आकर गिरा था कोई परिंदा लहू में तर
आकर गिरा था कोई परिंदा लहू में तर ।
तस्वीर अपनी छोड़ गया है चट्टान पर ।
मलबूस (वस्त्र) ख़ुशनुमा हैं मगर जिस्म खोखले,
छिलके सजे हों जैसे फलों की दुकान पर ।
हक़ बात आके रुक सी गई थी कभी ‘शकेब’
छाले पड़े हुए हैं अभी तक ज़बान पर ।
आके पत्थर तो मेरे सहन में दो-चार गिरे
आके पत्थर तो मेरे सहन में दो-चार गिरे
जितने उस पेड़ के फल थे पसे-दीवार गिरे
ऐसी दहशत थी फ़िज़ाओं में खुले पानी की
आँख झपकी भी नहीं हाथ से पतवार गिरे.
मुझको गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरुं
जिस तरह सायंए-दीवार पे दीवार गिरे
तीरगी छोड़ गई दिन में उजाले के खुतूत
ये सितारे मेरे घर टूट के बेकार गिरे.
देख कर अपने दरो-बाम लरज़ उठता हूँ
मेरे हमसाये में जब भी कोई दीवार गिरे
उतर के नाव से भी कब सफ़र तमाम हुआ
उतर के नाव से भी कब सफ़र तमाम हुआ,
ज़मीं पे पाँव धरा तो ज़मीन चलने लगी ।
जो दिल का ज़हर था काग़ज़ पर सब बिखेर दिया,
फिर अपने आप तबियत मिरी संभलने लगी ।
जहाँ शज़र पे लगा था तबर का ज़ख़्म ‘शकेब’
वहीँ पे देख ले कोंपल नई निकलने लगी ।
उतरीं अजीब रोशनियाँ रात ख़्वाब में
उतरीं अजीब रोशनियाँ रात ख़्वाब में
क्या क्या न अक्स तैर रहे थे सराब में
[अक्स = प्रतिबिम्ब]
कब से हैं एक हर्फ़ पे नज़रें जमीं हुईं
वो पढ़ रहा हूँ जो नहीं लिक्खा किताब में
[हर्फ़ = अक्षर]
फिर तिरगी के ख़्वाब से चौंका है रास्ता
फिर रौशनी-सी दौड़ गई है सहाब में
[तीरगी = अंधेरा; सहाब = बादल]
पानी नहीं कि अपने ही चेहरे को देख लूँ
मन्ज़र ज़मीं के ढूँढता हूँ माहताब में
[मन्ज़र = नज़ारा; माहताब = चांद]
कब तक रहेगा रूह पे पैराहन-ए-बदन
कब तक हवा असीर रहेगी हुबाब में
[रूह =आत्मा; पैराहान-ए-बदन = कपडे जैसा बदन]
[असीर = असर ; हुबाब = बुलबुला]
जीने के साथ मौत का डर है लगा हुआ
ख़ुश्की दिखाई दी है समन्दर को ख़्वाब में
[ख़ुश्की = सुखापन]
एक याद है कि छीन रही है लबों से जाम
एक अक्स है कि काँप रहा है शराब में
खामोशी बोल उठे, हर नज़र पैगाम हो जाये
ख़मोशी बोल उठे, हर नज़र पैग़ाम हो जाये
ये सन्नाटा अगर हद से बढ़े, कोहराम हो जाये
सितारे मशालें ले कर मुझे भी ढूँडने निकलें
मैं रस्ता भूल जाऊँ, जंगलों में शाम हो जाये
मैं वो आदम-गजीदा[1] हूँ जो तन्हाई के सहरा में
ख़ुद अपनी चाप सुन कर लरज़ा-ब-अन्दाम हो जाये
मिसाल ऎसी है इस दौर-ए-ख़िरद के होशमन्दों की
न हो दामन में ज़र्रा और सहरा नाम हो जाये
शकेब अपने तआरुफ़ के लिए ये बात काफ़ी है
हम उससे बच के चलते हैं जो रास्ता आम हो जाये
गले मिला न कभी चाँद बख्त ऐसा था
गले मिला न कभी चाँद बख़्त ऐसा था
हरा भरा बदन अपना दरख़्त ऐसा था
सितारे सिसकियाँ भरते थे ओस रोती थी
फ़साना-ए-जिगर लख़्त-लख़्त ऐसा था
ज़रा न मोम हुआ प्यार की हरारत से
चटख के टूट गया, दिल का सख़्त ऐसा था
