अब ऐसे चाक पर कूज़ा-गरी होती नहीं थी
अब ऐसे चाक पर कूज़ा-गरी होती नहीं थी
कभी होती थी मिट्टी और कभी होती नहीं थी
बहुत पहले से अफ़्सुर्दा चले आते हैं हम तो
बहुत पहले कि जब अफ़्सुर्दगी होती नहीं थी
हमें इन हालों होना भी कोई आसान था क्या
मोहब्बत एक थी और एक भी होती नहीं थी
दिया पहुँचा था आग पहुँची थी घरों तक
फिर ऐसी आग जिस से रौशनी होती नहीं थी
निकल जाते थे सर पर बे-सर-ओ-सामानी लादे
भरी लगती थी गठरी और भरी होती नहीं थी
हमें ये इश्क़ तब से है कि जब दिन बन रहा था
शब हिज्राँ जब इतनी सरसरी होती नहीं थी
हमें जा जा के कहना पड़ता था हम हैं यहीं हैं
कि जब मौजूदगी मौजूदगी होती नहीं थी
बहुत तकरार रहती थी भरे घर में किसी से
जो शय दरकार होती थी वही होती नहीं थी
तुम्ही को हम बसर करते थे और दिन मापते थे
हमारा वक़्त अच्छा था घड़ी होती नहीं थी
ऐसा नहीं कि उस नय बनाया नहीं मुझे
ऐसा नहीं कि उस नय बनाया नहीं मुझे
जो ज़ख़्म उस को आया है आया नहीं मुझे
दीवार को गिरा के उठाया भी मैं न था
दीवार ने गिरा के उठाया नहीं मुझे
मैं ख़ुद भी आ रहा था जगह ढूँढते हुए
याँ तक ये इंदिहाम ही लाया नहीं मुझे
मेरा ये काम और कसी के सुपुर्द है
ख़ुद ख़्वाब देखना अभी आया नहीं मुझे
कल नींद में चराग़ को नाराज़ कर दिया
सूरज ने आज सुब्ह जगाया नहीं मुझे
ज़ंजीर लाज़मी है कि ज़ंजीर के बग़ैर
चलना ज़मीन पर अभी आया नहीं मुझे
ख़्वाब खुलना है जो आँखों पे वो कब खुलता है
ख़्वाब खुलना है जो आँखों पे वो कब खुलता है
फिर भी कहिए कि बस अब खुलता है अब खुलता है
बाब-ए-रूख़्सत से गुज़रता हूँ सो होती है शनाख़्त
जिस क़दर दोष पे सामान है सब खुलता है
ये अंधेरा है और ऐसे ही नहीं खुलता ये
देर तक रौशनी की जाती है तब खुलता है
मेरी आवाज़ पे खुलता था जो दर पहले-पहल
मैं परेशाँ हूँ कि ख़ामोशी पे अब खुलता है
इक मकाँ की बड़ी तशवीश है रहगीरों को
वो जो बरसों में नहीं खुलता तो कब खुलता है
अब खुला है कि चराग़ों को यहाँ रक्खा जाए
ये वो रूख़ है जहाँ दरवाज़ा-ए-शब खुलता है
उस ने खुलने की यही शर्त रखी हो जैसे
मुझ में गिरहें सी लगा जाता है जब खुलता है
ग़ुबार शाम-ए-वस्ल का भी छट गया
ग़ुबार शाम-ए-वस्ल का भी छट गया
ये आख़िरी हिजाब था जो हट गया
हुज़ूरी-ओ-ग़याब में पड़ा नहीं
मुझे पलटना आता था पलट गया
तिरी गली का अपना एक वक़्त था
इसी में मेरा सारा वक़्त कट गया
ख़याल-ए-ख़ाम था सो चीख़ उठा हूँ फिर
मिरा ख़याल था कि मैं निमट गया
हमारे इंहिमाक का उड़ा मज़ाक़
वही हुआ ना फिर वरक़ उलट गया
बजा कि दोनों वक़्त फिर से आ मिले
मगर जो वक़्त दरमियाँ से हट गया
मैं हुआ तेरा माजरा तू मिरा माजरा हुआ
वक़्त यूँही गुज़र गया वक़्त के बाद क्या हुआ
कैसा गुज़िश्ता दिन था जो फिर से गुज़ारना पड़ा
धूप भी थी बची हुई साया भी था बचा हुआ
सुब्ह के साथ जाए कौन शाम को ले के आए कौन
रात का घर बसाए कौन है कोई जागता हुआ
एक मकाँ में कुछ हुआ बात सुनी न जा सकी
लोग गली गली से अब पूछ रहे हैं किया हुआ
पकड़ा गया था क्या करूँ शौक़ था ये गढ़ा भरूँ
सुब्ह तुलूअ का हुआ शाम ग़ुरूब का हुआ
सेहन में चारपाई पर बैठा हुआ हूँ देर से
लम्हों का मसअला हूँ और सदियों से हूँ मिला हुआ
ऐसे में भी अजब नहीं जी सकूँ और मर सकूँ
अपने ख़राब ओ ख़ूब का हैरती हूँ तो क्या हुआ
यूँ ही तो चुप नहीं हूँ मैं कोई तो बात है ज़रूर
ये जो क़ज़ा हुआ है ख़्वाब सज्दा था जो क़ज़ा हुआ
और मैं बाक़ी रह गया बातें बनाने के लिए
मेरी तरह का एक शख़्स तेरे लिए फ़ना हुआ