सीखो
फूलों से नित हँसना सीखो, भौंरों से नित गाना।
तरु की झुकी डालियों से नित, सीखो शीश झुकाना!
सीख हवा के झोकों से लो, हिलना, जगत हिलाना!
दूध और पानी से सीखो, मिलना और मिलाना!
सूरज की किरणों से सीखो, जगना और जगाना!
लता और पेड़ों से सीखो, सबको गले लगाना!
वर्षा की बूँदों से सीखो, सबसे प्रेम बढ़ाना!
मेहँदी से सीखो सब ही पर, अपना रंग चढ़ाना!
मछली से सीखो स्वदेश के लिए तड़पकर मरना!
पतझड़ के पेड़ों से सीखो, दुख में धीरज धरना!
पृथ्वी से सीखो प्राणी की सच्ची सेवा करना!
दीपक से सीखो, जितना हो सके अँधेरा हरना!
जलधारा से सीखो, आगे जीवन पथ पर बढ़ना!
और धुएँ से सीखो हरदम ऊँचे ही पर चढ़ना!
उलझन
कोई मुझको बेटा कहता,
कोई कहता बच्चा।
कोई मुझको मुन्नू कहता,
कोई कहता चच्चा।
कोई कहता लकड़ा ! मकड़ा!
कोई कहता लौआ।
कोई मुझको चूम प्यार से,
कहता मेरे लौआ।
कल आकर इक औरत बोली,
तू है मेरा गहना।
रोटी अगर समझती वह तो,
मुश्किल होता रहना।
सब सहता हूँ पर बढ़ता है,
दुःख अन्दर ही अन्दर।
गालों पर जब चूम चूम,
माँ कहती – मेरे बन्दर।
नानी का कम्बल
नानी का कम्बल है आला,
देख उसे क्यों डरे न पाला।
ओढ़ बैठती है जब घर में,
बन जाती है भालू काला।
रात अँधेरी जब होती है,
ओढ़ उसे नानी सोती है।
तो मैं भी डरता हूँ कुछ कुछ,
मुन्नी भी डर कर रोती है ।
पर बिल्ली है जरा न डरती,
लखते ही नानी को टरति ।
चुपके से आ इधर -उधर से,
उसमें म्याऊँ म्याऊँकरती ।
कहीं मदारी यदि आ जाये,
कम्बल को पहिचान न पाये।
तो यह डर हैडम -डम करके,
पकड़ न नानी को ले जाये।
मक्खी की निगाह
कितनी बड़ी दीखती होंगी मक्खी को चीजें छोटी,
सागर-सा प्याला भर जल, पर्वत-सी एक कौर रोटी।
खिला फूल गुलदस्ते जैसा, काँटा भारी भाला-सा,
तालों का सूराख उसे होगा बैरंगिया नाला-सा।
हरे-भरे मैदान की तरह होगा एक पीपल का पात,
पेड़ों के समूह-सा होगा बचा-खुचा थाली का भात।
ओस बूँद दर्पण-सी होगी, सरसों होगी बैल समान,
साँस मनुज की आँधी-सी करती होगी उसको हैरान!
एक सवाल
आओ, पूछें एक सवाल!
मेरे सिर में कितने बाल?
कितने आसमान में तारे?
बतलाओ या कह दो हारे!
नदियाँ क्यों बहती दिन-रात?
चिड़ियाँ क्या करती हैं बात?
क्यों कुत्ता बिल्ली पर धाए?
बिल्ली क्यों चूहे को खाए?
फूल कहाँ से पाते रंग?
रहते क्यों न जीव सब संग?
बादल क्यों बरसाते पानी?
लड़के क्यों करते शैतानी?
नानी की क्यों सिकुड़ी खाल?
अजी, न ऐसा करो सवाल!
यह सब ईश्वर की माया है,
इसको कौन जान पाया है?
जुड़वाँ की मुसीबत
एक साथ जन्मे हम दोनों,
मैं औ मेरा भाई।
किन्तु शकल सूरत मिलने से,
बेहद आफत आई।
मैं हूँ कौन? कौन है भैया?
समझ न कोई पाता,
जाता यदि वह नहीं मदरसे,
तो मैं ही पिट जाता।
भाई का ले नाम मुझे थे,
घर के लोग बुलाते।
पड़ता वह बीमार – दवाई
लेकिन मुझे पिलाते।
धोखे में आ मात पिता ने,
भी की भूल घनेरी।
भाई से ब्याहा उसको,
जो होती दुलहिन मेरी।
क्या बतलाऊँ मुसीबतें,
क्या पड़ीं शीश पर पटपट,
भाई जब मर गया मुझी को,
लोग ले गए मरघट।
नानी का संदूक
नानी का संदूक निराला,
हुआ धुएँ से बेहद काला।
पीछे से वह खुल जाता है,
आगे लटका रहता ताला!
चंदन चौकी देखी उसमें,
सूखी लौकी देखी उसमें,
बाली जौ की देखी उसमें,
खाली जगहों में है जाला,
नानी का संदूक निराला!
शीशी गंगा जल की उसमें,
ताम्रपत्र, तुलसीदल उसमें,
चींटा, झींगुर, खटमल उसमें,
जगन्नाथ का भात उबाला,
नानी का संदूक निराला!
