युद्धबन्दियों का गीत
हम समय के युद्धबन्दी हैं
युद्ध तो लेकिन अभी हारे नहीं हैं हम ।
लालिमा है क्षीण पूरब की
पर सुबह के बुझते हुए तारे नहीं हैं हम ।
हम समय के युद्धबन्दी हैं…
सच यही, हाँ, यही सच है
मोर्चे कुछ हारकर पीछे हटे हैं हम
जंग में लेकिन डटे हैं, हाँ, डटे हैं हम !
हम समय के युद्धबन्दी हैं…
बुर्ज कुछ तोड़े थे हमने
दुर्ग पूँजी का मगर टूटा नहीं था !
कुछ मशालें जीत की हमने जलायी थीं
सवेरा पर तमस के व्यूह से छूटा नहीं था ।
नहीं थे इसके भरम में हम !
हम समय के युद्धबन्दी हैं…
चलो, अब समय के इस लौह कारागार को तोड़ें
चलो, फिर जिन्दगी की धार अपनी शक्ति से मोड़ें
पराजय से सबक लें, फिर जुटें, आगे बढ़ें फिर हम !
हम समय के युद्धबन्दी हैं…
न्याय के इस महाकाव्यात्मक समर में
हो पराजित सत्य चाहे बार-बार
जीत अन्तिम उसी की होगी
आज फिर यह घोषणा करते हैं हम !
हम समय के युद्धबन्दी हैं…
नई सदी में भगत सिंह की स्मृति
एक दुर्निवार इच्छा है
या एक पाग़ल-सा संकल्प
कि हमें तुम्हारा नाम लेना है एक बार
किसी शहर की व्यस्ततम सड़क के बीचो-बीच खड़ा होकर
एक नारे, एक विचार, एक चुनौती
या एक स्वगत-कथन की तरह,
जैसे कि पहली बार,
और अपने को एकदम नया महसूस करते हुए ।
नहीं,
यह कोई क़र्ज़ उतारना नहीं,
देश की छाती से कोई बोझ हटाना भी नहीं
विस्मृति की ग्लानि का,
(वह यूँ कि जब स्मृति थी
तब भी कितना था परिचय वास्तव में ?)
यह तो महज़
अन्धेरे में रख दिए गए एक दर्पण के बारे में
कुछ बातचीत करनी है अपने-आप से।
सोचना है कि अन्धेरे तक
किस तरह ले जाया गया था वह दर्पण
और किस तरह अन्धेरा लाया जा रहा है आज
हर उस जगह
जहाँ कोई दर्पण है।
जहाँ भी परावर्तन की सम्भावना,
किरणों का प्रवेश वर्जित है
और कहीं आग लग रही है
कहीं गोली चल रही है ।[1]
हमें तुम्हारा नाम लेना है
उठ खड़े होने की तरह,
देश को धकापेल बनाने या
वाशिंगटन डी०सी० का कूड़ाघर बनाने की
बर्बर-असभ्य या
कला-कोविद कोशिशों के विरुद्ध ।
नहीं, यह कोई भाव-विह्वल श्रद्धाँजलि नहीं,
यह नीले पानी वाली उस गहरी झील तक
फिर एक यात्रा है
उग आए झाड़-झँखाड़ों के बीच
खो गया रास्ता खोजने की कोशिश करते हुए,
या शायद, कोई भी राह बनाकर वहाँ तक पहुँचने की जद्दोजहद-भर है,
या शायद ऐसा कुछ
जैसे हम किसी विचार के छूटे हुए सिरे को
पकड़ते हैं
आगे खींचने के लिए ।
हमें तुम्हारा नाम लेना है
इसलिए कि तुम्हारे नामलेवा नहीं ।
संसद के खंभे भी तुम्हारा नाम लेते हैं
बिना किसी उच्चारण दोष के
और वातानुकूलित सभागारों में
तुम्हारी तस्वीरें हैं और फूल-मालाएँ हैं
और धूपबत्तियों का ख़ुशबूदार धुआँ है ।
एक ख्यातिलब्ध राजनयिक कहता है
कि तुम प्रयोग कर रहे थे क्राँति के साथ
और बाज़ार सुनता है
और रक्त-सने हत्यारे हाथों से
विमोचित हो रही है
तुम्हारी शौर्य-गाथा पर आधारित नई बिकाऊ किताब
और एक बूढ़ा विलासी पियक्कड़-पत्रकार
अपने अख़बारी कालम में तुम्हें याद करता हुआ
अपने पूर्वजों के पाप धो रहा है ।
हमें तुम्हारा नाम लेना है
कि वे लोग ख़ूब ले रहे हैं तुम्हारा नाम
जिन्हें ख़तरा है
लोगों तक पहुँचने से तुम्हारा नाम
सही अर्थों में ।
इसलिए सुनिश्चित ऐतिहासिक अर्थों का
सन्धान करते हुए
हमें फिर थकी हुई नींद में डूबे
घरों तक जाना है लेकर तुम्हारा नाम ।
कई बार हमें विचारों को कोई नाम देना होता है
या कोई संकेत-चिह्न
और हम माँगते हैं इतिहास से ऐसा ही कोई नाम
और उसे लोगों तक
विचार के रूप में लेकर जाते हैं ।
हमें तुम्हारा नाम लेना है
एक बार फिर
गुमनाम मंसूबों की शिनाख्त करते हुए
कुछ गुमशुदा साहसिक योजनाओं के पते ढूँढ़ते हुए
जहाँ रोटियों पर माँओं के दूध से अदृश्य अक्षरों में लिखे
पत्र भेजे जाने वाले हैं, खेतों-कारख़ानों में दिहाड़ी पर
खटने वाले पच्चीस करोड़ मज़दूरों,
बीस करोड़ युवा बेकारों,
उजड़े बेघरों और आधे आसमान की ओर से ।
उन्हें एक दर्पण, नीले पानी की एक स्वच्छ झील,
एक आग लगा जंगल और धरती के बेचैन गर्भ से
उफ़नने को आतुर लावे की पुकार चाहिए।
गन्तव्य तक पहुँचकर
अदृश्य अक्षर चमक उठेंगे लाल टहकदार
और तय है कलोग एक बार फिर इंसानियत की रूह में
हरक़त पैदा करने के बारे में सोचने लगेंगे ।[2]
तुम्हारा नाम हमें लेना है
उस समय के विरुद्ध
जब सजीव चीज़ों में निष्प्राणता भरी जा रही है
एक उज्ज्वल सुनसान में
जहाँ रहते हैं शिल्पी और सर्जक बस्तियाँ बसाकर,
और कभी दिन थे, जब हालांकि अन्धेरा था,
पर अनगिन कारीगर हाथों ने
मिटटी, राख, रक्त, पानी, धूप और कामनाओं-संकल्पों से—
स्मृतियों-सपनों को गूँथकर गए थे लोग
विचारों ने बनाया था जिन्हें सजीव-गतिमान.
