तध्यान हुए थाली से
रोटी दाल सभी
कहीं खो गए हैं जीवन के
सुर-लय-ताल सभी
लगता ढूँढ रहे आशाएँ
ज्यों इकतारे में

नई उमंगें नये सृजन भी
कुछ तो बोलेंगे
शनै शनै आशंकाओं की
पर्तें खोलेंगे
एक नई दुनिया है शायद
मिट्टी गारे में

कैसी है अब माँ

किसको चिन्ता किस हालत में
कैसी है अब माँ

सूनी आँखों में पलती हैं
धुंधली आशाएँ
हावी होती गईं फ़र्ज़ पर
नित्य व्यस्तताएँ
जैसे खालीपन काग़ज़ का
वैसी है अब माँ

नाप-नापकर अंगुल-अंगुल
जिनको बड़ा किया
डूब गए वे सुविधाओं में
सब कुछ छोड़ दिया
ओढ़े-पहने बस सन्नाटा
ऐसी है अब माँ

फ़र्ज़ निभाती रही उम्र-भर
बस पीड़ा भोगी
हाथ-पैर जब शिथिल हुए तो
हुई अनुपयोगी
धूल चढ़ी सरकारी फाइल
जैसी है अब माँ

नित्य आत्महत्या करती हैं

नित्य आत्महत्या करती हैं
इच्छाएँ सारी

आय अठन्नी खर्च रुपैया
इस महँगाई में
बड़की की शादी होनी है
इसी जुलाई में

कैसे होगा ? सोच रहा है
गुमसुम बनवारी

बिन फ़ोटो के फ्रेम सरीखा
यहाँ दिखावा है
अपनेपन का विज्ञापन-सा
सिर्फ़ छलावा है

अपने मतलब की ख़ातिर नित
नई कलाकारी

हर पल अपनों से ही सौ-सौ
धोखे खाने हैं
अंत समय तक फिर भी सारे
फ़र्ज़ निभाने हैं

एक अकेला मुखिया घर की
सौ ज़िम्मेदारी

धीरे-धीरे सूख रही है तुलसी आँगन में

धीरे-धीरे सूख रही है
तुलसी आँगन में

पछुवा चली शहर से, पहुँची
गाँवों में घर-घर
एक अजब सन्नाटा पसरा
फिर चौपालों पर

मिट्टी से जुड़कर बतियाना
रहा न जन-जन में

स्वांग, रासलीला, नौटंकी,
नट के वो करतब
एक-एक कर हुए गाँव से
आज सभी गायब

कहाँ जा रहे हैं हम, ननुआ
सोच रहा मन में

नये आधुनिक परिवर्तन ने
ऐसा भ्रमित किया
जीन्स टॉप में नई बहू ने
सबको चकित किया

छुटकी भी घूमा करती नित
नूतन फ़ैशन में

उलझी वर्ग पहेली जैसा जीवन का हर पल

उलझी वर्ग पहेली जैसा
जीवन का हर पल

मन पर हावी हुईं कभी जब
भूखी इच्छाएँ
अस्त-व्यस्त-सी रहीं नित्य ही
सब दिनचर्याएँ

अब है केवल अवसादों का
दलदल ही दलदल

झूठी शान दिखाने की
ऐसी मारा-मारी
कुछ सुविधाओं की एवज में
कर्ज़ चढ़ा भारी

सिर्फ़ तनावों का मरुथल है
कहीं न दिखता जल

ढुलमुल अर्थव्यवस्था के
गहरे गड्ढे पग-पग
आश्वासन के खड़े कंगूरे
भी डगमग-डगमग

इन चुभते प्रश्नों को बोलो
कौन करेगा हल

छोटा बच्चा पूछ रहा है कल के बारे में

छोटा बच्चा पूछ रहा है
कल के बारे में

साज़िश रचकर भाग्य समय ने
कुछ ऐसे बाँटा
कृष्ण-पक्ष है, आँधी भी है
पथ पर सन्नाटा

कौन किसे अब राह दिखाए
इस अँधियारे में

अन्र्तर्ध्यान हुए थाली से
रोटी दाल सभी
कहीं खो गए हैं जीवन के
सुर-लय-ताल सभी

