अघायी औरतें
मर्दों के शहर की अघायी औरतें
जब उतारू हो जाती हैं विद्रोह पर
तो कर देती हैं तार-तार
सारी लज्जा की बेड़ियों को
उतार देती हैं लिबास हया का
जो ओढ़ रखा था बरसों से सदियों ने
और अनावृत हो जाता है सत्य
जो घुट रहा होता है औरत की जंघा और सीने में
अघायी औरतों के तिलिस्म
यूँ ही नहीं टूटा करते हैं
परिपक्व होने में बरसों
मिटटी में ज़मींदोज़ होना पड़ता है
फिर काटने और तराशने की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है
तब कहीं जाकर अघायी औरत का स्वरुप निखरता है
तब जाकर वो अपने तिलिस्म के
भेदों को अनावरित करती है
तब जाकर वो अपनी बुनियादों से निकलती है
और करती है बेनकाब मर्दों के शहरों को
करती है ध्वस्त बरसों से बनाये गए मर्दों के अहम् के किलों को
जब होती है वो भी संलग्न
मर्दों की बनायीं दुनिया के रिवाजों में
अघायी औरत बनने के सफ़र में
आते हैं जाने कितने जलज़ले
सिल बनी बट्टे के मार में
पिसती रहती हैं उसकी संवेदनाएं
फिर चाहे चोट धड के निचले हिस्से पर हो या ऊपरी हिस्से पर
आघात शारीरिक हो या मानसिक
सहनशीलता के रक्त की अन्तिम बूँद तक करती है कोशिश
मर्द के शहर की ईंट-ईंट को जोड़े रखने की
उसे स्थायित्व प्रदान करने की
मगर जब मर्द की संवेदनहीनता का पाँव
अंगद सा औरत के स्वाभिमान को ललकारता है
उसे नेस्तनाबूद करने को लालायित होता है
तब अघायी औरत उतार देती हैं खोल
सदियों से ओढ़ी सभ्यताओं का
कर देती हैं खुद को निर्वस्त्र
उतार देती है लिबास
मर्द और औरत के बेजान रिश्ते से
खोल लेती है बाल तब तक
जब तक न मर्दों के शहर पर
बिजली बन गिरती है ये
जब खोलने लगती है उसके
अतिक्रमण के पेंचों को कि
कैसे अमानवीयता चरम को छूती गयी
जब उसने लड़की से औरत के सफ़र को तय किया था
फिर चाहे उसका शारीरिक दोहन हुआ हो
मानो बिछी है धरा चटाई सी
और हल की फाँक उसकी अस्मिता पर गाड़ी हो
और बो दिया गया हो बीज उसकी कोख में
बिना सींचे, सहेजे, सहलाए
फिर भी तिरस्कार, उपेक्षा की
शिकार होती रही हो मानसिक शोषण के साथ
आखिर कब तक?
कब तक स्वयं का दोहन होने दे
कब तक मर्द के शहर की
बेजुबान मिटटी बन धूल-धूसरित होती रहे
और जब हो जाती है
दोहन और शोषण की पराकाष्ठा
और सहने की अति कर देती है अतिक्रमण हर सीमा रेखा का
तब
अघायी औरतों का हल्ला, कानफ़ोडू शोर
कर देता है भंग शांति
मर्दों के शहर के गली- कूचों की
आखिर ये बोली कैसे?
कहाँ से सीखी जुबान?
किसने दिया इसे कलम रुपी हथियार?
कैसे आया इसकी वाणी में व्यभिचार?
कैसे छोड़ दी इसने अपनी मर्यादा?
कैसे लांघ दी इसने लक्ष्मण रेखा?
कैसे खोल रही है ये भेद
ना केवल मर्द के शहर के
बल्कि उसके गुप्त रास्तों पर भी कर रही है प्रहार
कभी वाणी द्वारा तो कभी लेखन द्वारा
कहाँ से पनपा इतना विद्रोह
जो मर्द के शहर की दीवारें भरभराने लगीं
आखिर कैसे ये इतनी उच्छ्रंखल हुयी
जो मर्द के बिस्तर की सलवटें भी खोलने लगी
वो बिस्तर जिसे वो जैसे चाहे जब चाहे अपनी सुविधानुसार
ओढ़ा, बिछाया, लपेटा या तोडा मरोड़ा करता था
मगर बिस्तर की सलवट के माथे पर ना कोई ख़म पड़ता था
और मर्द अपने शहर का एकछत्र बादशाह बन
जिसे चाहे जब चाहे
अपने हरम की जीनत बना लिया करता था
कैसे बर्दाश्त हो सकता था
अघायी औरत का गुप्तांग पर वार
जब खोलने शुरू कर दिए
उसने मर्द के हरम के किवाड़ पर किवाड़
होने लगी मुखर, बन गयी वाचाल
और कह उठी वो भी
उस किसी एक को, जो अपना सा लगा हो
जिसमे पाया होता है उसने अपना स्वर्णिम संसार
तब कह उठती है उसकी शोखी बेबाकी से
काश वो मर्द तुम होते
जिसके लिए कौड़ी में भी मैं बिक जाती
तो भी आरती का दीया ही कहलाती
काश तुम पहले मेरे जीवन में आये होते
तो सम्पूर्णता पाने को इधर उधर न भटक रहे होते
एक सम्पूर्ण मर्द से एक सम्पूर्ण औरत तब गुजरी होती
कायनात के ज़र्रे ज़र्रे पर उस मोहब्बत की दास्ताँ उभरी होती
देह की रश्मियाँ भी निखरी होतीं
रूह की बेचैनी भी मोहब्बत के जलाशय में भीगी होती
तो आज ना कोई अघायी औरत होती
उफ़! आखिर किसने दिया
अघायी औरत को ये अधिकार
जो हो जाए वो इतनी मुखर , इतनी वाचाल
स्त्री पुरुष अन्तरंग संबंधों पर
चलने लगी हो जिसकी कलम
कैसे उसे होने दिया जाए इतना बेबाक
कैसे उतारने दिया जाए उसे लज्जा के घूंघट को
जो कर दे निर्वस्त्र मर्दों की पूरी सभ्यता को
और होने लगते हैं उस पर तुषारापात
बेमौसम गिराई जाती हैं
उसकी मान मर्यादा और अस्मिता पर
शब्दबाण रुपी बिजलियाँ
काटने होते हैं अघायी औरत की सोच की उड़ान के पंख
ताकि मर्द के शहर की निर्वस्त्र सभ्यता न हो जाए और निर्वस्त्र
“कुल्टा, कुलच्छिनी ख्याति पाने को आतुर होती हैं अघायी औरतें “
नवाजी जाती हैं इन विशेषणों से
संज्ञा और सर्वनाम से परे
विशेष विशेषणों से सुसज्जित
बेपरवाह अघायी औरतें
आखिर बना ही लेती हैं अ
पना एक शहर
“अघायी औरतों का शहर”
स्वतंत्रता, उन्मुक्तता, बेबाकी का शहर
आज़ादी की साँस का शहर
कुछ पल अपने साथ जीने का शहर
हँसी की खिलखिलाहट का शहर
और जब बसा लेती हैं शहर को खिलखिलाहट से
तब उनके हौसले,
उनके जज्बे,
उनके साहस के आगे
नतमस्तक हो जाता है
मर्दों का शहर
और स्वीकार कर ही लेता है उपादेयता अघायी औरतों की
पूरे मनोयोग के साथ
बस जरूरत होती है
तो सिर्फ इतनी
कि
अघायी औरत पहला पत्थर अपने हाथ में उठा ले
ॠतुस्त्राव से मीनोपाज तक का सफ़र
मैं जब भी लिख देती हूँ कुछ ऐसा
जो तुम्हें माननीय नहीं
जाने क्यों हंगामा बरपा जाता है
धरातल देने, पाँव रखने की जद्दोजहद में
जबकि हकीकत की लकीरों के नीचे से
जमीन खिसका ली जाती है
फिर चाहे चूल्हे पर तुम्हारी हांड़ी में
दाल पकती रहे तुम्हारे स्वादानुसार
क्योंकि उसे तुमने बनाया है
बस ऐतराज के पंछी तुम्हारे
तभी कुलबुलाते हैं जब
मैं अपनी दाल में पड़े मसालों के भेद खोलने लगती हूँ
बताने लगती हूँ
स्त्रीत्व के लक्षणों में छुपे भेदों के गुलमोहर
जो नागवार हैं तुम्हें
जो कर देती हूँ
कालखंडों में छुपे भेदों को उजागर
स्त्री हूँ न
कैसे विमुख हो सकती हूँ
खुद से, अपने में छुपे भेदों से
जब परिचित होती हूँ
अपने जीवन के पहले कदम से
ॠतुस्त्राव के रूप में
एक नवजात गौरैया को जैसे
किसी ने पिंजरे की शक्ल दिखाई हो
मगर कैद न किया हो
और सहमी आँखों की मासूमियत
ना पीड़ा कह पाती है ना सह पाती है
और ना ही जान पाती है
आखिर इसका औचित्य क्या है?
क्यों आता है ये क्षण जीवन में बार-बार
क्यों फर्क आ गया उसके व्यकित्व में
जिस्म के भीतर की हलचल
साथ में मानसिक उहापोह
एक जटिल प्रक्रिया से गुजरती
गौरैया भूल जाती है अपनी उड़ान
अपनी मासूमियत, अपनी स्वच्छंदता
वक्ती अहसास करा जाता है परिचित
ज़िन्दगी के अनबूझे प्रश्नों से
आधी अधूरी जानकारी से
फिर भी ना जान पाती हूँ मुकम्मल सत्य
जब तक ना सम्भोग की प्रक्रिया से
गुजरती हूँ और मातृत्व की ओर
पहला कदम रखती हूँ
यूँ पड़ाव दर पड़ाव चलता सफ़र
जब पहुँचता है अपने आखिरी मुकाम पर
एक बार फिर मैं डरती हूँ
क्योंकि आदत पक चुकी होती है मेरी
क्योंकि जान चुकी होती हूँ मैं महत्त्व
ॠतुस्त्राव के सफ़र का
जो बन जाता है मेरे जीवन का एक अहम हिस्सा
मेरे नारी होने की सशक्त पहचान
तभी बदल जाती है ॠतु ज़िन्दगी की
और खिले गुलाब के मुरझाने का
वक्त नज़दीक जब आने लगता है
सहम जाती है मेरे अन्दर की स्त्री
जब अंडोत्सर्ग की प्रक्रिया बंद हो जायेगी
मेरी रूप राशि भी मुरझा जायेगी
एक स्वाभाविक चिडचिडापन छा जाएगा
और दाम्पत्य सम्बन्ध पर भी
कुछ हद तक ग्रहण लग जाएगा
क्या जी पाऊंगी मैं स्वाभाविक जीवन
क्या कायम रहेगा मेरा स्त्रीत्व
क्या कायम रहेगी मेरी पहचान
और मीनोपाज की स्थिति में
मानसिक उद्वेलना के साथ
अपने अस्तित्व बोध के साथ
खुद की एक जद्दोजहद से गुजरती हूँ
और उसमे तुम्हें दिखने लगती है
मेरी मुखरता, मेरा बडबोलापन
क्योंकि खोलने लगती हूँ भेद मैं बेहद निजी
जिन पर सदा तुमने अपना एकाधिकार रखा
आखिर नारी कैसे हो सकती है इतनी मुखर
आखिर कैसे कर सकती है वर्जित विषयों पर चर्चा
ये तो ना उसके अधिकार क्षेत्र में आता है
कहीं उसकी मुखरता तुम्हारे वर्चस्व को ना हिला दे
इस खौफ में जीते तुम कभी जान ही ना पाए
नारी होने का असली अर्थ
कभी समझ ही ना पाए उसकी विडम्बनाये
कैसे खुद को सहेजती होगी
तब कहीं जाकर ज़िन्दगी में एक कदम रखती होगी
इतनी जद्दोजहद से गुजरती
मानसिक और शारीरिक हलचलों से निपटती
नारी महज स्त्री पुरुष संबंधों पर सिमटी
कोई अवांछित रेखा नहीं
जिसे जैसे चाहे जो चाहे जब चाहे लांघ ले
कर ले एकाधिकार
कर दे उसका, उसके अस्तित्व का तिरस्कार
कर दे उसे मानसिक विखंडित
क्योंकि
उम्र के उस पड़ाव में टुकड़ों में बँटी स्त्री
न जाने कितना और टूटती है
बार-बार जुड़-जुड़ कर
कभी सर्वाइकल कैंसर से ग्रस्त होकर
तो कभी फ़ाइब्रोइडस की समस्या में घिरकर
एक खौफ में जीती औरत
यूँ ही नहीं होती मुखरित
यूँ ही नहीं करती खुलासे
जब तक न वो गुजरी होती है
आंतरिक और मानसिक वेदनाओं से
ताकि आने वाली पीढ़ी को
दे सके समयोपयोगी निर्देश
पकड़ा सके अपने अनुभवों की पोटली में से
कुछ अनुभव उस नवयौवना को
उस मीनोपाज की ओर अग्रसित होती स्त्री को
जो एक अनजाने खौफ में जकड़ी
तिल-तिल मर रही होती है
कहीं जीवनसाथी ना विमुख हो जाये
कहीं यौनाकर्षण के वशीभूत हो
दूजी की ओर ना आकृष्ट हो जाए
(क्योंकि उसके जीवन की तो
वो ही जमापूँजी होती है
एक सुखी खुशहाल परिवार ही तो
उसके जीवन की नींव होती है )
इस खौफ़ में जीती स्त्री भयाक्रांत हो
अनिच्छित सम्भोग की दुरूह प्रक्रिया से गुजरती है
जब उसमें ना स्वाभाविक स्त्राव होता है
जो हार्मोनल बदलाव की देन होता है
जिसे वो ना जान पाती है
और स्वंय के स्वभाव, बोलचाल या शारीरिक बदलाव के
भेद ना समझ पाती है
यूँ आपसी रिश्तों में ऐसे बदलाव एक खाई उत्पन्न करते हैं
और इस व्यथा को कह भी नहीं पाती किसी से
क्योंकि कारण और निवारण ना पता होता है
और वो घर के हर सदस्य के लिये
पहले जैसी आचरण वाली ही होती है
मगर उसकी स्वभाविक चिडचिडाहट
सबके लिये दुष्कर जब होने लगती है
घुटती सांसों के प्रश्नों को जरूरी होता है तब मुखरित होना
एक नारी का दूजी को संबल प्रदान करने को
जीवन की जिजीविषा से जूझने में राह दिखाने को
मील का एक पत्थर बनने को
क्योंकि
ये कोई समस्या ही नहीं होती
ये तो सिर्फ भावनात्मक ग्रहण होता है
जिसे ज्ञान की उजास से मिटाना
एक स्त्री का कर्त्तव्य होता है
जैसे पल-पल जीवन का कम होता है
जैसे घटनाएं घटित होती हैं
फिर चाहे देशीय हों या खगोलीय
वैसे ही जीवन चक्र में
ॠतुस्त्राव हो या मीनोपाज
एक स्थिति हैं जो समयानुसार आती हैं
मगर इनसे न जिंदगी बदल जाती है
ना स्त्रीत्व पर खतरा मंडराता है
ना ही रूप राशि पर फर्क पड़ता है
क्योंकि
सौंदर्य तो देखने वाले की आँख में होता है
जिसने उसे उसके सद्गुणों के कारण चाहा होता है
और इस उम्र के बाद तो हर रिश्ता देह से परे आत्मिक होता है
बस एक यही भावनात्मक संबल उसे देना होता है
जो जीवन के अंतिम घटनाचक्र को
फिर यूँ पार कर जाती है मानो
गौ के बच्चे के खुर से बना कोई गड्ढा हो
जिसे पार करना ना दुष्कर होता है
वो भी तब जब सही दिशा दिखाई जाती है
जब कोई नारी ही नारी की समस्या में सही राह सुझाती है
और उसे उसकी सम्पूर्णता का अहसास कराती है
क्योंकि
नारी सिर्फ इन दो पडावों के बीच में ही नहीं होती है
वो तो इनसे भी इतर एक
सशक्त शख्सियत होती है
जिस पर जीवन की धुरी टिकी होती है
बस इतना आश्वासन उसे उत्साहित ऊर्जित कर देता है
जीवन के प्रति मोह पैदा कर देता है
गर इतना कोई नारी करती है
कुछ अबूझे भेद खोल देती है
तो जाने क्यों कुछ
माननीयों को नागवार गुजरता है
और भेद विभेदों को खोलने वाली स्त्री को
बेबाक, चरित्रहीन आदि का तमगा मिलता है
अपनी बेताज बादशाहत को बचाने के फिक्रमंद कुछ ठेकेदार
कभी जान ही नहीं पाते
साहित्य गर समाज का दर्पण होता है
तो उसी समाज का हिस्सा वो स्त्री होती है
जिस पर टिकी सामाजिक धुरी होती है
तो फिर कैसे साहित्य स्त्री से विमुख हो सकता है
क्या साहित्य सिर्फ
नारी के सौन्दर्य के बखान तक ही सीमित होता है?