तुम्हारा नाम हमें लेना है
कि अधबने रास्ते कभी खोते नहीं,
हरदम कचोटते रहते हैं वे दिलों में
जागते रहते हैं
और पीढ़ियों तक धैर्यपूर्ण प्रतीक्षा के बाद
वे फिर आगे चल पड़ते हैं
और जब भी
पहुँचते हैं अपनी चिर वांछित मंज़िल तक,
तो वहाँ से
एक नई राह आगे चलने लगती है ।
तुम्हारा नाम हमें लेना है
विस्तृत और आश्चर्यजनक सागर विश्वास करते हुए और
इतिहास का लंगर छिछले पानी में डालने की[3]
कोशिशों के ख़िलाफ़,
और विचारों के ख़िलाफ़ जारी
चौतरफ़ा युद्ध के खिलाफ़
और उम्मीद जैसे शब्दों को
संग्रहालयो में रख देने के ख़िलाफ़ ।
…या तो हमें कविता में लानी है यह बात
या फिर किसी भी तरह की काव्य-कला के
आग्रह के बिना ही कह देना है कि
यह सत्ता पलट देनी होगी
जो पूरी नहीं करती हमारी बुनियादी ज़रूरतें
और छीनती है हमारे बुनियादी अधिकार[4]
और विद्वज्जन हैं कि मुख्य सडकें छोड़कर
पिछवाड़े की गंदगी और कूड़े भरी गलियों से होकर
आ-जा रहे हैं
ढूँढ़ते हुए कविता का अर्थात
मेर्कूरी अव्देविच की तरह[5]
और तकिये में सोने की गिन्नियाँ छुपाए
तीर्थाटन पर निकलने को तैयार हैं भिक्षुवेश में
यदि समय कोई ऐसा वैसा आ-जाए तो ।
…बल्कि सबसे अच्छा तो यह होगा कि
बेहद ईमानदार निजी दुखों, प्यार, झाग, आदिम सरोकारों,
शब्दों, तरलत, मौन, चिंतन के अकेलेपन,
जनता के सुनसान, पुरस्कार-कामना-बोझिल मन,
सीढ़ियों, रस्सियों, नक़बजनी के औज़ारों और
निर्लिप्त ख़बरों से भरी
धूसर, चमकीली या साँवली-सलोनी निर्दोष-सी कविताओं के
पाठ के बाद, किसी शाम, जब अपनी पारी आए
तो बस दुहरा दिए जाएँ
तुम्हारे ये सीधे-सादे शब्द :
“इन्क़लाब ज़िन्दाबाद !”
अगर तुम युवा हो
एक पोस्टर कविता
ग़रीबों-मज़लूमों के नौजवान सपूतो !
उन्हें कहने दो कि क्राँतियाँ मर गईं
जिनका स्वर्ग है इसी व्यवस्था के भीतर ।
तुम्हें तो इस नरक से बाहर
निकलने के लिए
बंद दरवाज़ों को तोड़ना ही होगा,
आवाज़ उठानी ही होगी
इस निज़ामे-कोहना के खिलाफ़ ।
यदि तुम चाहते हो
आज़ादी, न्याय, सच्चाई, स्वाभिमान
और सुंदरता से भरी ज़िन्दगी
तो तुम्हें उठाना ही होगा
नए इन्क़लाब का परचम फिर से ।
उन्हें करने दो “इतिहास के अंत”
और “विचारधारा के अंत” की अंतहीन बकवास ।
उन्हें पीने दो पेप्सी और कोक और
थिरकने दो माइकल जैक्सन की
उन्मादी धुनों पर ।
तुम गाओ
प्रकृति की लय पर ज़िंदगी के गीत ।
तुम पसीने और खून और
मिट्टी और रौशनी की बातें करो ।
तुम बगावत की धुनें रचो ।
तुम इतिहास के रंगमंच पर
एक नए महाकाव्यात्मक नाटक की
तैयारी करो ।
तुम उठो,
एक प्रबल वेगवाही
प्रचंड झंझावात बन जाओ ।
अगर तुम युवा हो-2
स्मृतियों से कहो
पत्थर के ताबूत से बाहर आने को ।
गिर जाने दो
पीले पड़ चुके पत्तों को,
उन्हें गिरना ही है ।
बिसुरो मत,
न ही ढिंढोरा पीटो
यदि दिल तुम्हारा सचमुच
प्यार से लबरेज़ है ।
तब कहो कि विद्रोह न्यायसंगत है
अन्याय के विरुद्ध ।
युद्ध को आमन्त्रण दो
मुर्दा शान्ति और कायर-निठल्ले विमर्शों के विरुद्ध ।
चट्टान के नीचे दबी पीली घास
या जज्ब कर लिए गए आँसू के क़तरे की तरह
पिता के सपनों
और माँ की प्रतीक्षा को
और हाँ, कुछ टूटे-दरके रिश्तों और यादों को भी
रखना है साथ
जलते हुए समय की छाती पर यात्रा करते हुए
और तुम्हें इस सदी को
ज़ालिम नहीं होने देना है ।
रक्त के सागर तक फिर पहुँचना है तुम्हें
और उससे छीन लेना है वापस
मानवता का दीप्तिमान वैभव,
सच के आदिम पंखों की उड़ान,
न्याय की गरिमा
और भविष्य की कविता
अगर तुम युवा हो ।
अगर तुम युवा हो-3
जहाँ स्पन्दित हो रहा है बसन्त
हिंस्र हेमन्त और सुनसान शिशिर में
वहाँ है तुम्हारी जगह
अगर तुम युवा हो !