ये और बात कि वो लब थे फूल-से नाज़ुक
कोई न सह सके, लहजा करख़्त ऐसा था
कहाँ की सैर न की तौसन-ए-तख़य्युल पर
हमें तो ये भी सुलेमान* के तख़्त ऐसा था
इधर से गुज़रा था मुल्क-ए-सुख़न का शहज़ादा
कोई न जान सका साज़-ओ-रख़्त ऐसा था
जहाँ तलक भी ये सेहरा दिखाई देता है
जहाँ तलक भी ये सहरा दिखाई देता है
मेरी तरह से अकेला दिखाई देता है
न इतना तेज़ चले सर-फिरी हवा से कहो
शजर पे एक ही पत्ता दिखाई देता है
बुरा न मानिये लोगों की ऐब-जूई का
इन्हें तो दिन का भी साया दिखाई देता है
ये एक अब्र का टुकड़ा कहाँ- कहाँ बरसे
तमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है
वो अलविदा का मंज़र वो भीगती पलकें
पस-ए-ग़ुबार भी क्या क्या दिखाई देता है
मेरी निगाह से छुप कर कहाँ रहेगा कोई
के अब तो संग भी शीशा दिखाई देता है
सिमट के रह गये आख़िर पहाड़- से क़द भी
ज़मीं से हर कोई ऊँचा दिखाई देता है
ये किस मक़ाम पे लाई है जुस्तजू तेरी
जहाँ से अर्श भी नीचा दिखाई देता है
खिली है दिल में किसी के बदन की धूप “शकेब”
हर एक फूल सुनहरा दिखाई देता है
जाती है धूप उजले परों को समेट के
जाती है धूप उजले परों को समेट के ।
ज़ख्मों को अब गिनूँगा मैं बिस्तर पे लेट के ।
मैं हाथ की लकीरें मिटाने पे हूँ बज़िद
गो जानता हूँ हर्फ़ नहीं ये सिलेट के ।
दुनिया को कुछ ख़बर नहीं क्या हादसा हुआ
फेंका था उसने संग गुलों में लपेट के ।
फ़ौवारे की तरह न उगल दे हरेक बात
कम-कम वो बोलते हैं जो गहरे हैं पेट के ।
इक नुक़रई खनक के सिवा क्या मिला शकेब
टुकड़े ये मुझसे कहते हैं टूटी पलेट के ।
तूने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ
तूने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ
आँखों को अब न ढाँप मुझे डूबता भी देख
पास रह के भी बोहत दूर हैं दोस्त
पास रह के भी बोहत दूर हैं दोस्त
अपने हालात से मजबूर हैं दोस्त
तर्क-ए-उल्फत भी नहीं कर सकते
साथ देने से भी माज़ूर हैं दोस्त
गुफ्तगू के लिए उनवां भी नहीं
बात करने पे भी मजबूर हैं दोस्त
यह चिराग अपने लिए रहने दे
तेरी रातें भी तो बे-नूर हैं दोस्त
सभी पज़मुर्दा हैं महफ़िल में शकेब
मैं परेशान हूँ, रंजूर हैं दोस्त
फिर सुन रहा हूँ गुज़रे ज़माने की चाप को
फिर सुन रहा हूँ गुज़रे ज़माने की चाप को
भूला हुआ था देर से मैं अपने आप को
रहते हैं कुछ मलूल[1] से चेहरे पड़ोस में
इतना न तेज़ कीजिए ढोलक की थाप को
अश्कों की एक नहर थी जो ख़ुश्क हो गई
क्यूँ कर मिटाऊँ दिल से तेरे ग़म की छाप को
कितना ही बे-किनार समंदर हो, फिर भी दोस्त
रहता है बे-क़रार नदी के मिलाप को
पहले तो मेरी याद से आई हया उन्हें
फिर आईने में चूम लिया अपने आपको
तारीफ़ क्या हो कामत-ए-दिलदार की शकेब
ताज्सीम कर दिया है किसी ने अलाप को
मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
सूरज हूँ मेरा रंग मगर दिन ढले भी देख.