मिलता उसमें कागज कोरा,
मिलता उसमें सुई व डोरा,
मिलता उसमें सीप-कटोरा,
मिलती उसमें कौड़ी माला,
नानी का संदूक निराला!
-साभार: नंदन, अगस्त 1993, 32
क्यों
पूछूँ तुमसे एक सवाल,
झटपट उत्तर दो गोपाल!
मुन्ना के क्यों गोरे गाल?
पहलवान क्यों ठोके ताल?
भालू के क्यों इतने बाल?
चले साँप क्यों तिरछी चाल?
नारंगी क्यों होती लाल?
घोड़े के क्यों लगती नाल?
झरना क्यों बहता दिन-रात?
जाड़े में क्यों काँपे गात?
हफ्ते में क्यों दिन हैं सात?
बुडढ़ों के क्यों टूटे दाँत?
ढम-ढम-ढम क्यों बोले ढोल?
पैसा क्यों होता है गोल?
मीठा क्यों होता है गन्ना?
क्यों चमचम चमकीला पन्ना?
लल्ली खेल रही क्यो गुड़िया?
बनिया बाँध रहा क्यों पुड़िया?
बालक क्यों डरते सुन हौआ?
काँव काँव क्यों करता कौआ?
नानी को क्यों कहते नानी?
पानी को क्यों कहते पानी?
हाथी क्यों होता है काला?
दादी फेर रही क्यों माला?
पककर फल क्यों होता पीला?
आसमान क्यों होता नीला?
आँख मूँद क्यों सोते हो तुम?
पिटने पर क्यों रोते हो तुम?
चूहे चार
बिल में बैठे चूहे चार,
चुपके चुपके करें विचार।
बाहर आएँ जाएँ कैसे?
अपनी जान बचाएं कैसे?
बिल के बाहर बिल्ली रानी,
बैठी बिन दाना ,बिन पानी।
रह रह बोले म्याऊँ म्याऊँ,
चूहे निकलें तो मैं खाऊँ।
दिन बीता फिर आई शाम,
लोग लगे करने आराम।
चूहे रहे समाए बिल में,
जान पड़ी उनकी मुश्किल में।
बिल्ली कहती म्याऊँ म्याऊँ,
चूहे निकलें तो मैं खाऊँ।
चूहे कहते चूँ चूँ चूँ चूँ,
बिल्ली को हम चकमा दें क्यूँ?
सूझा एक उपाय उन्हें तब,
मुरदा बन करके निकले सब।
बाहर कर अपनी अपनी दुम,
चारों निकले बन कर गुमसुम।
बिल्ली ने झट पकड़ा उनको,
लेकिन पाया अकड़ा उनको।
बोली – मरे न खाऊँगी मैं,
और कहीं अब जाऊँगी मैं।
चली वहाँ से गई बिलैया,
लगे खेलने चारों भैया।
किया दूर तक सैर सपाटा,
जो पाया सो कुतरा काटा।
चीन का सौदागर
एक चीन का सौदागर था,
बहुत बड़ी थी उसकी चोटी
उसे लपेट लपेट कमर पर,
था वह लेता लगा लंगोटी।
उस चोटी में फंस फंस करके,
गिर जाते थे अगणित राही।
इससे सड़कों पर चलने की,
थी उसको हो गई मनाही।
पर वह घर में बैठे बैठे,
भी उत्पात मचाता था।
फंस कर गिरते वायुयान थे,
चोटी अगर उड़ाता था।
उसका लड़का चतुर बड़ा था,
था उसने मन में ठाना।
खुल सकता है इस चोटी के,
बल पर बड़ा कारखाना।
बस वह बोला मौका पाकर,
बप्पा मानो मेरी बात।
कम्बल लोई और दुशाले,
क्यों न बनायें हम दिन रात।
बात चतुर बेटे की फ़ौरन,
बूढ़े सौदागर ने मानी।
चोटी का वह सेठ कहाया,
दूर हूई उसकी हैरानी।
मुन्नी की हैरानी
बाबू बनकर मुन्नी बैठी,
ऐनक लगा शान में ऐंठी।
गुड़िया को झट लगी पढ़ाने,
रोब मास्टरी का दिखलाने।
तब तक उसकी अम्मा आई,
लीला देख बहुत झल्लाई।|
हाथ पकड़ कर पीटा उसको,
खींचा और घसीटा उसको।
लेकिन मुन्नी समझ न पाई,
क्यों इतना अम्मा झल्लाई।
बोली आँखों में भर पानी,
बाबू जी करते शैतानी।
ऐनक रोज लगाते हैं वे,
मुझको रोज पढ़ाते हैं वे।
उनको कभी न कुछ कहती हो,
देख देख भी चुप रहती हो।
मुझको ही क्यों पीटा पकड़ा,
लेकर एक बड़ा सा लकड़ा।
सुन बेटी की बातें भोली,
माँ की बुझी क्रोध की होली।
प्यार किया चुमकारा उसको,
कभी नहीं फिर मारा उसको।
गर्मी के मजे
गर्मी के हैं मजे निराले,
लगे पाठशालों में ताले।
नहीं गुरूजी का अब डर है,
खेल हो रहा पानी पर है।
घंटो रोज नहाते हैं अब,
छाया में सुख पाते हैं अब।