जहाँ बज रही है भविष्य-सिम्फ़नी
जहाँ स्वप्न-खोजी यात्राएँ कर रहे हैं
जहाँ ढाली जा रही हैं आगत की साहसिक परियोजनाएँ,
स्मृतियाँ जहाँ ईंधन हैं,
लुहार की भाथी की कलेजे में भरी
बेचैन गर्म हवा जहाँ ज़िन्दगी को रफ़्तार दे रही है,
वहाँ तुम्हें होना है
अगर तुम युवा हो !
जहाँ दर-बदर हो रही है ज़िन्दगी,
जहाँ हत्या हो रही है जीवित शब्दों की
और आवाज़ों को क़ैद-तनहाई की
सज़ा सुनाई जा रही है,
जहाँ निर्वासित वनस्पतियाँ हैं
और काली तपती चट्टानें हैं,
वहाँ तुम्हारी प्रतीक्षा है
अगर तुम युवा हो !
जहाँ संकल्पों के बैरिकेड खड़े हो रहे हैं
जहाँ समझ की बंकरें खुद रही हैं
जहाँ चुनौतियों के परचम लहराए जा रहे हैं
वहाँ तुम्हारी तैनाती है
अगर तुम युवा हो ।
अन्धकार है घना, मगर संघर्ष ठना है
अभी उष्ण है हृदय,
उबलता रक्त धमनियों में बहता है
ऊर्जस्वी इच्छाओं से
मन आप्लावित है
ऊष्मित नित-नूतन सपनों से ।
‘कला-कला’ की कोमल-कान्त पदावलियों से
क़लम मुक्त है ।
अभी नहीं बाज़ार-भाव पर नज़र टिकी है ।
कभी और क़त्तई नहीं हम
नए-नए नारों के चलते सिक्कों की
पूजा करते हैं,
न ही कला की शर्तों पर
राजनीति का भाषण देने के आरोपों से डरते हैं ।
अभी हमारे लिए
प्रगति या परिवर्तन या क्राँति शब्द भी
घिसा नहीं है ।
नई-नई यात्राओं की
आतुरता अब भी बनी हुई है,
नए प्रयोगों की उत्कंठा अभी शेष है ।
अभी सीखने की आकुलता
गई नहीं है ।
नए रास्तों पर चलने का
पागलपन भी मरा नहीं है ।
सिर्फ़ सुबह का नहीं,
आग उगलती दुपहर का भी
सूर्य अभी अच्छा लगता है ।
अभी अनल जो दहक रहा है
ज्वालागिरी के अतल उदर में,
लहक-लहक उठने को बेकल
हो उठता है बीच-बीच में !
ज्वार अभी उठते रहते हैं
गहन और गम्भीर महासागर के तल से
आसमान छूने को आतुर.
