सभ्यता का ज़हर
सुबह की
भाषा में
कोई प्रदूषण नहीं है
सुबह की
हवा
पेड़ों को
बजा रही है
सुबह की
भाषा में
ताज़े पेड़
पहाड़ों से
तराना
सीख रहे हैं
सुबह यहां
कोकाकोला की
भाषा में
ज़हर नहीं आया है
सभ्यता की मरी
हुई भाषा का फिर भी
ज़हर
फ़ैल रहा है
दिल में
दिमाग में ।
झूठ
ट्रेन में
खाली गलियारे में
दौड़ती बच्ची ने
अचानक पूछा
‘दादी जी,
धूप कहाँ रहती है?’
‘जंगल में।’
‘जंगल में कौए क्या खाते हैं?’
‘अमरूद।’
‘अमरूद पक जाने पर
जंगल क्या क्रता है?’
‘गिलहरी के साथ खेला करता है।’
‘दौड़ती गिलहरी जब थक जाती है, दादी जी,
वह कहाँ सोती है?’
‘दादी की गोद में।’
‘भकऽ
झूठ, दादी तो मेरी है।’
ट्रेन के बाहर
जंगल ऊंघ रहा है
धूप दादी की गोद में
सोई है थकी हुई
बच्ची के साथ।
अकेला मैं गिरूंगा
मैं अकेला पेड़
जब जंगल में
गिरूंगा।
धूप मुझ को
अपनी खुली छाती में
सुलाएगी।
पर्वत सुबह देखेगा…
अनमने जंगल को।
पेड़ की हरी चादर
मुझ पर
गिराएगी हवा।
गिलहरी
जब तक
उछलेगी मुझ पर।
धूप
फिर सारे दिन
बढ़ई को,
किसान को,
बच्चों को,
औरतों को
कहानी सुनाएगी
गिरे हुए
पेड़ की।
मैं और संगीत
मैं न संगीत हूँ
न हूँ नदी।
फिर ध्वनियों की इस
सभ्यता में
मैं क्यों
सूर्य में,
और सूर्य
नदी में रूपान्तरित हो रहा है!
संगीत की पूरी त्वरा में।
मैं नाच रहा हूँ।
लय की थाप पड़ रही है।
नृत्य के घेरे में
पति का हाथ थामे
बहू नदी बन गई है!
उल्लास के घेरे में
मैं संगीत की धमक हूँ।
बताना मेरे
दौर के कलाकारो!
लहरों के रंगमंच में
कहाँ है सूर्य!
कहाँ है नदी!
ध्वनियाँ
सभ्यता में
किसे रूपान्तरित कर रही हैं!
मैं न सूर्य हूँ।
न नदी।
नई पीढ़ी संगीत को
अभिनय का कौन
पाठ सिखा रही है।
दोपहर : दो चित्र
पढ़ाई
पेड़ों ने
कुछ नहीं लिखा है
जिसे मैं पढ़ सकूं!
चिडि़या ने
धूप से कहा है
कुछ
जिसे सिर्फ
सरसों ने पढ़ा है।
आकाश के आगे
रख दिया है
मैंने
आज की डायरी का
पन्ना
आकाश ने
उसमें सिर्फ
बिजली के
खो जाने का
गीत लिख दिया है।
पसरा हूं मैं
कबीरदास
चटक रंग के दुपहिरया के
फूलों से मिल रहे हैं।
दुपहिरया के
एक-एक फूल
सुना रहे हैं अपनी-अपनी
कबीरदास को
दोनों के बीच
मैं पसरा हूं खुले रंगमंच पर
रंगमंच पर
कवि और पाठक बैठक
साखी के शब्द-शब्द का
अर्थ खोल रहे हैं।
देखना देश को
देखना
देश को !
फिर बतलाना :
कितना कौन बदला है !
कितना कौन पिछड़ा है !
देखना देश को
फिर-फिर इतिहास में
अमेरिका के नीचे या पीछे खड़े
भारतवर्ष की
कहानी बतलाना :
चीन या
क्यूबा के जन-जन को ।
रचनाकाल : 2003
बाज़ार से कबीर चले गए
कबीरदास
उठे और घूम आए
चमरौटी तक ।
जहाँ पीट रहा था आदमी
अपनी ‘कुलच्छनी’ पत्नी को ।
कबीरदास ने
आदमी को दी
पत्थर की नाव और
कहा : ‘नदी पार कर लौटना
तब तक कुलटा या कुलच्छनी
आँगन बुहार लेगी
कपड़े फीच लेगी
रोटी पो लेगी
और तुम्हारा इंतज़ार करती रहेगी… ।
आदमी ने
पत्थर की नाव पानी में उतारी
पर नाव जलसमाधि लेने लगी
उसके साथ…
कबीरदास को
मैंने देखा
मुख्य चौराहे पर चौपड़ बिछा रहे थे।
हँसा मैं :
‘यह अरघ-उरघ बाज़ार है कबीर ।’
कबीर ख़ूब हँसे
चौपड़ पर गोटी नहीं
एक आदमी था, दूसरी थी औरत ।
दोनों का खेला
बाज़ार में देख रहे थे बेज़ुबान लोग !