खाते खुश हो बरफ मलाई,
पीते शरबत और ठंडाई।
है बहार आमों की आई,
तरबूजों की हूई चढ़ाई।
गली गली बिकता खरबूजा,
छिपा पसीने में भड़भूजा।
पग पग पर दूल्हे सजते हैं,
होते ब्याह बैंड बजते हैं।
नित्य नई हम दावत पाते,
दलबल से हैं खाने जाते।
कभी कभी आँधी आती है,
धूल गगन में छा जाती है।
झरझर झरझर ,सरसर सरसर,
पेड़ उखड़ते उड़ते झप्पर।
आधी रात फूलता बेला,
तारों का लग जाता मेला।
सुख से तब दुनियाँ सोती है,
सपनो की वर्षा होती है।
गर्मी है इतनी सुखकारी,
हाँ पर एक ऐब है भारी।
लंका सी पृथ्वी जलती है,
जाने यह किसकी गलती है।
बाल विनय
बहुत मैं तुमसे पाता हूँ,
तुम्हे कुछ देने लाता हूँ।
सुनता हूँ हो बिना हाथ के,
ले लो मेरे हाथ।
उनके द्वारा जो चाहो सो,
करो जगत में नाथ।
माथ मैं तुम्हें झुकता हूँ,
तुम्हे कुछ देने लाता हूँ।
सुनता हूँ हो बिना पैर के,
ले लो मेरे पैर।
उनके द्वारा जब चाहो तब,
करो जगत की सैर।
गैर के पास न जाता हूँ,
तुम्हे कुछ देने आता हूँ।
सुनता हूँ हो बिना गात के,
ले लो मेरे गात।
जिसको चाहो उसको दर्शन,
दिया करो दिन रात।
बात हित की बतलाता हूँ,
तुम्हे कुछ देने लाता हूँ।
यानी अपनी इच्छा की लो,
बना मुझे तसवीर।
सेवा करूँ तुम्हारे जग की,
जब तक रहे शरीर।
तीर सा दौड़ा आता हूँ।
तुम्हे कुछ देने लाता हूँ।
प्रार्थना
कहाँ तुम रहते हो, भगवान!
कभी न तुमको देखा मैंने,
सका न तुमको जान।
रहते हो तुम पास हमारे,
फिर कैसे लूँ मान।
तजो, अकेले रहने की,
क्यों डाली ऐसी बान।
नाथ! ऊबते होगे,
कर लो हमसे ही पहचान।
मुन्नी और पिल्ला
मुन्नी से है अधिक चिबिल्ला,
उसका प्यारा छोटा पिल्ला।
मुन्नी के संग आता जाता,
मुन्नी के संग दौड़ लगाता।
मुन्नी को अम्मा समझाती,
भला क्यों न तू पढ़ने जाती?
पर मुन्नी कुछ ध्यान न देती।
पिल्ले के संग वह चल देती।
दोनो ही करते शैतानी,
ऊब गई थी उनसे नानी।
कहाँ गये वे पता न चलता,
उन्हें खोजना माँ को खलता।
खेत बाग वन ,नदि व नाले,
दोनों ने थे देखे भाले।
घर में वे न बैठते छिन भर,
बस घूमा ही करते दिन भर।
इससे अम्मा ने गुस्साकर,
बन्द किया ताले के अन्दर।
मुन्नी करती ऊँ -ऊँ ,ऊँ ऊँ,
पिल्ला करता पूँ, पूँ, पूँ, पूँ।
लेकिन माँ ने उन्हें न छोड़ा,
उसको दया न आई थोडा।
तब मुन्नी बोली यों रोकर,
पिल्ले को तो कर दो बाहर।
फूल
धूल उड़े या आँधी आवे,
जल बरसे या धूप सतावे।
या डाली से तोड़ा जाऊँ,
मसला और मरोड़ा जाऊँ।
कभी न भय खाऊँगा मन में,
मैल न लाऊँगा जीवन में।
मरते दम तक मुस्कऊँगा,
महक मनोहर फैलाऊँगा।
दिवाली
आई दिवाली लाई खिलौने,
रँग बिरँगे लम्बे बौने।
लिपे पुते घर लगे सुहाने,
चलते हैं हम दीप जलाने।
चीजों की भरमार बड़ी है,
सड़क समूची पटी पड़ी है।
लगा दिवाली का है मेला,
हटा अँधेरा फटा उजाला।
दूर दूर तक दीप जले हैं,
दिखते कितने भव्य भले हैं।
बल्ब सजे घर घर इतने हैं,
पेड़ों में पत्ते जितने हैं।
लड़के बने सिपाही बाँके,
शोर बढ़ाते छुड़ा पटाखे।
सीमा पर दुश्मन आयेगा,
इनसे पार नहीं पायेगा।
गीत खुशी के गाते हैं हम,
प्रभु से यही मनाते हैं हम।
चाहे जैसी निशि हो काली,
ज्योतित कर दे उसे दिवाली।
सेना के जवान
शीश उठाये सीना ताने,
वर्दी में लग रहे सुहाने।
स्वस्थ प्रसन्न वीर मतवाले,
कन्धों पर बन्दूक संभाले।
कदम मिलाते कदम बढ़ाते,
बीच बीच में बैंड बजाते।
सेना के जवान जाते हैं,
हमें बहुत ही ये भाते हैं।
दोनो ओर सड़क पर भारी,