सम्बन्ध अन्तरंग हों या नारी विषयक
गर उन पर लिखना, कहना या बातचीत करना
एक पुरुष के लिए संभव है
तो फिर स्त्री के लिए क्यों नहीं?
फिर चाहे वो कामसूत्र हो या शकुन्तला
या रचनाकार कालिदास हो
वर्जनाएं और नियम सभी पर बराबर लागू होते हैं
या तो छोड़ दो स्त्री को साहित्य में समावेशित करना
उसके अंगों प्रत्यंगों का उल्लेख करना
उसके रूप सौंदर्य का बखान करना
नहीं तो खामोश हो जाओ
और मानो
सबका है एकाधिकार
अपनी-अपनी बात को
अपने-अपने तरीके से कहने का
फिर चाहे शिल्प हो, कला या साहित्य
इसलिये
मत कहो ये साहित्यिक विषय नहीं
नहीं तो करो तिरस्कार
उन कलाकृतियों का
जिन्हें तुमने ही अद्भुत शिल्प कह नवाज़ा है
फिर चाहे खजुराहो के भित्तिचित्र हों
या अजंता एलोरा में अंकित उपासनाएं
या फिर बदल दो परिभाषा साहित्यिक लेखन की
क्योंकि
विषय ना कोई वर्जित होता है
वो तो स्वस्थ सोच का परिचायक होता है
अश्लीलता तो देखने या पढने वाले की सोच में होती है
लेखन तो राह दिखाता है जीवन के भेद सुलझाता है
फिर लिखने वाला चाहे स्त्री हो या पुरुष!!
क्योंकि अश्लीलता ना कभी पुरस्कृत या सम्मानित होती है
बल्कि उसमें छुपी गहराई ही पुरस्कृत या सम्मानित होती है
और कैसे कह सकते हो बहती है एक स्त्री मुझमें लहू बनकर
तुम, तुम्हारी दृष्टि
जब जब भटकती है
कुछ ढूँढती सी लगती है
मेरे भीतर की “मै ” को शायद
और तुम
खुद को ढालने को
हो जाते हो बेचैन मुझमे
मेरे जैसी बनने में
या शायद
जीना चाहते हो एक जीवन
मेरे जैसा होकर
मेरी आत्मा की स्याही बनकर
और लिखना चाहते हो एक इबारत
कि, हाँ, जान गया हूँ मैं तुमको ओ स्त्री!
शायद तभी
तुम्हारे इतिहास और भूगोल के सभी विषय
मुझ पर आकर सिमट जाते हैं
क्योंकि
तुम अपनी खोजी प्रवृत्ति के चलते
देखते हो गिद्ध दृष्टि से
मेरी जीवन चर्या को
कब मैं सौदा सुल्फ़ लायी
कब मैंने कपडे धोये और सुखाये
कब अस्पताल की लाइन में लगकर
बच्चों को दवा दिलाई
कब मेरे ममत्व में अंग उघडे
और तुमने दिखाई अपनी चतुराई वाकपटुता की
दे दिया उसे नाम स्त्री ममत्व का सौन्दर्य
चाहे उस वक्त भी तुम्हारी गिद्ध दृष्टि
सिमटी हो कुछ खास अंग पर ही
कब जच्चा खाने में होती तकलीफ से तिलमिलायी
कब एक फटी धोती में लगे पैबन्दों में
अपनी गरीबी छुपायी
कब पेट की आग की खातिर
खुद को बेच आई
कब मैंने पहली बार अंतर्वस्त्र पहने
और कैसा महसूसा
कब प्रेम की उद्दीप्त तरंगों पर
वीणा की तार सी झनझनायी
कब मैं सम्पूर्ण स्त्री बनी
और कब अपूर्ण ही रही
कब बिस्तर की सिलवटें दिल पर जज़्ब हुयीं
कब आंच सी सुलगी और मुस्कुरायी
कब किन अहसासों से गुजरी
कब खिलौना बनी, कब टूटी,कब जुडी
सारे आंकड़े तुम्हारे पास सुरक्षित हो जाते हैं
और तुम कहने को आतुर हो जाते हो
बहती है एक स्त्री मेरे भीतर भी लहू की तरह
मगर क्या वास्तव में ऐसा संभव है?
कहीं ये सिर्फ खुद को या दूसरों को भरमाने का
तुम्हारा तुच्छ प्रयास भर तो नहीं
चंद शब्दों से
उसके ज़ख्मों, पीड़ा, और दर्द को उकेरना भर
और हो गयी इतिश्री
हो गया तुम्हारा जानना सम्पूर्ण स्त्री को
उतर गए तुम स्त्री के भीतर
सिर्फ चंद शब्दों की बाजीगरी से
क्या सिर्फ इतनी भर है स्त्री और उसका वजूद ओ पुरुष!
स्त्री तो ब्रह्माण्ड का वो ग्रह है
जिसकी खोज के लिए अभी तक
वैज्ञानिक कोई टेलिस्कोप नहीं बना सके
फिर कैसे तुम असंभव को संभव कर सकते हो
और कह सकते हो
बहती है एक स्त्री मुझमे लहू बनकर
क्योंकि
गिद्ध की दृष्टि तो हमेशा गोश्त पर ही हुआ करती है
फिर चाहे दाना किसी रूप में भी डाला गया हो
यही फर्क है तुम में और मुझमे
इसी कारण
नहीं बन सकते कभी तुम मुझसे
क्योंकि
मैंने कभी नहीं कहा
बहता है एक पुरुष मुझमे लहू बनकर
या रहता है एक पुरुष मुझमें
और न ही कभी इच्छा रही तुम में उतरने की
तुमसा बनने की
संतुष्ट हूँ अपने स्वरूप से
आवश्यकता अविष्कार की जननी है
और तुम्हारा अविष्कार हूँ (मैं) मेरे भीतर की स्त्री का स्वरुप
यही सोच तुम पर हावी रही
खोज लिया मैंने एक और ध्रुव तारा
जिसे केंद्र बिंदु मान अब भेजे जा सकते हैं
उपग्रह कितने ही अन्तरिक्ष में
की जा सकती हैं कैसी भी व्याख्याएं
दिया जा सकता है उसे कैसा भी रूप अपने मनोरूप
और तुमने अपना लिया शॉर्टकट प्रसिद्धी को पाने का ओ पुरुष!
(कितना संजीदा और सरल तरीका है स्त्री के हमदर्द बनने और ध्यानाकर्षण का )
इतना विरोध का स्वर
पुरुष बिलबिलाता सा चीख उठा
“इतना विरोध का स्वर” कैसे
तेरी कविता में उपजा कवयित्री उर्फ़ स्त्री
कैसे तूने मेरे मानदंडों को
खोखला सिद्ध किया
कैसे तूने मेरे शाश्वत प्रेम पर
अपनी वाणी से प्रश्नचिन्ह रखा
गर तेरी चाल पर
तेरे हाव भाव पर
तेरी चूड़ियों की खनक पर
तेरी जुल्फों की लट पर
तेरी बिंदिया पर
तेरे सोलह श्रृंगार पर
तेरे यौवन पर
तेरे त्याग और समर्पण पर
तेरी ममता और करुणा पर
तेरे अपनेपन पर
तेरे स्नेह और समझदारी पर
यदि मैंने कोई काव्य ग्रन्थ रचा
या उसमे ना केवल तेरे बाहरी
बल्कि आन्तरिक सौन्दर्य को भी गढ़ा
तो बता, ओ स्त्री! क्या बुरा किया
जो अब तू दोषारोपण करती है
जो अब तू सारे दोष मेरे सर ही मढती है
मैंने तो तेरे ह्रदय के उस पट को भी खोला है
जिसमे समाया सारा ब्रहमांड है
फिर क्यों तुझे मुझमे ही दोष दिखा है
और स्त्री के विरोध स्वर को सुन
पुरुष व्यथित हो गया
बस यहीं तक उसका आकलन था
बस यहीं तक उसके काव्य का अंत था
और जहाँ कहीं अंत होता है
तो एक नयी शुरुआत भी वहीँ से हुआ करती है
बस इतना सा भेद ही वो न जान पाया
और जो स्त्री कल तक उसके आगे
घूंघट की ओट में सकुचाई शरमाई सी रहा करती थी
अपने मन के भावों को सिर्फ हावभाव से ही जनाया करती थी
कभी चूड़ी खनकाकर तो कभी पायल बजाकर
लबों पर तो जैसे शर्मोहया की सिलाई हुआ करती थी
या फिर स्त्री का ज्यादा बोलना या मूँह खोलना
अशोभनीय गिना जाता था इसलिए चुप रहा करती थी
गर आज यदि उसने मूँह खोला है
तो नहीं सोचा कभी
आखिर ऐसा हुआ क्यों?
क्या कोई कमी रह गयी?
या कोई गलती हुयी?
कौन सा ऐसा कारण था जो हवा का रुख गर्म हुआ
कौन सा ऐसा कारण था जो कुचला बीज भी अंकुरित हुआ
बस यही ना आकलन किया
और
गर स्त्री ने जो अपने भावों को शब्दों के तार में पिरोया
जाने क्यों पुरुष का पुरुषत्व खौल गया
आखिर कैसे इसमें इतना विद्रोह का जन्म हुआ
मैंने इसे कहो तो संसार का क्या सुख नहीं दिया
इधर स्त्री ने भी अपना बिगुल बजा दिया
और पुरुष को आखिर बता दिया
मैं स्त्री हूँ
स्त्रीत्व के भावों से परिपूर्ण
कोमलता मेरा गुण है
सह्रदयता मेरी खूबी है
तो क्या इसी के नाम पर
अपना दोहन होने दूं?
बेशक तुमने मुझ पर प्रेम शास्त्र गढ़ा हो
बेशक तुमने मेरी भाव भंगिमाओं पर
अपने मन के भावों को उकेरा हो
कहो तो मैंने कब अस्वीकार किया?
क्या मैं खुश नहीं हुयी
जब भी तुमने मेरे सौंदर्य को व्याख्यातित करने को
नए-नए बिम्ब गढ़े, नए प्रतिमान बनाये
मैंने तो तुम्हारा हर कहा स्वीकारा
और सुनो आज भी स्वीकारती हूँ
जो तुम मेरी प्रशंसा में गीत गाते हो
वो मुझे भी अच्छे लगते हैं
मगर तुम ही न ये बात समझे
कि आखिर स्त्री चाहती क्या है?
