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हम दोनों की पीर एक है

हम दोनों की पीर एक है,
निचले तबके वाली।

हाथ पसारो तो यह दुनिया,
एक रुपइया देती।
एक रुपइया में मन भरकर,
ख़ूब दुआएँ लेती।

महँगाई में कहाँ मयस्सर,
पर चिल्लर से थाली?
हम दोनों की पीर एक है,
निचले तबके वाली।

ईंटें, गारा सिर पर रखकर,
गंतव्यों तक बढ़ना।
कितना मुश्किल है; भूखे ही,
अनगिन माले चढ़ना।

चार चपाती में ही कुनबा,
ढूँढे नित खुशहाली।
हम दोनों की पीर एक है,
निचले तबके वाली।

हाथों से अक्षम हो तुम, मैं;
पैरों से हूँ घायल।
दुनिया इसको ढोंग समझती,
कहती पहनो पायल।

तुमसे भी क्या दुनिया कहती,
तनिक बजाओ ताली।
हम दोनों की पीर एक है,
निचले तबके वाली।

तार झंकृत कर दिए सद्भावना के

तार झंकृत कर दिए सद्भावना के,
विषधरों! सन्मार्ग से हटना पड़ेगा।

सोचकर यह; अब तलक मैं चुप रहा था,
सत्य रेखा अनुसरित कर चल पड़ोगे।
त्याग कर विषदंश; गंगाजल उठाकर,
रीतियों की कुप्रथा से तुम लड़ोगे।

कालिया का विष बढ़ा जो घोर ज्वर सा,
हारकर तप से उसे! घटना पड़ेगा।

हम चले उन्मूलकों की राह जबसे,
कालिमा से आँकड़ा छत्तीस का है।
तुम समझ लो; इंगितों में कह रहे हैं,
पादुका आकार अपना तीस का है।

धर्म के साधक बनो; वरना तुम्हें अब,
पाठ बल से सत्य का रटना पड़ेगा।
विषधरों! सन्मार्ग से हटना पड़ेगा।

आजकल महँगा हुआ है फन उठाना,
है क्षणिक चेतावनी! तुम चेत जाओ.
तिथि नियत है काल के पञ्चाङ्ग में अब,
‘माह’ घोषित छावनी! तुम चेत जाओ.

विष समूचा त्याग दो अंतिम समय है,
खड्ग से वरना तुम्हें कटना पड़ेगा।

राम खड़े हैं भवसागर में

राम खड़े हैं भवसागर में,
केवट तुम ही पार लगाओ.

बिना तुम्हारे वचन अधूरे,
यज्ञों का उपसर्ग अधूरा।
बिना तुम्हारे साथी केवट,
मंज़िल का हर सर्ग अधूरा।

शांत नदी की गहरी हलचल,
आकर तुम इनको दिखलाओ.
केवट तुम ही पार लगाओ.

बिना तुम्हारे विस्मृत राहें,
सही-ग़लत चुनना है मुश्किल।
बिना तुम्हारे निर्णय लेकर,
शून्य ‘राम’ को होगा हासिल।

राम साधना के भागी बन,
तुम भी थोड़ा पुण्य कमाओ.
केवट तुम ही पार लगाओ.

लंका की पहली सीढ़ी हो,
रामायण उद्घोषक तुम हो।
रघुवर की आशा के दीपक,
प्रीति भाव के पोषक तुम हो।

अपने कर्तव्यों को केवट,
चप्पू खेकर चलो निभाओ. ।

हम मुसाफ़िर; राह से भटके हुए हैं 

हम मुसाफ़िर; राह से भटके हुए हैं,
इस तरह गंतव्य तक ना जा सकेंगे।

चौसरों में लिप्त करके बुद्धि अपनी,
कुछ शकुनियों ने बहुत ही छल किए हैं।
चाल में घिरते गए उतने कि जितने,
प्रश्न जब हमने यहाँ पर हल किए हैं,

प्रश्न में उत्तर छिपे यह ज्ञात हमको,
दृष्टिबाधित हम; इन्हें ना पा सकेंगे।
इस तरह गंतव्य…

हम युधिष्ठिर के सदृश; जब ‘द्रौपदी’ को,
जीतने की होड़ करके हार बैठे।
धर्म का वध हाय! तब हमने किया जब,
चित्त का ब्रह्मा स्वयं ही मार बैठे।

मौन मन की ग्लानि है; जिसको कभी भी,
कंठ क्या, ये नैन भी ना गा सकेंगे।

कुछ यहाँ ‘धृतराष्ट्र’ आँखें खोलकर भी,
ढोंगियों से; मूँद कर बैठे हुए हैं,
भीष्म, द्रोणाचार्य भी निर्लज्ज होकर,
निज अधर पर चुप्प धर बैठे हुए हैं।

हम कुटिल रणव्यूह में फँसने लगे हैं,
चीरकर मझधार को ना आ सकेंगे॥

प्रेम नहीं मिलता है बाबू!