भीड़ लगायें हैं नर नारी।
उन्हें बधाई देते हैं सब,
बजा बजा कर ताली जब तब।
भारत की सीमा विशाल है,
कहीं चढ़ाई कहीं ढाल है।
दुर्गम घाटी ऊँचे टीले,
मीलों मार्ग कठिन बर्फीले।
वहाँ आ डटा है जो दुश्मन,
चाह रहा औ करे आक्रमण।
बढे वहाँ तक जायेंगे ये,
उस को मार भगायेंगे ये।
हम तो अभी निरे हैं बालक,
लेकिन देश भक्त प्रण पालक।
सीख रहे हैं शस्त्र चलाना,
कदम मिलाना ,कदम बढ़ाना।
और बड़े कुछ हो जाने पर,
हम भी वीर सिपाही बनकर,
इसी तरह से मार्च करेंगे,
अगर पुन: दुश्मन उभरेंगे।
बेवकूफ गुडिया
ऊब गई हूँ गुड़िया से मैं,
कहा नहीं यह करती है।
कितना ही आँखे दिखलाऊँ,
कुछ भी किन्तु न डरती है।
नहीं शहूर जरा भी इसको,
कहने को है पढ़ी लिखी।
कल दुपहर जब खाने बैठी,
कपड़ों पर ली गिरा कढ़ी।
पड़ा मुझी को धोना उनको,
बड़ी दूर से टब लाकर।
पास उसी के लकड़ी पर वह,
गुड़िया भी बैठी आकर।
जब मैं कपड़े लगी सुखाने,
छप छप कुछ बोला जल में।
पीछे फिर कर देखा तो,
पाया उसको गायब पल में।
भीग गई रेशम की साड़ी,
गालों पर काजल फैला।
मैले पानी में डुबकी खा,
सारा बदन हुआ मैला।
मर जाती यदि दौड़ न मुन्नी,
खींच उसे लेती टब से।
देखो इस गुड़िया के पीछे,
परेशान हूँ मैं कब से।
सुन्दर पास पड़ोस बनाओ
देखो क्या कहतीं हैं कलियाँ,
हर दम हँसो और मुस्काओ।
रहो सदा तुम सबके प्यारे,
सुन्दर पास पड़ोस बनाओ।
देखो क्या कहतीं हैं नदियाँ,
हर दम आगे बढ़ते जाओ।
शीतल करो सदा सब ही को,
सुन्दर पास पड़ोस बनाओ।
देखो क्या कहते तरु पौधे,
तुम ऊपर को उठते जाओ।
हरा भरा मन रक्खो अपना,
सुन्दर पास पड़ोस बनाओ।
देखो क्या कहता है दीपक,
अन्धकार से मत घबराओ।
जब तक दम में दम बाकी हो,
सुन्दर पास पड़ोस बनाओ।
चिंगारीघास
घास फूस का ढेर पड़ा था,
उस पर गिरी एक चिनगारी।
धुआँ हुआ फिर हुआ उजाला,
चमक उठीं फिर गलियाँ सारी।
आग लगी है, आग लगी है,
शोर किया लड़कों ने भारी।
मेला सा लग गया वहाँ पर,
जमा हुये इतने नर नारी।
हँस कर बोली वह चिनगारी,
ओहो ! मैं हूँ कितनी न्यारी।
पहले कौन समझ सकता था,
मुझमें है यह ताकत भारी।
घास फूस सी है यह दुनिया,
नर की इक्छा है चिनगारी।
चाहे तो चमका सकता है,
उसके बल पर वसुधा सारी।
आंधी
छप्पर उड़ कर गिरा भूमि पर,
धूल गगन -तल पर जा छाई।
चौखट से लड़ गये किवाड़े,
हर हर करके आँधी आई।
गोफन से बन बाग उठे हिल,
छूटे चमगादड़ ज्यों ढेला।
पट पट आम गिरे गोली से,
हुआ हवा का बेहद रेला।
कंघी करने लगीं झाड़ियाँ,
निकले उनसे खरहे तीतर।
नदियों ने उड़ने की ठानी,
नावें उलटीं उनके भीतर।
टूटे पेड़ रुकीं सब राहें,
और कुओं का झलका पानी।
आँख बंद की सूरज ने भी,
हार हवा से सब ने मानी।
छाई छटा अजीब धरा पर,
घिरी घटा फिर काली काली।
वर्षा ने धो दिया जगत को,
हुई नई उसकी हरियाली।
आँधी से भी जादा ताकत,
बसती है मनुष्य के मन में।
वह चाहे तो कर सकता है,
कुछ का कुछ दुनियाँ को छन में।
सहपाठा
एक देश में जन्मे हैं सब,
एक लहू है सबके तन में।
एक तरह से हँसते हैं सब,
मुख तो देखो दर्पन में।
एक चाँद मामा है सबका,
एक तरह का माँ का प्यार।
आँसू एक निकलता सबके,
जब देता है कोई मार।
कहलाते हैं हम सब बच्चे,
चितवन सबकी एक समान।
एक मदरसे में पढ़ते हैं,
एक गुरु से एक जबान।
धनी निर्धनी ऊँच नीच का,
भेदभाव तब क्यों मानें?
अपने साथी को अपने से,
घट कर क्यों मन में जानें?
अपना और पराया कैसा?