आखिर उसके मन पर कौन सी फांस है
जो सदियों से गडी है
इन सबसे भी इतर एक तस्वीर होती है
क्यों तुमने सिर्फ अपने पक्ष से ही तस्वीर को देखा
क्यों तुमने दूसरा रुख तस्वीर का नहीं उल्टा
जरूरी नहीं सिर्फ सफ़ेद ही हो हर पन्ना
कुछ पन्नों के स्याह रुखों पर भी
इतिहास लिखे होते हैं
और मेरी भावों की भूमि पर
मैंने सिर्फ इतना ही तो चाहा
जैसे तुम्हारी चाहतें आकार लेती हैं
जैसे तुम बेबाकी से कुछ भी कह देते हो
जैसे तुम जीने के आगे बढ़ने के
नए आयाम गढ़ते हो
जैसे तुम जीवन की मुख्यधारा में
गिने जाते हो
बस वैसा ही ओहदा मेरा हो
निर्णय लेने और क्रियान्वित करने का
हक़ भी बराबर हो किसी भी बात पर
जैसे और जब तुम्हें जरूरत हो
वैसे ही न मेरा उपयोग या उपभोग हो
सिर्फ वस्तु सी ना कोने में पड़ी रहूँ
आधी आबादी हूँ तो उसका योगदान
देश समाज और घर में बराबर देती रहूँ
मन के कोनों को उसी तरह बुहार सकूं
जैसे तुम बेबाकी से सब कह जाते हो
पुरुष तुम हो या स्त्री मैं
आइना सा हमारा अक्स हो
एक दूजे में प्रतिबिंबित होता
और एक दूजे से अलग भी अपना एक मुकाम होता
कहो तो इतना सा चाहना क्या बुरा होता है
कहो तो गर इतने को मैं कहती हूँ
तो वाचाल, मुखर और विरोधी कहाती हूँ
कहो तो कहाँ से तुम्हें ऐसी नज़र आती हूँ
जबकि आज समय ने करवट बदली है
२१ वीं सदी में जब से कदम रखा है
मुझे कुछ आज़ादी का अनुभव हुआ है
मेरी साँसों पर पहरे जब से हटे हैं
देखो तो क्या मैंने सफलता और तरक्की के कम आयाम गढ़े हैं
क्योंकि
जब से मैं मुखर हुयी हूँ
जब से मैंने तुम्हारी कमियां दर्शायी हैं
तुम्हारी सोच में भी परिवर्तन आया है
तभी तो आज मेरी बात को तवज्जो दी जाती है
और तुम्हारे मुख से मेरे लिए
“विरोध का स्वर” कहना
तुम्हारे विरोध की बू को दर्शाता है
जो ये बतलाता है
बेशक जब तुम्हारा ना वश चला
सभ्यताओं के परिवर्तन पर
तो मजबूरीवश तुम्हें स्वीकारना पड़ा
मगर अन्तस्थ तो तुम्हारा
अब भी अकुलाता है
तभी तो तुम्हारे मुख से निकल जाता है
“इतना विरोध का स्वर “
मगर इसके लिए भी
मैं तुम्हें दोष नहीं देती हूँ
स्त्री हूँ न “गंभीरता मेरा आभूषण है ”
यूँ ही नहीं कहा जाता है
क्योंकि जानती हूँ
जो पीढ़ियों से संस्कारित रूढ़ियों के बीज हैं
तुम्हारे लहू में
वो ही उबाल खा रहे हैं
बेशक वक्त के साथ बदलना पड रहा है
मगर सहज स्वीकार्यता के लिए
मुझे अभी तुमसे नहीं
तुम्हारी सोच से लड़ना होगा
और यही तेवर बनाये रखना होगा
यूँ ही विरोध के स्वर को जीवित रखना होगा
बस तुम्हारी सोच की जड़ पर ही
मुझे बार-बार प्रहार करना होगा
जैसे रस्सी के आने-जाने से
कुयें की मेंड पर भी निशान बन जाता है
और वो जैसे जीवन का हिस्सा बन जाता है
कुछ वैसे ही तुम्हारी सोच पर
बार-बार होती दस्तक
जब तुम्हारे जीवन का अहम अंग बन जायेगी
तभी सहजता का समावेश होगा
तभी तुम्हें भी सब सहज स्वीकार्य होगा
फिर न कोई प्रयत्न करना होगा
फिर न ये बिलबिलाहट होगी
बस साँसों के आवागमन सी सहज स्वीकार्यता
जिस दिन तुम्हारे जीवन में, तुम्हारी सोच में होगी
स्त्री के विरोध स्वर खुद ही दमित हो जायेंगे
और नव सृजन से तुम्हारे ह्रदय भी प्रफुल्लित हो जायेंगे
मगर तब तक सभ्यताओं के लिहाफ बदलने तक
विरोध का स्वर जारी रखना नियति है उसकी बस इतना जान लो
और इस यज्ञ में अपने अहम की आहूति दे इसे पूर्ण करो
फिर सुरक्षित सभ्य समाज का निर्माण खुद -ब-खुद हो जायेगा
कहीं ना कोई विरोध का स्वर तुम्हें नज़र आयेगा
महज तुम्हारे अहम की मीनारों के धराशायी होने से
महज तुम्हारे संस्कारों के बीजों के नेस्तनाबूद होने से
तस्वीर का रुख बदल जायेगा
और एक नयी उजास लिये एक नया सूर्योदय धरती पर भी हो जायेगा
और “इतना विरोध का स्वर”- “इतना सहयोग के स्वर” में बदल जायेगा
और दे दिया मुझे उपनाम विनम्र अहंकारी का सोचना ज़रा
उसने कहा: आजकल तो छा रही हो
बडी कवयित्री /लेखिका बनने के मार्ग पर प्रशस्त हो
मैने कहा: ऐसा तो कुछ नही किया खास
तुम्हें क्यों इस भ्रम का हुआ आभास
मुझे मुझमें तो कुछ खास नज़र नहीं आता
फिर तुम बताओ तुम्हें कैसे पता चल जाता
उसने कहा: आजकल चर्चे होने लगे हैं
नाम ले लेकर लोग कहने लगे हैं
स्थापितों में पैंठ बनाने लगी हो
मैने कहा: ऐसा तो मुझे कभी लगा नहीं
क्योंकि कुछ खास मैने लिखा नहीं
वो बोला: अच्छा लिखती हो सबकी मदद करती हो
फिर भी विनम्र रहती हो
मैं बता रहा हूँ मान लो
मैं कहा: मुझे तो ऐसा नहीं लगता
वैसे भी अपने बारे में अपने आप
कहाँ पता चलता है
फिर भी मुझसे जो बन पडता है करती हूँ
फिर भी तुम कहते हो तो
चलो मान ली तुम्हारी बात
वो बोला: इतनी विनम्रता!!
जानती हो अहंकार का सूचक है?
ज्यादा विनम्रता भी अहंकार कहलाता है
मैं बोली: सुना तो है आजकल
सब यही चर्चा करते हैं
तब से प्रश्न खडा हो गया है
जो मेरे मन को मथ रहा है
गर मैं खुद ही अपना प्रचार करूँ
अपने शब्दों से प्रहार करूँ
आलोचकों समीक्षकों को जवाब दूँ
तो अतिवादी का शिकार बनूँ
और विद्रोहिणी कहलाऊँ
दंभ से ग्रसित कह तुम
महिमामंडित कर देते हो
ये तो बहुत मुखर है
ये तो बडी वाचाल है
ये तो खुद को स्थापित करने को
जाने कैसे-कैसे हथकंडे अपनाती है
बडी कवयित्री या लेखिका बनने के सारे गुर अपनाती है
जानते हो क्यों कहते हो तुम ऐसा
क्योंकि तुम्हारे हाथो शोषित नही हो पाती है
खुद अपनी राह बनाती है और बढती जाती है
पर तुम्हें ना अपनी कामयाबी की सीढी बनाती है
तो दूसरी तरफ़
यदि जो तुम कहो
उसे भी चुपचाप बिना ना-नुकुर किये मान लेती हूँ
चाहे मुझे मुझमें कुछ असाधारण ना दिखे
गर ऐसा भी कह देती हूँ
तो भी अहंकारी कहलाती हूँ
क्योंकि आजकल ये चलन नया बना है
जिसे हर किसी को कहते सुना है
ज्यादा विनम्र होना भी
सात्विक अहंकार होता है
तो बताओ अब ज़रा
मैं किधर जाऊँ
कौन सा रुख अपनाऊँ
जो तुम्हारी कसौटी पर खरी उतर पाऊँ?
जबकि मैं जानती हूँ
नहीं हूँ किसी भी रैट रेस का हिस्सा
बस दो घडी खुद के साथ जीने को
ज़िन्दगी के कुछ कडवे घूँट पीने को
कलम को विषबुझे प्यालों मे डुबोती हूँ
तो कुछ हर्फ़ दर्द के अपने खूँ की स्याही से लिख लेती हूँ
और एक साँस उधार की जी लेती हूँ
बताओ तो ज़रा
इसमें किसी का क्या लेती हूँ
ये तो तुम ही हो
जो मुझमें अंतरिक्ष खोजते हो
मेरा नामकरण करते हो
जबकि मैं तो वो ही निराकार बीज हूँ
जो ना किसी आकार को मचलता है
ये तो तुम्हारा ही अणु
जब मेरे अणु से मिलता है
तो परमाणु का सृजन करता है
और मुझमें अपनी
कपोल कल्पनाओं के रंग भरता है
ज़रा सोचना इस पर
मैने तो ना कभी
आकाश माँगा तुमसे
ना पैर रखने को धरती
कहो फिर कैसे तुमने
मेरे नाम कर दी
अपनी अहंकारी सृष्टि
और दे दिया मुझे उपनाम
विनम्र अहंकारी का सोचना ज़रा
क्योंकि
खामोश आकाशगंगाये किसी व्यास की मोहताज़ नहीं होतीं
अपने दायरों में चहलकदमी कैसे की जाती है वो जानती हैं
सोचना ज़रा
कर लेते कुछ खुद से ही मोहब्बत
तो जिंदा रह जाती कुछ तो इंसानियत
या तो खोल लो खुद अपना मुँह
नहीं तो मैं जबरदस्ती खोल
उंडेल दूँगी ज़हर के घूंट तुम्हरे हलक में
जिसे तुम्हें अब अन्दर उतारना ही होगा
नहीं बच सकोगे अब तुम
नहीं छुपा सकोगे अब तुम
आडम्बरों में अपना चेहरा
जब हकीकत के शहरों के नक्शे
हो जायेंगे तर्जुमा तुम्हारे चेहरे पर
क्योंकि जान चुकी हूँ
तुम्हारी भीतरी दीवारों में चिनी
अनारकली के वजूद को
जहाँ सिर्फ़ एक इबारत लिखी होती है
जहाँ सिर्फ़ एक नाम लिखा होता है
फिर दवातों में स्याही हो या नहीँ
तुम अंकित कर ही देते हो
अपनी नज़रों के डैनों से
एक नाम
स्त्री तुम सिर्फ़ देह हो मेरे लिये
इस कटु सत्य को जानते हुये भी
जाने कैसे हो जाते हो निर्मम
और कर देते हो उसका ही कत्ल
भ्रूणावस्था में
जबकि एक अटल सत्य ये भी है
कि
ये जानते हुये भी
कि
तुम्हारी टांगों के बीच पलता जूनून
मेरी टांगों के बीच ही सुकून पाता है
फिर भी जाने क्यों
तुम्हें मेरा होना नही भाता है???
विडंबनाओं के दोगले चेहरे वाले दानव
क्यों भूल जाते हो
मेरे होने से ही होता है
सृष्टि निर्माण
मेरे होने से ही होता है
तुम्हारा वजूद
जब तुम्हारी ही
कुंठाओं का सारा आकाश हूँ
सिर्फ मैं ही
फिर भी मेरे होने पर ही क्यों चढ़ जाती हैं तुम्हारी त्योरियाँ सोचना ज़रा
क्योंकि ये साहित्यिक विषय नहीं इसलिए “लेखनी वर्जित है
वर्जित विषय के एकाधिकार तोड
जब उसकी कलम चलती है उस विषय पर
कुछ कुंठाग्रस्त लोकोक्तियाँ उग आती हैं
खरपतवार सी
मगर आ गया है उसे अब उन्हें भी राह से हटाना
क्योंकि
विषय वर्जित हो तो क्या है
जीना तो उसे उस विषय के साथ ही है
तो क्यों ना उसका अनावरण करे
और अपने नये प्रतिमान गढे
आज की नारी की कलम
क्यों ना उन विषयों पर भी चले
और कर दिया एक दिन उसने
अनावरित अपने भेद विभेदों को
हो गयी मुखर
कर गयी अनावरित
संभोग के अनसुलझे रहस्यों को
तो कहलायी जाने लगी “बोल्ड”
मगर नहीं जानते वो ये हकीकत
रतिक्रीडा मे
पुरुष पुरुष ही होता है
क्रिया प्रतिक्रिया में ही संलिप्त होता है
मगर स्त्री तो उन क्षणों में भी
संपूर्ण समर्पण कर
एक जीवन जी लेती है
और पूर्ण तृप्त हो लेती है
उसकी तृषा न पुरुष सी बलवती होती है
जो पुनः पुनः सिर उठाती है
मगर पूर्ण संतुष्टि न पाती है
क्योंकि
वहाँ तो सिर्फ
जिस्मों का यौगिकीकरण होता है
जिसका जीवन क्षणिक होता है
और यही
स्त्री और पुरुष के साहचर्य में अंतर होता है
जो उसे सबसे अलग करता है
और इसी अंतर को कम करने के लिए
पुरुष ऐसे विषयों पर
अपना वर्चस्व कायम रखता है
और स्त्री का प्रवेश वर्जित रखता है
जो थोडा प्रयास करे
कहने की कोशिश करे
तो उसे ही कलंकित करता है
खुद को दूध धुला साबित करता है
मगर अपनी नज़रों में सत्य जानता है
अपनी कमी पहचानता है
शायद तभी इस तरह अपना पौरुष सिद्ध करता है उस स्वयंसिद्धा के आगे
क्योंकि ये साहित्यिक विषय नही
इसलिए
“लेखनी वर्जित है” का टैग सिर्फ स्त्री के लिए ही होता है!!!
भ्रम था या सत्य
वो ठहरे तालाब के पानी में
हिलता पहाड़ी का प्रतिबिम्ब
कुछ पल को सकुचा गया
भ्रम था या सत्य
उलझन में पहुँचा गया
नहीं, सत्य ही था शायद
कुछ खामोश जलते
सुर्ख आग उगलते शहर
यूँ ही ज़मींदोज़ नहीं होते
कुछ तो हलचल हुई होती है
शायद वो ही हलचल थी
शायद वो ही कम्पन था
जो दिखता नहीं मगर होता है
एक आग का धधकता गोला
पहाड़ी के सीने में हर पल धड़कता है
ऊष्मा को निकालने के लिए
साँसों का आवागमन भी जरूरी होता है
फिर चाहे रेत में पानी का भास ही क्यों ना हो
कुछ परतें युग परिवर्तन पर भी नहीं हटतीं
फिर चाहे रंग श्याम हो या सफ़ेद
नीला हो या लाल
रंग भी अपने निशाँ नहीं छोड़ पाते
एक अजब सा बेरंगा, बेढब सा अक्स
हर मोड़ पर लहूलुहान होता
सूर्योदय से सूर्यास्त तक
तालाब के पानी में
अपना प्रतिबिम्ब तलाशता
कभी खुद को निहारता है
तो अक्स ना पहचान पाता है
और तालाब की नीली तलछट में
अपने वजूद की अजनबियत की बू से घिर जाता है
शायद पहाड़ियों का कम्पन
उनका शोर, उनकी साँसें
उनके आँसू
सब मूकदर्शक होते हैं
जीने को मजबूर होने के लिए
बिना किसी पहचान के
सिवाय
उम्र भर तपते शिलाखंड सा खड़े रहने को अभिशापित होकर
फिर हलचल सत्य हो या भ्रम
कौन पुरातत्वविद खोजता है
हर बाद खुदाइयों में संस्कृतियाँ या सभ्यताएँ ही नहीं निकलतीं
फिर चाहे कितनी ही कोशिश कर लो
कुछ शिलालेखों की भाषाएँ अबूझ ही रहती हैं
मुझे साक्षात्कार देना नहीं आता
मुझे साक्षात्कार देना नहीं आता
सच में क्या बताऊँ अपने बारे में
क्या आप नहीं जानते?
एक नारी हूँ
एक गृहणी हूँ
एक आदर्श पत्नी हूँ
एक माँ हूँ
एक बहन हूँ, बेटी हूँ
रिश्तों में सिमटी गाथा हूँ
बताओ तो ज़रा
इससे भिन्न मैं कहाँ हूँ?