प्रेम नहीं मिलता है बाबू! नगर, गली, चौराहों में,
जीवन के सब पाप-पुण्य चुकता कर देने पड़ते हैं।

लंबी है यह ‘कठिन’ तपस्या,
पग-दो-पग का खेल नहीं है,
मित्र बनाए बिन कंटक को,
सुन! सुगंध से मेल नहीं है।

चाँद-सितारे अम्बर से, भू पर धर देने पड़ते हैं।
जीवन के सब पाप-पुण्य…

नभ से ऊँचे-ऊँचे वादे,
करने वाले लोग मिलेंगे,
वादों की अर्थी पर तुमको,
चोरी, करतब, भोग मिलेंगे।

मर्यादा, विश्वास, वचन के पेपर देने पड़ते हैं।
जीवन के सब पाप-पुण्य…

समय करवटें बदल रहा है

समय करवटें बदल रहा है।

पर्वत जितनी ऊँचाई से,
मौन गिराकर चूर कर दिया,
भाषा के तेवर बदले हैं,
अंतस अब ‘कंगूर’ कर दिया।

छलछन्दों के मुख पर कालिख़,
मलने ख़ातिर मचल रहा है।

तेरे-मेरे पाप-पुण्य सब,
इसकी निगरानी में होंगे,
पाप नर्क में भेजेगा बस,
पुण्य ‘राजधानी’ में होंगे।

सबका दर्ज बही-खाता ले,
साथ सभी के टहल रहा है।

मक्कारों, धोखेबाज़ों के,
धर्मग्रंथ, उपदेश जलेंगे,
बिन मारे ये मर जाएँगे,
जब इसके आदेश चलेंगे,

अपनी वाणी पर सदियों से,
शत प्रतिशत यह अटल रहा है।

हो अगर स्वीकार तुमको तो तनिक तुम मुस्कुरा दो

हो अगर स्वीकार तुमको तो तनिक तुम मुस्कुरा दो,
मैं तुम्हारी देहरी पर प्रेम अर्पित कर रहा हूँ।

वन, जलाशय, पेड़-पौधे देख मन उकता गया है,
इस वृहद मन का समंदर खोजता अब कुछ नया है।
क्यों हमेशा ही नदी इन सागरों के पास जाती,
क्यों हमेशा ही प्रतीक्षा तूलिका के हाथ आती?
मन उदधि के ज्वार-भाटे प्रेम का पर्याय लेकर,
बढ़ चुके हैं अब नदी की ओर समुचित न्याय लेकर,

मैं उदधि की भूमि, जल तुमको समर्पित कर रहा हूँ।

जब समर्पण की डगर पर प्रेमरथ अभिसार होगा,
कालखंडों में तभी इस प्रेम का विस्तार होगा।
सोचना क्या है प्रिये! अब सोचना बाक़ी नहीं है,
अंग महकाने लगी ख़ुशबू मगर साक़ी नहीं है।
बस तुम्हीं से हो सकेगी पूर्ण मधुशाला हृदय की,
साथ में चल गिन चलें कड़ियाँ प्रणय के अभ्युदय की।

साँस का पर्याय तुमको आज घोषित कर रहा हूँ॥

तुम्हें समर्पित सम्बोधन से

तुम्हें समर्पित सम्बोधन से, गीत अमर हो जाते हैं,
रात, दिवस, संध्या भी जिनमें, तुम्हें हमेशा गाते हैं।

युग-युग तक गाई जाएगी,
अमर प्रेम की अमर कहानी,
शामिल जिसमें नटखट बचपन,
और मचलती हुई जवानी,

मुखड़े में सिर को सहलाते, बंधों में दुलराते हैं।
तुम्हें हमेशा गाते हैं।

ठंडी-ठंडी पवन मुझे जब,
नेहिल संगीत सुनाती है,
राग, ताल, रख; ‘भवि’ अधरों पर,
अधरों से नेह जगाती है।