तूफानी झँझावातों की उम्मीदें अब भी क़ायम हैं।
जनजीवन के संघर्षों के विद्यालय में
अभी प्राथमिक कक्षा में ही
बैठ रहे हैं,
मगर स्नातकोत्तर कक्षाओं तक पढ़ने की,
आजीवन पढ़ते जाने की
अटल और उद्दाम कामना
बनी हुई है ।
हाथ मिलाओ साथी, देखो
अभी हथेलियों में गर्मी है ।
पंजों का कस बना हुआ है ।
पीठ अभी सीधी है,
सिर भी तना हुआ है ।
अन्धकार तो घना हुआ है
मगर गोलियथ से डेविड का
द्वंद्व अभी भी ठना हुआ है ।
कठिन समय में विचार
रात की काली चमड़ी में
धँसा
रोशनी का पीला नुकीला खंजर ।
बाहर निकलेगा
चमकते, गर्म लाल
ख़ून के लिए
रास्ता बनाता हुआ ।
विसंगति
कुछ ज़िम्मेदारियाँ हैं
कविता जिन्हें पूरा नहीं कर पा रही है ।
कुछ विचार हैं
कविता जिन्हें बान्ध नहीं पा रही है ।
कुछ गाँठें हैं
कविता जिन्हें खोल नहीं पा रही है ।
कुछ स्वप्न हैं
कविता जिन्हें भाख नहीं पा रही है ।
कुछ स्मृतियाँ हैं
कविता जिन्हें छोड़ नहीं पा रही है ।
कुछ आगत है
कविता जिन्हें देख नहीं पा रही है ।
कुछ अनुभव हैं
कविता जिनका समाहार नहीं कर पा रही है ।
यही सब कारण हैं
कि तमाम परेशानियों के बावजूद
कविता फिर भी है
इतना सब कुछ कर पाने की
कोशिशों के साथ
अपने अधूरेपन के अहसास के साथ
अक्षमता के बोध के साथ
हमारे इतने निकट ।
कविता को पता है
अपने होने की ज़रूरत
और यह भी कि
आने वाली दुनिया को
उसकी और भी अधिक ज़रूरत है ।
(सितम्बर, 1995)
स्वगत-1
कभी-कभी ऐसा होता है कि
तुम एकदम अकेले छोड़ दिए जाते हो
सोचने के कारण
या सोचने के लिए
कठिन और व्यस्त दिनों के ऐन बीचो-बीच ।
लपटों से उठते है बिम्ब
और फिर लपटों में ही समा जाते हैं ।
स्मृति-छायाएँ नाचती हैं निर्वसना
स्वप्नों के लिए नहीं खुलता
कहीं कोई दरवाज़ा ।
हवा एकदम भारी और उदास होती है ।
आत्मा का कोई हिस्सा
राख़ में बदलता रहता है ।
तुम्हारे रचे चरित्र चीख़ते हैं।
घटनाएँ-स्थितियाँ अपने विपरीत में
बदल जाती हैं ।
तमाम अनुबन्ध्ा
आग के हवाले कर दिए जाते हैं ।
प्रार्थनाएँ पास नहीं होतीं ।
पुनर्विचार याचिकाओं का
प्रावधान नहीं होता ।
मंच पर नीम उजाले में
एक के बाद एक उठते जाते हैं काले पर्दे
और गहराइयों से निकलकार सामने आती हैं
कभी तुम्हारी ग़लतियाँ
तो कभी ग़लतफ़हमियाँ ।
राख़ की एक ढेरी पर
चढ़ते जाते हो तुम हाँफते हुए
और घुटने-घुटने तक धँसते हुए
और फिर थककर बैठ जाते हो ।
लेकिन तुम्हारे आँसू चुप रहते हैं
और हथेलियाँ गर्म ।
हृदय धड़कता रहता है
और होंठ थरथराते हैं ।
आग अपने पीछे
एक काला रेगिस्तान छोड़
किस दिशा में आगे बढ़ गई है,
तुम जानते की कोशिश करते हो ।
सहसा तुम्हें लगता है
कोई आवाज़ आ रही है
उड़-उड़कर, रूक-रूक कर ।
शायद वायलिन पर कोई गहन विचार
और सघन उदासी भरी धुन है,
या फिर यह रात की अपनी आवाज़ है ।
फिर सन्नाटे में कहीं
गिटार झनझना उठता है
तबले की उन्मत्त थापों के साथ ।
किधर से आ रही है हवा
इन आवाज़ों को ढोती हुई,
तुम भाँपने की कोशिश करते हो ।
दरअसल जब तुम्हें लग रहा था
कि तुम कुछ नहीं सोच पा रहे थे,
तब फ़ैसलाकुन ढंग से
कोई नतीजा, या कोई नया विचार
तुम्हारे भीतर पक रहा था,
एक त्रासदी भरे कालखण्ड का
समाहार निष्कर्ष तक पहुँच रहा था
और कोई नई परियोजना
जन्म ले रही थी ।
स्वगत-2
बॉयलरों में प्रतीक्षारत था
तारकोल,
आग राख़ की नींद सो रही थी ।
रक्त जैसी रासायनिक संरचना नहीं
फाँसी के फन्दे जैसी
बुनावट थी विचारों की
और भले लोग
तोता कुतरे अमरूद की तरह
डाल से लटक रहे थे ।
कुछ यूँ हुई थी एक नई शताब्दी की
इतिहास में दर्ज़ होने लायक़ शुरूआत
कि अधिकांश मान्य धारणाएँ और परिभाषाएँ
सन्देह के दायरे में आ गई थीं
विचारकों की दुनिया में
जिसे निर्लज्जता माना जाए ।
मसलन, सुभाषित बोलने वाले
कला-साहित्य के मनस्वी कालपुरुष
आपराधिक पूँजी से प्रकाशित
एक अख़बार के सम्पादक बन जा बैठे थे
अत्याधुनिक,
डरावनी शानो-शौक़त वाले
सम्पादकीय कक्ष में,
अपनी चिलमची और काव्यशास्त्र की सिद्धगुटिका
किसी बौने तोताचश्म को सौंपने के बाद
