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तुम आओ तो

तुम आओ तो
इतनी निष्ठुर रातें है
इन्हें जगाओ तो
तुम आओ तो
अंधेरों के भी अर्थ समझने थे मुझको
मेरी जिज्ञासाओं को पंख लगाओ तो
तुम आओ तो…
निस्तब्ध निशा में शब्दहीन अभिमन्त्रण से
मन के मंदिर मैं अगणित दीप जलाओ तो
तुम आओ तो…
पूर्वाग्रह से है ग्रसित सुबह कबसे मेरी
एक अंतहीन अभिलाषा उसे बनाओ तो
तुम आओ तो….
एकांत कभी तो सुखकर होता ही होगा
इसमें भी आकर गुपचुप सेंध लगाओ तो
तुम आओ तो …
बोझिल उनीदीं आंखे क्यों है खुली हुई
बन स्वपन समय का ही आभास
कराओ तो
तुम आओ तो…
छोडो भी वहम अगर दुनिया को होता है…
तुम हो, इतना सा ही संकेत दिखाओ तो
तुम आओ तो…

राक्षस पैदा नहीं होने चाहिए

कौन है गुनाहगार…
ब्रह्मा सृष्टि के जनक????….
या माता पिता???….दोषी तो गुणसूत्र भी नहीं है..
शायद….
फिर भी मेरा आभास ही…षड्यंत्र ..में लीन
हो जाता है…मेरे विनाश के..
जन्म हो भी तो…मैं साथ में लेकर आती..हूँ
कई सारी मजबूरियां….
ये न जाने किसने मुझे..इज्ज़त बना दिया..
रोज तार तार करने के लिए सरे आम सड़कों पर…
इंसान निर्वस्त्र ही तो पैदा होता है….
फिर भी चीर हरण में इतनी दिलचस्पी क्यों…
सब कुछ घूरता रहता है मुझे
गली, नुक्कड़…चौराहे रास्ते
यहाँ तक कि मेरा घर….सब कुछ
फिर भी मैं कभी उसे कोख में ही मारने की
हिम्मत नहीं कर पाती…
जिसने मुझे इज्ज़त बनाया…बस तार तार करने के लिए
काश चाणक्य से ही सीख लेती ….
कि कारण का समूल नाश ही समाधान है …
समूल नाश….गर्भपात चलता रहे……राक्षस पैदा नहीं होने चाहिए

मैं भारत हूँ

मैं भारत हूँ…
एक राजा एक वंश..एक राज्य….
निर्माण, उत्थान पुनरुत्थान
और विध्वंस झेलता ..
मैं भारत हूँ…
हिंसा-अहिंसा के पराक्रम-परिवर्तनों
से गुज़रता ..
चीर हरण की त्रासदियाँ समेटे
अपने अंतर-विरोध से खेलता
मैं भारत हूँ…
बदलते समय की उन्मुक्तता
से निर्वस्त्र, किंकर्तव्यविमूढ़..ठगा
चरमराती..दीर्घ आचरण अट्टालिकाओं
के मलबे में फंसा-दबा
मैं भारत हूँ…..
मैं भ्रमित हूँ
सत्य और असत्य के बीच
सुनकर मर्माहत शब्द..
देखकर सभ्यताओं की ऊँच-नीच
अर्थों-अनर्थो के मेल मिलाप…
फलते-फूलते अभिशाप….
चमकते अंधकार से…मौन प्रकाश की सहमति
मैं भारत हूँ ..
कराहते रहना ..
शायद यही है मेरी नियति…

अघोरी

‘साले तेरी …. की…..’
अघोरी ने शब्द निकाले
सबकी ज़ुबां पर पड़ गए ताले

वीभत्स चेहरा , तन पर राख
मदिरा में डूबी, आग उगलती आँख
गले में मानव खोपड़ी
छिन्न -भिन्न केश काले

कौन सा जीवन व्रत है ये
जहाँ केवल भय है
इनका सम्पूर्ण जीवन
दिखता घृणामय है

पर इससे भी ज़्यादा सत्य छिपा है
इनपर महादेव की कृपा है
ये जानते हैं आदि और अंत
जीवन पर्यंत
हाड मॉस केवल छलावा है
एक दिन भस्म हो जायेगा
ये सब भुलावा है
ये जब हँसते है तो भी वही है
रोते है तो भी वही है

ये विलीन हैं उस चैतन्य में
ये समाये हैं उस मूर्धन्य में
जो ज़मीन, आकाश, पाताल शेष है
जो शिव है सत्य है विशेष है

हे राम!