बादल मनमोहक धुन सुनकर, स्नेह सुरा बरसाते हैं।
तुम्हें हमेशा गाते हैं।

हरे, गाजरी परिधानों में,
जब तस्वीर तुम्हारी देखूँ।
दिल पर चलती सम्मोहन की,
मीठी तेज़ कटारी देखूँ।

साथ सुनहरी यादें लेकर, चाँद-सितारे आते हैं॥

पग-पग चलते इस जीवन में 

पग-पग चलते इस जीवन में, खुशियों को संत्रास मिला है।
पीड़ा को अनुप्रास मिला है।

हृदयविदारक विषय ला रहे,
इस जीवन में रोज़ चुनौती,
पता नहीं किसको दे दी है,
सही समय ने ‘प्राण’ फिरौती,

कोई भूत पड़ा है पीछे, हरपल यह आभास मिला है।
पीड़ा को अनुप्रास मिला है।

लड़ना, लड़ना, आगे बढ़ना,
कब तक सम्बल का मंत्र पढूँ,
काले मंज़र, नियति अभागी,
कब तक इनका गणतंत्र पढूँ,

प्रभु जैसा मुझको जीवन में, घोर, कठिन वनवास मिला है।
पीड़ा को अनुप्रास मिला है॥

मर्यादापुरुषोत्तम भगवन!

मर्यादापुरुषोत्तम भगवन!
राम आपका स्वागत है।

जहाँ आपके आ जाने से,
‘त्रेतायुग’ का उद्धार हुआ।
जहाँ कर्म का और धर्म का,
प्रभु! विश्व-व्याप्त विस्तार हुआ।

वहाँ आज भी हर कण-कण में,
जय श्री राम समागत है।

जहाँ आपके वचन हमेशा,
जन-मन के आदर्श रहे हैं,
जहाँ आपके समुचित निर्णय,
सौष्ठव का संदर्श रहे हैं।

वहाँ राम की चरितबखानी,
मानस में भाषागत है।

जहाँ मात सीता रघुवर की,
अनुगामी बन साथ चली थीं।
जहाँ मान-मर्यादाएँ भी,
भरत त्याग को देख पली थीं।

वहाँ त्याग अरु प्रेम, प्रतिष्ठा,
सदियों से वंशागत है।

जहाँ आपके तप के सम्मुख,
सब देव हुए नतमस्तक थे।
जहाँ ब्रह्म ‘रघुकुल’ के साथी,
नारद जी बने प्रवर्तक थे।

वहाँ प्रतीक्षा में तुलसीदल,
अब तक खड़ा क्रमागत है।

इन दो छोटे हाथों से मैं

इन दो छोटे हाथों से मैं,
काम बड़े कर पाता हूँ।
घर का भार उठाता हूँ।

चार किताबें, कॉपी लेकर,
विद्यालय जाना था संभव।
माँ-बापू की बीमारी में,
पढ़ना मेरा हुआ असंभव।

‘गरम चाय’ की टपरी पर हाँ!
मैं ‘छोटू’ कहलाता हूँ।

टिन्नी छुटकी बिन्नी बड़की,
दो बहनें मेरी बेचारी,
टिन्नी की पढ़ने की इच्छा,
बिन्नी की शादी की बारी,

इनकी ख़ुशियों की ख़ातिर मैं,
रोज़ काम पर जाता हूँ।

मिट्टी की गुड़िया से छुटकी,
यह इक बात कहा करती है।
‘ठिकरी’ लगे हुए कपड़ों को,
बेचारी पहना करती है।

नई ‘फ्रॉक’ दिलावानी है सो,
पैसे चार बचाता हूँ।

जब तक नैना खुले हुए हैं

जब तक नैना खुले हुए हैं,
प्रणय पंथ परिणीत लिखूँगा।
अदिते! तुम पर गीत लिखूँगा।

जाने कब तक साँस चलेगी,
यह धड़कन कब रुक जाएगी,
जीवन के उपरांत श्यामले,
रूह गीत नभ में गाएगी,

प्रेम अमर करते सावन में,
निशिते! तुम पर गीत लिखूँगा।

जब-जब तुम को चोट लगेगी,
दिल मेरा तब विचलित होगा,
प्राण! मुस्कुराओगी जब; तब,
मन का पटल प्रफुल्लित होगा,