क्या कभी देखा किसी ने मुझे
मेरे इस स्वरुप से इतर
या कभी खोजा मैंने खुद ही
अपने में अपना कोई दुर्लभ स्वरुप
बेशक अपनी सहूलियतों से
बना देते हो तुम मुझे
कभी दुर्गा तो कभी झाँसी की रानी
कभी काली तो कभी जीजाबाई
मगर सच बताना
क्या वास्तव में चाहते हो
तुम मुझे इस रूप में देखना
नहीं चाहते जानती हूँ
तुम्हें तो चाहिए वो ही
घर में इंतज़ार करती
बच्चों को खिलाती
बीवी और माँ
बेशक बदलाव की बयार में
तुम लिख देते हो कुछ इबारतें खामोश सी
जिसमे करते हो तुम
उसकी हौसला अफजाई
दिखाते हो राह
बताते हो
सितारों से आगे जहान और भी है
और आसमाँ छूने की चाह का
कर देते हो जागरण उसके अंतस में
मगर किस कीमत पर
ये भी तुम्हें पता होती है
तभी तो घर और बाहर के बीच पिसती
उसकी शख्सियत पर
लगा देते हो पहरे हवाओं के
उड़ने से पहले क़तर देते हो पंख
क्योंकि आदत है तुम्हारी
करती रहे ता -उम्र तुम्हारी कदमबोसी
ना चल सके एक भी कदम तुम्हारे बिना
कभी डरा कर तो कभी धमका कर
करते हो उसके हौसले पस्त
बना देते हो उसे अपने हाथ की कठपुतली
जो मंत्रमुग्ध सी तुम्हारी ऊंगली की डोर पर
नाचती रहती है इस गुमान में
कि वो है आज़ाद
कर रही है अपने मन का
भर रही है उड़ान आज़ाद परिंदे सी
मगर वास्तविक दुनिया के
काले राजहंसों के नकाबों से महरूम होती वो
नहीं जानती क्या है उसका वजूद
कैसे किस प्रलोभन ने उसे किया नेस्तनाबूद
और यदि ऐसे में कभी गलती से
किसी बुलंद ईमारत की कील बन जाती है वो
तो किया जाता है उसका साक्षात्कार
पूछा जाता है उससे
उसके जीवन के संघर्ष को
कैसे छुआ उसने ये मुकाम
और वो अभी जान भी नहीं पाई होती
ज़माने के दोरंगों को
और कर देती है आत्मसमर्पण
दे देती है क्रैडिट एक बार फिर तुम्हें
क्योंकि तुम्हारे चक्रव्यूह में फँसी होती है
नहीं जान पाती छलावे की दुनिया को
और एक अपने बारे में छोड़कर
बाकी सारे जहान का हाल सुना देती है
और हो जाता है उसका साक्षात्कार
बना देती है एक बार फिर वो इतिहास अनजाने में ही पुरुष के पुरुषोचित अहम् को तवज्जो देकर
बताओ तो ज़रा मैं कहाँ हूँ और कौन हूँ?
यदि मिल जाऊँ तो आ जाना लेने साक्षात्कार
मैं नहीं जानती अपने अन्दर की उस लडकी को
मैं नहीं जानती
अपने अन्दर की
उस लडकी को
जो आहटों के गुलाब उगाया करती है
मैं नहीं जानती
अपने अन्दर की
उस लडकी को
जो काफ़ी के कबाब बनाया करती है
मैं नहीं जानती
अपने अन्दर की
उस लडकी को
जो मोहब्बत के सीने पर जलता चाँद उगाया करती है
मैं नहीं जानती
अपने अन्दर की
उस लडकी को
जो तुम्हारे ना होने पर तुम्हारा होना दिखाया करती है
मैं नहीं जानती
अपने अन्दर की
उस लडकी को
जो कांच की पारदर्शिता पर सुनहरी धूप दिखाया करती है
मैं नहीं जानती
अपने अन्दर की
उस लडकी को
जो चटक खिले रंगों से विरह के गीत बनाया करती है
मैं नहीं जानती
अपने अन्दर की
उस लडकी को
जो सांझ के पाँव में भोर का तारा पहनाया करती है
मैं नहीं जानती
अपने अन्दर की
उस लडकी को
जो प्रेम में इंतिहायी डूबकर खुद प्रेमी हो जाया करती है
मैं नहीं जानती
अपने अन्दर की
उस लडकी को
जो खुद को मिटाकर रोज अलाव जलाया करती है
मैं नहीं जानती
अपने अन्दर की
उस लडकी को
जो जलते सूरज की पीठ पर बासी रोटी बनाया करती है
नहीं जानती
नहीं जानती
नहीं जानती
सुना है तीन बार जो कह दिया जाये
वो अटल सत्य गिना जाता है क्या सच में नहीं जानती?
मानोगे मेरी इस बात को सच?
हो सके तो बताना ओ मेरे अल्हड स्वप्न सलोने
जो आज भी ख्वाबों में अंगडाइयाँ लिया करता है बिना किसी ज़ुम्बिश के!!!
“तारों में सज के अपने प्रीतम से
देखो धरती चली मिलने”
गुनगुनाने को जी चाहता है मेरे अन्दर की लडकी का
अब ये तुम पर है किसे सच मानते हो?
जो पहले कहा या जो बाद में सोच और ख्याल तो अपने अपने होते हैं ना
और मैं ना सोच हूँ ना ख्याल
बस जानने को हूँ बेकरार क्या जानती हूँ और क्या नहीं?
ये प्रीत के मनके इतने टेढे मेढे क्यों होते हैं मेरी जिजीविषा की तरह,
मेरी प्रतीक्षा की तरह,मेरी आतुरता की तरह
वक्त मिला तो कभी जप के हम भी देखेंगे
शायद सुमिरनी का मोती बन जायें
अल्हड लडकी की ख्वाहिशों में
चाहतों की शराब की दो बूँद काफ़ी है नीट पीने के लिये
ज़िन्दगी के लिये ज़िन्दगी रहने तक
ओ साकी! क्या देगा मेरी मिट चुकी आरज़ुओं को जिलाने के लिये अपने अमृत घट से एक जाम
फिर कभी होश में ना आने के लिये
मेरे पाँव थिरकाने के लिये, मेरे मिट जाने के लिये
क्योंकि
मैं नहीं जानती
अपने अन्दर की
उस लडकी को
कि आखिर उसका आखिरी विज़न क्या है
कर्त्तव्य च्युत दस्तावेज इतिहास की धरोहर नहीं होते
गांधारी
एक युगचरित्र
पति परायणा का ख़िताब पा
स्वयं को सिद्ध किया
बस बन सकी सिर्फ
पति परायणा
मगर संपूर्ण स्त्री नहीं
नहीं बन सकी
आत्मनिर्भर कर्तव्यशील माँ
नहीं बन सकी नारी के दर्प का सूचक
बेशक तपशक्ति से पाया था अद्भुत तेज
मगर उसको भी तुमने किया निस्तेज
अधर्म का साथ देकर
नहीं पा सकीं कभी इतिहास में स्वर्णिम स्थान
जानती हो क्यों
कर्त्तव्य च्युत दस्तावेज इतिहास की धरोहर नहीं होते
मगर तुम्हारी दर्शायी राह ने
ना जाने कितनी आँखों पर पट्टी बंधवा दी
देखो तो जरा
हर गांधारी ने आँख पर पट्टी बाँध
सिर्फ तुम्हारा अनुसरण किया
मगर खुद को ना सिद्ध किया
दोषी हो तुम स्त्री की संपूर्ण जाति की
तुम्हारी बहायी गंगा में स्नान करती
स्त्रियों की पीठ पर देखना कभी
छटपटाहट के लाल-पीले निशानों से
मुक्त करने को आतुर आज की नारी
अपनी पीठ तक अपने हाथ नहीं पहुँचा पा रही
कोई दूसरा ही सहला जाता है
कुछ मरहम लगा जाता है
जिसमे आँसुओं का नमक मिला होता है
तभी व्याकुलता से मुक्ति नहीं मिल रही
जानती हो क्यों
क्योंकि उसकी सोच की जड़ को
तुमने आँख की पट्टी के मट्ठे से सींच दिया है
और जिन जड़ों में मट्ठा पड़ा होता है
वहाँ नवांकुर कब होता है
बंजर अहातों में नागफनियाँ ही उगा करती हैं
इतिहास गवाह है
तुम्हारी आँख की पट्टी ने
ना केवल तुम्हारा वंश
बल्कि पीढियां तबाह कर दीं
तभी तो देखो आज तक वो ही पौध उग रही है
जिसके बीज तुमने रोपित किये थे
कहाँ से लायीं थीं जड़ सोच के बीज
गर थोडा साहस का परिचय दिया होता
ना ही इतना रक्तपात हुआ होता
तो आज इतिहास कुछ और ही होता
तुम्हारा नाम भी स्त्रियों के इतिहास में स्वर्णिम होता
जीवन के कुरुक्षेत्र में
कितनी ही नारियां होम हो गयीं
तुम्हारा नाम लेकर
क्या उठा पाओगी उन सबके क़त्ल का बोझ
इतिहास चरित्र बनना अलग बात होती है
और इतिहास बदलना अलग
मैं इक्कीसवीं सदी की नारी भी
नकारना चाहती हूँ तुम्हें
तुम्हारे अस्तित्व को
देना चाहती हूँ तुम्हें श्राप
फिर कभी ना हो तुम्हारा जन्म
फिर किसी राजगृह में
जो फैले अवसाद की तरह
जंगल में आग की तरह
मगर तुम्हारी बिछायी नागफनियाँ
आज भी वजूद में चुभती हैं
क्योंकि गांधारी बनना आसान था और है
मगर नारी बनना ही सबसे मुश्किल है
एक संपूर्ण नारी
अपने तेज के साथ
अपने दर्प के साथ
अपने ओज के साथ
छीजती ज़िन्दगी और मेरा संग्राम
मौन हो जाती है मेरी कलम
मौन हो जाती हैं मेरी संवेदनायें
मौन हो जाती है मेरी सोच
मौन हो जाती हैं मेरी भावनायें
अब तुम तक आते-आते
जानते हो क्यों
तुमने कोई सिरा छोडा ही नहीं
जुडने का या कहो जोडने का
सुनो
अब ना प्रेम उपजता
ना भावनायें हिलोरें लेतीं
ना कोई स्पन्दन होता
क्योंकि
हम आदत भी तो नहीं बन सके
एक दूसरे की
हम चाहत भी तो नहीं बन सके
एक दूसरे की
हम राहत भी तो नहीं बन सके
एक दूसरे की
कहो फिर क्या बचा
जो बाँधे रखे उन धागों को
जहाँ सिवाय गांठों के कुछ बचा ही ना हो
ना अब नही दूँगी तुम्हें उलाहना कोई
क्योंकि
कोई ख्वाहिश ही नही बची तुमसे
बोलूँ, बतियाऊँ, हँसूँ या रोऊँ
ऐसा भी कोई स्रोता नहीं फ़ूट रहा
देखा द्रव्यमान
कितनी निरीहता छा गयी है
कितनी विवशता आ गयी है
जहाँ संज्ञाशून्य सी हो गयी हूँ
और सोच रही हूँ
अभी तो पहला ही पडाव गुजरा है
सफ़र का
आगे क्या होगा
क्या ये बंधन
ये संबंध
ये रिश्ता
ये समझ
इसे कोई मुकाम भी मिलेगा
या यूँ ही हाथियों के पैर तले कुचल जायेगाचींटी बनकर
सच कहूँ
उम्र के इस पडाव का
सबको इंतज़ार होता है
मुझे भी था मगर
वक्त ने नमी छोडी ही नहीं
अब कैसे मन की शाखायें
फिर से हरी भरी हो जायें
कैसे इन पर कोई
कँवल खिल जाये
नहीं, नहीदोषारोपण नहीं कर रही
बस वक्त की कामयाब कोशिशों को देख रही हूँ
और सोच रही हूँ
क्यों जीत गया वक्त हमसे
हमारे संबंध से
क्या कमी रह गयी थी
जिसका फ़ायदा वक्त उठा गया
और हमें बिखरा गया
शायद
कहीं ना कहीं
ना चाहते हुये भी
हमारे दम्भ, हमारा अहम
ही वक्त के हाथों का खिलौना बन गया
और वो अपना काम कर गया
देखो अब क्या बचा?
ना तुम मुझमें
ना मैं तुममें
दो खोखले अस्थिपंजर
देह का लिबास ओढे
दुनियावी रस्म निभाने के लिये
कटिबद्ध हैं ज़िन्दगी रहने तक
आखिर जिम्मेदारियों से तो
नहीं मूँह मोडा जा सकता ना
चाहे रिश्ता कचरे के डिब्बे में पडा
सडांध मारता अपनी आखिरी साँस ही क्यों ना ले रहा हो
जीना है अब हमें इसी तरह
क्योंकि
माफ़ी माँगने या देने की सीमा से पार आ चुके हैं हम
क्योंकि
अब हमारे बीच आ चुकी है अभद्रता, असंयमता
ना केवल आचरण में बल्कि शब्दों में भी
फिर कैसे संभव है
नव निर्माण, नवांकुर, नव सृजन
बिना नमी के
मौन की कचोट, मौन का वार और मौन का संग्राम
शब्दहीन, भावहीन, रसहीन कर गया मुझको और
जीवन की तल्खियों ने स्वादहीन बना दिया मुझको
क्या है कोई टंकारता घंटा उस ओर जो खोल सके
मेरे मन मन्दिर के कपाटों को दुर्लभ देव दर्शन हेतु?
छीजती ज़िन्दगी और मेरा संग्राम अब हार जीत से परे हो चुका है
क्योंकि
कोई जीते या हारे हार निश्चित ही दोनो तरफ़ से मेरी ही है सनम!