कबीरदास ने कहा :
‘खेलो तुम भी, हाँ विचार कर खेलना ।’
देखते-देखते सब,
कबीर बाज़ार से चले गए दूर…।
रचनाकाल : 2004
इस आशुफ़तासरी का
अपने सामने खड़ा करो मुझे
मीर !
और मेरी मज्जा को उधेड़ो ।
मेरी साँसों की रहट को
खिंचते हुए देखो मेरे समय को… ।
ख़ामोशी की हद पर हँसते हुए
मैं सिर्फ़ तुम्हें देखता हूँ
मीर !
कटघरे में रोज़ खड़ा होता हूँ
और लौट आता हूँ
बेज़ुबान ज़ोफ़ में !
मुझे अंतरालों का बोध है
घर में जहाँ
जले बर्तनों-सा इंतज़ार करता हूँ
साफ़ होने का ।
बाहर बाज़ार में अनबिकी रचनाओं
के अंबार में
कबाड़ी का ।
या आलोचक का ।
या अपने भीतरी विवेक का !
हर अंतराल मुझे
तुम्हारे सामने उधेड़ता है मीर !
और साँसों की रहट से
नापता है मेरे समय के जल को !
देश के किसी भी सूखे हिस्से में
मेरा जल बहा दो मीर !
और मुझे अपने सामने खड़ा करो !
रचनाकाल : 2002
आज
जहाँ
फूल नहीं उग सके
मैंने
चट्टानें बो दी थीं
अब
उन चट्टानों में
फूल आ रहे हैं ।
सहजन
डाल सहजन की
फूली
मन अकेला
खिले मेरा
झुका लो
तोड़ो
ज़रा झकझोर लो
हथेली में
ख़ुशी के फूल भर लो
डाल सहजन की
फूली ।
रचनाकाल : 1965
लच्छू महाराज के साथ तबले पर संगत
1.
नदी ठहर गई है
तबले पर बजती हुई ।
खोज रहा है
वापस लौटने का पथ
जंगल में शेर ।
पहाड़ पर बरसने वाले बादल
आख़िर तबले में
बज उठते हैं ।
मैं सागर में कान लगाकर पड़ा हूँ
आख़िर गति इतनी सख़्त, इतनी उच्छृंखल,
इतनी कोमल होकर,
तबले में किससे मिल रही है ?
पहाड़ों पर दौड़ती नदी की तरह
अँगुलियाँ
तबले पर धस रही हैं । धम । धमाधम ।
2.
लोग !
संगीत के तहख़ाने में उतर रहे हैं ।
लोग !
सोते हुए हँस रहे हैं ।
लोग !
सुन रहे हैं
साँस लेती हुई लहरें ।
जहाज़ को पछाड़ने के लिए साँसें
बेहाल हो रही हैं आदमी की ।
नाचते पहाड़ों से बातें करते हुए
लोग,
गहरे तलघर में सरक रहे हैं ।
3.
मुझे झकझोर दो !
बजा दो
मेरा अहं ।
टकरा दो
मेरी गति ।
तोड़ दो ज़रा आहिस्ते से
मेरी साँसों का
लड़खड़ाता वज़न ।
कँपा दो
फिर से
पूरी शांत लेटी हुई
सदी को,
लच्छू महाराज !
तबले पर ।
4.
मंच पर
लुढ़क गई है पूरी सदी ।
छटपटा रहा है राजा ।
उठने से लाचार रानी
रो रही है
ज़ार-ज़ार
मंच से
पूरी की पूरी गुज़री हुई सभ्यता
हताश होकर
ढूँढ़ रही हैं
छिपने का ठाँव ।
5.
तुम्हारा प्रेम
पाग़ल हो गया है
उठो !
तबले की गत दौड़ रही है
सितार पर
(जाग रहा है चौकीदार
रात में अकेला)
प्रेम में कोई ताल बेसुरी नहीं है ।
सब संगत है ।
तुम्हारे प्रेम की लहर में
खो गई है मेरी सत्ता
उठो !
हम पाग़ल हो गए हैं
अपने-अपने आवेश में ।
6.
पालतू हो गया है
तूफ़ान
पेड़ों के चेहरों की हँसी में
नहा रही है वर्षा
(इतना भी कोमल किया जा सकता है
वज्र का गर्जन क्या ?)
भिगो देने वाली हवाएँ
नहीं रुकेंगी लच्छू महाराज !