जीवन की पछुआ, पुरवा में,
कविते! तुम पर गीत लिखूँगा।

जीवन का यह चक्र नियत है,
ज़्यादा लंबा नहीं चलेगा,
जितना नेह समर्पण होगा,
जीवन उतना अधिक फलेगा,

यादों में बस प्यार समेटे,
शुचिते! तुम पर गीत लिखूँगा।

अच्छे-अच्छे गीत बिचारे

अच्छे-अच्छे गीत बिचारे,
बेच रहे हैं बेर।

बचपन से ‘कम्पोस्ट’ डालकर,
बड़े किए.
मालिश कर ख़ुद के पैरों पर,
खड़े किए.

‘बोन चाइना’ ने मिट्टी की,
करी क्वालिटी ढेर।

भेड़-बकरियों की नगरी में,
ज़ातों में,
ही-ही, हा-हा चलता रहता,
बातों में,

कउए कोयल पर करते हैं,
हँसी-हँसी में छेर।

क्रीम, पाउडर, तेल लगा ठग,
मिलता है।
गंजों के सिर पर विग कितना,
खिलता है।

जड़ें जमाता घूम रहा है,
मिट्टी में अंधेर।

चोट खाकर हम अभी संभले नहीं हैं

चोट खाकर हम अभी संभले नहीं हैं,
रब! हमें क्यों घाव गहरे मिल रहे हैं।

स्वर हमारा क्षीण पड़ता जा रहा है,
दर्द दिल का और बढ़ता जा रहा है,
जो सही हिस्सा बचा था हाय! मन का,
पा बुरी दुर्गंध सड़ता जा रहा है,
घाव उतना बढ़ रहा जितना इसे हम सिल रहे हैं,
रब! हमें क्यों…

कोशिकाएँ संकुचन की चाह! कहतीं,
धमनियाँ बहते लहू की आह! कहतीं,
है बहुत दुष्कर उठाना पीर अब तो,
क्या यही भीषण प्रलय है? वाह! कहतीं,
भाव बहते घाव बन, किंचित अगर हम हिल रहे हैं,
रब! हमें क्यों…

कविकुल को अभिशाप लगे हैं

कविकुल को अभिशाप लगे हैं,
समय बताओ कैसे बदले?
भाग्य बताओ कैसे बदले?

हमने सबके अपशब्दों से,
एक सुगंधित पुष्प बनाया।
पर वह पुष्प तुम्हारे मन को,
लगता है बिल्कुल ना भाया।

तुमने अपनों-सा मुँह मोड़ा,
ईश्वर! क्यों ऋतुओं से बदले।

परहित में चौराहों पर भी,
हमने अपने सिर कटवाए.
घोर कुहासे अनुनय करके,
सम्बंधों में से हटवाए.

दुखी हुए जब खुशियों के क्षण,
ऐसे-तैसे-वैसे बदले।

हमसे ही विश्वास हमारा,
किसे पता कब उठ जाएगा।
सुनो! तीन लोकों के स्वामी,
धरा जगत सूनी पाएगा।

नौ रस भी मर जाएँगे यदि,
उनके ‘रामभरोसे’ बदले।

भगीरथी के हम रखवाले

भगीरथी के हम रखवाले,
बनकर घूम रहे हैं दर-दर।

बैनर की प्रतियाँ शहरों में,
जगह-जगह चिपकाते हैं।
नए-नए मुद्दों को लेकर,
नित आवाज़ उठाते हैं।

दुर्गन्धों में दबे हुए हैं,
फिर भी गंगा मइया के स्वर।

जय गंगा की बोल-बोल कर,
क्या गंगा बच जाएगी?
अरे! हमारे कर्म प्रदूषित,
त्राहि-त्राहि मच जाएगी।

मन भर कचरा भेज रहे हैं,
निज घर से गंगा माँ के घर।

कितने ही अभियान चला लें,
विफल रहेंगे यदि सोए.
कॉलर पकड़ो; ख़ुद से पूछो,
गंगा आख़िर क्यों रोए?

संतानों! माँ के प्रति मिलकर,
सबको होना होगा तत्पर।

उठो धनुर्धर! बैठ गए क्यों?