और नई भरती के लिए
उन कवियों का बायोडाटा देख रहे थे
जिनकी मानवीय सम्वेदना
बेहद सूक्ष्म-सघन मानी जाती थी
और नेपथ्य में बज रहा था कभी
राग जयजयवन्ती तो कभी तिलक कामोद ।
भागमभाग, भुखमरी, सस्ती शराबों,
अपने सस्ते चुम्बनों के साथ प्रस्तुत क़स्बाई लड़कियों,
कटते जंगलों, विस्थापनों, जादुई तकनीकों,
इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से संचरित
गलदश्रु भावुकता और बर्बरता और रुग्ण ऐन्द्रिकता
के बीच विचार दलालों की भूमिका में थे
और भाषा
छिनालपन की तमाम हदें पार कर चुकी थी ।
एक शब्द – निरुपायता
पूरे ब्रह्माण्ड का भ्रमण कर रहा था
और आकाशवाणी हो रही थी कि
जो भी है, उसे स्वीकार करें सर्वजन
अपनी नियति या सौभाग्य मानकर ।
और यह सब कुछ तुम भी देख रहे थे
लेकिन सदियों पुराने अखरोट के
एक वृक्ष की तरह नहीं,
झुण्ड से अलग कर दिए गए
बूढ़े भेड़िए की तरह भी नहीं,
बल्कि सफ़ेदी के विस्तार में
जीते ज़िद्दी एकाकी ध्रुवीय भालू की तरह ।
पूर्वजों द्वारा सौंपी गई रस्सी से बँधे
ईमानदार, कर्त्तव्यनिष्ट और बहादुर लोग
लगातार भूसे की दँवरी-मड़ाई कर रहे थे
और नई फ़सलें खेतों में
देख-रेख की माँग कर रही थीं ।
सीलन और सड़ाँध भरे
अँधेरे रास्तों से बाहर आए विचार
परिस्थितियों को
अन्धे छुछून्दर की तरह सूँघ रहे थे।
अपने बिलों के द्वार पर बैठे झींगुर
नागरिक आज़ादी और जनवाद के बारे में
चीख़ रहे थे
और पैरों की धमक सुनते ही
भीतर दुबक जा रहे थे ।
कविता में जीवन था
चहबच्चे के पानी में पलते पूँछदार शिशु मेढकों के मानिन्द ।
तुम सोचने लगे उन दिनों के बारे में
जब आवारा पत्ते की तरह
उड़ते रहे तुम
इस शहर से उस शहर,
इस ठीहे से उस ठीहे,
अनिद्रा, सूख चुके आँसुओं
और बढ़ती हुई झुर्रियों
और टूट चुके रिश्तों की टीसती यादों के साथ,
लातिनी दुनिया के अनगिन रहस्यों
और पुरातन अफ्रीकी योद्धा के
जादुई काले मुखौटे के साथ ।
मुहाने तक पहुँचने की ज़िद के साथ
तुम नदी की धारा के साथ तैरते रहे
चीख़ती गंगाचिल्लियों, कूजते कलहंसों
और ध्यानमग्न बगुलों को
पीछे छोड़ते हुए ।
मँडराते रहते थे तुम्हारे आस-पास
पनकुकरी, मछरंगा, कौडि़ल्ला, कचबचिया, फुदकी
और बचपन की जान-पहचान वाले
तमाम जलपक्षी
लेकिन कुछ घण्टे या ज़्यादा से ज़्यादा
दिन भर के लिए ही
वे रहते थे तुम्हारे साथ ।
मुहाने के क़रीब जा पहुँचे थे तुम
चिंग्घाड़ते सागर से बस कुछ ही मील दूर
और सोचा मज़े के साथ
अपनी आवारगी को बचा ले जाने की
सफलता के बारे में,
प्रकृत्ति और जीवन और स्त्रियों के
रहस्यों के बारे में
और उन बीहर वनस्पतियों के बारे में
जिनके पत्तों को पीला कर पाने में
दुनिया के तमाम हर्बिसाइड्स नाकाम रहे ।
लगभग असम्भव होते जा रहे
हालात से कहीं अधिक,
तब तुम सोच रहे थे
अपनी छोटी-छोटी सफलताओं के बारे में
और यह कि
दुनिया देख घर बैठे लोगों ने
भले ही तुम्हें अकेला करने की
बारहों कोशिशें कीं,
ज़िन्दगी ने कभी तुम्हें नाशुक्रा नहीं माना ।
तुम सोच रहे थे कि आकस्मिक
तुम्हारी मृत्यु शान्ति और राहत भरी होगी
कि सहसा एक कुटिल जाल ने
तुम्हें लपेटा और किनारे ला पटका ।
एक-दूसरे की आत्माओं को
मृत्युदण्ड दे चुके
विद्वान न्यायमूर्तियों की एक बेंच ने
तुम्हारे जटिल मुक़दमे को
चुटकी बजाते सुलझाया
और तुम्हें एक अन्धी सुरंग में
आजीवन कारावास का दण्ड सुनाया ।
अब तुम्हारे पास सोचने को समय था बहुत कुछ के बारे में,
मसलन, जीवन की वास्तविकता के बारे में
अविश्वास के बारे में,
मौसम की भविष्यवाणियों की अनिश्चितता के बीच
बनाई गई नई यात्राओं की योजनाओं के बारे में,
धूमिल-धूसर क्षितिज से परे रोशनी,
धूप में सँवलाई ज़िन्दगी,
अनजान द्वीपों के ख़ुशदिल और दिलेर लोगों,
जीवन्तता से सराबोर सस्ती सरायों
और अधिशेष निचोड़ने के नए-नए तौर-तरीकों
और मनुष्यता की न्यूनतम शर्तों को
खो देने वाले लोगों के बारे में ।
तुम सोचते रहे
और नदियों के हर घुमाव
तुम्हें याद आते रहे ।
तरह-तरह की वनस्पतियाँ