लगता ढूँढ रहे आशाएँ
ज्यों इकतारे में

नई उमंगें नये सृजन भी
कुछ तो बोलेंगे
शनै-शनै आशंकाओं की
पर्तें खोलेंगे

एक नई दुनिया है शायद
मिट्टी गारे में

नयनों ने मन के द्वारे पर स्वप्न सजाए हैं

नयनों ने मन के द्वारे पर
स्वप्न सजाए हैं

सागर चिंतित हुआ देखकर
सूखी हुई नदी
किंकर्तव्यविमूढ़ बन रही
फिर भी आज सदी

अम्मा ने उलझे प्रश्नों के
हल बतलाए हैं

कोरे काग़ज़ का सदियों से
यह इतिहास रहा
मौन साधकर सदा लेखनी
का ही दास रहा

मुनिया ने कुछ रंग-बिरंगे
चित्र बनाए हैं

निराकार मन की होती ज्यों
कोई थाह नहीं
अन्तहीन नभ में वैसे ही
निश्चित राह नहीं

नन्हीं चिड़िया ने उड़ने को
पर फैलाए हैं

मुनिया ने पीहर में आना-जाना छोड़ दिया

मुनिया ने पीहर में आना-
जाना छोड़ दिया

ना पहले जैसा अपनापन
ना ही प्यार दिखा
फ़र्ज़ कहीं ना दिखा; दिखा तो
बस अधिकार दिखा

चिट्ठी ने भी माँ का हाल
बताना छोड़ दिया

वृद्ध पिता का बरगद-सा जब
साया नहीं रहा
मिट्ठू ने भी राम-राम तक
मन से नहीं कहा

ममता ने भी भावों को
दुलराना छोड़ दिया

बीते कल को सोच-सोचकर
नयन हुए गीले
कच्चे धागे के बंधन भी
पड़े आज ढीले

चावल ने रोली का साथ
निभाना छोड़ दिया

नई बहू घर में आई है बन्दनवार लगे 

नई बहू घर में आई है
बन्दनवार लगे

चीज़ों से जुड़ना बतियाना
पीछे छूट गया
पहली बारिश की बूँदों-सा
सब कुछ नया-नया

कुछ महका-सा कुछ बहका-सा
यह संसार लगे

संकेतों की भाषा नूतन
अर्थ गढ़े पल-पल
मूक-बधिर अँखियाँ भी करतीं
कभी-कभी बेकल

गंध नहाई हवा सुबह की
भी अंगार लगे

परीलोक की किसी कथा-सा
आने वाला कल
ऊबड़-खाबड़ धरा कहीं पर
और कहीं समतल

कोमल मन में आशंकाओं
के अंबार लगे

इन विषमता के पलों में, स्वार्थ के इन मरुथलों में

इन विषमता के पलों में, स्वार्थ के इन मरुथलों में
नेह के सरसिज उगाएँ, हों सुगन्धित सब दिशाएँ

द्वेष की लू के थपेड़ों से सुमन मुरझा रहे हैं
और कोयल, मोर, बुलबुल भी नहीं कुछ गा रहे हैं
इस घुटन की त्रासदी में, दौड़ती जाती सदी में
प्रश्न के उत्तर सुझाएँ, प्यार को फिर से बुलाएँ

नेह के सरसिज उगाएँ, हों सुगन्धित सब दिशाएँ

अब घृणा वातावरण में हर तरफ फैली हुई है
श्वेत चादर आपसी सदभाव की मैली हुई है
ज़िन्दगी की इस डगर में, मुश्किलों के इस सफ़र में
सब गिले-शिकवे मिटाएँ, दो क़दम आगे बढ़ाएँ

नेह के सरसिज उगाएँ, हों सुगन्धित सब दिशाएँ

भूख, बेकारी, अभावों का घना छाया अँधेरा
दूर तक दिखता नहीं कोई व्यवस्था का सबेरा
रात गहरी हो गई है, चाँदनी भी खो गई है
दीप आशा के जलाएँ, रोशनी से पथ सजाएँ

