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आलम में हुस्न तेरा मशहूर जानते हैं 

आलम में हुस्न तेरा मशहूर जानते हैं
अर्ज़ ओ समा का उस को हम नूर जानते हैं

हर-चंद दो जहाँ से अब हम गुज़र गए हैं
तिस पर भी दिल के घर को हम दूर जानते हैं

जिस में तिरी रज़ा हो वो ही क़ुबूल करना
अपना तो हम यही कुछ मक़्दूर जानते हैं

सौ रंग जल्वागर हैं गरचे बुतान-ए-आलम
हम एक तुझ को अपना मंज़ूर जानते हैं

लबरेज़-ए-मय हैं गरचे साग़र की तरह हर दम
तिस पर भी आप को हम मख़्मूर जानते हैं

कुछ और आरज़ू की हरगिज़ नहीं समाई
अज़ बस तुझ ही को दिल में मामूर जानते हैं

‘ईमान’ जिस के दिल में है याद उस की हर दम
हम तो उसी की ख़ातिर मसरूर जानते हैं

दिल के आईने में नित जल्वा-कुनाँ रहता है 

दिल के आईने में नित जल्वा-कुनाँ रहता है
हम ने देखा है तू ऐ शोख़ जहाँ रहता है

कोई दिन घर से न निकले है अगर वो ख़ुर्शीद
मंुतज़िर शाम तलक एक जहाँ रहता है

झाड़ दामन के तईं मार के ठोकर निकले
कहीं रोके से भी चो सर्व-ए-रवाँ रहता है

गाहे माहे ऐ मह-ए-ईद इधर भी तो गुज़र
रोज़ ओ शब बज़्म में तेरा ही बयाँ रहता है

बावजूद-ए-कि मुझे रब्त-ए-दिली है उस से
ये न पूछा कभू ‘ईमान’ कहाँ रहता है

दिया इस क़ातिल-ए-बे-रहम से क्या लीजिएगा 

दिया इस क़ातिल-ए-बे-रहम से क्या लीजिएगा
अपनी ही आँखों से अब ख़ून बहा लीजिएगा

फिर नहीं होने की तक़्सीर तो ऐसी हरगिज़
अब किसी तरह मेरी जान बचा लीजिएगा

इस क़दर संग-दिली तुम को नहीं है लाज़िम
किसी मज़्लूम की गाहे तो दुआ लीजिएगा

लख़्त-ए-दिल ख़ाक में देता है कोई भी रहने
गिर पड़े अश्क तो आँखों से उठा लीजिएगा

फिर न पछताओ कहीं बाद मिरे जाने के
गालियाँ और हों बाक़ी तो सुना लीजिएगा

रूठ कर जाए कोई अपने से प्यारे तो वहीं
चाहिए आप गले पड़ के मना लीजिएगा

अपने मुश्ताक़ को लाज़िम है कि गाहे माहे
ग़ैर की आँख बचा घर में बुला लीजिएगा

एक मुद्दत हुई कुछ हर्फ़ ओ हिकायत ही नहीं
जी मं है आज तो बातों में लगा लीजिएगा

किसी जलसे में जो ‘ईमान’ कहो तो जानें
घर में यूँ बैठे हुए शेर बना लीजिएगा

किसी रोज़ इलाही वो मिरा यार मिलेगा

किसी रोज़ इलाही वो मिरा यार मिलेगा
ऐसा भी कभी होगा कि दिलदार मिलेगा

जूँ चाहिए दूँ दिल की निकालूँगा हवस मैं
जिस दिन वो मुझे कैफ़ में सरशार मिलेगा

इक उम्र से फिरता हूँ लिए दिल को बग़ल में
इस जिन्स का भी कोई ख़रीदार मिलेगा

मिल जाएगा फिर आप से ये ज़ख़्म-ए-जिगर भी
जिस रोज़ कि मुझ से वो सितमगार मिलेगा

ये याद रख ऐ काफ़िर-ए-बद-केश क़सम है
मुझ सा न कोई तुझ को गिरफ़्तार मिलेगा

‘ईमान’ न कहता था मैं तुझ से ये हमेशा
जो शोख़ मिलेगा सो दिल-आज़ार मिलेगा

मेहरबाँ पाते नहीं तेरे तईं यक आन हम

मेहरबाँ पाते नहीं तेरे तईं यक आन हम
फिर भला दिल के निकालें किस तरह अरमान हम

हर क़दम पर जिस के एज़ाज़-ए-मसीहाई फ़िदा
उस अदा उस नाज़ उस रफ़्तार के क़ुर्बान हम

उम्र भर साक़ी न छोड़ी मय-कदा की बंदगी
एक ही पैमाने पर करते हैं ये पैमान हम

कोई तो दावत बता दो इस तरह की शैख़ जी
एक शब तो अपने घर इस को रखें मेहमान हम

हाँ मगर सलवात पढ़ना देख तुझ को दम-ब-दम
और क्या रखते हैं तेरी शान के शायान हम

जी में हम बरपा करें ज़ंजीर का ग़ुल ऐ जुनूँ
वादी-मजनूँ को देखें किस तरह सुनसान हम

रात दिन सोहबत है जिन को बे-तकल्लुफ़ आप से
पूछना क्या वो तो बेहतर भला हैं ऐ जान हम

