जहाँ तक सवाल है
जहाँ तक सवाल है शोषितों के हाल का
फँसे हुए सदियों से शोषकों के जाल में
निगल न पाये पर छोड़ भी तो नहीं रहे
पिसे जा रहे हैं क्रूर काल ही के गाल में
ऊँच-नीच, छूट-छात, जाति-पात कीच-बीच
वारि बिन मीन अकुलाति जिमि ताल में
‘सुधाकर’ स्वतन्त्र भले भारत हुआ है बन्धु
शोषित स्वतन्त्र जाने होंगे किस काल में
सदियों से शोषित-प्रताड़ित दलित जन
सदियों से शोषित-प्रताड़ित दलित जन
दासता की बेड़ियों में बँधे बिलखाते थे
अस्पृश्य-अन्त्यज्य-अधर्म, धर्म-शास्त्र कहें
अधिकार-वंचित से विवश अकुलाते थे
विद्या से विहीन धनहीन दीन पंगु बने
पशुओं के तुल्य द्विज उनको सताते थे
‘सुधाकर’ आम्बेडकर बाबा ने जगाया उन्हें
स्वाभिमान जगा छुटकारा दिलवाते थे!
सिंहावलोकन
वध करने ‘शम्बूक’ तुम्हारा फिर से राम चला है
सावधान! ‘बलि’ भारत में युग-युग से गया छला है
दम्भी-छल-कपटी द्विजाचार अब तक वह शत्रु हमारा
‘एकलव्य’ अँगूठा काट रहा वह ‘द्रोणाचार्य’ तुम्हारा
‘कालीदह’ में कृष्ण चला फिर से उत्पात मचाने
‘नागों’ की बस्ती को ‘अर्जुन’ फिर से चला जलाने
‘पुष्यमित्र’ कर में नंगी लेकर तलवार खड़ा है
‘वृहद्रथ’ हो जा सजग, अचेतन अब तक रहा पड़ा है
‘तक्षशिला’ हो गयी तहस पर ‘तक्षक’ नहीं मरा है
वह ‘शशांक’ मिट गया किन्तु यह बोधि-वृक्ष हरा है
सदियों से कुचला है हमको फिर भी शेष अभी है
कश्मीर से कन्या कुमारी तक अवशेष अभी है
‘शुंगवंश’ के छल-कपटी शासन का अन्त निकट है
होगा नया ‘महाभारत’ पहले से अधिक विकट है
वह अतीत की रीति बेलची-कांड और पिपरा है
पूर्व नियोजित ‘छिडली साढू पर’ का कांड खरा है
‘टाइगर अशोक’ है अमर शहीदों में लिख नाम गया है
आगरा-कांड से जगा क़ौम को, कर शुभ काम गया है
दलितों के जीवन में सब करते खिलवाड़ रहे हैं
ख़ून बहाकर दलितों का फिर झंडा गाड़ रहे हैं
वे ही आग लगाते, वे उसे ही बुझाने आते हैं
भस्मसात हो जाने पर घड़ियाली अश्रु बहाते हैं
दोस्त और दुश्मन की कर पाना पहचान कठिन है
नेता-अभिनेता प्राणों का लेता यह दुर्दिन है
‘जनमेजय के नाग-यज्ञ’ की अन्तिम यह झाँकी है
जन्मेगी जय कभी नहीं अब ‘तक्षक’ बाक़ी है
‘मनुस्मृति’ का वह विधान अब और नहीं चल पाएगा
रुका न अत्याचार तो दामन छूट सब्र का जाएगा
शक्ति-परीक्षा आज तुम्हारी जागो दलितो
विजयश्री पग चूमेगी, मत भागो दलितो
शिक्षित और संगठित हो ललकारो दलितो
अपने पुरखों का धर्म-बौद्ध बन तारो दलितो
आज़ाद हुआ बस लाल क़िला
सामन्तों-पूँजीपतियों की जो मिली-भगत से काम हुआ
सत्ता-परिवर्तन का सौदा करने पर क़त्ले-आम हुआ
हिंसा-नफ़रत पर रखी गयी आज़ादी की आधारशिला
आज़ाद हुआ बस लाल क़िला
दो-चार वसन्त के फूल खिले कहते ऋतुराज वसन्त हुआ
ठूँठों पर नज़र नहीं डाली जिनके जीवन का अन्त हुआ
परकटे परिन्दों से पूछो जिनका धू-धू कर नीड़ जला
आज़ाद हुआ बस लाल क़िला
पीढ़ी-दर-पीढ़ी बीत गयी बँधुआपन में बेगारी में
खप गयी उम्र धन्नासेठों की टहल में तावेदारी में
तुम कहते आज़ादी आयी हमको न अब तक पता चला
आज़ाद हुआ बस लाल क़िला
आज़ादी आयी महलों में झोपड़पट्टी में अन्धकार
भूखे-प्यासे तन से जर-जर कंकालों का है चीत्कार
शोषक ने सिंहासन पाया शोषित को नहीं स्वराज मिला
आज़ाद हुआ बस लाल क़िला
फाँसी के तख़्ते पर चढ़कर जिस आज़ादी के पढ़े छन्द
‘बिस्मिल’ की वह आज़ादी तो कोठी-बँगलों में हुई बन्द
भगत सिंह-शेखर-सुभाष के अरमानों को धूल मिला
आज़ाद हुआ बस लाल क़िला
बलिदान-त्याग के बिना देश का
बलिदान-त्याग के बिना देश का मिट सकता अनुताप नहीं है
भ्रम अतीत का मिट जाने से कम होता प्रताप नहीं है
निर्भय होकर निर्दयता को करुणा की भाषा सिखवा दो
मलिन पुलिन को पावन कर दो गंगा के जल से नहला दो
सागर का मन्थन कर डालो, अमृत-घट को खोज निकालो
छलक रहा हो जहाँ हलाहल शिवशंकर बनकर पी डालो—
बलिदान-त्याग के बिना देश का मिट सकता अनुताप नहीं है
भ्रम अतीत का मिट जाने से कम होता प्रताप नहीं है
अंगारों पर चलना होगा युग में परिवर्तन लाने को
झंझावातों के आघातों में स्वच्छन्द गीत गाने को
ऊँच-नीच आडम्बर को भस्मसात अब करना होगा
युग-युग का दासत्व मिटाकर समता-सागर लहराने को
किये बिना उपचार रोग का मिट सकता सन्ताप नहीं है
भ्रम अतीत का मिट जाने से कम होता प्रताप नहीं है
स्वाभिमान भर दो प्राणों की आहों का संसार नहीं हो
आँखों में हो चमक सभी के आँसू की जलधार नहीं हो
वह जीवन भी क्या जीवन है जिस जीवन में प्यार नहीं हो
वह मानव भी क्या मानव है जिसे कोई अधिकार नहीं हो
मेघ-मल्हारों के गाने से मरु का घटता ताप नहीं है
भ्रम अतीत का मिट जाने से कम होता प्रताप नहीं है
जहाँ विषमता का तांडव हो समता की सरिता लहरा दो
निपट-निरीहों का सम्बल बन शक्ति संगठित कर पहरा दो
दरिद्रता की जहाँ दरारें धन-कुबेर का कोष लुटा दो
मानवता का कुन्दन हर लो कोलाहल आक्रोश मिटा दो
भले पुरातन अथवा नूतन भूल सुधारो पाप नहीं है
भ्रम अतीत का मिट जाने से कम होता प्रताप नहीं है