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विपिनकुमार अग्रवाल की रचनाएँ

सृजन और अनुवाद

सृजन और अनुवाद के बीच

स्थिति बड़ी अजब सी होती है

कुछ सिर के बाल बढ़े और कुछ

दाढ़ी बढ़ी सी होती है

अज्ञेय

उनसे कई बार मिला

बहुत-सी बातें कहीं

पर संकोच में

या बुद्धिमानी की ओट में

वे चुप रहे

महज़ कहा

हूँ, हाँ और एक नहीं

(रचनाकाल : 1957)

बहुत बड़े देश में

मैंने

बहुत बड़े देश में

बहुत बड़े वेश में

बहुत बड़े-बड़े लोग देखे

और बड़प्पन का महत्त्व खो दिया ।

(रचनाकाल : 1957)

पश्विम पर एक आक्षेप 

कल यहाँ विस्फ़ोट होगा

प्रकृति के अन्तिम रहस्य का

कल परिचय देगा मानव फिर

अपने खोखले कुँवारेपन और बर्बरता का ।

समझ लो यह शहर की अन्तिम सांझ है

फिर भी न जाने क्यों सब चुप और शान्त हैं

ठोढ़ी छुपाए, कंधे झुकाए, भीड़ की हर इकाई

पास आते कलुषित भविष्य की पहचान है ।

एक मोटा आदमी अभी से

रेशमी कपड़े पहन अपने को

तिजोरी में बन्द कर बैठ गया है

नोटों की गड्डियाँ शायद बालू का काम दें ।

बैंक का क्लर्क उदास फटी-फटी आँखों से

अपने बीबी-बच्चों, मेज़-कुर्सियों और

कोने में रखे नए टेबिल-लैम्प को देखने में मशगूल है

सबको ढके एक किराए का कमरा है

जब अपना मकान बनवाने की कल्पना की थी

सोचा था उसमें तहख़ाना भी होगा ।

मिल की गहराइयों में अब भी

चीड़ की बड़ी-बड़ी पेटियाँ इधर से उधर

हटाई जा रही हैं और ढोनेवाला मज़दूर

अपने काम में रोज़ से अधिक संलग्न है ।

एक इंसान ने यह सब देखा और आँखें मूंद लीं

शायद वह जानता था कि आज और कल में

एक रात और एक स्थिति का ही अन्तर है

उसने महज सोचा, इतिहास के अन्तिम पृष्ठ पर लिखा भी नहीं–

इतनी बड़ी संक्रामक जड़ता की उपस्थिति में ही

ऎसी पाशविक और बेशर्म कृति की संभावना पल सकती है ।

(रचनाकाल : 1957)

हर पीड़ा का अन्त सृजन

हर पीड़ा का अन्त सृजन

चमत्कार

ईश्वर-सा

फिर

प्रश्न

प्रकाश और छाया के बीच

यह कौन ?

मैं–

मानव! एक और…

क्या अभी कुछ और कहना शेष है

कुछ बाक़ी है जो तुमने रौंदा नहीं, क्या

तुम्हारी जिज्ञासा पर बली होने से कुछ रह गया

…हो तुम

जाओ, अपने को दुहराओ

प्रकाश और छाया के बीच

तुम हो

जिन्हें कुचलने में

असमर्थ !

धरती और आकाश सींग से फैले हैं,

उनके बीच

यह कौन ?

मैं…

बुद्धि !

…तुम हो

जाओ, दिगभ्रान्त भटको

बेतहाशा दौड़ो

पकड़ने अपने सींग की

झुकी नोक को

जाओ,

क्षितिज, प्रकाश और छाया के बीच

ओ मानव, ओ बुद्धि

मुक्ति चाहो तो ढूंढो

आत्मा को !

कहाँ ?