कागज़ की कतरनों को भी कहते हैं लोग फूल
रंगों का एतबार है क्या सूंघ के भी देख.
हर चन्द राख हो के बिखरना है राह में
जलते हुए परों से उड़ा हूँ मुझे भी देख.
तूने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ
तलवों में जो हवा के हैं वो आबले भी देख.
इन्सान नाचता है यहाँ पुतलियों के रंग
दुनिया में आ गया है तो इसके मज़े भी देख.
लौ दे उठे वो हर्फ़-ए-तलब सोच रहे हैं
लौ दे उठे वो हर्फ़-ए-तलब सोच रहे हैं
क्या लिखिये सर-ए-दामन-ए-शब सोच रहे हैं
[हर्फ़-ए-तलब =बहस]
[सर-ए-दामन-ए-शब =देर रात]
क्या जानिये मन्ज़िल है कहाँ जाते हैं किस सिम्त
भटकी हुई इस भीड़ में सब सोच रहे हैं
[सिम्त = दिशा]
भीगी हुई एक शाम की दहलीज़ पे बैठे
हम दिल के धड़कने का सबब सोच रहे हैं
[दहलीज़ = दरवाज़ा; सबब = कारण]
टूटे हुये पत्तों से दरख़्तों का त’अल्लुक़
हम दूर खड़े कुन्ज-ए-तरब सोच रहे हैं
[दरख़्त =पेड; त’अल्लुक़ =रिश्ता]
[कुन्ज-ए-तरब =खूबसूरत ख़्वाब]
इस लहर के पीछे भी रवाँ हैं नई लहरें
पहले नहीं सोचा था जो अब सोच रहे हैं
हम उभरे भी डूबे भी सियाही के भँवर में
हम सोये नहीं शब-हमा-शब सोच रहे हैं
[सियाही = अंधेरा]
[शब-हमा-शब =रात के बाद रात]
वहाँ की रोशनियों ने भी ज़ुल्म ढाए बहुत
वहाँ की रोशनियों ने भी ज़ुल्म ढाए बहुत
मैं उस गली में अकेला था और साए बहुत
किसी के सर पे कभी टूटकर गिरा ही नहीं
इस आसमाँ ने हवा में क़दम जमाए बहुत
हवा की रुख़ ही अचानक बदल गया वरना
महक के काफ़िले सहराँ की सिम्त आए बहुत
ये क़ायनात है मेरी ही ख़ाक का ज़र्रा
मैं अपने दश्त से गुज़रा तो भेद पाए बहुत
जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया
तो हम भी राह से कंकर समेट लाए बहुत
बस एक रात ठहरना है क्या गिला कीजे
मुसाफ़िरों को ग़नीमत है ये सराय बहुत
जमी रहेगी निगाहों पे तीरगी दिन भर
कि रात ख़्वाब में तारे उतर के आए बहुत
शकेब कैसी उड़ान अब वो पर ही टूट गए
कि ज़ेरे-दाम जब आए थे फड़फड़ाए बहुत
वही झुकी हुई बेलें वही दरीचा था
वही झुकी हुई बेलें वही दरीचा था
मगर वो फूल-सा चेहरा नज़र न आता था
मैं लौट आया हूँ ख़ामोशियों के सहरा से
वहाँ भी तेरी सदा का ग़ुबार फैला था
क़रीब तैर रहा था बतों का एक जोड़ा
मैं आबजू के किनारे उदास बैठा था
[बत – बतख]
बनी नहीं जो कहीं पर कली की तुर्बत थी
सुना नहीं जो किसी ने हवा का नौहा था
[तुर्बत = कब्र; नौह = दुख भरा गीत]
ये आड़ी-तिर्छी लकीरें बना गया है कौन
मैं क्या कहूँ कि मेरे दिल का वरक़ तो सादा था
[वरक़ = पन्ना]