यहाँ सभी हैं अपने लोग।
भेद भाव से भागो भाई,
समझो इसको भारी रोग।
जो सुख हमको मिला हुआ है,
वह सब को पहुँचायेंगे।
अगर नहीं तो सबके दुःख में,
शामिल हो सुख पाएंगें।
एक गुरु के शिष्य
शिष्य एक गुरु के हैं हम सब,
एक पाठ पढ़ने वाले।
एक फ़ौज के वीर सिपाही,
एक साथ बढ़ने वाले।
धनी निर्धनी ऊँच नीच का,
हममे कोई भेद नहीं।
एक साथ हम सदा रहे,
तो हो सकता कुछ खेद नहीं।
हर सहपाठी के दुःख को,
हम अपना ही दुःख जानेंगे।
हर सहपाठी को अपने से,
सदा अधिक प्रिय मानेंगे।
अगर एक पर पड़ी मुसीबत,
दे देंगे सब मिल कर जान।
सदा एक स्वर से सब भाई,
गायेंगे स्वदेश का गान।
जंगल में क्या होता है
कोई मुझसे बतलाओ रे जंगल में क्या होता है,
कब उठता सो कर वनमानुष और हाथ मुँह धोता है?
मनमाने सब काम वहां हैं जब जी में आये जागो,
अगर सामने दुश्मन आये मार भगाओ या भागो।
हरियाली देती है भोजन ताल पिलाते हैं पानी,
जी चाहे तो कर सकते हो वहाँ रात दिन शैतानी।
चूहे सदा चुरा के खाते पाप न चोरी को कहते,
नहीं अदालत नहीं सिपाही और नहीं राजा रहते।
घने बनों में ताल किनारे बारहसिंघा क्या करता,
निर्जनता में नहीं जरा क्यों भूत प्रेत से वह डरता?
कारण वही बता सकता है जिसने देखा हो जंगल,
मैं तो लिखता हूँ यह कविता दिल बहलाने को केवल।
शेर बलि है बेशक सबसे मार मृगों को खाता है,
सुन कर उसकी विकट गर्जना सब जंगल थर्राता है।
पर वह रहता सदा अकेला मेला नहीं लगाता है,
सेना नहीं खड़ी करता है महल नहीं उठवाता है।
बस्ती में जो बकरी रहती वह सदैव काटी जाती,
पर जंगल की बकरी पर इस तरह नहीं आफत आती।
अगर भेड़िये पीछा करते टीले पर चढ़ जाती वह,
बस्ती से जादा जंगल में अपनी जान बचाती वह।
राजपाट या सड़क नहीं है तोप नहीं तलवार नहीं,
धर्म नहीं कानून नहीं है शहर नहीं व्यापार नहीं।
फिर जंगल में क्या होता है अजी सदा रहती हलचल,
स्काउट बन पहुँचो वन में देखो जंगल का मंगल।
एक मित्र
दादा ने है बन्दर पाला,|
है वह बन्दर बड़ा निराला।|
दरवाजे पर बैठा रहता,
कुछ भी नहीं किसी से कहता।
शायद सोचा करता मन में-
पड़ा हुआ हूँ मैं बंधन में।
इससे भूल गया सब छल बल,
खा लेता जीने को केवल।
मैं उस राह सदा जाता हूँ,
नित चुमकार उसे आता हूँ।
जिससे वह खुश हो सोचे रे,
अब भी एक मित्र है मेरे।
बाल विनय 2
विनय यही है हे परमेश्वर तुम्हारे गाऊँ मैं,
बैठा अपने दिल में स्वामी हरदम तुमको पाऊँ मैं।
पुत्र तुम्हारा कहलाऊँ मैं काम तुम्हारे आऊँ मैं,
जितने जीव रचे हैं तुमनें सबको सुख पहुँचाऊँ मैं।
मस्तक मेरा तुम्हे झुका हो उस पर हो सेवा का भार,
कैसा ही दुःख का सागर हो उसे करूँ मैं छिन में पार।
एक फूल सा हो यह जीवन लाल लाल हो जिसमें प्यार,
अच्छे कामों की सुगंध से भर दूँ मैं सारा संसार।
किसी वेष में आओ स्वामी तुम्हे सदा मैं लूँ पहिचान,
अन्धे की लकड़ी बन जाऊँ मूरख का बन जाऊँ ज्ञान।
ऐसा बल दो रोते के मुख में भर दूँ मीठी मुस्कान,
कभी नहीं उनसे मुख मोड़ूँ जो करने की लूँ मैं ठान।
है यह भारत देश हमारा इसको भूल न जाऊँ मैं,
इसके नदी पहाड़ वनों पर पक्षी सा मंडराऊं मैं।
इसका नाम न जाये चाहे अपना शीश कटाऊँ मैं,
भूल तुम्हे भी हे परमेश्वर इसका ही कहलाऊँ मैं।
फूल तुम्हारा मुस्काना
मुझे बहुत अच्छा लगता है,
फूल तुम्हारा मुस्काना।
मुझे बहुत अच्छा लगता है,
फूल तुम्हारा गुण गाना।
कड़ी धूप में देखा मैंने,
फूल तुम्हारा कुम्हलाना।|
ओस पड़ी तब समझा यह है,
