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शाहिद मिर्ज़ा शाहिद की रचनाएँ

जो ग़ज़लें मंसूब हैं तुमसे उनको फिर दोहराना है

जो ग़ज़लें मंसूब हैं तुमसे उनको फिर दोहराना है
रूठे हुए गीतों की ख़ातिर तुमको लौट के आना है

माज़ी के वरकों में यादें सपनों जैसी लगती हैं
नज़्में अपनी तुम बिन भीगी पलकों जैसी लगती हैं
डूबे हुए हैं ग़म में तराने घायल हर दोगाना है
रूठे हुए गीतों की ख़ातिर तुमको लौट के आना है

हँसते हुए चेहरों के पीछे दर्द की एक कहानी है
ऐसा लगता है शबनम भी गुल की आँख का पानी है
चेहरों का इक शहर है लेकिन तुम बिन सब वीराना है
रूठे हुए गीतों की ख़ातिर तुमको लौट के आना है

प्यार का आँगन छूट रहा है कैसी किस्मत पाई है
अपना मिल पाना मुश्किल है, तल्ख़ है, पर सच्चाई है
मैं तो ‘शाहिद’ मान गया हूं, दिल को भी समझाना है
रूठे हुए गीतों की ख़ातिर तुमको लौट के आना है

दीपावली पर पाँच मुक्तक

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम
छोड़कर चल दिए रस्ते सभी फूलों वाले
चुन लिए अपने लिए पथ भी बबूलों वाले
उनके किरदार की अज़मत है निराली शाहिद
दोस्त तो दोस्त, हैं दुश्मन भी उसूलों वाले

परतवे-अर्श[1]
जगमगाते हुए दीपों के इशारे देखो
आज हर सिम्त नज़र डालो, नज़ारे देखो
परतवे-अर्श का मख़सूस ये मंज़र शाहिद
जैसे उतरे हों फ़लक़ से ये सितारे देखो

रोशनी और ख़ुशबू
दीपमाला में मुसर्रत की खनक शामिल है
दीप की लौ में खिले गुल की चमक शामिल है
जश्न में डूबी बहारों का ये तोहफ़ा शाहिद
जगमगाहट में भी फूलों की महक शामिल है

क़ुदरत का पैग़ाम
हमको क़ुदरत भी ये पैग़ाम दिए जाती है
जश्न मिल-जुल के मनाने का सबक लाती है
अब तो त्यौहार भी तन्हा नहीं आते शाहिद
साथ दीवाली भी अब ईद लिए आती है

शुभ दीपावली
आओ अंधकार मिटाने का हुनर सीखें हम
कि वजूद अपना बनाने का हुनर सीखें हम
रोशनी और बढ़े, और उजाला फैले
दीप से दीप जलाने का हुनर सीखें हम

तोहफ़ा है नायाब ख़ुदा का दुनिया जिसको कहती माँ 

तोहफ़ा है नायाब ख़ुदा का दुनिया जिसको कहती माँ
हर बच्चे की माँ है लेकिन अपनी माँ है अपनी माँ

छाँव घनेरे पेड़-सी देकर धूप दुखों की सहती माँ
एक समन्दर ममता का है फिर भी कितनी प्यासी माँ

आमना हो या दाई हलीमा रूप जुदा हो सकते हैं[1]
माँ तो आख़िर माँ होती है, ये भी माँ है वो भी माँ

माँ की कमी महसूस न हो अब छोटे भाई-बहनो को
चंचल लड़की बँटकर रह गई आधी बाजी आधी माँ

माँ न रही तो सब्र करो और ये भी तो सोचो शाहिद
माँ से ख़ुद महरूम रही है ‘हव्वा’ जो है सबकी माँ

बदला है क्या, कुछ भी नहीं, तुम भी वही, हम भी वही 

बदला है क्या, कुछ भी नहीं, तुम भी वही, हम भी वही
फिर दरमियाँ क्यों फ़ासले, क्यों बन गई दीवार-सी

रिश्तों की ये क्या डोर है, कैसी है ये जादूगरी
मुझमें कोई रहता भी है, बनकर मगर इक अजनबी

ठहरा है कब वक़्त एक सा, रुत हो कोई बदली सभी
अब धूप है, अब छाँव है, अब तीरगी, अब रोशनी

मायूसियों की आँधियाँ, थक जाएँगी, थम जाएँगी
बुझने नहीं देना है ये उम्मीद का दीपक कभी

महफ़ूज़ रख, बेदाग़ रख, मैली न कर ताज़िंदगी
मिलती नहीं इंसान को किरदार की चादर नई

मज़िल है क्या, रस्ता है क्या, सीखा है जो मुझसे सभी
वो शख़्स ही करने लगा आकर मेरी अब रहबरी

समझा वही शाहिद मेरे अहसास भी, जज़्बात भी
थोड़ा बहुत पानी यहाँ आँखों में है जिस शख़्स की