तू ने दुज़-दीदा निगाहें जब लड़ाईं ग़ैर से
हो गए नाचार प्यारे जान कर अंजान हम

हम-नशीं सरकार के ही जा-ब-जा ग़म्माज़ हैं
कीजिए तहक़ीक़र इसे करते नहीं बोहतान हम

सैर को आता है वो ‘ईमान’ जा कर बाग़ में
खोल देवें चार दिन आगे ही गुल के कान हम

पहुँचा है आज क़ैस का याँ सिलसिला मुझे

पहुँचा है आज क़ैस का याँ सिलसिला मुझे
जंगल की रास क्यूँ न हो आब हो हवा मुझे

आना अगर तिरा नहीं होता है मेरे घर
दौलत-सरा में अपने ही इक दिल बुला मुझे

वो होवे और मैं हूँ इक कुंज-ए-आफ़ियत
इस से ज़ियादा चाहिए फिर और क्या मुझे

पैदा किया है जब से कि मैं रब्त-ए-इश्क़ से
बेगाना जानता है हर एक आश्ना मुझे

काफ़िर बुतों की राह न जा आ ख़ुदा को मान
पीर-ए-ख़िरद ने गरचे कहा बारहा मुझे

पर क्या करूँ कि दिल ही नहीं इख़्तिार में
उस ख़ानुमा-ख़राब ने आज़िज किया मुझे

पहले ही अपने दिल को न देना था उस के हाथ
‘ईमान’ अब तो कोई पड़ी है वफ़ा मुझे

क़िस्सा तो ज़ुल्फ़-ए-यार का तूल ओ तवील है 

क़िस्सा तो ज़ुल्फ़-ए-यार का तूल ओ तवील है
क्यूँकर अदा हो उम्र का रिश्ता क़लील है

गुंजाइश दो शाह नहीं एक मुल्क में
वहदानियत के हक़ की यही बस दलील है

मशहद पे दिल के दीदा-ए-गिर्यां पुकार दे
प्यासा न जा ब-नाम-ए-शहीदाँ सबील है

नज़रें लड़ानें में वो तग़ाफ़ुल है ख़ुश-नुमा
जिस तरह से पतंगों के पंजों में ढील है

‘ईमान’ क्या बयान करूँ उस शहसवार का
हाज़िर जिलौ के बीच जहाँ जिब्रईल है

यूसुफ़ ही ज़र-ख़रीदों में फ़िरोज़-बख़्त था 

यूसुफ़ ही ज़र-ख़रीदों में फ़िरोज़-बख़्त था
क़ीमत में जिस की फिर वही शाही का तख़्त था

मज्लिस में तेरी काविश-ए-मिज़्गाँ के हाथ से
ग़ुचाँ नमत हर एक जिगर लख़्त लख़्त था

आँसू तो चीर कर सफ़-ए-मिज़्गाँ निकल गया
लड़का था ख़ुर्द-साल पे दिल का करख़्त था

तुझ पे गुदाज़ा दिल है सरापा है शम्अ-रू
जूँ नख़्ल-ए-मोम बाग़ में हर इक दरख़्त था

‘ईमान’ आफ़रीं है कि उस बद-मिज़ाज से
याराने का निबाहना दुश्वार सख़्त था

ज़िंदगी शक्ल-ए-ख़्वाब की सी है

ज़िंदगी शक्ल-ए-ख़्वाब की सी है
मौज गोया सराब की सी है

कह सबा वो खुली है ज़ुल्फ़ कहाँ
तुझ में बू मुश्क-नाब की सी है

घर में आने से पहले उस परी-रौ के
रौशनी माहताब की सी है

क्यूँ न दीवाना उस बदन का हूँ
जिस में ख़ुशबू गुलाब की सी है

कुछ न कुछ रात शग़्ल में गुज़री
आज सूतर हिजाब की सी है

क्यूँ छुपाता है शब की बे-ख़्वाबी
बू दहन में शराब की सी है

मेरी नज़रों में तेरे बिन साग़र
शक्ल चश्म-ए-पुर-आब की सी है

मेरा हम-साया सोचता था यही
आज शब इजि़्तराब की सी है

कौन दिल-सोख़्ता है गर्म-तपिश
बू यहाँ कुछ कबाब की सी है

रग-ए-जाँ पर है कौन नाख़ुन-ज़न
कुछ सदा यहाँ रूबाब की सी है

चलिए ‘ईमान’ बज़्म-ए-यार से घर
याँ तरह कुछ जवाब की सी है

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