छोटे-छोटे फूलों वाली घास,
संगमरमर की चट्टानों की दरारों में उगी
जिजीविषा जैसी झाड़ियाँ,
क्षितिज तक फैले
निश्चल रेवड़ जैसे जंगल,
बीहड़ मैदानों के खड्ड-खाई भरे विस्तार,
बोझिल और घिसी-पिटी,
भयानक और असह्य क़स्बाई कूपमण्डूकी ज़िन्दगी
के बीच पलती निर्मल भावनाएँ और सशक्त कल्पनाएँ,
अकथ दु:खों के बीच भी
हर्ष से हुमकने-छलकने की क्षमता रखने वाली स्त्रियाँ,
मज़बूत इरादों वाले बुद्धू बूढ़े
और नवें आसमान तक उड़ने का
मंसूबा बाँधने वाले नौजवान
तुम्हें याद आते रहे ।
स्मृतियाँ तुम्हारे ऊपर
जादुई उपहारों की बारिश करती रहीं
और धूल-धूसरित भोर में अप्रत्याशित
तुमने अपने को खुले आसमान के नीचे पाया
जब तारे बुझने को थे ।
तुम मुक्त थे
गगनभेदी तुमुल हाहाकार के बीच
और तुमने सहसा एक आविष्कार किया ।
तुमने पाया कि
तमाम पुरातन और नूतन बुराइयों के बावजूद,
मेहनतकश और ईमानदार निश्छल लोगों,
लगातार चकित करती और चुनौती देती
पर्वत-शृंखलाओं, सदानीरा नदियों और
सागरों की सुदीर्घ तटरेखा सहित
इस देश को
पृथ्वी के एक बेशक़ीमती टुकड़े के रूप में
तुम वाक़ई बहुत प्यार करते हो
और इसके भविष्य के बारे में
कई तरह से, कई रूपों में
लगातार सोचते रहते हो ।
तुमने जाना कि
अतीत जब तक सोता रहा
भविष्य मुँह चिढ़ाता रहा ।
तुमने यह जाना कि
अतीत के कारण हम जीते हैं
और अतीत के करण ही ख़त्म हो जाते हैं
जैसा कि गोएठे ने कहा था
लेकिन एक नई शुरूआत के लिए
ज़्यादा महत्तवपूर्ण थी गोएठे की ही यह बात
कि एक नई सच्चाई के लिए एक पुराने भ्रम से
ख़तरनाक कुछ भी नहीं होता ।
सपने अब आतुर थे
आलोचनात्मक विवेक के सहारे
भविष्य का पूर्वानुमान बनने के लिए ।
दुनिया के गर्म प्रदेशों में
दीवानगी दुनियादारी का ज़हर चूस रही थी
अहसासों में सादगी,
विचारों में मौलिकता,
समर-संकल्पों में निर्णायकता,
प्रतिबद्धता में अटूटता
और प्यार में ईमानदारी की वापसी हो रही थी
और जीवितों की एक छोटी-सी दुनिया
अपने कायाकल्प के लिए
आतुर हो रही थी
अब तुम सोच रहे थे
रात में सफ़ेद कौंधों और फेनिल लपटों वाले
महासागरों,
रहस्यपूर्ण द्वीपों, उकसाते पर्वतों
और जिज्ञासा जगाते
विराट समतल प्रदेशों के बारे में
और समुद्री शैवाल जैसे
जीवन के आदिम स्रोतों के बारे में
और आने वाले समय के मानचित्र के बारे में ।
यूँ तो तमाम भौतिक वस्तुओं की
रहस्यमय गतिविधियों को
पहले भी कभी तुमने
बहते पानी की तली में पड़े
उस निश्चल पत्थ्ार की तरह नहीं देखा था
जिसे शताब्दियों तक बहाव ज़्यादा से ज़्यादा
चिकना बनाता रहा ।
कभी चक्कों की तरह तो कभी पंखों की तरह गतिमान
तुम चीज़ों की छवियाँ आँकते रहे थे ।
पर अब तुम सागर की सर्पिल अग्रगामी लहरों की तरह,
आगे बढ़ते हुए,
एक वर्तुलाकार बवण्डर की तरह
ऊपर उठते हुए,
चीज़ों तक पहुँच रहे थे
और उनके अन्दरूनी द्वन्द्वों का
अध्ययन कर रहे थे ।
तुम्हें हँसी आई
ठूँठों की सभा में कभी प्रस्तुत किए गए
अपने एकायामी विचारों
और रूमानी आह्वानों को याद करके
तुम अब समय-समय पर ऊफन पड़ने वाली
अपनी शिशुवत क्रूरता,
बेहरम लोगों पर की गई प्यार की बारिश
विरक्तियों के अतिरेक
और जान-बूझकर छले जाने की
अपनी आदतों को भी
एक हद तक समझ पा रहे थे
और तुम्हारी सारी सरगर्मियों का दायरा
एक नया दहनपात्र बन रहा था
जिसमें उबलते रसायन से
कोई नया संश्लिष्ट यौगिक ढलने वाला था
किसी सुनिश्चित योजना के साँचे में ।
यह सब कुछ हो रहा था तुम्हारे साथ
और उधर दुनिया लगातार बदलती हुई
कुरूपता-विरूपता के चरम तक पहुँच रही थी
और उसके चलने के तौर-तरीके भी
जटिलतम-कुटिलतम हो चुके थे ।
दिशा है सामने एक धुँधली पथरेखा की तरह
और लगातार स्पष्ट होती दृष्टि भी ।
चीज़ों को इस हद तक पहचाना जा सकता है
कि आशाओं का स्रोत अक्षय रहे
लेकिन फिर भी बहुतेरी समस्याएँ हैं
नित नई आती हुई और कुछ अतीत की विरासत भी,
कि नया अभियान नहीं बन पा रहा है ऊर्जस्वी, गतिमान ।
अभी भी आस-पास हैं झूठे कमज़ोर संकल्प
और खोखले वायदे,
और अविश्वास,