बस मूक हूँ पीड़ा का दिग्दर्शन करके
मुझमे उबल रहा है एक तेज़ाब
झुलसाना चाह रही हूँ खुद को
खंड- खंड करना चाहा खुद को
मगर नहीं हो पायी
नहीं नहीं छू पायी
एक कण भी तेजाबी जलन की
क्योंकि
आत्मा को उद्वेलित करती तस्वीर
शायद बयां हो भी जाए
मगर जब आत्मा भी झुलस जाए
तब कोई कैसे बयां कर पाए
देखा था कल तुम्हें
नज़र भर भी नहीं देख पायी तुम्हें
नहीं देख पायी हकीकत
नहीं मिला पायी आँख उससे
और तुमने झेला है वो सब कुछ
हैवानियत की चरम सीमा
शायद और नहीं होती
ये कल जाना
जब तुम्हें देखा
महसूसने की कोशिश में हूँ
नहीं महसूस पा रही
जानती हो क्यों
क्योंकि गुजरी नहीं हूँ उस भयावहता से
नहीं जान सकती उस टीस को
उस दर्द की चरम सीमा को
जब जीवन बोझ बन गया होगा
और दर्द भी शर्मसार हुआ होगा
कहते हैं “चेहरा इन्सान की पहचान होता है ”
और यदि उसी पहचान
पर हैवानियत ने तेज़ाब उंडेला हो
और एक एक अंग गल गया हो
मूंह, आँख, नाक, कान
सब रूंध गए हों
न कहना
न सुनना
न बोलना
जीवन की क्षणभंगुरता ने भी
उस पल हार मान ली हो
नहीं, नहीं, नहीं
कोई नहीं जान सकता
कोई नहीं समझ सकता
उस दुःख की काली रात्रि को
जो एक-एक पल को
युगों में तब्दील कर रही हो
एक-एक साँस
खुद पर बोझ बन रही हो
और जिंदा रहना
एक अभिशाप समझ रही हो
कुछ देर खुद को
गर गूंगा, बहरा और अँधा
सोच भी लूँ
तो क्या होगा
कुछ नहीं
नहीं पार पा सकती उस पीड़ा से
नहीं पहुँच सकती पीड़ा की
उस भयावहता के किसी भी छोर तक
जहाँ जिंदा रहना गुनाह बन गया हो
और गुनहगार छूट गया हो
जहाँ हर आती-जाती साँस
पोर-पोर में लाखों-करोड़ों
सर्पदंश भर रही हो
और शरीर से परे
आत्मा भी मुक्त होने को
व्याकुल हो गयी हो
और मुक्ति दूर खड़ी अट्टहास कर रही हो
नहीं शब्दों में बयां हो जाये
वो तो तकलीफ हो ही नहीं सकती
जब रोज खौलते तेज़ाब में
खुद को उबालना पड़ता है
जब रोज नुकीले भालों की
शैया पर खुद को सुलाना पड़ता है
जब रोज अपनी चिता को
खुद आग लगाना पड़ता है
और मरने की भी न जहाँ
इजाज़त मिलती हो
जिंदा रहना अभिशाप लगता हो
जहाँ चर्म, मांस, मज्जा
सब पिघल गया हो
सिर्फ अस्थियों का पिंजर ही सामने खड़ा हो
और वो भी अपनी भयावहता दर्शाता हो
भट्टी की सुलगती आग में
जिसने युगों प्रवास किया हो
क्योंकि
जिसका एक-एक पल
युगों में तब्दील हुआ हो
वहाँ इतने वर्ष बीते कैसे कह सकते हैं
क्या बयां की जा सकती है
शब्दों के माध्यम से?
पीड़ा की जीवन्तता
जिससे छुटकारा मिलना आसान नहीं दिखता
जो हर कदम पर
एक चुनौती बनी सामने खड़ी दिखती है
क्या वो पीड़ा, वो दर्द , वो तकलीफ
वो एक-एक सांस के लिए
खुद से ही लड़ना
मौत को हराकर
उससे दो- दो हाथ करना
इतना आसान है जितना कहना
“जिस पर बीते वो ही जाने”
यूँ ही नहीं कहा गया है
शब्द मरहम तभी तक बन सकते हैं
जहाँ पीड़ा की एक सीमा होती है
अंतहीन पीडाओं के पंखों में तो सिर्फ खौलते तेज़ाब ही होते हैं
जो सिर्फ और सिर्फ
आत्मिक शक्ति और जीवटता के बल पर ही जीते जा सकते हैं
और तुम उसकी मिसाल हो कहकर
या तुम्हें नमन करके
या सहानुभूति प्रदर्शित करके
तुम्हारी पीड़ा को कमतर नहीं आँक सकती
बस मूक हूँ पीड़ा का दिग्दर्शन करके
खरोंच
कल तक जो
आन बान और शान थी
कल तक जो
पाक और पवित्र थी
जो दुनिया के लिए
मिसाल हुआ करती थी
अचानक क्या हुआ
क्यों उससे उसका ये ओहदा छिन गया
कैसे वो मर्यादा
अचानक सबके लिए
अछूत चरित्रहीन हो गयी
कोई नहीं जानना चाहता
संवेदनहीन ह्रदयों की
संवेदनहीनता की यही तो
पराकाष्ठा होती है
पल में अर्श से फर्श पर धकेल देते हैं
नहीं जानना चाहते
नकाब के पीछे छुपे वीभत्स सत्य को
क्योंकि खुद बेनकाब होते हैं
बेनकाब होती है इंसानियत
और ऐसे में यदि
कोई मर्यादा ये कदम उठाती है
तो आसान नहीं होता खुद को बेपर्दा करना
ना जाने कितने घुटन के गलियारों में
दम तोडती सांसों से समझौता करना पड़ता है
खुद को बताना पड़ता है
खुद को ही समझाना पड़ता है
तब जाकर कहीं ये कदम उठता है
अन्दर से आती
दुर्गन्ध में एक बूँद और
डालनी पड़ती है गरल की
तेज़ाब जब खौलने लगता है
और लावा रिसता नहीं
ज्वालामुखी भी फटता नहीं
तब जाकर परदगी का
लिबास उतारना पड़ता है
करना होता है खुद को निर्वस्त्र
एक बार नहीं बार-बार
हर गली में
हर चौराहे पर
हर मोड़ पर
तार-तार हो जाती है आत्मा
लहूलुहान हो जाता है आत्मबल
जब आखिरी दरवाज़े पर भी
लगा होता है एक साईन बोर्ड
सिर्फ इज्जतदारों को ही यहाँ पनाह मिलती है
जो निर्वस्त्र हो गए हों
जिनका शारीरिक या मानसिक
बलात्कार हुआ हो
वो स्वयं दोषी हैं यहाँ आने के
यहाँ बलात्कृत आत्माओं की रूहों को भी
सूली पर लटकाया जाता है
ताकि फिर यहाँ आने का गुनाह ना कर सकें
इतनी ताकीद के बाद भी
गर कोई ये गुनाह कर ही दे
तो फिर कैसे बच सकता है
बलात्कार के जुर्म से
अवमानना करने के जुर्म से
जहाँ पैसे वाला ही पोषित होता है
और मजलूम पर ही जुल्म होता है
ये जानते हुए भी कि साबित करना संभव नहीं
फिर भी आस की आखिरी उम्मीद पर
एक बार फिर खुद को बलात्कृत करवाना
शब्दों की मर्यादाओं को पार करती बहसों से गुजरना
अंग-प्रत्यंग पर पड़ते कोड़ों का उल्लेख करना
एक-एक पल में हजार-हजार मौत मरना
खुद से इन्साफ करने के लिए
खुद पर ही जुल्म करना
कोई आसान नहीं होता
खुद को हर नज़र में
“प्राप्तव्य वस्तु” समझते देखना
और फिर उसे अनदेखा करना
हर नज़र जो चीर देती है ना केवल ऊपरी वस्त्र
बल्कि रूह की सिलाईयाँ भी उधेड़ जाती हैं
उसे भी सहना कुछ यूँ
जैसे खुद ने ही गुनाह किया हो
खरोंचों पर दोबारा लगती खरोंचें
टीसती भी नहीं अब
क्योंकि
जब स्वयं को निर्वस्त्र स्वयं करना होता है
सामने वालों की नज़र में
शर्मिंदगी या दया का कोई अंश भी नहीं दिखता
दिखता है तो सिर्फ
वासनात्मक लाल डोरे आँखों में तैरते
उघाड़े जाते हैं अंतरआत्मा के वस्त्र
दी जाती हैं दलीलें पाक़ साफ होने की
मगर कहीं कोई सुनवाई नहीं होती
होता है तो सिर्फ एक अन्याय जिसे
न्याय की संज्ञा दी जाती है
इतना सब होने के बावजूद भी
मगर नहीं समझा पाती किसी को
नहीं साक्ष्य उपलब्ध करवा पाती
और हार जाती है
निर्वस्त्र हो जाती है खोखली मर्यादा
और हो जाता है हुक्म
चढ़ा दो सूली पर
दे दो उम्र कैद पीड़ित मर्यादा को
ताकि फिर कोई खरोंच ना इतनी बढे
ना करे इतनी हिम्मत
जो नज़र मिलाने की जुर्रत कर सके
आसान था उस पीड़ा से गुजरना शायद
तब कम से कम खुद की नज़र में ही
एक मर्यादा का हनन हुआ था
मगर अब तो मर्यादा की दहलीज पर ही
मर्यादा निर्वस्त्र हुई थी प्रमाण के अभाव में
और अट्टहास कर रही थी सुना है कोई
आँख पर पट्टी बाँधे हैवानियत की चरम सीमा
ये खोखले आदर्शों की जमीनों के ताबूत की आखिरी कीलों पर
मौत से पहले का अट्टहास सोच की आखिरी दलदल तो नहीं
किसी अनहोनी के तांडव नृत्य का शोर यूँ ही नहीं हुआ करता
गर संभल सकते हो तो संभल जाओ
शतरंज के खेल मे शह मात देना अब मैने भी सीख लिया है
तुम्हारा प्रश्न
आज की आधुनिक
क्रांतिकारी स्त्री से
शिकार होने को तैयार हो ना
क्योंकि
नये-नये तरीके ईज़ाद करने की
कवायद शुरु कर दी है मैने
तुम्हें अपने चंगुल मे दबोचे रखने की
क्या शिकार होने को तैयार हो तुम स्त्री?
तो इस बार तुम्हे जवाब जरूर मिलेगा
हाँ, तैयार हूँ मै भी
हर प्रतिकार का जवाब देने को
तुम्हारी आँखों मे उभरे
कलुषित विचारों के जवाब देने को
क्योंकि सोच लिया है मैने भी
दूंगी अब तुम्हे
तुम्हारी ही भाषा मे जवाब
खोलूँगी वो सारे बंध
जिसमे बाँधी थी गांठें
चोली को कसने के लिये
क्योंकि जानती हूँ
तुम्हारा ठहराव कहाँ होगा
तुम्हारा ज़ायका कैसे बदलेगा
भित्तिचित्रों की गरिमा को सहेजना
सिर्फ़ मुझे ही सुशोभित करता है
मगर तुम्हारे लिये हर वो
अशोभनीय होता है जो गर
तुमने ना कहा हो
इसलिये सोच लिया है
इस बार दूँगी तुम्हे जवाब
तुम्हारी ही भाषा मे
मर्यादा की हर सीमा लांघकर
देखूंगी मै भी उसी बेशर्मी से
और कर दूँगी उजागर
तुम्हारे आँखो के परदों पर उभरी
उभारों की दास्ताँ को
क्योंकि येन केन प्रकारेण
तुम्हारा आखिरी मनोरथ तो यही है ना
चाहे कितना ही खुद को सिद्ध करने की कोशिश करो
मगर तुम पुरुष हो ना
नही बच सकते अपनी प्रवृत्ति से
उस दृष्टिदोष से जो सिर्फ़
अंगो को भेदना ही जानती है
इसलिये इस बार दूँगी मै भी
तुम्हे खुलकर जवाब
मगर सोच लेना
कहीं कहर तुम पर ही ना टूट पडे
क्योंकि बाँधों मे बँधे दरिया जब बाँध तोडते हैं
तो सैलाब मे ना गाँव बचते हैं ना शहर
क्या तैयार हो तुम नेस्तनाबूद होने के लिये
कहीं तुम्हारा पौरुषिक अहम आहत तो नही हो जायेगा
सोच लेना इस बार फिर प्रश्न करना
क्योंकि सीख लिया है मैने भी अब
नश्तरों पर नश्तर लगाना तुमसे ही ओ पुरुष!!!!!!!
दांवपेंच की जद्दोजहद मे उलझे तुम
सम्भल जाना इस बार
क्योंकि जरूरी नही होता
हर बार शिकार शिकारी ही करे
इस बार शिकारी के शिकार होने की प्रबल सम्भावना है
क्योंकि जानती हूं
आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य मे आहत होता तुम्हारा अहम
कितना दुरूह कर रहा है तुम्हारा जीवन
रचोगे तुम नये षडयत्रों के प्रतिमान
खोजोगे नये ब्रह्मांड
स्थापित करने को अपना वर्चस्व
खंडित करने को प्रतिमा का सौंदर्य
मगर इस बार मै
नही छुडाऊँगी खुद को तुम्हारे चंगुल से
क्योंकि जरूरी नही
जाल तुम ही डालो और कबूतरी फ़ंस ही जाये
क्योंकि
इस बार निशाने पर तुम हो
तुम्हारे सारे जंग लगे हथियार हैं
इसलिये रख छोडा है मैने अपना ब्रह्मास्त्र
और इंतज़ार है तुम्हारी धधकती ज्वाला का
मगर सम्भलकर
क्योंकि धधकती ज्वालायें आकाश को भस्मीभूत नही कर पातीं
और इस बार
तुम्हारा सारा आकाश हूँ मै हाँ मै, एक औरत
गर हो सके तो करना कोशिश इस बार मेरा दाह संस्कार करने की
क्योंकि मेरी बोयी फ़सलों को काटते
सदियाँ गुज़र जायेंगी
मगर तुम्हें ना धरती नज़र आयेगी
ये एक क्रांतिकारी आधुनिक औरत का तुमसे वादा है
शतरंज के खेल मे शह मात देना अब मैने भी सीख लिया है
और खेल का मज़ा तभी आता है
जब दोनो तरफ़ खिलाडी बराबर के हों
दांव पेंच की तिकडमे बराबर से हों
वैसे इस बार वज़ीर और राज़ा सब मै ही हूँ
कहो अब तैयार हो आखिरी बाज़ी को ओ पुरुष!!!!
और श्राप है तुम्हें मगर तब तक नहीं मिलेगा तुम्हें पूर्ण विराम
ढूँढ रहे हो तुम मुझे शब्दकोशों में
निकाल रहे हो मेरे विभिन्न अर्थ
कर रहे हो मुझे मुझसे विभक्त
बना रहे हो मेरे नए उपनिषद
कर रहे हो मेरी नयी-नयी व्याख्याएं
मगर फिर भी नहीं पकड़ पाते हो पूरा सच
बताओ तो ज़रा
क्या- क्या नहीं कर डाला तुमने
किस-किस धर्मग्रन्थ को नहीं खंगाल डाला
खजुराहो की भित्तियों में ना उकेर डाला
अजंता अलोरा के पटल पर फैला मेरा
विशाल आलोक तुम्हारी ही तो देन है
कामसूत्र की नायिका के रेशे- रेशे में
मेरे व्यक्तित्व के खगोलीय व्यास
अनंत पिंड कई-कई तारामंडल
क्या कुछ नहीं खोजा तुमने
पूरा ब्रह्माण्ड दर्शन किया तुमने
पर फिर भी ना तुम्हारी कुत्सितता गयी
फिर भी अधूरी रही तुम्हारी खोज
और तुम उसी की चाह(?) में
खोजते रहे उसके अंगों में अपनी दानवता
सिर्फ दो अंगों के सिवा ना तुम्हें कुछ दिखा
और गुजर गए अनंतकाल
तुम्हारा अनंत भ्रमण
पर हाथ ना कुछ लगा
करते रहे तुम मर्यादाओं का बलात्कार
सरे आम, हर चौराहे पर
फिर भी ना तुम्हारा पौरुष तुष्ट हुआ
जानते हो क्यों?