मुश्किल ये दौर काट ज़रा इत्मिनान में

मुश्किल ये दौर काट ज़रा इत्मिनान में
होती है कामयाबी नेहां इम्तहान में

कितनी बुलंदियों को छुओगे उड़ान में
मंज़िल कोई बनी ही नहीं आसमान में

नफ़रत, एनाद, बुग़्ज़, तआस्सुब, अदावतें[1]
ख़तरे कई तरह के है अम्नो-अमान में

इस रहगुज़र में ऐसे भी कुछ हमसफ़र मिले
पाया बहुत सुकून सफ़र की थकान में

शाहिद तलाश जिनकी थी वो ही न मिल सके
अपने बहुत मिले हैं मगर इस जहान में

बेग़रज़ बेलौस इक रिश्ता भी होना चाहिए

बेग़रज़ बेलौस इक रिश्ता भी होना चाहिए
ज़िंदगी में कुछ न कुछ अच्छा भी होना चाहिए

बोलिए कुछ भी मगर आज़ादी-ए-गुफ़्तार में
लफ़्ज़ पर तहज़ीब का पहरा भी होना चाहिए

ये हक़ीक़त के गुलों पर ख़्वाब की कुछ तितलियाँ
’ऐसा होना चाहिए। वैसा भी होना चाहिए’

हो तो जाती हैं ये आँखें नम किसी भी बात पर
हां मगर पलकों पे इक सपना भी होना चाहिए

दोस्ती के आईने में देख सब शाहिद मगर
माँ के आँचल-सा कोई पर्दा भी होना चाहिए

ये दर्स भी हुआ हमें हासिल कभी-कभी 

ये दर्स भी हुआ हमें हासिल कभी-कभी
आसान ख़ुद ही होती है मुश्किल कभी-कभी

कश्ती को इक उमीद ने आकर बचा लिया
आता रहा नज़र मुझे साहिल कभी-कभी

राह-ए-जनून-ऐ-शौक में पीछे जो रह गई
मुझको पुकारती है वो मंज़िल कभी-कभी

इस ख़ौफ़ से मैं बज्म में हँसने से डर गया
रोयेगा खिल्वतों में मेरा दिल कभी-कभी

शाहिद ये राज क्या है कि मेरे मजार पर
आता है अश्कबार वो क़ातिल कभी-कभी

मिटेंगे फ़ासले, शिकवे-गिले मिटाने पर 

मिटेंगे फ़ासले, शिकवे-गिले मिटाने पर ।
ये हम तो मान चुके हैं, तुम्हीं न माने पर

हमारे तीर-ओ-कमाँ और हमीं निशाने पर
हुई ये मात मुहाफ़िज़ तुम्हें बनाने पर

ये आदमी भी नए दौर का, पहेली है
है सर किसी का, लगा है किसी के शाने पर

तसव्वुरात की दुनिया में जो उड़ाते थे
कतर दिये हैं हक़ीक़त ने वो सुहाने ’पर’

ज़मीर बेच के दस्तार ले तो ली लेकिन
मुझे लगा कि मेरा सर नहीं है शाने पर

ज़माना देखेगा, इक दिन ज़माने वाले भी
बदल तो जाएँगे, लग जाएँगे ज़माने… पर

बड़ी कठिन है ये शोहरत की रहगुज़र शाहिद
संभल न पाओगे इक बार लड़खड़ाने पर

तुम तो करो ख़ता पे ख़ता, हो ख़ता मुआफ़ 

तुम तो करो ख़ता पे ख़ता, हो ख़ता मुआफ़
मैं क्यों ख़ता करूँ कि करूँ सो ख़ता मुआफ़

‘कर दो ख़ता मुआफ़’ ये कहना ख़ता हुआ
दामन छुडा के कहने लगे ‘लो ख़ता मुआफ़’

वो ही ख़ता, उठाती है, किरदार से, उसे
जिस शख़्स ने भी की है यहाँ जो ख़ता मुआफ़

रोशन इसी से होता है, किरदार का चिराग
ख़ुद चाहिये सुकून तो कर दो ख़ता मुआफ़

करके ख़ता, लबों पे, तबस्सुम सजाइए
शाहिद वो हँस के गुज़रें तो समझो ख़ता मुआफ़

देखते ही देखते बदलेगा मंज़र देखना

देखते ही देखते बदलेगा मंज़र देखना
दर्द सहते-सहते बन जाऊँगा पत्थर देखना

मुश्किलों में कोशिशें मत छोड़िये कुछ कीजिये
इन ही तदबीरों से बदलेगा मुकद्दर देखना

सिर्फ़ चेहरे की कशिश को इश्क़ का मत नाम दे
प्यार क्या शै है कभी दिल में उतरकर देखना