आँखों में आँसू लाना।
पर यह छिन भर को होता है,
दिन भर रहता मुस्काना।
कट जाने पर लुट जाने पर,
भी हँसते हो मनमाना।
अच्छे कामों की सुगन्धि से,
मुझको जग है महकाना।
मदद मिलेगी अगर सीख लूँ,
फूल तुम्हारा मुस्काना।
बड़ा होने पर
होऊंगा जब जरा बड़ा मैं। यों न रहूँगा कहीं खड़ा मैं।।
खोलूँगा मैं एक दुकान। उसमे होगा सब सामान।।
गेंदे गुड़ियाँ तीर तिपाई। मीठे मेवे और मिठाई ।।
खेलूँगा औ, खाऊँगा मैं। हरगिज नहीं अघाऊंगा मैं।।|
या होऊंगा सिर्फ हंसोड़। सारे कामों से मुहं मोड़।।|
मुँह में मलकर कागज काला। पहन घास पत्तों की माला।।
रस्ते में गिर जाऊँगा मैं। सब को खूब हसाऊँगा मैं।।
या हौऊंगा ठेकेदार। नये नये बनवा घर द्वार।।
उनमें पलंग बिछाऊँगा मैं। सोऊंगा सुख पाऊँगा मैं।।
या हौऊंगा मैं सरदार। लेकर तुपक ढाल तलवार।।
निकलूंगा घोड़े पर चढ़ कर। किसी फ़ौज के आगे बढ़कर।।
सम्मुख जिसको पाऊँगा मैं। उस पर तुपक चलाऊँगा मैं।।
पर जब थक जाऊँगा खूब। अवा बड़ी लगेगी ऊब।।
तब कैसे मन बहलाऊँगा? माँ की गोद कहाँ पाऊँगा।।
बच्चों मेरा प्रश्न बताओ
सोच रहा हूँ क्या बन जाऊं तो अति आदर पाऊं।
करूँ कौन सा काम कि जिससे बेहद नाम कमाऊं ।।
अगर बनूँगा गुरु मास्टर डर जायेंगे लड़के।
पड़ूँ रोज बीमार -मनायेंगे वे उठकर तड़के।।
कहता बनकर पुलिस-दरोगा -पत्ता एक न खड़के।
इस सूरत को,पर मनुष्य क्या ,देख भैंस भी भड़के।।
बाबू बन कुर्सी पर बैठूं तो मनहूस कहाऊं।
सोच रहा हूँ क्या बन जाऊँ तो अति आदर पाऊँ।।
करता बहस कचहरी में जा यदि वकील बन जाता।
मगर कहोगे झूठ बोलकर मैं हूँ माल उड़ाता।।
बन सकता हूँ बैद्द्य-डाक्टर पर यह सुन भय खाता।
लोग पड़ें बीमार यही हूँ मैं दिन रात मनाता।।
बनूँ राजदरबारी तो फिर चापलूस कहलाऊं।
सोच रहा हूँ क्या बन जाऊं तो अति आदर पाऊँ।।
नहीं चाहता ऊँची पदवी बन सकता हूँ ग्वाला।
मगर कहेंगे लोग दूध में कितना जल है डाला ।।
बनिया बन कर दूँ दुकान का चाहे काढ़ दिवाला।
लोग कहेंगे पर -कपटी कम चीज तौलने वाला।।
मुफ्तखोर कहलाऊँ साधू बन यदि हरिगुन गाऊँ।
सोच रहा हूँ क्या बन जाऊँ तो अति आदर पाऊँ।।
नेता खा लेता है चन्दा लगते हैं सब कहने।
धोबी पर शक है -यह कपड़े सदा और के पहने ||
मैं सुनार भी बन सकता हूँ गढ़ सकता हूँ गहने।
पर मुझको तब चोर कहेंगी आ मेरी ही बहनें।।
कुछ न करूँ तो माँ के मुख से भी काहिल कहलाऊँ।
सोच रहा हूँ क्या बन जाऊँ तो अति आदर पाऊँ।।
डाकू से तुम दूर रहोगे है बदनाम जुआरी।
लोग सभी निर्दयी कहेंगे जो मैं बनूँ शिकारी।।
बिना ऐब के एक न देखा ढूँढ़ा दुनिया सारी।
बच्चों ! मेरा प्रश्न बताओ काटो चिन्ता भारी।।
दोष ढूँढ़ना छोड़ कहो तो गुण का पता लागाऊँ।
सोच रहा हूँ क्या बन जाऊँ तो अति आदर पाऊँ।।
बालक की कामना
मैं स्वतंत्र भारत का वासी,
काम करूँगा सदा वही।
जिससे सम्मानित हो जग में,
यह ऋषियों की पुण्य मही।
मन में तो है यही गाँव में,
बसूँ करूँ मैं गोपालन।
दूध दही की गंगा उमड़े,
हृष्ट पुष्ट हों भारत जन।
और अन्न उपजाऊं इतना,
इतनी पैदा करूँ कपास।
कोई रहे न भूखा दूखा,
कोई रहे न बिना लिबास।
काम पड़े तो बसूँ शहर में,
सीखूं विविध कला कौशल।
बना बना गांवों में भेजूं,
नये यंत्र औ नूतन हल।
सरकारी नौकरी करूँ तो,
करूँ घूस की आस नहीं।
अनाचार या चोर बजारी,
के मैं जाऊं पास नहीं।
काम सभी मैं सीखूं , सीखूं
अस्त्र शस्त्र संचालन भी।
भारत की सेवा में कर दूँ,
अर्पण तन मन प्राण सभी।