उठो धनुर्धर! बैठ गए क्यों?
उठो पार्थ! क्यों बैठ गए हो?
रण तो पूरा बचा हुआ है।

समर भूमि में भले तुम्हारे,
मन में अंतर्द्वंद चल रहा।
भाव-हृदय से टकराए हैं,
नयन नीर विष्यन्द चल रहा।

उठो! तुरत गांडीव उठाओ, वीर! हार मत मानो तुम।
समर शेष को पूर्ण करो, यदि; रग में ‘शूरा’ बचा हुआ है।
रण तो पूरा बचा हुआ है।

तुमसे ही आशा है सबको,
एक नया इतिहास रचोगे।
सूर्य, चंद्र सब जिसमें होंगे,
ऐसा अद्भुत व्यास रचोगे।

कर्म करो, कर्तव्य निभाओ, तरकश से फिर तीर निकालो।
धर्म चाहते सब नयनों का, स्वप्न ‘अधूरा’ बचा हुआ है।
रण तो पूरा बचा हुआ है।

कठिन समय की कठिन परीक्षा,
पूर्ण समर्पण माँग रही है।
स्वेद, रक्त की बूँद-बूँद से,
धरती तर्पण माँग रही है।

पार्थ! उठो! असमंजस छोड़ो, कब तक शोक मनाओगे।
निश्चित जीत तुम्हारी है, बस; इक ‘कंगूरा’ बचा हुआ है।
रण तो पूरा बचा हुआ है॥

प्रणय का प्रस्ताव रखने

प्रणय का प्रस्ताव रखने, आपको जाना पड़ेगा।
प्रेम घर लाना पड़ेगा।

दो कबूतर नेह वन में,
दूरियाँ रख उड़ रहे हैं।
तार दिल के आपसी पर,
साथ पाकर जुड़ रहे हैं।

एक होना ही यथोचित,
इस नियति ने कह दिया है।
इक मधुर-सा गीत कोई,
बाग में गाना पड़ेगा।
प्रेम घर लाना पड़ेगा।

प्रेम के आलिंगनों में,
वो लिपटते जा रहे हैं।
बात मन की चाह कर भी,
वो नहीं कह पा रहे हैं।

संकुचन के बन्ध साथी!
तोड़ने का यह समय है।
दूरियों को अब हृदय से,
दूर बैठाना पड़ेगा।
प्रेम घर लाना पड़ेगा।

उस क्षण तक मैं मौन रहूँगा 

उस क्षण तक मैं मौन रहूँगा।

जबतक कौरव राजधर्म की,
सत्य सभा का मान रखेंगे।
जब तक कुछ शिशुपाल धर्म के,
वचनों का सम्मान रखेंगे।

सौ अपशब्दों तक निंदक से,
वचन दिया! कुछ नहीं कहूँगा।

दुर्योधन का स्वांग भले ही,
मर्यादा विपरीत रहेगा।
क्रूर दुःशासन यदि स्त्री की,
लाज सोच निष्क्रीत रहेगा।

अनुचित, उचित भले होंगे पर,
निर्णय सब चुपचाप सहूँगा।
उस क्षण तक मैं मौन रहूँगा।

भले काल के हर पन्ने में,
लाक्षागृह अनगिनत जलेंगे।
पर यदि विदुर सरीखे ज्ञाता,
धर्मनिष्ठ हो साथ चलेंगे।

षड्यंत्रों! की रची अग्नि में,
हर पांडव के संग दहूँगा।

दो दिल दूर चले; कदमों की

दो दिल दूर चले; कदमों की,
मैं केवल आहट सुन पाऊँ।
बोलो! तुमको क्या बतलाऊँ।

शायद ऊँचे भवन प्रतिष्ठित,
मुझको करना नहीं आ सका।
शायद उसका हाथ पकड़कर,
मंज़िल तक मैं नहीं जा सका।

मेरी ही ग़लती है पर मैं,
कब तक रो-रोकर मर जाऊँ।

साथ सुमन का इक कंटक को,
क्या उपवन को ठीक लगेगा?
उसके दर पर मेरा आना,
क्या उस मन को ठीक लगेगा?

बिन उसके मन उपवन सूना,
कैसे उसको यह समझाऊँ?

क्षणभंगुर-सी पीर हमारी,
इसी प्रश्न से रोज़ लड़ेगी।
अगर कुरेदोगे तुम इसको,
बातों में ही फूट पड़ेगी।

पीड़ा का सागर लेकर मैं,
कब तक झूठों-सा मुस्काऊँ।

हे अम्बर के लाल!