क्यूँकि तुमने सिर्फ बाह्य अंगों को ही
स्त्री के दुर्लभतम अंग समझा
और गूंथते रहे तुम उसी में
अपनी वासना के ज्वारों को
और फिर भी ना पूरी हुई तुम्हारी
हवस की झुलसी चिंगारियां
और श्राप है तुम्हें
नहीं मिलेगा तुम्हें कभी वरदान
नहीं खोज पाओगे तुम उसका ब्रह्माण्ड
कभी नहीं पाओगे चैन-ओ-आराम
यूँ ही भटकोगे करोगे बलात्कार
करोगे अत्याचार
ना केवल उस पर
खुद पर भी
अपने से भी मुँह चुराते रहोगे
पर नहीं मिलेगा तुम्हें यथोचित आकार
तब तक जब तक
नहीं उतरोगे तुम उसके
स्त्रीत्व की परीक्षा पर खरे
नहीं भेदोगे जब तक तुम
उसके मन के कोने
जब तक नहीं बनोगे अर्जुन
और नहीं साधोगे निशाना
मछली की आँख पर
तब तक नहीं मिलेगी तुम्हें भी
कोई धर्मोचित मर्यादा
बेशक मिलता रहे अर्धविराम
मगर तब तक
नहीं मिलेगा तुम्हें पूर्ण विराम
देखा है कभी राख़ को घुन लगते हुए?
नारी के दृष्टिकोण से
सुना है नारी
सम्पूर्णता तभी पाती है
जब मातृत्व सुख से
आप्लावित होती है
जब यशोदा बन
कान्हा को
दुग्धपान कराती है
रचयिता की
अनुपम कृति तब होती है
यूँ तो उन्नत वक्षस्थल
सौंदर्य का प्रतिमान होते हैं
नारी का अभिमान होते हैं
नारी देहयष्टि में
आकर्षण का स्थान होते हैं
पुरुष की कामुक दृष्टि में
काम का ज्वार होते हैं
मगर जब इसमें घुन लग जाता है
कोई रेंगता कीड़ा घुस जाता है
सारी फसल चाट जाता है
पीड़ा की भयावहता में
अग्निबाण लग जाता है
असहनीय दर्द तकलीफ
हर चेहरे पर पसरा खौफ
अन्दर ही अन्दर
आतंकित करता है
कीटनाशक का प्रयोग भी
जब काम ना आता है
तब खोखले अस्तित्व को
जड़ से मिटाया जाता है
जैसे मरीज को
वैंटिलेटर पर रखा जाता है
यूँ नारी का अस्तित्व
बिना घृत के
बाती-सा जल जाता है
उसका अस्तित्व ही तब
उस पर प्रश्नचिन्ह लगाता है
एक अधूरापन सम्मुख खड़ा हो जाता है
सम्पूर्णता से अपूर्णता का
दुरूह सफ़र
बाह्य सौन्दर्य तो मिटाता है
साथ ही आंतरिक
पीड़ा पर वज्रपात-सा गिर जाता है
जिस अंग से वो
गौरान्वित होती है
साक्षात वात्सल्य की
प्रतिमूर्ति होती है
जो उसके जीवन की
उसके अस्तित्व की
अमूल्य धरोहर होती है
नारीत्व की पहचान होती है
जब नारी उसी से विमुख होती है
तब प्रतिक्षण काँटों की
शैया पर सोती है
बेशक नहीं होती परवाह उसे
समाज की
उसकी निगाहों की
किसी भी हीनता बोध की
सौंदर्य के अवसान की
अन्तरंग क्षणों में उपजी
क्षणिक पीड़ा की
क्योंकि जानती है
पौरुषिक स्वभाव को
क्षणिक आवेग में समाई निर्जनता
पर्याय ढूँढ लेती है
मगर
स्वयं का अस्तित्व जब
प्रश्नचिन्ह बन
खड़ा हो जाता है
तब कोई पर्याय ना नज़र आता है
आईना भी देखना तब
दुष्कर लगता है
नहीं भाग पाती
अपूर्ण नारीत्व से
स्वयं को बेधती
स्वयं की निगाह से
हर दंश, हर पीड़ा
सह कर भी
जीवित रहने का गुनाह
उस वक्त बहुत कचोटता है
जब मातृत्व उसका
अपूर्ण रहता है
बेशक दूसरे सुखो से
वंचित हो जाए
तब भी आधार पा लेती है
मगर मातृत्व सुख की लालसा
खोखले व्यक्तित्व पर
प्रश्नचिन्ह बन
जब खडी हो जाती है
वात्सल्य की बलि वेदी पर
माँ का ममत्व
नारी का नारीत्व
प्रश्नवाचक नज़रों से
उसे घूरता है
मृत्युतुल्य कष्ट सहकर
ज़िन्दा रहना उसे
उस वक्त दुष्कर लगता है
जब ब्रैस्ट कैंसर की
फैली शाखाओं के व्यूह्जाल को तोड़ वह खुद को निरखती है
तब ज़िन्दा रहना अभिशाप बन
उसके संपूर्ण व्यक्तित्व को
अभिशापित कर देता है
जो वास्तविक कैंसर से
ज्यादा भयावह होता है
अपूर्ण व्यक्तित्व के साथ जीना
मौत से पहले पल-पल का मरना
उसे अन्दर ही अन्दर
खोखला कर देता है
मातृत्व में घुला संपूर्ण नारीत्व
पूर्ण नारी होने की गरिमा
उसके मुखकमल के तेज को
निस्तेज कर देती है
जब अपूर्णता की स्याही उसकी आँखों में उतरती है
चंद लफ़्ज़ों में
उस भयावहता को बाँधना संभव नहीं
दर्द की पराकाष्ठा का चित्रण संभव नहीं
ये तो कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है
मगर लफ़्ज़ों में तो ना
वो भी व्यक्त कर सकता है
क्योंकि
मौत से आँख मिलाने वाली
खुद से ना आँख मिला पाती है
यही तो इस व्याधि की भयावहता होती है
कहना आसान होता है
बच्चा गोद ले लो
किसी अनाथ को प्रश्रय दो
जीने के नए बहाने ढूंढो
मगर जिस पर गुजरती है
वो ही पीड़ा को जानता है
जब खुद के सक्षम होने से
असक्षम होने के सफ़र को
वो तय करता है
क्योंकि एक उम्र गुजर जाती है
व्याधि की भयावहता से मुक्त होते-होते
और तब तक किसी-किसी का तो
मासिक भी बंद हो जाता है
जो पुन: ना आकार ले पाता है
तब उस पर जो गुजरती है
ये तो सिर्फ़ वह ही समझ सकती है
और एक फांस-सी दिल पर
उम्र भर के लिए गड जाती है
दोनों वक्षस्थलों को गंवाकर
अपने मातृत्व की संपूर्णता से
जब वह वंचित हो जाती है
तब घोर अवसाद से ग्रसित हो जाती है
और ऐसे ख्यालों में घिर जाती है
जब उस सुख से वह वंचित रह जाती है
यूँ ज़िन्दगी से बढ़कर कोई नेमत नहीं होती
जानती है वह…
फिर भी एक नवान्गना / तरुणी के जीवन की सम्पूर्णता
तो सिर्फ़ मातृत्व में है होती
सोच खुद को निरीह महसूसती है
एक प्रश्नचिन्ह उसके वजूद को
धीमे-धीमे खाता जाता है
जिसका उत्तर ना किसी को कहीं मिल पाता है
एक ऐसी बेबसी जिसका निदान न मिल पाता है
और उसे अपना अस्तित्व अपूर्ण नज़र आता है
फिर चाहे पीडा का स्वरूप क्षणिक ही क्यों ना हो
चीत्कार उठता है उसका अंतस बेबसी से उपजी पीड़ा से
देखा है कभी राख़ को घुन लगते हुए… ?
पुरुष के दृष्टिकोण से
जब से विषबेल अमरलता से लिपटी है
मेरे अंतस में भी मची हलचल है
यूँ तो प्रणय का ठोस स्तम्भ होते हैं
मगर जीवन के पहिये सिर्फ़
इन्ही पर ना टिके होते हैं
ये भी जानता हूँ मैं
अंग में उपजी पीड़ा की भयावहता को
तुम्हारे ह्रदय की टीस को पहचानता हूँ
संघर्षरत हो तुम
ना केवल व्याधि से
ना केवल अपने अस्तित्व के खोखलेपन से
बल्कि नारीत्व के अधूरेपन से भी
जो तुम नहीं कहती हो
वो भी दिख रहा है मुझे
तुम्हारी वेदना का हर शब्द
मेरे भीतर रिस रहा है
मकड़ी के जालों ने तुम्हें घेरा है
खोखला कर दिया है तुम्हारा वजूद
कष्टसाध्य पीड़ा के आखिरी पायदान
पर खडी तुम
अब भी मेरी तरफ
दयनीय नेत्रों से देख रही हो
सिर्फ मेरे लिए
मेरे स्वार्थ के लिए
मेरी क्षणभंगुर तुष्टि के लिए
सोच रही हो
कैसे गुजरेगा जीवन
अधूरेपन के साथ
मगर तुम अधूरी कब हुईं
तुम तो हमेशा पूरी रही हो
मेरे लिए
नहीं प्रिये… नहीं
इतना स्वार्थी कैसे हो सकता हूँ
जीवन के दोनों पहियों के बिना
कैसे गाड़ी चल सकती है
क्या तुमने मुझे सिर्फ़ इतना ही जाना
क्या मुझे सिर्फ़
विषयानल में फँसा दलदल का
रेंगता कीड़ा ही समझा
जो अपनी चाहतों के सिवा
अपने रसना के स्वाद के सिवा
ना दूजे की पीड़ा समझता है
नहीं… ऐसा संभव नहीं
क्या हुआ गर
ज़हरवाद ने तुम्हें विकृत किया है
क्या सिर्फ़ एक अंग तक ही
तुम्हारा अस्तित्व सिमटा है
तुम एक संपूर्ण नारी हो
गरिमामयी ओजस्वी
अपने तेज से जीवन को
आप्लावित करतीं
घर संसार को संभालतीं
अपनी एक पहचान बनातीं
ना केवल अपने अर्थों में
बल्कि समाज की निगाह में
संपूर्ण नारीत्व को सुशोभित करतीं
क्या सिर्फ़ अंगभंग होने से
तुम्हारी जगह बदल जाएगी
नहीं प्रिये… नहीं
जानती हो
ये सिर्फ़ मन का भरम होता है
रिक्त स्थानों की पूर्ति के लिए
प्रेम का अमृत ही काफी होता है
जहाँ प्रेम होता है वासना नहीं
वहाँ फिर कोई स्थान ना रिक्त दिखता है
क्योंकि यथार्थ से तो अभी वास्ता पड़ता है
शायद नहीं यक़ीनन
यही तो प्रणय सम्बंधों का चरम होता है
जहाँ शारीरिक अक्षमता ना
सम्बंधों पर हावी होती है
और सम्बंधों की दृढ़ता के समक्ष
नहीं है मेरी कविता का कैनवस इतना विशाल
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसमें सारे जहान का
दर्शन शास्त्र समा लूँ
कैसे सम्भोग से समाधि तक
पात्रों को ले जाऊँ
जहाँ विषमता का ज़हर
हर पात्र में भरा है
कैसे प्रेम के अद्वैत को समझाऊँ
कैसे द्वैत को अद्वैत से
भिन्न दिखलाऊँ
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसमें सारी दुनिया की
फ़िलासफ़ी समा जाये
जहाँ जो नहीं है
उसको चित्रित कर दूँ
या फिर देखने वाले के
नज़रिये को ही बदल दूँ
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसे सिगरेट के धुँये
के छल्ले बना हवा में
उडा दिया जाये
और उसमें एक शख्स
उसकी वेदना
उसकी मौन अभिव्यक्ति को
व्यक्त किया जाये
चाहे वह उसकी
अभिव्यक्ति हो या नहीं
एक फ़िक्र की चादर को बुनकर
एक रिक्शाचालक के
या एक झोंपडी में रहने
वाले के दुख दर्द का
बयान कर खुद को
अग्रिम पंक्ति में
स्थापित करने का
नौस्टैलज़िया दिखा सकूँ
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसमें राजनीति के
समीकरणों को
दो दूनी आठ की
भाषा का केन्द्र बना लूँ
कुछ जोड-तोड की
नी्ति को अपना
अपने लिये एक
राजनीतिक मंच बना लूँ
और सराहना या पुरस्कारों
या सम्मानों का ढेर लगा लूँ
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसमें कहीं मोहब्बत के
तो कहीं नफ़रत के
तो कभी ख्वाबों के
शामियाने लगा लूँ
आखिर किस लिये?
खुद को साबित करने के लिये
कब तक नकाब ओढे रखूँ
कब तक कविता की
सारी सीमायें तोडती रहूँ
हर वर्जना को
अस्वीकारती रहूँ
आखिर कब होगा अंत?
आखिर कब होगा मुक्तिबोध?
कविता का और खुद का
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसमे आकाशीय खगोलीय
ब्रह्मांडीय घटनाओं के
समावेश से पूर्णता मिल जाये
इतना आसान कहीं होता है
हर ब्लैक होल में विचरण करना?