गर्दो गुबार में खो गए सारे नाम
बेच डाले कारोबारियों ने ढंग तमाम
मर्यादा तार-तार नंगा आवाम
पैदा होने वाला कहता है
हे राम !

क्यूँ ले आये मुझे जहन्नुम में
क्यूँ कर डाली मेरे जीवन की शाम
मैं भी डूब जाऊँगा इस सैलाब में
मिटाता रहूँगा तेरा नाम
हे राम !

तेरी मर्यादा यहाँ रोज़ तार-तार होती है
बेटी बाप के साथ रहने में भी रोती है
हर खंडहर, घर, महल लूटता है इज्ज़त
सिसकियाँ रह-रह कर घाव धोती हैं
महात्मा जूते खाते हैं, चोरो को होता सलाम
हे राम !

गाँधी किताबों, चलचित्रों में बिकता है
देखता है अपने आजाद नौनिहालों को, सिसकता है
कृष्ण भी डर कर छोड़ चुके हैं रण भूमि
कंस भी इतने कन्सो को देख झिझकता है
मार -कट लूटपाट भक्त करता है
नहीं है ये विद्वान रावन का काम
हे राम  !

तुम क्या हो 

धधकती दवात में, सुलगती स्याही हूँ,
इन आँखों की कलम से,
जुबान पर मेरा नाम ना लिखो,

मैं झिझकती हूँ, लूटी हूँ,
और सहती हूँ,
फिर भी कहती हूँ,
मुझे आवाम ना लिखो,

मैं फ़ैल जाऊंगी तुम्हारे सफ़ेद जीवन पृष्ठ पर,
मैं रौशनी हूँ सूरज की,
मुझे शाम ना लिखो,

मैं आंधी के साथ उड़कर
कब जला डालूंगी तेरा छप्पर,
राख़ में छिपी हुई चिंगारी हूँ,
मेरा काम तमाम ना लिखो,

बेहयाओ की तरह नोचते हो रात भर,
सुबह जाते हो मंदिर संत बन नहाकर,
तुम राक्षस कहलाने के काबिल भी नहीं,
यूं अपना नाम श्री…..राम ना लिखो !!

चाय 

कुछ कहने की हिम्मत
जुटा
स्वयं को ढाढस बंधा
सहमे, सहमे कदम
और मैं उन्ही पर खड़ी रहती
डरते डरते
जब भी कहती
डैड!

वो
हाँ कहो !
सुनते ही
लगता है
गर्म पिघलता लावा
कानो के पास से
गुज़र गया हो

उनकी आँखों के
बेशुमार प्रश्न देख कर
मेरी जिज्ञासा जो जानना चाहती
थी उनकी राय
तुरंत ले आती है चाय
अ-अ-आप चाय पियेंगे?

और मैं उबलना शुरू
कर देती हूँ
अपने ह्रदय की केतली में
अपने जीवन की चाय

भाप उड़ती है
ढक्कन खनखनाता है
कभी तुम्हारा तो
कभी डैड का चेहरा
याद आता है !!

इस चाय में तो मैं पत्ती, चीनी
दूध डाल रही हूँ
पर उस चाय को कौन बनाएगा
जिसे मैं कब से अपने मन में उबाल रही हूँ ?

आत्मबोध

विश्वासों के छिपे भुजंगों ने अब डसना छोड़ दिया है….
रोना मुश्किल ना हो जाये, मैंने हँसना छोड़ दिया है ….

तोड़ दिया है जाल समय का बिसरा कर सब पिछली यादें
ढीले-ढाले संबंधो को मैंने कसना छोड़ दिया है….