पीड़ा में

सृजन में
ईश्वर में

फिर

चमत्कार

फिर

प्रश्न

आलमारी में इत्मीनान से अख़बार बिछा कर 

आलमारी में इत्मीनान से अख़बार बिछा कर

चारों दीवालों पर टंगे कैलेंडरों में

वही साल, वही महीना, वही दिन और तारीख़ देख

ताज्जुब में डूबे हुए गोपीनाथ ने

सहसा आर्द्र होकर एक बार फिर

अपनी पत्नी को अंगीठी सुलगाते देखा

और सोचने लगा

किसने पहली बार बनाया

इन औरतों का तम्बू-सा साया

अगर कभी खुलकर यह पाल-सा फहराया

तो जहाज की तरह तैरेगी यह एशिया की काया

तरल हो उसका अपना ही तन बेरोक-टोक लहराया

अरे, सुबह-सुबह यह कैसा

कवियों-सा मन में ख़्याल आया !

यूँ ही छोटे-मोटे अनुभव हैं

ऊबड़-खाबड़ भाव हैं

वैसे मन लगाने को

तनिक पढ़ा-लिखा कहलाने को

यह कविता

यह उपन्यास है

तभी गोपीनाथ को याद आया

किसी का कहा कि संसार है माया

वह मन-ही-मन मुस्कराया

हवाई-चप्पल पहनी

आसपास से नाता तोड़ा

सबकी खै़र मांगता हुआ

बीच बाज़ार उतर आया ।

(रचनाकाल : 1965)

एक और मिली हुई कविता

यह रोशनी क्यों चमक रही

ये आवाज़ें क्यों आ रहीं

लगता है हमारे गाँव में

नेता आ रहे, आ रहे

ये कौन हैं

पूछो मत

कहाँ से आए

पता नहीं

कहाँ जा रहे

वे ही जानें

कैसे हैं

सफ़ेद कपड़े पहने

मूँछें लगा होठों को ताने हुए

बढ़े आ रहे

बढ़े आ रहे

बदमाश पुरोहित से कह दो मंदिर में शंख बजाए

बेचारे मास्टर से कह दो अपना पाठ पढ़ाए

बीमार होरी से कह दो अपना हल चलाए

भूखे कवि से कह दो अपना गीत गाए

मन्दिर में बिना रूके

पाठशाला में बिना मुड़े

खेतों को रौंदते हुए

सब जानते हुए

इधर आ रहे

इधर आ रहे

अब और इन्हें क्या चाहिए

अब हमारे पास बचा क्या है

अब हम कितने कम रह गए हैं

देखो तो पास कितना आ गए

अरे, यह सामने लाल आँखों वाले

पहले पुरोहित थे

ज़रा पीछे रंगे होठों वाले

मुझे मदरसे में पढ़ाते थे

दाहिने देखो, ऎंठा-सा चलता हुआ

पहले खेत का सुक्खू है

इन सबको क्या हुआ, क्या हुआ

कुछ नहीं

ये हमारी योजनाओं के फल हैं

पिछले वर्ष हमने संसार में

सबसे ज़्यादा नेता पैदा किए

इन्हें देखने के लिए

दूर-दूर से लोग आ रहे

फिर तुम क्यों डर रहे

डर रहे

अरे यह क्या

तुम भी नेता में

शनै: शनै:

बदल रहे

बदल रहे ।

बादशाह

मैं जब बीमार पडता हूँ

सबको बहुत डाँटता हूँ

हर कोई मेरी डाँट

ख़ुशी ख़ुशी सह लेता है

मेरे कहते ही हर कोई

सब काम छोड देता है

फिर थककर जब सो जाता हूँ

और सोकर जब उठ जाता हूँ

तब लगता है इस दुनिया में

बादशाह बनने का विचार सबसे पहले

किसी बीमार आदमी को आया होगा।

कविता

मौसम सा प्‍यार था
अखबार की खबर में
बात-सा समय कट गया
आंख हैक्‍ कि उठाकर देखा मैंने
तो वहां कोई नहीं था
सिपाही-सा खड़ा रहा चलती सड़क पर
चारों दिशाएं देखीं मैंने घूम-घूमकर
किसी को मैंने ढूंढा नहीं
कोई नहीं मिला।