और पुराने मताग्रह और पुरानी आदतें,
और भ्रमित करने वाले अप्रत्याशित बदलाव भी,
जो तुम्हें लगभग अकेला कर देती हैं
और भीषण तनाव पैदा करती हैं तुम्हारे भीतर,
ज्यों धनुष की प्रत्यंचा की तरह
खिंच गई हो मस्तिष्क की एक-एक शिरा ।
तुम लौटते हो फिर-फिर
अपने एकान्त, उदासियों, अनिद्रा भरी रातों
और घुटन भरे अमूर्तनों के पास,
लेकिन गुफा में घुसते एकाकी योगी की तरह नहीं
बल्कि अपने खाली डोलों को लेकर
कुएँ में उतरती उस रहट की तरह
जो पानी लेकर ऊपर आती है
और डोलों को चुण्डे में उलट देती है ।
मानचित्र तैयार है लगभग यात्रा-पथ का,
लेकिन कड़वी पराजयों से उपजी दार्शनिकताओं,
अतृप्तियों-अधूरेपन से जन्मी विकृतियों,
पुरातन और नूतन कूपमण्डूकताओं,
आसमानी आभा वाली आध्यात्मिक वंचनाओं,
शयनकक्षों में रखी गई
पिस्तौलों और विष के प्यालों से भरे
हमारे इस विचित्र विकट समय में
चीज़ें फिर भी काफ़ी कठिन हैं।
चन्द राहत या सुकून के दिन आते भी हैं
तो देखते-देखते यूँ बीत जाते हैं
जैसे वीरान खेतों के बीच से
भागती नीलगायों का एक झुण्ड गुज़र जाए ।
पंखों, चमड़ों, हड्डियों, पत्तियों, चीथड़ों, मल-मूत्र,
टूटे हुए खिलौनों और तमाम अल्लम-गल्लम चीज़ों से
भरी कूड़ा-करकट जैसी ज़िन्दगी
सड़ती-गलती रही इस दौरान लगातार
कुछ ज़हरीले कीड़े-मकोड़ों के साथ ही
नए-नए पोषक तत्त्व भी पैदा करती हुई ।
और हरबा-हथियार एवं रसद के जुगाड़,
रूटीनी कवायद, पूर्वाभ्यास
और हर अनुमानित चुनौती पर विचार जैसी
भावी सुदीर्घ और निर्णायक अभियान की
तनाव भरी तैयारियों के बीच
तुम उतरते हो फिर-फिर
अपने अकेलेपन के कुएँ में थके हुए
खाली डोलों के साथ
बाहर आते हो चीज़ों की ज़्यादा गहरी समझ के
साथ ही ज़्यादा से ज़्यादा सघन-सान्द्र
यह अनुभूति लेकर कि
इस बार फ़ैसलाकुन होकर निकलना है हमें
नई बीहड़ लम्बी यात्रा पर
और जीवन को ही ढल जाना है
एक सुदीर्घ ‘पोज़ीशनल वारफ़ेयर’ के रूप में ।
एक बार फिर वह पुरातन आकांक्षा
पुनर्नवा और दुर्निवार बनकर
आती है तुम्हारे पास
कि मुक्तिदायी विचारों को
सबसे पहले, और भरपूर शक्ति
और रचनात्मकता के साथ,
और निरन्तर बहुविध तरीकों से,
उन मनुष्यों तक पहुँचाया जाना चाहिए
जिनके बूते मनुष्यता बची हुई है
लेकिन जिनसे छीन लिया गया है
मनुष्यों जैसा जीवन
और जिनके कल्पनालोक की मुक्ति ज़रूरी है
एक नई शुरूआत को परवान चढ़ाने के लिए ।
ताक़त के खिलाफ़ उन्हें ही साथ लेना होगा
जिनके पास नहीं होती कोई ताक़त
लेकिन एकजुट, और विचारों से लैस होकर
जो बन जाते हैं जड़ और चेतन जगत की
सबसे बड़ी ताक़त ।
अनुर्वरता के रौरव रोर के बीच
बिना खिड़कियों-रोशनदानों वाले घरों के
बन्द दरवाज़ों की दरारों से
रिसकर बाहर आ रही है ।
प्रसव-वेदना की व्यग्र चीख़ें ।
निश्चय ही,
इस सदी के बीतने से पहले,
शायद काफ़ी पहले,
आकाश को मिल जाएगा उसका अपहृत नीलापन,
इन्द्रधनुष को उसके चुरा लिए गए रंग,
अनुभूतियों को चिरन्तन सुन्दरता,
प्यार को ताज़गी,
विचारों को मानवीय गरिमा,
और भावनाओं को उद्दाम संवेग
और फिर पूरी पृथ्वी चल पड़ेगी
एक नई आकाशगंगा में रहने के लिए ।
वह दिन जब निकट होगा
दुष्टता के उग आएँगे चींटों जैसे पंख।
तब जो जीवितों की दुनिया होगी,
याद करेगी पीढ़ियों, घिसे हुए आदिम जूतों,
धीरज, रक्त, अपमानजनक पराजयों
और तमाम-तमाम दूसरी चीज़ों के साथ
धरती के गर्भ में
खनिज और खाद बनकर
निश्चल पड़े पूर्वजों को
भरपूर समझदारी और प्यार के साथ ।
और हाँ, इन्सानी चर्बी से जल रहे
दीयों की रोशनी में
चर्मपत्रों पर लिखे गए
इतिहास के अन्त और महावृत्तान्तों के विसर्जन के
अभिलेख सुरक्षित रखने होंगे
ताकि आने वाले समय में जाना जा सके
कि एक समय था
जब निराशा इस क़दर गहरी थी ।
( रचनाकाल : 26-29 सितम्बर, 2005)
द्वन्द्व
एक अमूर्त चित्र मुझे आकृष्ट कर रहा है।
एक अस्पष्ट दिशा मुझे खींच रही है ।
एक निश्चित भविष्य समकालीन अनिश्चय को जन्म दे रहा है ।
(या समकालीन अनिश्चय एक निश्चित भविष्य में ढल रहा है ?)