हे अम्बर के लाल! तुम्हारा क्रोध हमें पिघला ही देगा।

निठुर मनुज की गतिविधियों से माना तुमको कष्ट हुआ है,
प्रकृति का हर हिस्सा थोड़ा-थोड़ा प्रतिदिन नष्ट हुआ है,
मूक प्राणियों के जीवन का थोड़ा ध्यान धरो तुम सूरज,

क्रोध तुम्हारा निर्दोषों को कारण बिना जला ही देगा।
हे अम्बर के लाल! …

ताप तुम्हारा असहनीय है विनत भाव करबद्ध खड़े हैं,
सुबह दुपहरी साँझ नभचरों ने भी अनगिन युद्ध लड़े हैं,
बिन जल, छाया जीना दूभर, भली-भाँति परिचित हो प्रभु तुम!

देव! अग्निवर्षा को रोको, क्रोध हमें अकुला ही देगा।
हे अम्बर के लाल! …

जब तक मेरे नैन जगेंगे

जब तक मेरे नैन जगेंगे,
दिवस, साँझ औ’ रैन जगेंगे।

भला कहाँ सो पाऊँगा मैं,
जब तक दिल से पीर बहेगी,
रक्त लालिमा मन-मस्तक से,
होकर बहुत अधीर बहेगी,

धमनी, नाड़ी इस शरीर के,
जब तक हो बेचैन जगेंगे।
दिवस, साँझ औ’ रैन जगेंगे।

जब रस्ता चमकीला होगा,
अँधियारे की तन्हाई का,
तब शायद कोई द्वार खुले,
मुझसे रूठी परछाई का,

कुछ प्रश्नों का हल पाने को,
जब तक कॉपी, पैन जगेंगे।
दिवस, साँझ औ’ रैन जगेंगे।

मुझको चिंता में पाकर जब,
काशी आँख नहीं झपकाती,
शिव के साथ यकायक मेरा,
हाल-ख़बर लेने आ जाती,

जब तक मुझमें शिव-गंगा के,
हरिद्वार, उज्जैन जगेंगे।
दिवस, साँझ औ’ रैन जगेंगे।

हम हाथों पर हाथ धरे हैं

हम हाथों पर हाथ धरे हैं,
तन्हाई से बात करे हैं,
सोच रहे हैं हम; जाने की,
उसकी मजबूरी क्या होगी।

होगा कोई बाग अनोखा, जहाँ मिलीं उसको सब खुशियाँ,
शीतल, मीठे नीर सहित, पाखर की ठंडी-ठंडी छइयाँ,
अब जब वह है नहीं हमारा, फिर हसरत पूरी क्या होगी?
सोच रहे हैं हम; जाने की, उसकी मज़बूरी क्या होगी।

वह दुनिया के किस कोने में, रहता है ओ ईश! बता दे,
खोज-खोजकर हार चुका हूँ, मोहन! उसका मुझे पता दे,
मेरे उस तक जा सकने की, ठीक-ठीक दूरी क्या होगी।
सोच रहे हैं हम; जाने की, उसकी मज़बूरी क्या होगी।

ज़िन्दगी का घट कहीं रीता समूचा हो न जाए 

ज़िन्दगी का घट कहीं रीता समूचा हो न जाए,
नीर कम है; प्यास ज़्यादा, हो सके तो लौट आओ.

कर प्रतीक्षा नयनिके! संभावनाएँ रो पड़ी हैं,
उर उदधि की पीर गा अभिव्यंजनाएँ रो पड़ी हैं,
चक्षुओं में रक्त की नदिया उतरती जा रही है,
क्लांत होती; नेह की सारी कथाएँ रो पड़ी हैं,

पात्र अनुपम नेह के मुँह को छिपाकर हैं सिसकते,
है मिलन की आस ज़्यादा, हो सके तो लौट आओ.
नीर कम है, प्यास ज़्यादा…

ख़त तुम्हें जो कल लिखा वो, आँसुओं से तर-ब-तर है,
यह विरह पीड़ा मुझे नित दे रही मिशिते! ज़हर है,
‘जन्म-जन्मांतर तलक यह बन्ध टूटेगा न साजन!’
झूठ था क्या यह वचन? मन सोचकर जाता सिहर है,