विदाई-सा तुम्‍हारे साथ हूं
सिग्‍नल तक हिलता हुआ हाथ हूं
एक झूठ-सा ही मेरा अस्तित्‍व रहा।

बच्‍चों के स्‍कूल में, भरे कॉफी हाउस में
जिंदा हूं अभी मैं शोर-गुल सा
कभी अगर बैठे-बैठे लगे हाथ तुम्‍हें
सफैद घोड़ों का उड़ता हुआ रथ
परियों से घिरा हुआ इधर से गुजर गया
जान लेना मैं अपना
चलते-चलते आभार प्रकट गर गया।

सुबह का दृश्य 

दूर से
चली आ रही
सदियों से
इतराती
ढोती
हर सुबह
सूरज-सा चमकता
पानी भरा
सिर पर धरा
कलसा

नीले आकाश में बादल
लगता है
माँ की गोद में हो
बच्चा

गोरी हैं गंगा
काली जमुना
फिर कौन हो तुम
गेहूँ-सी
दोनों के बीच

सारा दृश्य
झाँकता
अलसाई सुबह में
विलासिनी के
अंगों-सा।

आज की दोपहर से अतीत तक

हरी कोमल पीपल की पत्ती
झाँकी पत्थर के आँगन की दरार से
हँसते मालिक के सफ़ेद दाँत-सा
आलोकित हुआ नौकर का दुबका मन

यह क्या
जलने लगी
धूप
जैसे मौत की हँसी

घूमी पृथ्वी
फिर से
ग्रह और नक्षत्र
बदलने लगे घर
हिला आसन
इन्द्र का

डगमगाई पृथ्वी
संशय से
बीत गई उम्र
हम सब की
बनने में अतीत

दिन ढले

चलें
मिलें सब से
करें बात
हँस-हँस के
जहाँ साँझ बिखरी
सागर किनारे
खुले आँगन पसरी
दिए की रोशनी-सी

जिज्ञासा के उत्तर में जिज्ञासा मिली

यह शहर
बसा संकल्प धरती पर
करता रूप ग्रहण
सबके लिए अलग-अलग
यहाँ साइकिलें मोटरें अट्टालिकाएँ
उपस्थित अना की तरह

जगह-जगह
फुरसत में
बाँके चार
डोलते डिब्बे में
उतरवाते जेवर
बतियाती औरतों के

दिन मुरझाने को है
रात भी ढँक नहीं सकती
इस नगरी की
अपूर्व आभा
द्रुतगतियों में स्थापित करती
विशाल अभिव्यक्ति अमूर्त युग की
समय की बात मत पूछो
आज भी इसकी ओढ़नी पर
कढ़ रहा है इतिहास
जगह-जगह

देखो

तट है जैसा
होता है समुद्र का

पाँव
छोड़ते थे जो चिन्ह
रेत पर
डूब गए हैं गहरे
यह
किनारे पर
आई लहरें
किन गतियों की
पहचान है।

यह गली वैसी
जैसी किसी शहर की

मटियाली हवा में
तैरती मछलियाँ
जुड़वाँ
ढूंढ़ती हैं
आज भी
पीले पत्तों में नवीन पल्लव
नग से जड़ी
राजा की अंगूठी

अभिलाषा पूरी करने वाली
कैसी भी आश्वस्ति
कोई परिचित भंगिमा
बाज़ार में घूमता
वनवासी साथी
मृगशावक-सा
और यह रहे
शाश्वत चिन्ह–

स्वप्न के पीछे
छुपे यथार्थ का
प्रिय रहस्य
मन्दिर के विलास में
प्रतिमा
पावन
रंग बदले
वत्सल पयोधर
आँचल तले

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