रंग बिरंगी दुनिया अक्सर ठहरा देती थी जीवन को
अनुमानों से गढ़े महल में, मैंने बसना छोड़ दिया है…

उम्मीदों के नए नए सुख अब कुछ डिगा नहीं पाते है..
फंसे फंसे से अरमानो में , मैंने फंसना छोड़ दिया है…

मृगमरीचिका

संबंधों से
सीखना चाहता था
जीवन जीने की कला
अनुभवी होती है
बूढ़ी नजरें, ऐसा सुना करता था अक्सर
आज भी….
रोकते रहते है कदम
अनसुलझे संबंधो के ताने बाने
और रह रह कर मन
उलाहने देता रहता है,
चरमराये संबंधो को अस्त-व्यस्त देखकर
फिर से मैं उठाता हूँ
घुटने टेक चुकी अदम्य इच्छाशक्ति को
ताकि कर सकूं पुनर्जीवित संबंधो को
अथक प्रयासों के बाद
यही समझ पाया मन
कि
तुम्हारे सब संबंधो का प्रारंभ भी
शरीर से होता है और अंत भी शरीर पर
जिन्हें मैं खोजता रहा हमारी आत्माओं में
क्षितिज पर सुबह और शाम की तरह …जो कभी मिल ना सकी

जिजीविषा

खूब कसरत कर रहा हूँ
धूप में भी मर रहा हूँ
भूख जितनी भी विकल हो
पेट भर का पी रहा हूँ
चित्र बनकर जी रहा हूँ….

सूत भर कर सूत धागे
उँगलियों में दर्द जागे
दो उनींदी आंख आगे
ज़िन्दगी यूँ सी रहा हूँ
चित्र बनकर जी रहा हूँ…

खूब सपने उग रहे हैं
और बारिश बो रही है
आज जैसा भी रहे पर
कल की चिंता हो रही है
हूँ वही.. जो भी रहा हूँ
चित्र बनकर जी रहा हूँ…

तुम और मैं

कसमसाते मन
को टटोलता मस्तिष्क..
निरंतर द्रुत गति से दौड़ता है
अंग प्रत्यंग..
बिना प्रयोजन..
दिशा हीन..
स्वयं की छाया से भी त्रस्त..
और ऐसे में उम्मीद
की किरण भी नज़र नहीं आती…
अगर समय रहते
तुमसे मित्रता नहीं होती…
स्वयं में निहित सभी शक्तियां
अपने ही चक्रव्यूह से निष्प्रभावी
तब तुम्हारा अवलोकन आंकलन ही
एक मात्र निर्देशक नियंत्रक बन
करता है अंतर्द्वंद का निराकरण ..
और मित्र तब समझ पाता हूँ
तुम तुम नहीं मेरा प्रतिबिम्ब हो..
“सत्य” ही है की
हम दो शरीर…. एक मन
और
एक ईश्वर हैं…

तरुण 

तरुण मैं
बोझिल अहसासों
की नीरवता
चमकाने की कोशिश करता

सुबह –सुबह
जंगल के बीचों -बीच बनी
ओंस से तृप्त पगडण्डी
पर तेज़ क़दमों के साथ

सांसो को
सावधानी से छोड़ते हुए
धीरे -धीरे
गिन गिन कर

ऐसा लगता है
पांव के पंजे
दौड़ा रहे है सारे शरीर को
चुस्त रखने के लिए
और पागलपन में
विलुप्त होते मस्तिष्क में
जबरदस्ती डाला जा रहा
हो ठंडा जमा हुआ
रक्त …..
छलछला उठे स्वेत बिन्दुओं जैसा

अब पंजे भी दुखने लगे है
जाते समय के साथ
मेरा भार ढो -ढो कर
जैसे वो भी तुम्हारे
साथ हो गए है
इस अनकही अनासक्ति में…..
मेरे दुखों से बिलकुल बेपरवाह

लेकिन ……
मैं आदि और अंत के बीच में
स्वयं को खोजता हुआ
तड़पता रहता हूँ
बीते वक़्त का
तरुण होकर

यादों के नीरव वन में …….
वृक्षों पर ढूँढता हूँ
एक अटके हुए सूरज
और
लटके हुए बादलों
की गोद में खेलते चाँद को ……
ताकि जिया जा सके …

पर अक्सर
सूखे हुए पेड़
याद दिलाते है
निष्ठुर अंत की ………
और मैं कोशिश करता हूँ
एक गंभीर मुस्कराहट
से चहरे की झुर्रियों
को तरुनाई देने की …..
तुम्हारी आँखों
के विस्तीर्ण सागर तट पर …….