उधर से बारहा गुज़रा मगर ख़बर न हुई
कि ज़ेर-ए-सन्ग ख़ुनुक पानियों का चश्मा था
[बारहा = बार-बार]
[ख़ुनुक = ठन्डा; चश्मा = झरना]
वो उस का अक्स-ए-बदन था कि चांदनी का कँवल
वही नीली झील थी या आसमाँ का टुकड़ा था
हमजिंस अगर मिले न कोई आसमान पर
हमजिंस अगर मिले न कोई आसमान पर
बेहतर है ख़ाक डालिए ऐसी उड़ान पर
आकर गिरा था कोई परिन्दा लहू से तर
तस्वीर अपनी छोड़ गया है चट्टान पर
पूछो समन्दरों से कभी ख़ाक का पता
देखो हवा का नक़्श कभी बादबान पर
यारों मैं इस नज़र की बलंदी का क्या करूँ
साया भी अपना देखता हूँ आसमान पर
कितने ही ज़ख़्म मेरे एक ज़ख़्म में छिपे
कितने ही तीर आन लगे इक निशान पर
जल-थल हुई तमाम ज़मीं आसपास की
पानी की बूँद भी न गिरी सायबान पर
मलबूस ख़ुशनुमा है मगर खोखले हैं जिस्म
छिलके सजे हों जैसे फलों की दुकान पर
हक़ बात आके रुक-सी गई थी कभी शकेब
छाले पड़े हुए हैं अभी तक ज़बान पर
कहाँ रुकेंगे मुसाफ़िर नए ज़मानों के
कहाँ रुकेंगे मुसाफ़िर नए ज़मानों के
बदल रहा है जुनूँ ज़ाविये उड़ानों के ।
ये दिल का ज़ख़्म है इक रोज़ भर ही जाएगा
शिग़ाफ़ पुर नहीं होते फ़क़ट चट्टानों के ।
हवा के दश्त में तन्हाई का गुज़र ही नहीं
मेरे रफ़ीक़ हैं मुतरिब गए ज़मानों के ।
कभी हमारे नुकूशे क़दम को तरसेंगे
वो ही जो आज सितारे हैं आसमानों के ।
जलते सहराओं में फैला होता
जलते सहराओं में फैला होता
काश मैं पेड़ों का साया होता
तू जो इस राह से गुज़रा होता
तेरा मलबूस ही काला होता
मैं घटा हूँ, न पवन हूँ, न चराग़
हमनशीं मेरा कोई तो होता
ज़ख़्मे उरियाँ तो न देखेगा कोई
मैंने कुछ भेस ही बदला होता
क्यूँ सफ़ीने में छिपाता दरिया
गर तुझे पार उतरना होता
बन में भी साथ गए हैं साए
मै किसी जाँ तो अकेला होता
मुझसे शफ़्फ़ाक है सीना किसका
चाँद इस झील में उतरा होता
और भी टूटकर आती तिरी याद
मैं जो कुछ दिन तुझे भूला होता
राख कर देते जला के शोले
ये धुआँ दिल में न फैला होता
कुछ तो आता मेरी बातों का जवाब
कुछ तो आता मेरी बातों का जवाब
ये कुआँ और जो गहरा होता।
न बिखरता फ़िज़ा में नग़मा
सीन-ए-नै में तड़पता होता ।
और कुछ दूर तो चलते मेरे साथ
और इक मोड़ तो काटा होता ।
थी मुक़द्दर में ख़िजाँ ही तो शकेब
मैं किसी दश्त में महका होता ।
जो भी तालिब है यक ज़र्रा उसे सहरा दे
जो भी तालिब है यक ज़र्रा उसे सहरा दे
मुझपे माइल बकरम हैं तो दिले दरिया दे
ख़लिश-ए-ग़म से मेरी जाँ पे बनी है जैसे
रेशमी शाल को काँटों पे कोई फैला दे
००
देख ज़ख़्मी हुआ जाता है दो आलम का खुलूस
एक