ये ब्रह्मांड के अनन्त
अथाह परिवेश से गहरे
कविता के मर्म को जानना
क्या इतना आसान है
जो चंद लफ़्ज़ों का मोहताज़ हो
समीक्षक की दृष्टि भी तो
उसकी सीमाओं तक ही
सीमित है
मगर कविता असीम है
निस्सीम है
अनन्त है
एक छोर से अनन्त के
उस पार तक
जिस का सिरा
कोई नहीं पकड पाया
फिर कैसे बांधूँ
हर उपालम्भ को
कविता के दायरे में
जबकि जानती हूँ
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
कागज़ ही तो काले करती हो
तोड़ने से पहले तोडना
और जोड़ने से पहले जोड़ना
कोई तुमसे सीखे
कितनी आसान प्रक्रिया है
तुम्हारे लिए
ना जाने कैसी सोच है तुम्हारी
ना जाने कैसे संवेदनहीन होकर जी लेते हो
जहाँ किसी की संवेदनाओं के लिए
कोई जगह नहीं होती
होती है तो सिर्फ़ एक सोच
अर्थ की दृष्टि से
अगर आप में क्षमता है
आर्थिक रूप से कुछ कर पाने की
तब तो आप की कोई जगह है
वर्ना आपका नंबर सबसे आखिरी है
बेशक दूसरे आपको सम्मान देते हों
आपके लेखन के कायल हों
मगर आप के जीवन की
यही सबसे बड़ी त्रासदी होती है
आप अपने ही घर में घायल होती हो
नहीं होता महत्त्व आपका
आपके लेखन का
आपके अपनों की नज़रों में ही
और आसान हो जाता है उनके लिए कहना
क्या करती हो… “कागज़ ही तो काले करती हो”
फिर चाहे बच्चे हों या पति
बेटा हो या बेटी
उनकी सोच यहीं तक सीमित होती है
और वह भी कह जाते हैं
आपका काम इतना ज़रूरी नहीं
पहले हमें करने दो
इतने प्रैक्टिकल हो जाते हैं
कि संवेदनाओं को भूल जाते हैं
उस पल तीर से चुभते शब्दों की
व्याख्या कोई क्या करे
जिन्हें पता ही नहीं चलता
उनके चंद लफ़्ज़ों ने
किसी की इमारत में कितनी दरारें डाल दी हैं
और दिलोदिमाग में हथौड़े से बजते लफ्ज़
जीना दुश्वार करते हैं
और सोचने को मजबूर
क्या सिर्फ़ आर्थिक दृष्टि से सक्षम
स्त्री का कार्य ही स्वीकार्य है
तभी उसके कार्य को प्रथम श्रेणी मिलेगी
जब वह आर्थिक रूप से संपन्न होगी
और उस पल लगता है उसे
शायद किसी हद तक सच ही तो कहा किसी ने
क्या मिल रहा है उसे… कुछ नहीं
क्योंकि
ये वह समाज है
जहाँ अर्थ ही प्रधान है
और स्वान्तः सुखाय का यहाँ कोई महत्त्व नहीं…
शायद इसीलिये
हकीकत की पथरीली जमीनों पर पड़े फफोलों को रिसने की इजाज़त नहीं होती…
हाँ बुरी औरत हूँ मै
हाँ… बुरी औरत हूँ मैं
मानती हूँ…
क्यूँकि जान गयी हूँ
अपनी तरह
अपनी शर्तों पर जीना
नहीं करती अब तुम्हारी बेगारी
दे देती हूँ तुम्हारी हर ग़लत बात का जवाब
नहीं मानती आँख मूँद कर तुम्हारी हर बात
सिर्फ तुम्हारे लिए ही जीना
बदल लिया है अब इस वाक्य को खुद से
अब अपनी इच्छाओं का दमन नहीं करती
प्रत्युत्तर देती हूँ
समाज के अवांछित भय से नहीं डरती हूँ
तुम्हारी सदियों से बनाई परिपाटियों को तोडती हूँ
तुमसे भी वह ही उम्मीद करती हूँ
उतना ही समर्पण, त्याग, मोहब्बत चाहती हूँ
जितना मैं शिद्दत से करती हूँ
तो आज मैं तुम्हें बुरी लगती हूँ
आखिर कैसे जमींदोज़ आत्माएँ कब्र से बाहर आ गयीं
अगर सत्य कहना बुरा है
अगर खुद को पहचानना बुरा है
अगर हर नाजायज को ठुकराना बुरा है
तो हाँ… मैं बुरी औरत हूँ
मीरा होना आसान नही
मीरा होना आसान नही
मीरा बन जाओ तो बताना
देखो तुम्हे एक दिन है दिखाना
मीरा यूँ ही नहीं बना करतीं
श्याम को पति यूँ ही वरण नहीं किया करतीं
प्रेम दीवानी, मतवाली बन
गली गली यूँ ही अलख नहीं जगाया करती
मीरा बनने से पहले खुद को मिटाना होगा
मीरा बनने से पहले श्याम को रिझाना होगा
मीरा बनने से पहले विष पी जाना होगा
ना केवल पीने वाला
बल्कि सांसारिक कटु आलोचनाओं का विष
सम्बंधियों द्वारा ठुकराये जाने का विष
अपनों के विश्वास के उठ जाने का विष
क्या तैयार हो तुम
ए कर्मभूमि के वासियों
मीरा बनने के लिए…
जहाँ पति को पत्नी में
सिर्फ औरत ही दिखती है
जहाँ औरत में समाज को
एक अबला ही दिखती है
जहाँ सिर से पल्लू उतरने पर
बवाल मच जाया करता है
जहाँ कन्याओं को गर्भ में ही
मार दिया जाता है
तो कभी चरित्रहीन करार
दिया जाता है
तो कभी प्रेम करने के जुर्म में
ऑनर किलिंग की सजा का
हकदार बना दिया जाता है
तो कभी अकेली स्त्री से
व्यभिचार किया जाता है
फिर चाहे वह किसी भी उम्र की क्यों ना हो
बच्ची हो या बूढी या जवाँ
सिर्फ लिंग दोहन की शिकार होती है
और उफ़ करने की भी
ना हक़दार होती है
क्या ऐसे समाज में
है किसी में हिम्मत मीरा बनने की
गली गली विचरने की
है मीरा जैसा वह पौरुष
वो ललकार, वह आत्मसमर्पण
जिसने अपना सर्वस्व श्याम को अर्पित कर दिया
और निकल पड़ी हाथ में वीणा संभाले
जिसे ना संसार में श्याम के अलावा
दूजा पुरुष दिखा
ऐसा नहीं कि उस वक्त राहें सरल थीं
शायद इससे भी गयी गुजरी थीं
नारी के लिए तो हमेशा समाज की दृष्टि
वक्र ही रही है
तो क्या मीरा ने ये सब ना झेला होगा
ज़रूर झेला होगा
किया होगा प्रतिकार हर रस्म-ओ-रिवाज़ का
और दिया होगा साथ अपने श्याम का
फिर कैसे वह विमुख रह सकते थे
कैसे ना वह मीरा का योगक्षेम वहन करते
लेकिन सर्वस्व समर्पण-सा वह भाव
आज तिरोहित होता है
बस हमारा ये काम हो जाये
हमारा वह काम हो जाए
इसी में हम जीवनयापन करते हैं
तो कैसे मीरा बन सकते हैं
कैसे श्याम को रिझा सकते हैं
मीरा बनने के लिए मीरा भाव जागृत करना होगा
और मीरा भाव जागृत करने के लिए
मीरा को आत्मसात करना होगा
और मीरा को आत्मसात करने के लिए
खुद को राख बनाना होगा
और उस राख का फिर तर्पण करना होगा
तब कहीं जाकर मीरा का एक अंश प्रस्फुटित होगा
तब कहीं जाकर मीरा भाव से तुम्हारा ह्रदय द्रवीभूत होगा
यूँ ही मीरा नहीं बना जाता
यूँ ही नहीं श्याम को रिझाया जाता
आदिम पंक्ति की एक क्रांतिकारी रुकी हुयी बहस हूँ मैं
आदिम पंक्ति की एक क्रांतिकारी रुकी हुयी बहस हूँ मैं
किसी देवनागरी या रूसी या अरबी लिपि में
लिपिबद्ध नहीं हो पाती
शायद कोई लिपि बनी ही नहीं मेरे लिये
अबूझे शब्द अबूझी भाषा का अबूझा किरदार हूँ मैं
जिसके चारों ओर बने वृत को तोडने में
सक्षम नहीं कोई बहस
फिर भी मुगालता पाल रखा है
कर सकते हैं हम लिपिबद्ध
दे सकते हैं मौन को भी स्वर
बना सकते हैं एक नया व्याकरण
मगर क्या सोचा कभी
कुछ व्याकरण वक्त की शिला पर
कितना भी अंकित करो
अबूझे रहने को प्रतिबद्ध होते हैं
क्योंकि
होती ही नहीं संभावना
किसी भी भावना को लिपिबद्ध करने की
फिर भी बहस का विषय केन्द्र बिंदु हूँ मैं
भूत, वर्तमान और भविष्य को
कितना छानो छलनी में
बहस का ना ओर है ना छोर
और बिना सिरों वाली बहसें
कब मुकाम हासिल कर पाती हैं… सभी जानते हैं
क्योंकि
एक रुके हुये फ़ैसले-सी
आदिम पंक्ति की एक रुकी हुयी बहस हूँ मैं
जिसकी पूर्णता, सम्पूर्णता रुके रहने में ही है
इंसान और उसकी अभिव्यक्ति
तस्वीरें विचारों की
उग आती हैं जंगलों की तरह
और व्यक्त होती हैं
इंसानों की भीड में कमज़ोर क्षणों की तरह
क्षण जो होते हैं
कुछ भोगे हुए
तो कुछ नितांत अजनबी
जंगली घास की तरह
खरपतवार से उग आते हैं
और बिखर जाते हैं मानसपटल पर
कबूतरों के लिए डाले गए दानो की तरह
वहाँ नहीं होता इंसान
वो, जो ज़िन्दगी से लड़ता है
बोझिलताओं को ढोता है
और एक दिन अपनी
विवशताओं और संगदिली
में खामोश हो जाता है
वहाँ होता है वह
जो दूर खड़ा देख रहा होता है
पक्ष और विपक्ष ज़िन्दगी के
साक्षी बनकर
वहाँ वह होता है
जो जिरह कर सकता है खुद से
वहाँ वह होता है
जो कहने की हिम्मत रखता है
सत्य को कसौटी पर परखने की
देख रहा होता है संभावनाएँ
और तंगदिली के जिंदा सबूत
देख रहा होता है असफल होती
हताशाएँ, आकांक्षाएँ और उम्मीदों की झाड़ियाँ
देख रहा होता है
असफल कोशिश का असफल जीवन
कुंठाग्रस्त ज़िन्दगी का कुठाराघात
सह रहा होता है वेदनाओं के चुभते त्रिशूल
सीमाओं का अतिक्रमण न करने की चेतावनी
देख रहा होता है
आलोचनाओं की कंटकाकीर्ण शाखाओ से लिपटा
महत्त्वाकांक्षाओं का कालिया नाग
देख रहा होता है
खुद को पाक साफ़ दिखाता
और दूसरों पर कीचड़ उछालता ज़र्द सफ़ेद पाला
जो तबाह कर देता है खड़ी फसल को
देख रहा होता है
गौरैयों का किसी शाख पर बैठ कर चहचहाना
देख रहा होता है शिकारी का जाल बिछाना
गौरैयों को फुसलाना
जाल में फँसाना
और उम्र भर के लिए
पर कुतर कर पिंजरे में
कैद रहने की जहालत भरी ज़िन्दगी देना
देख रहा होता है
हर मोड़ पर खड़े
शिकारी के अस्त्र शस्त्र
और उनका दुरूपयोग करना
और मूक दर्शक बन जाना
अपने घोंसले को बचाने हेतु
और उससे उपजी
हताशा, वेदना, बेबसी
झंझोड़ देती है उसका अंतर्मन
क्योंकि देख रहा होता है वह
रोज रात्रि की शैया पर
निर्वस्त्र होती संभावनाओं की तारीखों को
जो न बदन उघाड़ सकती हैं
और न ही दिखा सकती हैं
क्योंकि आँचल के तले
होता है उनका अपना ही जिस्म
जो सिसक तो सकता है
मगर शब्दहीन ही रहना चाहता है
क्योंकि खुद को खुद
निर्वस्त्र करना आसान नहीं होता
देख रहा होता है वह
उन फुदकती चिड़ियों का शोर
जो गर कुछ कहने की कोशिश करती हैं
अपने को लहुलुहान करके भी
अपनी आत्मा के वस्त्रों को उतार कर
तो शातिर बाज आ जाता है
उन्ही पर तोहमतों के बवंडर लेकर
वर्चस्व कायम रखने की बेहतरीन
तरकीब का मसीहा बनकर
फिर चाहे खुद ही क्यों न रोज
वो द्विभाषी भाषा का प्रयोग कर जाता हो
मगर अपने वर्चस्व की खातिर
उसकी अस्मिता से खेल खुद को
पाक साफ़ दिखाने की विभत्सता का
नग्न तांडव देख रहा होता है वह
और एक दिन हो जाता है अभिव्यक्त
जो देखा होता है निरपेक्ष बनकर
जो जाना होता है साक्षी बनकर
न्याय की तुला बनकर
आँख पर पट्टी बाँधकर
कर देता है न्याय अपनी अभिव्यक्ति से
बिना कोई हील हुज्जत किये
और हो जाता है कसूरवार… सच कहने का
इतना कटु सत्य
आखिर कहने की हिम्मत कैसे हुयी
अभिव्यक्ति तो सिर्फ़ माध्यम है
प्रशंसा, मान-सम्मान पाने का
न की हकीकत बयान करने का
इतना शातिर सत्य हलक से कैसे उतरेगा
जहाँ पहले ही अपेक्षाओं, चाहतों की फाँस गडी है
कैसे स्वीकारेगा कोई तुम्हारा वस्त्रहीन निर्भीक सत्य को
आखिर साहित्य की भी एक मर्यादा होती है
और लांघने की जुर्रत सिर्फ़ स्थापितों को होती है
और शुरू हो जाती है चरित्र हनन की प्रक्रिया
फिर चाहे उसके लिए स्थापित चेहरे
हर मर्यादा का हनन क्यों न कर दें
फिर चाहे उसके लिए एक जीवित
सम्मानित व्यक्ति के मान और मर्यादा की
धज्जियाँ ही क्यों न उडानी पड़ें
उसके वजूद की चिंदी-चिंदी ही क्यों न करनी पड़े
वो खुद से ही शर्मसार क्यों न होने लगे
देशद्रोही, समाजद्रोही, चरित्रहीन
आदि उपनामों से उसका दोहन क्यों न होने लगे
नहीं फर्क पड़ता विषाक्त समाज के पुरोधाओं को
वर्चस्व की दौड़ में शामिल
नहीं जानते एक आम इंसान और उसकी अभिव्यक्ति के बारे में
नहीं कर पाते उसके वजूद और सोच को जुदा एक दूसरे से
और रख देते हैं आरोपों का पुलिंदा उसके सिर पर
सर झुकाकर जीने के लिए…
अव्यक्त को वयक्त करने की प्रक्रिया में
इंसान और अभिव्यक्ति कराह उठती हैं
विषमताओं के जंगल से
जहाँ
ना इन्सान रह पाता है
ना अभिव्यक्ति साँस ले पाती है
और लहुलुहान वजूद। इस प्रश्नचिन्ह के साथ
सलीब पर लटका खड़ा रहता है… अपने फ़ना होने तक
आखिर क्यों अभिव्यक्ति को इंसान का चरित्र मान लिया जाता है
क्यों नहीं ये स्वीकारा जाता
अभिव्यक्ति साक्ष्य है तमाम स्पर्शों का, स्पंदनों का,
जीवन के उतार-चढ़ावों का, विभत्सतताओं का
अनकही का, अबोलेपन का, वेदना की पराकाष्ठा का
और इंसान
आईना है, माध्यम है, जनक है,
अभिव्यक्ति की सूक्ष्म तरंगों को सही परिप्रेक्ष्य में दर्शाने का
आखिर सोच के मापदंडों के लिए कब सही कसौटियाँ बनेंगी
जहाँ खरा सोना खरा दाम पा सके…
देश, समाज, मानव के हित के लिए और ऐतिहासिक दस्तावेज बनने के लिए
एक चिंतन ज़रूरी है इस दिशा में भी?