विडंबनाओ के पत्थरों की
शब्दहीन, ठोकर
गिरा देती है
ओंस से भीगी पगडण्डी पर
मुंह के बल धूल को चुमते हुए

तब समझ आता है
आदि और अंत या
तरुनाई
सब यहीं मिल जाते है धूल बनकर
विवशता या मनुष्य की भूल बनकर

डंडा

हरे भरे पेड़
छाया के जनक
फलों के जन्मदाता
धरती के पोषक
शांत , सुंदर , शीतल
मधुकर ,
दधीचि की तरह लुटाने को तत्पर

और हम
गर्व और अहम् में डूबे
संवेदनहीन
विनाश ब्रह्म
लगाते हैं अपने पापी हाथ
और बना देते हैं उसे डंडा
एक डंडा
रुखा सा
सुखा सा
जो एक माध्यम बन करता रहता है अत्याचार
हमारे ही हाथों से
हम पर बार-बार
जिसकी कभी भी नहीं सुनी हमने चीत्कार
जो जब भी टकराता है
बहुत रोता और पछताता है
और पूछता है ईश्वर से “हे देव !
मुझसे आप ने क्या क्या करवाया
किसलिए आपने मुझे बनाया

और फिर देखता हूँ कि
उसकी नियति से अनजान एक उड़ती चिड़िया ने
धरती पर एक नया बीज
“गिराया “

पिंड दान

कुनबे सूक्ष्मदर्शीय
हो गए ..
चौपाल.. चौराहों में खो गए हैं…

दाई माँ..माँ से ज़्यादा करीब है..
सबसे ज़्यादा पैसे वाला ही
गरीब है..

सम्बन्ध मुखर हो हो कर
संभोग हो गए है..
बूढ़े माँ बाप
कालजयी रोग हो गए है..

रिश्ते गौण हो रहे है..
सीमायें मिट रही हैं..
महल ध्वस्त है..
हम झोंपड़ी बचाने मैं व्यस्त हैं..

तृप्ति है कहाँ..
बेटी की इज्जत लूट रहे है
बाप और
जन्मदायिनी माँ..

बिखर रहे है..ताने बाने..
अपने ही घरों में लोग
कैसे अनजाने..

सोचता है… ब्रह्म है स्वयं
आज का इंसान..
और कल शायद खुद ही करके जायेगा
अपना पिंड दान..

मेरा मौसम

मेरा जीवन
एक हवाई सफ़र
सा
तुम्हारे सहारे चलता
हुआ मेरे “पाइलट”

जहाँ मुझे
मालूम होता है
तुम्हारी
उद्घोशानाओं से
बहार के मौसम का
हाल ,
तापमान ,उंचाई , और आने वाले
मौसम की
बाधाएं

सीमायें हैं यहाँ
पांव फ़ैलाने की
टकराती हैं कोहनियाँ
कभी रिश्तों से
कभी अरमानों से
सोच कि “सीट” भी अपनी सीमा में
ही झुक पाती है

काश
मेरा जीवन होता
वो रास्तों में खङखङाता
रिक्शा !!
जिसमें बैठ कर हम दोनों
एक दुसरे को निहारते हुए
सुनते
खामोश उद्घोशानाओं को …

दर्द 

कर्राहती धमनियों में
चीखता रक्त
आँखों से टपकता
गर्म पानी
घुटती सांसों में
दम तोड़ती जुबान
दर्द है
बिल्कुल ठिठुरती ठंडक की
तरह सर्द है
हाँ ये “दर्द ” है

दर्द होना
कुछ देर रहना
फिर ख़त्म हो जाना
अपनी ही आव्र्त्ति में
यह है “सहना ”

कभी दर्द
महसूस होता है
जैसे कुछ परिचित से
नाम
जो आंसुओं के बीच
मुस्कुराते रहे
बताते रहे
दर्द श्वेत है ,
या श्याम

दर्द ,
ज़ख्मों का ,
बहुत मीठा है
हमने दिल पर
लगे गहरे घावों से
ये सीखा है
कि और कोई साथ नहीं
निभाता
दर्द
सुबह ,शाम ,
दिन ,रात ,कहीं भी कभी भी
चला आता है
भूल जाने पर विवश करता है
आंसुओं में मुस्कुराता है