है तुम्हें सौगंध बंधन और निर्मल इस वचन की,
है प्रणय! विश्वास ज़्यादा, हो सके तो लौट आओ.
नीर कम है, प्यास ज़्यादा…

सुमुखि! आलिंगन तुम्हारा है अभी तक याद आता,
केश की छाया तले बेचैनियों को भूल जाता,
फिर वही मुस्कान वितरित तुम कपोलों से करो अनु!
मैं जिसे पाकर दुखों में भी प्रिये था मुस्कुराता,

तुम मुझे कर दो क्षमा अब भूल मुझसे फिर न होगी,
है मुझे अहसास ज़्यादा हो सके तो लौट आओ.
नीर कम है, प्यास ज़्यादा…

हम नदी के दो मुसाफ़िर 

हम नदी के दो मुसाफ़िर,
हैं भले अनजान लेकिन!
क्यों न दोनों साथ मिलकर
इस नदी को पार कर लें।

क्यों न मिलकर हम परस्पर,
प्रीति का इक साज़ छेड़ें,
सरगमी संगीत के सँग,
नेह की आवाज़ छेड़ें,

नेह की दो ईंट को हम, गेह का आधार कर लें।
इस नदी को पार कर लें…

खिंच रही मुख पर पहेली,
व्यर्थ ही सुलझा रहे हैं,
क्यों अकेले बूझकर हम,
अर्थ को उलझा रहे हैं,

नेह की मुस्कान पढ़कर, दो हृदय अब प्यार कर लें।
इस नदी को पार कर लें…

जब-जब घोर अमावस होगी

जब-जब घोर अमावस होगी, राह नहीं सूझेगी,
गीत उजाला बनकर जग के तम को दूर भगाएँगे।

उन गंभीर क्षणों में मन की,
बात कदाचित नहीं करेंगे।
सत्ताधीशों के चंगुल में,
फँस कर भी ये नहीं डरेंगे।

निकल कलम से पन्नों पर तब, धारदार बन जाएँगें।

जोड़ घटाना पास रखेंगे,
कितना खोया कितना पाया।
सच्चों को झूठों ने मिलकर,
धमकी दी, जितना भड़काया।

छलछन्दों के जग में तब, भीषण विध्वंस मचाएँगे।

प्रेम गली में जाकर देखो

प्रेम गली में जाकर देखो, बासंती-सा फाग मिलेगा,
राधा की बोली पाओगे, मीरा का अनुराग मिलेगा।

गुंजित होते स्वर अधरों पर,
अपनापन गुनगुना रहे हैं,
कोयल, मोर, पपीहे मिलकर,
राग भैरवी सुना रहे हैं,

कान्हा की बंशी का तुमको, हर उपवन में भाग मिलेगा।

नव नूतन से दृश्य खिलेंगे,
जब मन के दरवाजों पर,
दिल की धड़कन स्वतः करेगी,
नृत्य मधुर आवाज़ों पर,

नेह वृष्टि में भीगोगे जब, अंतर्मन बेदाग मिलेगा।

वापस आकर फिर मिलते हैं /

हृते! छोड़कर तुम्हें अकेले कहाँ भला मैं जाऊँगा,
क्यों रोती हो? क्यों घबराती?
वापस आकर फिर मिलते हैं।

काम अधूरे निपटाकर मैं जल्दी वापस आऊँगा,
दीवाली पर साथ तुम्हारे दीपक सुमुखि! जलाऊँगा।
हाल-ख़बर की चिट्ठी रमिले! तुम्हें समय पर भेजूँगा
वापस आकर तुमको मधुरिम मोहक गीत सुनाऊँगा,

पगली! नहीं बिछड़ते हैं, बिजली-बादल घिर-घिर मिलते हैं।
वापस आकर फिर मिलते हैं…

यही हाल मेरा भी होगा सखे! दूर जब जाऊँगा,
याद तुम्हारी सम्बल होगी जब मन को समझाऊँगा,
सुनो! नयनिके नीर बहाकर मुझको मत कमज़ोर करो,
वादा है हफ़्ते में इक दिन तुमको फ़ोन मिलाऊँगा।

हारिल के जैसे ही धरती पर जोड़े आख़िर मिलते हैं।
वापस आकर फिर मिलते हैं…

जब घर आ जाऊँगा रुचिके! तुम्हें रुष्ट मैं पाऊँगा,
झुमके, कंगन से प्रणया! को, कोशिश कर बहलाऊँगा,
वही नाज़-नख़रे, उफ़-तौबा! गुल जैसे खिल जाएँगे,
कितना प्यारा क्षण होगा वो, जब मैं तुम्हें मनाऊँगा।