आहिस्ता से तूफ़ान
पूरी पीढ़ी की यातना लिए
तबले की गत से
गुज़र जाएगा ।
7.
अपनी-अपनी आवाज़ है
हर एक की
हर एक ने पार की हैं
संगीत की पूरी पेचदार
गलियाँ
अपनी आवाज़ में
एक ट्रेन
पुल से गुज़र रही है
तबले पर
एक नगर बोल रहा है
अपनी आवाज़ में ।
8.
उसके चेहरे पर
केवल नाक है
अपनी पहचान में
चमकदार
दो आँखें हैं
फूलों की क्यारियों में रंगीन
गुलाबी
रोशन
उसके चेहरे पर
संगीत की
पहचान है ।
9.
रुको!
मेरी आँखों में झाँकने पर भी
अपनी पहचान
तुम्हें नहीं मिलेगी
तबले पर चिड़िया नाचेगी ।
पहाड़ सड़क को
पत्थरों से भर देगा
सूँड़ उठा कर नाचेगा हाथी
एक पैर पर ।
तबले पर दो आँखें झाँकेंगी ।
अपनी-अपनी पहचान होगी ।
मेरी, घुड़कते बादलों की
और तुम्हारी : लपटों में नंगे नाचने की ।
10.
रख लो
अपने खाली घर में
बोलता हुआ दिल ।
तबले पर
उसके बोल
उतार दिए हैं
मैंने ।
11.
मेरी तरह
नहीं डूबते हैं पहाड़
नहीं टूटते हैं पहाड़
सूखे और प्यासे रह जाते हैं पहाड़ ।
मुझे यही लगता है
(स्वयं वे न बोले हैं, न बोलेंगे)
सागर में
वर्षा में,
मेरी तरह
तबले पर
नहीं टूटती है गत ।
नहीं चुकती है
संगीत के अलग-अलग
घरानों की धुनें ।
12.
नगाड़ा बज रहा है
तबले पर
लोग
चौराहे पर
चौकन्ने से खड़े हैं ।
अब
किधर से
युद्ध की शुरूआत होगी !
लोग
अपने-अपने घरानों के
खुले मंच पर
सुगबुगाहट
महसूस कर रहे हैं ।
रचनाकाल : (लच्छू महाराज का घर, काशी, जुलाई 1970)
सहगान
नाचो
केले के कुल के जन
नाचो
चीड़ के घने वन-जन ।
मुझे ढाल से
हाथ थाम कर
ऊँचे
लाओ !
रचनाकाल : 1979
यमपुरी बसी है
ग्यारह साल बाद संसद में बोला कुत्ता : जात नई है राजनीति की
ग्यारह साल बाद संसद में बोला सूअर : चरण जमे हैं राजनीति में
ग्यारह साल बाद संसद में बोला गीदड़ : जीते चर हैं राजनीति में
ग्यारह साल कसाई के थे उलट-पलट की राजनीति में-
बोला राजनीति का भोंपू
एक साल से रोज़ एक को संसद तक लाता है कुत्ता !
एक साल से रोज़ एक को संसद में खाता है गीदड़
एक साल से रोज़ एक की खाल खींचता है धमधूसर ।
धमधूसर कल मिला राह पर
मैंने पूछा : यम के घर से लौट रहे हो ?
धमधूसर ने कहा : यार ! मानव की बस्ती से
यम की बस्ती का फ़ासला कहाँ है ?
मानव बस्ती में चमरू है सूली पर
नीचे मस्तक के आग लगी है ।
चमरू का यमलोक यहीं है
दाँत पीसकर हाथ मल रहा था धमधूसर
मैंने पूछा : यम के क्या दो सिर होते हैं ?
धमधूसर ने कहा : पहले सिर से तीस साल तक यम गाता था :
सूअर, कुत्ता, गीदड़ खल हैं
मैंने पूछा : यम के दोनों सिर संसद में क्या करते हैं ?
धमधूसर ने कहा : सूअर यम की सभा बुलाता !
कुत्ता यम की गाथा गाता !
गीदड़ संविधान ले आता !
यम के दोनों सिर : कुत्ते, सूअर, गीदड़ की यमपुरी बसाते ।
मैंने पूछा : चमरू ने मानव बस्ती में कुआँ खोदा ।
बेटी ने रोटियाँ पकाईं ।
यम ने कैसे चमरू का सिर काटा ?
धमधूसर ने कहा : संसद में आया कुत्ता
चमरू की हड्डी का गाहक है !
गीदड़ चमरू की बेटी का माँस नोचता
सूअर चमरू के जबड़े में दरकर बैठी
जीभ खींचता !
मेरे दोनों हाथ उठे हैं संसद के बाहर सेना है
चमरू की बेटी के हाथ एक पोस्टर है !