दर्द
बार बार आता है
कुछ देर ठहरता है
चला जाता है
पर अक्सर आ जाता है

बेहतर है ,
तुमसे कहीं
जो हमको
अंधेरों में जीना
सीखता है
लूटता नहीं
लड़ने का नया
हौसला दे जाता है

परशुराम और मैं 

ये एक नया संवाद था
पिता और पुत्र के बीच
चल रहा विवाद था

तुम कैसे पुत्र हो
जो बार-बार मेरी खिल्ली
उड़ाते हो
मेरे बात नहीं
सुनते और
अपनी ही चलाते हो
परशुराम भी एक
बेटा था
जिसने बाप को क्या मान दिया था
आदेश मिलते ही माँ का सर काट
लिया था ,

ये सुनकर बेटा चुप हुआ
फिर मुस्कुरा के
बोला, डैडी जनता हूँ,
मैं भी परशुरामजी को मानता हूँ
वो सचमुच में समझदार थे
अपने पिता की योग्यता के जानकार थे
उनको पता था
अगर वो माँ का शीश उड़ा देंगे
तो उनके बापू पुनः जुड़ा लेंगे

अगर ऐसा विशवास
मेरा आप पर हो जायेगा
तो निश्चिंत रहिये
डैड
ये बेटा,
अपना ही शीष आपके क़दमों में
चढ़ाएगा

ये संवाद
बहुआयामी अर्थों से
भरा था
मुझे लगा बेटे का तर्क
बिल्कुल खरा था

हे सखा

हे सखा!
तुम सत्य जैसे
हो निहित
मन के प्रबल
आवेग में
जो ज्ञान को है
वो विदित
भूगर्भ और
पाताल मिलता है जहाँ
कुछ अर्थ खिलता
है वहां
सम्भावना
कितनी सरल
मन अमृत मंथन के
उपज , जितना गले में
है गरल
मैं भाव हूँ
तुम अर्थ हो
सन्दर्भ और सामर्थ्य हो
तुम हृदय
में सम्मान हो
तुम ही मेरा भगवान हो
तुम ही मेरा भगवान हो
तुम ही मेरा भगवान हो

वचन

वचन
नहीं क्षणभंगुर होते
मुझे सत्य तो यही ज्ञात था
अब हंसती हूँ सोच सोच कर
तत्व तुम्हारा
क्यों अज्ञात था

वचन भला सुख क्या दे सकते
क्षणभर जिनकी याद रहे ना
संकट था आसन्न यही तो
दोष तुम्हारा प्रिये कहाँ ..

नहीं वचन वो स्नेहिल मन था
जिस पर मैंने जग वारा था
कितने वचनों से बंध -बिंध कर
टूट गया सुंदर तारा था

वचन दिए थे जो भी तुमने
आधिपत्य का क्षणिक भावः थे
पार उतरती नाव कहा वो
जिस पर सागर के प्रभाव थे

फिर भी तो संतोष तुम्हे हो
मान मान कर हार गयी मैं
वचन रहे मिलते जीवन भर
सत् बल था जो पार गयी मैं

वात्सल्य

तूलिका ने रंग से वात्सल्य क्या
अद्भुत उकेरा,
अंक में ले स्नेह, ममता
मुदित दृग करते सवेरा

और आश्रय कौन जिसमें
सहज और इतना स्वाभाविक
किरन पुंजो में समाता
हो घना कैसा अँधेरा..
तूलिका ने रंग से वात्सल्य क्या
अद्भुत उकेरा,
जन्म, जन्मा जननी से
जीवन सुफल जिस प्रेम से है
ढूंढते है देव किन्नर उस
चरण रज में बसेरा
तूलिका ने रंग से वात्सल्य क्या
अद्भुत उकेरा,
क्या महल अट्टालिकाये
क्या भवन सुंदर अनोखे
एक आंचल में तेरे
सारा बसा संसार मेरा
तूलिका ने रंग से वात्सल्य क्या
अद्भुत उकेरा

मैं जीना चाहती हूँ

मैं हवा की
मानिंद हूँ
तुम जान कर भी
नहीं समझते
बंद करना चाहते हो मुझे
इन
लक्ष्मण रेखाओं
में……..