है अजब अंदाज़ उनके देखने का देखिए
देखकर आगे निकलना, फिर पलटकर देखना

देखने में हर्ज तो कुछ भी नहीं ’शाहिद’ मगर
देखते देखे न कोई बस संभल कर देखना

शामिल हैं कितने तंज़ के पत्थर मज़ाक़ में /

शामिल हैं कितने तंज़ के पत्थर मज़ाक़ में
करने लगा सितम भी, सितमगर मज़ाक़ में

मिलता रहा है दर्द जो अकसर मज़ाक़ में
उसको उड़ाता रहता हूँ हँसकर मज़ाक़ में

‘हमने भुला दिया तुम्हें, तुम भी भुला ही दो’
रोया बहुत ये बात वो कहकर मज़ाक़ में

मुझको मना रहा था, मगर ख़ुद ही रूठकर
करने लगा ’हिसाब बराबर’ मज़ाक़ में

हँसते-हँसाते कोई मुझे अपना कह गया
शाहिद सँवर गया है मुक़द्दर मज़ाक़ में

सिलसिला टूटा तो बनकर दास्ताँ रह जाएगा

सिलसिला टूटा तो बनकर दास्तां रह जाएगा
ख्वाहिशों का मिटके भी कुछ तो निशाँ रह जाएगा

हाँ, मैं तुझसे हूँ, मगर मेरा भी है अपना वजूद
पत्ते गिर जाएँगे तो, साया कहाँ रह जाएगा

दर्द की ख़ातिर है दिल, और दिल की ख़ातिर दर्द है
दर्द से ख़ाली हुआ तो, दिल कहाँ रह जाएगा

टूटकर गिरते रहे यूँ ही, जो मेरे बाद भी
चाँद तारों को तरसता आसमाँ रह जाएगा

मैं तेरा अपना ही हूं, इस बात का शाहिद[1] यहाँ
तेरे कूचे में मेरा , खाली मकाँ रह जाएगा

ज़ेहनों में भेदभाव की दीवार किसलिए ?

ज़ेहनों में भेदभाव की दीवार किसलिए ?
सबका ख़ुदा वही तो है तकरार किसलिए ?

सबको तलब है जब यहाँ अम्नो-अमान की,
खिंचती है बात-बात पे तलवार किसलिए ?

संदेश इनके प्यार का किसने चुरा लिया,
अंदेशा लेके आते हैं त्यौहार किसलिए ?

जब इसका इल्म था कि ये धोया न जाएगा,
मैला किया था आपने किरदार किसलिए ?

चलना है सबको साथ, मगर इस सवाल पर
धीमी है सबके पाँव की रफ़्तार किसलिए ?

शाहिद कभी तो भीड़ से ये भी उठे सवाल
भारी हुए समाज पे दो-चार किसलिए ?

दिल में उल्फ़त नहीं है तो फिर दोस्ती की अदा छोड़ दे

दिल में उल्फ़त नहीं है तो फिर दोस्ती की अदा छोड़ दे
वार करना है सीने पे कर, दुश्मनी कर, दगा छोड़ दे

चाहे जैसे भी हालात हों, राह कितनी भी दुश्वार हो
ज़िंदगी के उसूलों पे चल, हार कर बैठना छोड़ दे

ये हक़ीक़त है तक़दीर से, जीत पाना भी मुमकिन नहीं
और ये भी मुनासिब नहीं, आदमी हौसला छोड़ दे

हक़ को हक़ के तरीके से ले जो ज़बाँ जिसकी है उसमें बोल
नर्म इतना भी लहजा न रख , सर उठा , इल्तजा छोड़ दे

तश्नगी की क़सम है तुझे, मैकदे को तू ‘शाहिद’ बना
पीते पीते न छुट पाएगी , आज साग़र भरा छोड़ दे

ज़ुल्म की ज़माने में ज़िन्दगी है पल दो पल 

ज़ुल्म की ज़माने में ज़िन्दगी है पल दो पल
ये है नाव कागज़ की, तैरती है पल दो पल

ये भी हादसा आख़िर, लोग भूल जाएँगें
कंकरी से पानी में, खलबली है पल दो पल

मैं भी जाने वाले का, ऐतबार कर बैठा
कह रहा था तन्हाई काटती है पल दो पल

दिल करार पाता है, आखरत सँवरती है
रहमतें मुसलसल हैं, बंदगी है पल दो पल

वक़्त का तकाज़ा है अहतियात लाजिम है
खुदगरज़ ज़माना है दोस्ती है पल दो पल

भुलाना चाहता हूँ मैं मगर सब याद आता है

भुलाना चाहता हूँ मैं मगर सब याद आता है
तेरी यादों ने बख़्शा है जो मन्सब याद आता है

सितम बे-महर रातों का मुझे जब याद आता है
इन्हीं तारीकियों में था जो नख्शब याद आता है

हर इक इंसा॔न उलझा है यहाँ अपने मसाइल में
परेशाँ और भी होंगें किसे कब याद आता है

दलीलों के लिए तो सैकड़ों पहलू भी हैं लेकिन
जो सोचूँ तो मुझे अच्छा बुरा सब याद आता है

वहाँ की सादगी में दर्स है रिश्तों की अजमत का
जिसे तुम गाँव कहते हो वो मकतब याद आता है

लिया है काम ऐसे भी सियासत ने अकायद से
उठाने हों अगर फितने तो मज़हब याद आता है

हैं बन्दे तो सभी लेकिन वो मोमिन हो गए शाहिद
जिन्हें अच्छे बुरे हर हाल में रब याद आता है

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