खोज में हूँ अपनी प्रजाति के अस्तित्व की
मेरे जंगल का मैं
इकलौता वारिस कहो
या इकलौता लुप्तप्राय: प्रजाति
का आखिरी वारिस
खोज में हूँ अपनी प्रजाति के अस्तित्व की
खोज दिशाओं में होती तो हर दिशा छान मारता
खोज धरती में होती तो सारी धरती खोद डालता
खोज आसमान में होती तो सारा आस्माँ नाप मारता
मगर ये खोज तो अपनी प्रजाति के अस्तित्व की है
जिसका कोई पता ठिकाना नहीं
जो नहीं होकर भी है
और होकर भी नहीं है
और जब ऐसी खोजें की जाती हैं
तो स्वंय की मिट्टी को सकोरों में भरा जाता है
कुछ संवेदनाओं के पानी से भिगोया जाता है
बिना आकार दिये निराकार में खोज जारी रखनी होती है
क्योंकि
अस्तित्व की खोज में देह के स्पन्दनों का क्या काम?
अपनी लुप्तप्राय प्रजाति की आखिरी कलम बनने से पहले
इकलौता वारिस कहलवाने से पहले
खोज को प्रामाणिक सिद्ध करना होगा…
आत्मावलोकन की कसौटी पर कसकर…
स्वंय को विलीन करके
अस्तित्व को शाश्वत सिद्ध करना ही खोज की पूर्णता है
क्या मिलेगा मुझे वह बीज जिसके अंकुर उसके गर्भ में समाहित हैं… खोज में हूँ
तब तक गश्त पर हूँ मैं
मैं गश्त पर हूँ…
और गश्त पर निकले राही को
हर पल चौकन्ना रहना होता है
बेशक पता होता है मंजिल का
सड़क का और सफ़र का भी
फिर भी ना जाने कौन कहाँ से
कब वार कर दे
और कर दे धराशायी
आँख और कान का खुला होना ही काफी नहीं होता
दिमाग के कलपुर्जों को भी
काम पर लगाये रखना
और चलते जाना
आवाज़ लगाते या सायरन बजाते
मगर आवाज़ लगाने की या सायरन बजने की
प्रक्रिया में भी कहीं न कहीं
भयग्रस्त माहौल या अंधियारे की कोख में से
उपजा एक डर कहीं न कहीं सचेत रखता है
और पूछता है खुद से ही
ये किसे चौकन्ना कर रहे हो… खुद को
किसे आवाज़ लगा रहे हो… खुद को
चोर कहाँ है और कौन है… तुम खुद ही
कोई लकडबग्घा घात लगाये नहीं बैठा
जो है तेरा भीतरी शोर है
तेरे भीतर का अवचेतन ही तुझे सचेत कर रहा है
तेरे भीतर उमड़ी उपजी संत्रास्ता ही
तुझमे छुपे डर के चोर को चौकन्ना कर रही है
ये तेरी ही आवाज़ तुझे बुला रही है
ये तेरे ही दोहरे रूप तुझे डरा रहे हैं
ये तेरी ही परछाइयाँ तुझसे लम्बी हो रही हैं
वर्ना रात हो या दिन
अन्दर के चोरों को जिस दिन काबू कर लोगे
मंजिल पर पहुँच जाओगे
और गश्त भी पूरी हो जायेगी
मगर जब तक न अन्दर के चोरों को
समझने, पकड़ने और फिर उन पर
लगाम कसने की प्रक्रिया नहीं जान पाती
तब तक गश्त पर हूँ मैं…
क्योंकि ये ऐसे चोर हैं
जिन्हें हम जानते भी हैं
समझते भी हैं
मगर लगाम कैसे कसी जाए
कैसे उस पर काठी कसी जाए
और फिर कैसे उन पर सवार होकर चला जाए
जब तक ना ये भेद जान पाती हूँ
तब तक गश्त पर हूँ मैं…
यूँ ही नहीं आकलनों की पीठ पर फफोले होते हैं
जब भी उड़ना चाहा
कतरे मिले पंख मेरे
फिर भी हार नहीं मानी
की कोशिश जीजान से
और उग आये नए पंख मेरे
लेकिन फिर इतिहास दोहराया गया
क्या कमी थी मुझमे?
बस इसी प्रश्न पर मन मेरा अटक गया, भटक गया
खुद के आकलन के लिए
उठाये कुछ दिमागी बीज
कुछ दिली बीज
कुछ संवेदनात्मक बीज
कुछ बेदिली बीज
कुछ आलोचनात्मक बीज
कुछ क्रियात्मक बीज
और किया विश्लेषण
अलग अलग परखनलियों में डालकर
अलग अलग रसायन के साथ
शायद निष्कर्ष तक पहुँच जाऊँ
शायद कोई मार्ग दिख जाए
शायद किसी वेदना से कोई स्वर फूट जाए
भटकती क्रियाएँ कब संज्ञाओं का बोध करा पायी हैं
और कुछ क्रियाएँ तो कुएँ के मेंढक-सी
सिर्फ टर्र-टर्र करना ही जानती हैं
जो नहीं जानती सागर के मौसम का हाल
जो नहीं जानती उसमे उठती लहरों की रवानगी
जो नहीं जानती प्रसवोपरांत का सुख
क्योंकि उन्होंने नहीं देखा, नहीं जाना और नहीं माना
कुएँ से इतर भी कोई आकाश होता है
और थोप दी जाती हैं पुरातनपंथी मान्यताएँ
बिना स्वीकारे नयी पीढ़ी का दृष्टिकोण
और गर ना उतरो खरा उन क्रियाओं की संवेदनाओं पर
उनके दृष्टिकोण पर
उनकी बनायीं पगडंडियों पर
तो नकार दिए जाओगे
क्योंकि
जानना ही नहीं चाहा उन्होंने कभी
नए रासायनिक द्रव्यों का परिमाण
मगर छोड़ा उन्हें भी नहीं जा सकता
इसलिए चुप की बेल पर एक आकाश उगाने की सोच ली
कुछ बीजों में संवेदनाओं का जन्म नहीं होता
संवेदनाएँ पर्याय होती हैं उनका
उनके अस्तित्व का
और वह उड़ान भरते वह पंछी होते हैं
जो कहते है
सारा आकाश हमारा है
और हम इसके बाशिंदे हैं
आओ दोस्ती करो हमसे
आओ स्वीकारो हमें
ऐसी क्रियायें तो पूरा व्याकरण बोध करा जाती हैं
अपने सुरूर से, अपने गुरुर से
सब पंछियों के ह्रदयों में संवेदनाओं और उत्साह का संचार कर जाती हैं
और वक्त की तहरीर अपने आप
लिख देती हैं कुछ नाम आस्मां के पटल पर स्वर्णक्षरों से
और जब हिलाया आलोचना के बीज को
रासायनिक द्रव्य के साथ
एक सार्थक विश्लेषण उभर आया
क्रिया की प्रतिक्रिया ने जन्म लिया
सोच के अंधड़ पर जैसे तुषारापात हुआ
रुको, ठहरो और सुनो
गीत गाने से पहले सुरों का ज्ञान ज़रूरी है
और भवन निर्माण से पहले
संवेदना की ईंट का नींव में लगना ज़रूरी है
और सागर में उतरने से पहले
उसकी गहराई का ज्ञान ज़रूरी है
फिर नापना तुम आसमान के छोरों को
पकड़ना बहती अदृश्य डोरों को
लिखना नपे तुले शब्दों में बीजगीत समय के अंकुरों में
देखना… प्रवाह ज़रूर फूटेगा
एक अदृश्य तरंग पर रूह का नृत्य
रक्त, अस्थि और मज्जा से परे
घूँघट ज़रूर खुलेगा दुल्हन का
बशर्ते कोई बीन्द प्रेम की रागिनी बजाये तो सही
साँसों को महकाए तो सही
रूह में उतर जाए तो सही
धड़कन बन दिल में बस जाए तो सही
यूँ ही नहीं आकलनों की पीठ पर फफोले होते हैं
फिर चाहे वह इंसान का हो या उसकी कृति हो या उसका वजूद
उड़ान तो सिर्फ़ वक्ती हुआ करती है… प्रवास तो धरा पर ही हुआ करता है
मुझे तापमान मापना नहीं आता
मुझे तापमान मापना नहीं आता
मत पूछना कौन सा?
यंत्रों से मापना तो
एक बच्चा भी जानता है
और मुझे मापना है
दुनिया का तापमान
उसके अंतस्थ का तापमान
जिसमें हर सैकेण्ड में
लाखों कीडे कुलबुला रहे होते हैं
बेबसी के, बेज़ारी के
कभी समय की
तो कभी सत्ता की
तो कभी समाज की
तो कभी हालात की
और निरीह पशु-सा उसका अंतस्थ
गर्म तवे पर लोटता, सिंकता, भुनता
अपने वजूद से
अपने होने से
अपनी बेबसियों से
कितना बेज़ार होता है
कि खुद को ही नहीं स्वीकार पाता
फिर कैसे मापा जा सकता है तापमान
जहाँ मापने के लिये यंत्र की नहीं
सूक्ष्म अवलोकन की ज़रूरत हो
क्यों है ये बेगानापन ज़िन्दगी से
क्यों है ये अजनबियत खुद से
कारण तो बहुत मिलेंगे खोजेंगे तो
मगर उनके अर्थों में उतरने के लिये
गहरी डुबकी ज़रूरी है
ये मानव का
अवांछित तत्वों द्वारा
कभी राजनीतिकरण करना
तो कभी धार्मिक उन्माद से भयग्रस्त करना
और अपना परचम लहराना ही
शायद वह चक्रव्यूह है
जिसका भेदन वह कर नहीं पाता
फिर चाहे कोई देश हो
कोई परिस्थिति हो
कोई काल हो
बीज बोये हैं अपने-अपने क्षेत्र के
सिद्धहस्त कठमुल्लाओं ने
और बाँट दिया इंसानियत को
कर दिये टुकडे दिलों के
दिलों में उपजते प्रेम के
संसार में फ़ैले अमन के
नहीं चाहतीं कुछ उन्मादी
शरारती प्रवृत्तियाँ
इंसानियत और प्रेम के धर्म का प्रचार
फिर कैसे सिकेगी उनकी रोटी
कैसे होगा उनका प्रभुत्व कायम
चाहे इसके लिये
ईसा हो या सुकरात या ओशो
सूली पर चढाना
ज़हर पिलाना
जन्मसिद्ध अधिकार है उनका
और उनके आधीन
उनको ताकती इंसानियत
औंधे मूँह पडी दो गज़ ज़मीन के नीचे
समाने को विवश होती है
फिर कैसे ना बेज़ारी का गीत जन्म लेगा
फिर कैसे ना बेबसी के काँटे हर पल चुभेंगे
और वह आक्रोशित, उपेक्षित, अर्धविक्षिप्त सा
जो कोई भी हो सकता है
इस दुनिया के किसी भी कोने से
क्यों ना लावा लिये हर पल खौलता मिलेगा
कैसे मापा जा सकता है उसका तापमान?
क्या बेबसी, लाचारियों को भी मापने की कोई प्रणाली विकसित हुयी है
किसी भी प्रयोगशाला में
या बना है कोई यंत्र जो माप सके और बता सके
वो जो ज़िन्दा दिखता है, साँस लेता, चलता फ़िरता
क्या सचमुच वह ज़िन्दा है?
जो हर पल मरता है इंसानियत की मौत पर
जो हर पल मरता है अमन की मौत पर
जो हर पल मरता है प्रेम सौहार्द की मौत पर
कहो मापा जा सकता है उसके अंतस्थ का तापमान?
क्यूँकि वक्त की लिखी तहरीरें मिटाई नहीं जा सकतीं
मंदिर की सीढ़ी
पीपल का पेड़
एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
कोई खंडकाव्य का बीजारोपण
संभावनाओं के दुर्ग
नेपथ्य में चलता चलचित्र
मानसिक द्वन्द का मानचित्र
उथले सागर की सतह पर
मोती ढूँढने का उपक्रम
किसी भी धार्मिक चरित्र को पकड़कर
उसके कथ्य को पकड़कर
सहमत और असहमत होना
और फिर नया दृष्टिकोण देना
नयी परिभाषा गढ़ना
दृष्टि विभेद पैदा करना
आकुलता व्याकुलता के परिणामों से इतर
अपने मापदंड तय करना
समय के मापदंडों पर ना कसकर
अपने मापदंडों पर कसना
दिमागी उलझनों के साथ
भावों और विचारों की उहापोह
और फिर सबका गडमड होना
टूटे तारों को पकड़कर
नव सर्जन को आतुर होना
एक दिशाहीन काव्य का निर्माण करना
क्या वास्तव में साहित्य सर्जन हो सकता है
क्या ऐसे कोई खंडकाव्य बन सकता है
जहाँ सिर्फ़ अपना दृष्टिकोण हो
उस खण्ड की, उस काल की, उस परिस्थिति की
प्रत्येक अवस्था को अनदेखा कर दिया गया हो
और आज एक सन्दर्भ में उसे तौला जा रहा हो
देश, परिस्थिति और काल को अनदेखा कर
कभी खंडकाव्य या काव्य सर्जन नहीं किया जा सकता
नव निर्माण बेशक कर लो
मगर बीते काल की परछाइयों से मुक्त होने के लिए
ज़रूरी नहीं पात्रों को वहीँ से उठाया जाये
क्यों ना एक नया पात्र बनाया जाये
और आज के सन्दर्भ में उसकी उपयोगिता दर्शायी जाये
क्यूँकि वक्त की लिखी तहरीरें मिटाई नहीं जा सकतीं
मगर नयी तहरीर लिखकर
वक्त के सीने पर स्वर्णिम मोहर ज़रूर बनाई जा सकती है
अपेक्षाओं के सिन्धु
सुनो
अपनी अपेक्षाओं के सिन्धुओ पर
एक बाँध बना लो
क्योंकि जानते हो ना
सीमाएँ सबकी निश्चित होती हैं
और सीमाओं को तोडना
या लांघना सबके वशीभूत नहीं होता
और तुम जो अपेक्षा के तट पर खड़े
मुझे निहार रहे हो
मुझमे उड़ान भरता आसमान देख रहे हो
शायद उतनी काबिलियत नहीं मुझमें
कहीं स्वप्न धराशायी न हो जाए
नींद के टूटने से पहले जान लो
इस हकीकत को
हर पंछी के उड़ान भरने की
दिशा, गति और दशा पहले से ही तय हुआ करती है
और मैं वह पंछी हूँ
जो घायल है
जिसमे संवेदनाएँ मृतप्राय हो गयी हैं
शून्यता का समावेश हो गया है
कोई नवांकुर के फूटने की क्षीण सम्भावना भी नहीं दिखती
कोई उमंग, कोई उल्लास, कोई लालसा जन्म ही नहीं लेती
घायल अवस्था, बंजर जमीन और स्रोत का सूख जाना
बताओ तो ज़रा कोई भी आस का बीज तुम्हें दिख रहा है प्रस्फुटित होने को
ऐसे में कैसे तुम्हारी अपेक्षा की दुल्हन की माँग सिन्दूर से लाल हो सकती है… ज़रा सोचना!