बड़ा होने पर 2
मैं जैसे सुख से रहता हूँ,
वैसे रहें पड़ोसी जन।
कोई अति धनवान नहीं हो,
कोई हो न बहुत निर्धन।
कंट्रोलों का नाम नहीं हो ,
होवे चोर बजार नहीं।
कोई नंगा कोई भूखा,
हो कोई बेकार नहीं।
लालच या भय के पिंजड़े का,
कभी नहीं मैं कीर बनू।
हे भगवान बड़ा होने पर,
मैं जन सेवक वीर बनूँ।
बाल लीला
हैं बस हिलती डुलती पुतली।
अभी बोलते बोली तुतली।।
पर ये दोनों आँखें प्यारी।
सदा मांगती दुनिया सारी।।
इनकी अजब अजीब कहानी।
चाहे पत्थर हो या पानी।।
रखते जग में सब से नाता।
कोई माता कोई भ्राता।।
कभी चोर बनते छिप जाते
जू जू बन कर कभी डराते।।
या कोयल बन कू ! कू ! गाते।
तरह तरह के वेष बनाते।।
जो लखते उस पर ललचाते।
आ जा, आ जा, उसे बुलाते।।
आता अगर न तो झल्लाते।
बड़े बड़े आँसू टपकाते।।
जिसको इतना रो कर पाते।
छिन में भूल उसी को जाते।।
किसी और हित मुँह कर गीला।
बड़ी निराली इनकी लीला।।
कभी न
कभी न रो रो आँख फुलाना,
कभी न मन में क्रोध बढ़ाना।
कभी न दिल से दया भुलाना,
कभी न सच्ची बात छिपाना।
कभी न बातों में चिढ़ जाना,
कभी न दुष्टों से भय खाना।
कभी न खाकर मित्र नहाना,
कभी न बासी खाना, खाना।
कभी न अति खा पेट फुलाना,
कभी न खाते ही सो जाना।
कभी न पढ़ने से घबराना,
कभी न तन में आलस लाना।
कभी न करना जरा बहाना,
कभी न बढ़ने पर इतराना।
कभी न मन में लालच लाना,
कभी न इतनी बात भुलाना।
बड़ा होने पर 3
मुन्नी बढ़ कर रानी होगी,
मुन्नू होवेगा राजा।
बबुआ बेशक ब्याह करेगा,
औ ,बजावेगा बाजा।
सोहन सिर्फ किसान बनेगा,
धान बाजरा बोवेगा।
धन्नू बन सचमुच का धोबी,
सबके कपड़े धोवेगा।
मोहन मोटर सीख चलाना,
दूर देश को जावेगा।
लल्लू केवल लेक्चर देगा,
लीडर वह कहलावेगा।
शम्भू कहता है – शिक्षक बन,
मैं लड़कों को डाटूंगा।
मगर हुआ मैं कभी बड़ा,
तो कान गुरु के काटूँगा।
चलो मदरसे
चलो सहेली चलो मदरसे,
निकलो, निकलो ,निकलो घर से।
लिखना सीखो ,पढ़ना सीखो,
गुण के गहने गढ़ना सीखो।
दिन दिन आगे बढ़ना सीखो।
छोड़ो नींद उठो बिस्तर से।
चलो सहेली चलो मदरसे।।
हँसना सीखो गाना सीखो,
दुःख में भी मुस्काना सीखो।
सब का चित्त चुराना सीखो
मेल बढ़ाओ दुनिया भर से।
चलो सहेली चलो मदरसे।।
डट कर सेवा करना सीखो,
कष्ट दुखी का हरना सीखो।
देश धर्म पर मरना सीखो,
फूल तुम्हारे उपर बरसे।
चलो सहेली चलो मदरसे।।
चमेली
धूल उड़ी या बरसा पानी,
मूर्ख बढ़े या उपजे ज्ञानी।
सबको हँसती मिली चमेली,
फिर उजड़ी फिर खिली चमेली।
राजाओं में ठनी लड़ाई,
जीत हुई या आफत आई।
महल ढहे या उठी हवेली,
फिर उजड़ी फिर खिली चमेली।
भय चिन्ता को पास न लाओ,
आगे बढ़े बराबर जाओ।
भूलो मत यह सखा सहेली,
फिर उजड़ी फिर खिली चमेली।
सहेली
बनी न रह अनजान सहेली,
अपने को पहचान सहेली।
गहने धर दे अलमारी में,
छिदा न नाहक कान सहेली।
तेरी सेवा का भूखा है,
सारा हिंदुस्तान सहेली।
उठ उठ चतुर सुजान सहेली,
अपने को पहचान सहेली।
पड़ी न रह दिन भर बिस्तर में,
मूरख बन कर बैठ न घर में।
सुन तो क्या कहता है भैया,
चल चल मेरे साथ समर में।
रख भैया का मान सहेली,
संभले हिंदुस्तान सहेली।
नल
आया, आया, आया नल,
भर लो, भर लो! भर लो जल।
कान नदी का काटा इसने,
दिया ताल को घाटा इसने,
और कुओं को पाटा इसने,
ओहो यह है बड़ा प्रबल।
भर लो ,भर लो , भर लो जल।
यहाँ मगर का नाम नहीं है,
कछुओं का कुछ काम नहीं है,
तेज हवा या घाम नहीं है,
केवल जल है जल केवल,
कैद हो गया क्या बादल?