कौन बड़ा है तीस साल के लूटतंत्र में… मैंने पूछा !
चमरू की बेटी ने टॊका : एक साल से चमरू सूली पर है
नीचे आग लगी है तीस साल से लूटतंत्र की
दोनों हाथ उठे हैं : ऊँचे
हाथ उठे हैं गोली खा यमपुरी फटी है
छोटे पोस्टर ! पोस्टर ! पोस्टर !
चमरू का यमलोक खड़ा है सीना खोले ।
कथा
यह जो मन मार कर
पसरा है आकाश
यह शुरूआत नहीं है ।
यह जो डुबकियाँ लगाकर
बैठा है पत्थर
यह मायूसी नहीं है ।
यह जो अख़बारों में लगातार
लुप्त हो रही है सभ्यता
यह ढाई आखर नहीं है ।
यह जो मेरे भीतर छटपटा कर
खोजा करता है प्रेम
यह तुम्हारी रूपकथा नहीं है ।
दोनों मित्रों के पास निराला
एक को लगा
लॉस एंजलस शहर
बच्चों की खुली हुई क़िताब है ।
दूसरे को लगा
लॉस एंजलस शहर
लोहा, पत्थर और शीशे के स्थापत्य का
खिला हुआ कमल है ।
एक ने,
भागती कारों को देखकर कहा :
शहर की सड़कें
गतिमान शिराएँ हैं ।
दूसरे ने कहा :
नहरों और फूलों के बीच
हर ऊँचा उठा भवन
शीशा जड़ा पेड़ है
शीशा जड़े पेड़ों की
अनगिनत दुनिया है ।
दोनों मित्रों के पास
रोने डेन ड्रोन का पेड़
हथेली में फूले आसमान को
थामे हुए खड़ा है
निराला-सा !
रचनाकाल : 1986
खाली कमरों के बीच
खाली कमरों के बीच है
खाली बसा घर,
जहाँ एक कमरा
दूसरे कमरे को टटोलता है
और खाली घर में चुप्पी बस जाती है ।
बिजली अभी नाच रही थी,
मुखौटे लगाकर एक कमरे में
दूसरा कमरा हँस रहा था ढीठ हँसी
तीसरा कमरा बीते हुए दिनों की चीज़ें उधेड़ रहा था ।
काले मुखौटे पहने तीनों कमरे अब क्या सोच रहे हैं !
मैंने एक दरवाज़ा खोला
और भूल गया इस कमरे का
शृंगानदान कब दर्पण को जगाता है
बस अँधेरे में ग़र्क उस कमरे में
अपने घुटनों को मैंने सावधान किया
और दूसरा कमरा मुझे छोड़ आया तीसरे कमरे तक ।
तीसरे कमरे की खिड़की खोलकर मैं भूल गया अपना घर
सिर्फ़ खिड़की पर रखा
एक उजला काग़ज़
मेरे पस आया
उसमें नाम मेरा था
और हस्ताक्षर पत्नी के थे
मैं अफ़सोस करता रहा यह ख़त मैंने यहाँ
खिड़की पर कब छोड़ दिया था !
बिजली के बीच मैंने देखा तीनों कमरे पढ़ रहे हैं वही ख़त एक साथ
दीवारें झुकी भी हैं और तनी भी
खाली कमरों के बीच बस रहा हूँ अभी मैं ।
रचनाकाल : 1990
थाह
नीले या
हल्के आसमानी रंग को
पहनकर
निकली हो !
आसमान साड़ी में लिपटा है
या बँधा
तुम्हीं से दब रहा है ।
नीले आसमान में
चिड़िया साँस भर कर
ठहर जाती है ।
हल्के आसमानी
जलाशय में डुबकी मार
हंस
थाह लेता है नभ की गहराई की ।
रंग को समेटकर
तुम किस गहराई को थाह रही हो ।
मेरा मन :
साड़ी में लिपटे या बँधे-दबे
कुलबुलाते दिल में तुम्हारे ही
ठहर कर साँस लेता है ।
मेरा मन :
थाह लेता है
रंग को दबा कर तुम
कितनी दूर जाती हो !!
रचनाकाल : 1985
पहाड़ की डायरी
मैंने
बस के पड़ोसी यात्री से पूछा :
उत्तरी अमरीका के पहाड़
एटलांटिक सिटी के
जुए के अड्डों में
नहीं जाते हैं !!
यात्री मित्र ने कहा :
उत्तरी अमरीका के
आदिम पहाड़
न्यूयार्क के बाज़ार में
नंगी तन्वंगी का नाच नहीं देखते हैं ।
दोनों ने उत्तरी अमरीका के पहाड़ों से पूछा :
“मित्र
सारे दिन
यहाँ एकान्त में
अपनी डायरी में
लिखा क्या करते हो !”
रचनाकाल : 1986