हालात के लिहाज से ऊँचाइयाँ मिलीं
हालात के लिहाज से ऊँचाइयाँ मिलीं
लेकिन खुली किताब तो रुसवाइयाँ मिलीं
ज़िन्दा नहीं रहा कोई लाशों की भीड़ में
सरहद के पास क्या कभी शहनाइयाँ मिलीं
चलती रही हवा कभी बादल को देखकर
गर चल पड़ी तो फिर उसे पुरवाइयाँ मिलीं
रातों को गर चला कभी तन्हा नहीं हुआ
चलता रहा तो मैं मुझे परछाइयाँ मिलीं
कह के गई है फिर नदी कश्ती को छोड़ जा
सागर के जैसी फिर मुझे गहराइयाँ मिलीं
परों को काट कर सुनवाइयाँ करने लगा कातिल
परों को काटकर सुनवाइयाँ करने लगा क़ातिल
परिन्दे हैं बहुत मासूम यह कहने लगा क़ातिल
हज़ारों अधमरे सपने घटा की आँख से लेकर
किसी बारिश के मौसम में उन्हें रखने लगा क़ातिल
नदी को लांघकर जब सामने आया परिन्दा तो
इमारत की किसी बुनियाद-सा हिलने लगा क़ातिल
किसी की झील-सी आँखों में सपनों को बिखरते देख
उदासी ओढ़कर जज़्बात को पढ़ने लगा क़ातिल
किराए के घरों में क़ैद उन बीमार बच्चों के
दवा के खर्च का अनुमान कर हँसने लगा क़ातिल
हाथ में पत्थर उठाया आपने
हाथ में पत्थर उठाया आपने
आइना हमको दिखाया आपने
लोग मौसम से बहुत अंजान थे
शोर बारिश का मचया आपने
धूप में उतरकर आई चांदनी
जब कभी भी मुस्कराया आपने
लोग दीवारें उठाने लग गए
फ़ासले का गुल खिलाया आपने
अपनी तन्हाई से फिर आना पड़ा
गीत कोई गुनगुनाया आपने
कौन कैसा पता नहीं होता
कौन कैसा पता नहीं होता
घर में जब आइना नहीं होता
तीन मुंसिफ यहां हुए जब से
एक भी फैसला नहीं होता
सोचकर तुम कदम बढ़ाना अब
प्यार का रहनुमा नहीं होता
मैं वफ़ा करके भी कहाँ सोया
बेवफा रतजगा नहीं होता
लोग काँटे बिछा गए लेकिन
कम मेरा हौसला नहीं होता
तड़पते सिमटते जिए जा रहा हूँ
तड़पते सिमटते जिए जा रहा हूँ
मगर होठ अपने सिए जा रहा हूँ
न चाहत न दरपन न आंगन न दामन
कहाँ कुछ किसी से लिए जा रहा हूँ
चरागों से कह दो उजाला नहीं है
ज़हर तीरगी का पिए जा रहा हूँ
दुपट्टा मिला है मुझे भी किसी का
हवा के हवाले किए जा रहा हूँ
लिखा था कभी नाम मैंने तुम्हारा
सनम वो हथेली दिए जा रहा हूँ
मुहब्बत के कई दिलकश नज़ारे रोज़ आते हैं
मुहब्बत के कई दिलकश नज़ारे रोज़ आते हैं
चले आना मेरी छत पर सितारे रोज़ आते हैं
नहीं ईमान बिकते हैं कहा उसने मुझे साहब
मगर ईमान के कपड़े उतारे रोज़ आते हैं
भुलाकर भी नहीं तुमको भुला पाया अभी तक मैं
पुराने ख़त जो खाबों में तुम्हारे रोज़ आते हैं
अगर तुम दूर होते हो तुम्हें ये तो पता होगा
तुम्हारे आइने को हम निहारे रोज़ आते हैं
बढ़ा है कद हमारा आजकल शायद इसी कारण
शहर से गांव तक किस्से हमारे रोज़ आते हैं
ज़रा तुम बदलते
ज़रा तुम बदलते
मेरे साथ चलते
जो होती शराफत
न ऐसे उछलते
अगर मोम होते
कभी तो पिघलते
कड़ी धूप में भी
बराबर निकलते
ख़ुदी हैं मदारी
ख़ुदी से बहलते
थका-सा बदन है
थका-सा बदन है
नहीं पर शिकन है
तुम्हें क्या बताऊँ
मुहब्बत चुभन है
इसे लेके जाओ
ये मैला कफ़न है
मिलेगी इबादत
मेरी अंजुमन है
बहकना न छोड़ो
अभी तो चलन है
हवस परस्त है दिल का मकान ले लेगा
हवस परस्त है दिल का मकान ले लेगा
दिलों में रह के भी रिश्तों की जान ले लेगा
उसे तो फ़िक्र है अपनी ही हक़ परस्ती की
कभी ज़मीन कभी आसमान ले लेगा
लबों के झूठ को सच में बदलने की ख़ातिर
वो अपने हाथ में गीता कुरान ले लेगा
किसे पता था कि पैदल निकल पड़ेंगे सब
नया ये रोग ज़माने की शान ले लेगा
उसे यक़ीन न होगा मेरी वफ़ा पर तो
हंसी हंसी में मेरा इम्तिहान ले लेगा
कभी जुनून की हद से जो दूर जाएगा
वो अपने हक़ में फ़लक का वितान ले लेगा
हम दिल से मुहब्बत करते हैं
हम दिल से मुहब्बत करते हैं
कब यार अदावत करते हैं
अब दूर रहेंगे उनसे भी
जो लोग सियासत करते हैं
हर बार तुम्हारे ही अपने
कमज़ोर इमारत करते हैं
तुम माफ़ हमें भी कर देना
थोड़ी-सी शरारत करते हैं
कुछ दाग़ लगेंगे दामन पर
बेख़ौफ़ शराफ़त करते हैं
जब रातों की बांहों में खो जाता हूँ
जब रातों की बांहों में खो जाता हूँ
कुछ कुछ उनके ख़्वाबों में खो जाता हूँ
आंगन दर्पण दामन ये सब देखूं तो
अपने घर की यादों में खो जाता हूँ
मुझको मंज़िल मिलती है धीरे धीरे
मैं भी अक्सर राहों में खो जाता हूँ
मेरी सांसें ख़ुशबू-ख़ुशबू होती है
जब जब उनकी बातों में खो जाता हूँ
चलते चलते थक कर यूँ बैठूं जो मैं
पहले अपने पांवों में खो जाता हूँ
काम देगी नहीं दिल्लगी छोड़ दो
काम देगी नहीं दिल्लगी छोड़ दो
इस नए दौर में बन्दगी छोड़ दो
कल मिला आइना बोलकर ये गया
यार अपनी कहीं सादगी छोड़ दो
इक नया हो सफ़र हो नई रौशनी
है गुज़ारिश यही तीरगी छोड़ दो
कुछ परेशान हूँ एक दरिया मुझे
मुस्कुरा के कहा तिश्नगी छोड़ दो
आज हालात ऐसे मेरे हो गए
लोग कहने लगे ज़िंदगी छोड़ दो