एक अनिश्चय मुझे निर्णायक बना रहा है ।
एक अगम्भीर हँसी मुझे रुला रही है ।
एक आत्यन्तिक दार्शनिकता मुझे हँसा रही है ।
एक अवश करने वाला प्यार मुझे चिन्तित कर रहा है ।
एक असमाप्त कथा मुझे जगा रही है ।
एक अधूरा विचार मुझे जिला रहा है ।
एक त्रासदी मुझे कुछ कहने से रोक रही है ।
एक सजग ज़िन्दगी मुझे सबसे कठिन चीज़ों पर सोचने के लिए मजबूर कर रही है ।
एक सरल राह मुझे सबसे कठिन यात्रा पर लिए जा रही है ।
भूलना नहीं है
यह अन्धेरा
कालिख़ की तरह
स्मृतियों पर छा जाना चाहता है ।
यह सपनों की ज़मीन को
बंजर बना देना चाहता है ।
यह उम्मीद के अंखुवों को
कुतर देना चाहता है ।
इसलिए जागते रहना है,
स्मृतियों की स्लेट को
पोंछते रहना है ।
भूलना नहीं है
मानवीय इच्छाओं को ।
भूलना नहीं है कि
सबसे बुनियादी ज़रूरतें क्या हैं और क्या हैं हमारे लिए
ग़ैरज़रूरी, जिन्हें लगातार
हमारे लिए सबसे ज़रूरी बताया जा रहा है ।
भूलना नहीं है कि
अभी भी है भूख और बदहाली,
अभी भी हैं लूट और सौदागरी और महाजनी
और जेल और फाँसी और कोड़े ।
भूलना नहीं है कि
ये सारी चीज़ें अगर हमेशा से नहीं रही हैं
तो हमेशा नहीं रहेंगी ।
भूलना नहीं है शब्दों के
वास्तविक अर्थों को
और यह कि अभी भी
कविता की ज़रूरत है
और अभी भी लड़ना उतना ही ज़रूरी है ।
हमें उस ज़मीन की निराई-गुड़ाई करनी है,
दीमकों से बचाना है
जहाँ अँकुराएँगी उम्मीदें
जहाँ सपने जागेंगे भोर होते ही,
स्मृतियाँ नई कल्पनाओं को पंख देंगी
प्रतिक्षाएँ फलीभूत होंगी
योजनाओं में और अन्धेरे की चादर फाड़कर
एकदम सामने आ खड़ी होगी
एक मुक्कमल नई दुनिया ।
शहीदों के लिए
ज़िन्दगी लड़ती रहेगी, गाती रहेगी
नदियाँ बहती रहेंगी
कारवाँ चलता रहेगा, चलता रहेगा, बढ़ता रहेगा
मुक्ति की राह पर
छोड़कर साथियो, तुमको धरती की गोद में ।
खो गए तुम हवा बनकर वतन की हर साँस में
बिक चुकी इन वादियों में गन्ध बनकर घुल गए
भूख से लड़ते हुए बच्चों की घायल आस में
कर्ज़ में डूबी हुई फसलों की रंगत बन गए
ख़्वाबों के साथ तेरे चलता रहेगा…
हो गये कुर्बान जिस मिट्टी की ख़ातिर साथियो
सो रहो अब आज उस ममतामयी की गोद में
मुक्ति के दिन तक फ़िज़ाँ में खो चुकेंगे नाम तेरे
देश के हर नाम में ज़िन्दा रहोगे साथियो
यादों के साथ तेरे चलता रहेगा…
जब कभी भी लौट कर इन राहों से गुज़रेंगे हम
जीत के सब गीत कई-कई बार हम फिर गाएँगे
खोज कैसे पाएँगे मिट्टी तुम्हारी साथियो
ज़र्रे-ज़र्रे को तुम्हारी ही समाधि पाएँगे
लेकर ये अरमाँ दिल में चलता रहेगा…
आँखों में हमारी नई दुनिया के ख़्वाब हैं
दुनिया के हर सवाल के हम ही जवाब हैं
आँखों में हमारी नई दुनिया के ख़्वाब हैं ।
इन बाजुओं ने साथी ये दुनिया बनाई है
काटा है जंगलों को, बस्ती बसाई है
जांगर खटा के खेतों में फसलें उगाई हैं
सड़कें निकाली हैं, अटारी उठाई है
ये बाँध बनाए हैं, फ़ैक्टरी बनाई है
हम बेमिसाल हैं हम लाजवाब हैं
आँखों में हमारी नई दुनिया के ख़्वाब हैं ।
अब फिर नया संसार बनाना है हमें ही
नामों-निशाँ सितम का मिटाना है हमें ही
अब आग में से फूल खिलाना है हमें ही
फिर से अमन का गीत सुनाना है हमें ही
हम आने वाले कल के आफताबे-इन्क़लाब हैं
आँखों में हमारी नई दुनिया के ख़्वाब हैं ।
हक़ के लिए अब जंग छेड़ दो दोस्तो
जंग बन के फूल उगेगा दोस्तो
बच्चों की हँसी को ये खिलाएगा दोस्तो
प्यारे वतन को स्वर्ग बनाएगा दोस्तो
हम आने वाले कल की इक खुली क़िताब हैं
आँखों में हमारी नई दुनिया के ख़्वाब हैं ।