गीत गूँजते हैं इस जग में जब बिछड़े साबिर मिलते हैं।
वापस आकर फिर मिलते हैं…

अपने प्रेमगीत में अक्सर

अपने प्रेमगीत में अक्सर,
दो ही बन्ध दिया करता हूँ।
उसके नाम हिया करता हूँ।

पहला उसके नाम सौंपता,
दूजा ख़ुद के नाम लिखूँ मैं,
वो मुझको पूरा करती है,
चाहूँ उसकी तरह दिखूँ मैं,

झल्ली! से चिट्ठी में दिल की,
बातें ख़ूब किया करता हूँ।

मन मेरा चातक! हो जाता,
जब शक्कर जैसे बोल सुनूँ,
चाह यही मेरे जीवन की,
उसकी वाणी अनमोल सुनूँ,

उसके दो कोमल शब्दों में,
मन भर सोम पिया करता हूँ।

‘इंक’ भावनाओं की भरकर,
यह कलम तीसरा बन्ध कहे,
मीत! उसी के अहसासों में,
उतरे फिर मुक्तक, छंद कहे।

सपनों की शहज़ादी; उसको,
ख़ुद में रोज़ जिया करता हूँ॥

मुझको मेरा होश नहीं है 

मुझको मेरा होश नहीं है।

सबकुछ धीमे-धीमे चलता,
समय यकायक ठहर गया है।
मद्धम झोंका किसी पवन का,
मुझे देख कर सिहर गया है।

समय-पवन खुसफुसा रहे हैं, कई कारणों का मंथन कर,
आख़िर बात रही क्या होगी, इसमें अब वह जोश नहीं है।
मुझको मेरा होश नहीं है।

कली फूल बनकर बैठी है,
मन से मन की कुछ बात चले।
मधुरिम स्पंदन, गुंजन को,
मुझ तक लेकर गात चले।

मुक्तक ने दोहे से बोला, उपवन गीतों का सूना है,
कोयल की तानों को सुनकर, हृदय हुआ मदहोश नहीं है।
मुझको मेरा होश नहीं है।

प्रणय निवेदन मैं करता हूँ 

प्रणय निवेदन मैं करता हूँ तुम इसको स्वीकार करो,
हिय के निर्मल भावों को प्रिय अब तुम अंगीकार करो।

ठुकराया प्रस्ताव तुम्हारा भूल हुई थी मुझसे,
नीर नयन में सौंपा खारा भूल हुई थी मुझसे,
प्रियतम मुझको क्षमा करो अब साँसों पर अधिकार करो,
प्रणय निवेदन मैं करता हूँ…

दिवस गुज़ारे, माह गुज़ारे, साल गुज़ारा तुमने,
सुबह दुपहरी साँझ पहर में रोज़ पुकारा तुमने,
अब जाकर समझा हूँ मेरी धड़कन से तुम प्यार करो,
प्रणय निवेदन मैं करता हूँ…

साथ चलूँगा डगर तुम्हारे करो भरोसा मेरा,
तुमको इतना कष्ट दिया दिल खूब मसोसा मेरा,
बन पतवार ‘शिवम’ की नौका, भव सागर से पार करो,
प्रणय निवेदन मैं करता हूँ…

नेह के पथ पर

नेह के पथ पर अकेले क्यों खड़े हो?

कर समर्पित नेह पर सर्वस्व अपना,
पूर्ण कर लें हम प्रिये प्रत्येक सपना,
मिल बढ़ें कठिनाइयों के द्वार भीतर,
तुम अकेले इस जगत से क्यों लड़े हो?
नेह के पथ पर…

क्यों न मिलकर एक होना चाहते हो,
लग रहा मुझको न खोना चाहते हो,
प्रेम का अनुबंध करके देख भी लो,
तुम निरर्थक ही हठों पर क्यों अड़े हो?
नेह के पथ पर…

रच रहे हो प्रश्न हिय के नेह जल से,
प्रश्न का उत्तर मिलेगा किंतु हल से,
डग बढ़ाकर बढ़ चलो इसकी डगर पर,
पाँव को पथ में प्रिये तुम क्यों जड़े हो?
नेह के पथ पर…

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