नेह के सरसिज उगाएँ, हों सुगन्धित सब दिशाएँ

सिंधु को अभिमान निज विस्तार पर है

सिंधु को अभिमान निज विस्तार पर है
पर अधूरी है नदी की प्यास अब तक

पुष्प ने तो नित्य भँवरों को लुभाया
प्यार अपना तितलियों पर भी लुटाया
कल्पना थी, तूलिका थी, रंग भी थे
ख़ुशबुओं का चित्र फिर भी बन न पाया

हँस रही हैं नागफनियाँ धृष्टता से
और माली कर रहा उपहास अब तक
सिंधु को अभिमान…

बाँसुरी का साथ स्वर से छुट रहा है
भावनाओं का यहाँ दम घुट रहा है
खो गया है आपसी हँसना-हँसाना
नित्य पीड़ा का ख़जाना लुट रहा है

ढूँढने पर भी न मिल पाए कहीं पर
वो ठहाके वो ख़ुशी उल्लास अब तक
सिंधु को अभिमान….

बाण तीखे शब्द के चुपचाप सहना
और बदले में कभी कुछ भी न कहना
प्रश्न मुझसे रात भर करता रहा मन
क्या सही है आँसुओं का मौन रहना

खोजना चाहा कभी जब कारणों को
मूक-बधिरों सा रहा इतिहास अब तक
सिंधु को अभिमान….

इस महँगाई में

नित्य आत्महत्या करती हैं
इच्छाएँ सारी

आय अठन्नी खर्च रुपैया
इस महँगाई में
बड़की की शादी होनी है
इसी जुलाई में
कैसे होगा ? सोच रहा है
गुमसुम बनवारी

बिन फ़ोटो के फ़्रेम सरीखा
यहाँ दिखावा है
अपनेपन का विज्ञापन-सा
सिर्फ़ छलावा है
अपने मतलब की ख़ातिर नित
नई कलाकारी

हर पल अपनों से ही सौ-सौ
धोखे खाने हैं
अंत समय तक फिर भी सारे
फ़र्ज़ निभाने हैं
एक अकेला मुखिया घर की
सौ ज़िम्मेदारी

ढूँढ़ रहे हम पीतलनगरी

ढूँढ़ रहे हम पीतलनगरी
महानगर के बीच !

यहाँ तरक्की की परिभाषा
यातायात सघन
और अतिक्रमण, अख़बारों में
जैसे विज्ञापन

नहीं सुरक्षित कोई भी अब
यहाँ सफ़र के बीच !

हर दिन दूना, रात चौगुना
शहर हुआ बढ़कर
और प्रदूषण बनकर फ़ैला
कालोनी कल्चर

कहीं खो गया लगता अपना
घर नंबर के बीच !

ख्याति यहा~म की दूर-दूर तक
बेशक फैली है
किंतु रामगंगा भी अपनी
बेहद मैली है

कोशिश भी कुछ नहीं दीखती
किसी ख़बर के बीच !

कालोनी के लोग

अपठनीय हस्ताक्षर जैसे
कालोनी के लोग !

संबंधों में शंकाओं का
पौधारोपण है
केवल अपनों में ही अपना
पूर्ण समर्पण है

एकाकीपन के स्वर जैसे
कालोनी के लोग !

महानगर की दौड़-धूप में
उलझ ख़ुशहाली
जैसे ग़मलों में ही सिमटी
जग की हरियाली

गुमसुम ढाई आखर जैसे
कालोनी के लोग !

ओढ़े हुए मुखों पर अपने
नकली मुस्कानें
यहाँ आधुनिकता की बदलें
पल-पल पहचानें

नहीं मिले संवत्सर जैसे
कालोनी के लोग !

धोखे खाने हैं

नित्य आत्महत्या करती हैं
इच्छाएँ सारी !

आय अठन्नी, खर्च रुपैया
इस महंगाई में
बड़की की शादी होनी है
इसी जुलाई में

कैसे होगा? सोच रहा है
गुमसुम बनवारी

बिन फ़ोटो के फ़्रेम सरीखा
यहाँ दिखावा है
अपनेपन का विज्ञापन-सा
छलावा है

अपने मतलब की ख़ातिर नित
नई कलाकारी !

हर पल अपनों से ही सौ-सौ
धोखे खाने हैं
अंत समय तक फिर भी सारे
फ़र्ज़ निभाने हैं

एक अकेला मुखिया घर की
सौ ज़िम्मेदारी !

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