भाव को व्यक्त
करने की विधा से
खीचना चाहते हो
मेरा चित्र
जानते हुए भी की
मैं हवा की मानिंद हूँ……..

ये सृजनशीलता
स्वप्नलोक ,शब्द और ज्ञान
तुमको
संतुष्टि देते है
और ये अभिमान
कि तुम मुझे रच रहे हो
ये जानते हुए भी
कि..
मैं हवा की मानिंद हूँ…..

मुझे कोई आपत्ति नहीं
तुम मुझे जिस तरह
चाहो कैनवास
पर उतारो
पर मुझे अपने महलों में कैद
कर मत मारो…….

मुझे तुम्हारी सुडौल
मूर्तियों की तरह रहना पसंद नहीं
मैं एक अनजान शिशु की
हंसी बनकर जीना चाहती हूँ
सबके समग्र भावो को पीना चाहती हूँ
मैं कविता हूँ
बन्धनों में निष्प्राण…
अभ्यस्त हूँ
निर्बाध आवागमन की
अब अपनी आज़ादी
और…
उन्मुक्त होकर
जीना चाहती हूँ…

आने वाला कल

शायद कुछ वर्षों बाद
राह तो होगी
पर सफ़र नहीं होंगे
दर्द तो होंगे
पर असर नहीं होंगे
शायद
कुछ वर्षों बाद

हवा बाज़ारों में बिकेगी
सांसों के लिए लोग लडेंगे
दूध की जगह
आंसू पी पी कर
बच्चे पलेंगे , बढ़ेंगे
शायद
कुछ वर्षों बाद

रिश्ते तो होंगे
मगर अहसास नहीं होंगे
दो लिपटे हुए बदन भी
एक दुसरे के पास नहीं होंगे
शायद
कुछ वर्षों बाद

प्यास होगी ,पर प्यार नहीं होगा
शब्द होंगे ,मगर सार नहीं होगा
समय भी होगा , संघर्ष भी होगा
सत्य होगा मगर आधार नहीं होगा
शायद
कुछ वर्षों बाद

हम आज के इस विकास से कल का विनाश लायेंगे
गर्मी तो गर्मी , बदन बर्फ से जल जायेंगे
न पेड़ होंगे , न छाँव होगी
हम अपनी आने वाली सभ्यताओं को
हवा और पानी भी नहीं दे पाएंगे
शायद
कुछ वर्षों बाद

एक अर्जुन मैं भी

हे कृष्ण
तुमको सत्-सत् प्रणाम कहता हूँ
कुछ मेरी व्यथा भी हरो नाथ
मैं भी बहुत व्यथित और विचलित हूँ
मैं भी अर्जुन हूँ
जिसका कोई रथ नहीं
कोई सारथी नहीं
जिसके पास न तो गांडीव है
न ही भीष्म पितामह और
न विदुर काका कहीं
मेरे पास न तो पांच महाबली भाई है
न ही मैंने द्रौपदी, सुभद्रा जैसी पत्नी पाई है
न ही मैंने इन्द्र और देवताओं से
वरदान लिए है
न ही आपने मुझे गुरु द्रोण दिए है
मुझे महयोद्हायों के बिना
अकेले आपने खड़ा कर दिया है
इस पार
नज़र उठा कर देखो मधुसुदन
क्या क्या खड़ा हैं मेरे सामने
मुझसे युद्घ करने को तत्पर और तैयार
उस पार…

मैं एक दिल हूँ

मैं एक दिल हूँ
प्यारा दिल हूँ
सांसों में रहता शामिल हूँ
मैं एक दिल हूँ
प्यारा दिल हूँ
हँसता हूँ मैं
कोई न रूठे
सुंदर सपने
कभी न टूटे
उड़ती है जो आसमान में
उन आशाओं की मंजिल हूँ
मैं एक दिल हूँ
प्यारा दिल हूँ
जाग उठेंगे
जो सोचेंगे
बहते आंसू
हम पोछेंगे
मुझ से मिल कर जी उठोगे
सागर का ठहरा साहिल हूँ
मैं एक दिल हूँ
प्यारा दिल हूँ..
दिल पावन निर्मल होता है
दिल से धर्म जगत में जीता है
दिल ही है कुरान हमारी
दिल ही गुरु ग्रन्थ , गीता है
मुझको जीतो मुझको जानो
क्या क्या करने के काबिल हूँ
मैं एक दिल हूँ
प्यारा दिल हूँ…

जीवन क्या तुम भी

जीवन तुम आड़े – तिरछे से
क्यों चलते हो
क्यों उगते हो यहाँ वहां
जब भी जी आया
पलक झपकते बिना बताये
क्यों ढलते हो
जीवन तुम आड़े तिरछे से
क्यूँ चलते हो

क्यूँ करते हो उद्दघाटन
नित नयी राह का
क्यूँ प्राणों में मोह मिलकर
जल भरते हो
जीवन तुम आड़े तिरछे से
क्यूँ चलते हो

क्यूँ उड़ते उन्मुक्त गगन में
जब तब यूँही
बेबस से पलभर में
क्यूँ भू पर गिरते हो
जीवन तुम आड़े तिरछे से
क्यूँ चलते हो

खुद देते हो रोज दिलासा नए होसले
क्यूँ पल भर में क्षण भंगुरता से
डरते हो
जीवन तुम आड़े तिरछे से
क्यूँ चलते हो

शाश्वत से संयोग बनाते हो मेरे संग
और मौत के हाथ मुझे,
मुझसे हरते हो
जीवन कभी कहो तो..
क्या तुम भी मरते हो ??
जीवन तुम आड़े तिरछे से
क्यूँ चलते हो

दरकते उजाले

खाली मैदान
के बीच होती रहती है खट- पट
खोदता रहता हूँ
अपनी किस्मत
और फिर पसीने की बूंदों
से करता हूँ उम्मीद
उगने की मोती बनकर
जो अक्सर बिखर जाते है
आंधियों के थपेड़ों से और
वाष्पित हो जाते है/ मेरी इच्छाओं को
जी भर भिगोकर.
झक्क दहकती दुपहरी में भी
पसरा रहता है मेरी देहरी पर
अँधेरा
दुनिया जलाती रहती है
कहीं दूर रोज नए नए चिराग
हमारे लिए
फिर भी निश्चिन्त होकर
अंगडाई लेता है घनघोर अँधेरा
और स्वपन मष्तिष्क में अंकित हो जाते है
भित्तिचित्र बनकर
मीलों दूर खड़ी रौशनी को देखकर
टस से मस तक नहीं होता/

रौशनी
जो न कभी आई और न ही आयेगी
शायद हम सूरज नहीं
चंद्रमा बनने की कवायद में जीते रहे अब तक…
और हक़ भी नहीं रहा हमारा
एक अदद
भोर की उजली किरण पर..

मेरी प्यास एक बूँद

मैं ढूंढ़ रही थी
कुवाँ कोई
और मुझसे सागर टकराया
मैं बूंद बूंद
प्यासी अब तक
उसने जी भर जल बरसाया

मैं लौट रही थी
एक आँगन
वो नील गगन में लहराता
मैं मंदिर मंदिर
नत मस्तक
वो खुदा खुदा बन इतराता

खलिहानों खेतों में
मैं थी
वो बाढ़ -बाढ़ बन कर आता
मन के लहराते पौधों को
संग बहा -उड़ा कर ले जाता

अब मेरे निर्जन
घाट देख कर
सबको ऐसा लगता है
सागर के चरणों में रहकर
अस्तित्व ह्रदय भी खोता है

तुम छोड़ मुझे
लेकर लहरें
एक नयी दिशा में जाते हो
फिर फैला अपनी बाँहों को
एक गंगा नयी डुबाते हो

पर सत्य कहूं
तो ऐसा है
मिटने का भाव ये जैसा है
घर -बार छोड़ कर जग सारा
पागल फिरता मारा -मारा
नदिया देती है मीठा जल
सागर करता उसको खारा

बन नदी रही होती अब तक
तो खारे अश्रु न टपकती
अधरों पर प्यास लिए ,
सागर तट पर ,
क्यूँ प्यासी रह पाती ?

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