संसार किसका है
जिसने बात न की तारों से,
जब रहती है दुनिया सोती।
जिसने प्रातः काल न देखा,
हरी घास पर बिखरे मोती।
घटा घनों की , छटा वनों की,
जिसने चित्त से दिया उतार।
उसके लिये अँधेरा जग है,
उसकी ऑंखें हैं बेकार।
छोटे से छोटे प्राणी का घर,
जिसने देखा भाला।
भेदभाव से भरा नहीं जो,
प्रिय न जिसे कुंजी ताला।
फूलों सा जो हँसता हरदम,
क्यों न आ पड़े विपत हजार।
वह इस दुनियां का राजा है,
उसका ही है यह संसार।
मै कौन हूँ
शक्ति राम की है मुझमें भी,
घूमे जो निर्जन वन में।
भक्ति श्याम की है मुझमें भी,
सदा हँसे जो जीवन में।
जिसकी प्रेम दया की शिक्षा,
से जागी वसुधा सारी।
गौतम के उस उच्च ह्रदय का,
मैं हूँ पूरा अधिकारी।
पर्वत, वन, बिजली, बादल, नद,
सूरज ,चाँद और तारे।
बचपन से ही देखा मैंने,
हैं मेरे साथी सारे।
जहाँ कहो मैं वहां चलूँगा,
जरा नहीं डर सकता हूँ।
इक्छा करने की देरी है,
मैं सब कुछ कर सकता हूँ।
एक तरंग
एक तरंग ह्रदय में आई,
बुद्ध रूप गौतम ने धारा।
एक तरंग हृदय में आई,
मीरा ने रनिवास बिसरा।
एक तरंग ह्रदय में आई,
जहर पी गई कृष्ण कुमारी।
एक तरंग ह्रदय में आई,
कष्ट सहे गाँधी ने भारी।
करते ऐसे काम वीर जन,
दुनियां रह जाती है दंग।
पर सोचो तो वह है केवल,
एक ह्रदय की एक तरंग।
माता का लाल
दीन दुखी जन की पुकार पर,
जो नित कदम बढ़ाता है।
भूखा देख साथियों को निज,
जो भूखा रह जाता है।
अन्धों को मौका पड़ने पर,
जो ऊँगली पकड़ाता है।
रोती ऑंखें देख आंख में,
जिसके जल भर आता है।
जो न कभी भय खाता है,
खड़ा क्यों न हो समुक्ख काल।
कहलाता है वही जगत में,
दयामयी माता का लाल।
वीर प्रतिज्ञा
चाह कुछ सुख की नहीं,
दुःख की नहीं परवाह है।
प्रिय देश के कल्याण की,
हमने गहि अब राह है।
हों क्यों न अंगारे बिछे,
मुँह जरा मोंड़ेगे नहीं।
मिट जायेंगे पर देश का,
अभिमान छोड़ेंगे नहीं।
खाली भले ही पेट हो,
नंगी भले ही देह हो।
सौ आफतें हों सामने,
उजड़ा भले ही गेह हो।
हो देश की जय, भय नहीं,
हमको जरा है क्लेश का।
बाजी लगा कर प्राण की,
हम साथ देंगे देश का।
क्या बैठे हो
तेज हवा के झोंको पर चढ़,
आ पहुंचे हैं बादल के दल।
पंख खोल उड़ती हैं बूंदें,
मची हूई है वन में हलचल।
सुख से पेड़ पहाड़ नहाते,
मोर नाचते मेंढक गाते।
भूल दुखों को आशा से भर,
खेत किसान जोतने जाते।
अन्धकार से कहता जुगनू,
राह नहीं हूँ मैं निज भूला।
जर्रे जर्रे में जीवन है,
कलियों ने है डाला झूला।
क्या बैठे हो घर में भाई,
चलो प्रकृति की छटा निहारें।
उगते खेत , उमड़ती नदियाँ,
घिरते घन की घटा निहारें।
बढ़े चलो
फूल बिछे हों या कांटे हों,
राह न अपनी छोड़ो तुम।
चाहे जो विपदायें आयें,
मुख को जरा न मोड़ो तुम।
साथ रहें या रहें न साथी,
हिम्मत मगर न छोड़ो तुम।
नहीं कृपा की भिक्छा मांगो,
कर न दीन बन जोड़ो तुम।
बस ईश्वर पर रखो भरोसा,
पाठ प्रेम का पढ़े चलो।
जब तक जान बनी हो तन में,
तब तक आगे बढ़े चलो।
फूलों का गीत
फूल जगत के हैं हम प्यारे,
रूप रँग में न्यारे न्यारे।
काम हमारा है मुस्काना,
सुन्दर पास पड़ोस बनाना।
ओस सुबह की नहला देती,
तितली आन बलैया लेती।
भौंरे गान सुना जाते हैं,
जहाँ हमें फूला पाते हैं।
पाठ प्रेम का पढ़ते आला,
एक बनाते हम मिल माला।
सदा मेल से शोभा पाते,
भेद भाव हम दूर भगाते।
चढ़े सिरों पर आदर पावें,
या सड़कों पर कुचले जावें।
कभी न मुख पर दुःख लावेंगे,
हर हालत में मुस्कावेंगे।
खिलें बाग में या घूरे पर,
हम लेते हैं प्रण पूरे कर।
यानि हँसते औ’ मुस्काते,
सुन्दर पास पड़ोस बनाते।
वीर न अपनी बान छोड़ते
सूरज अपनी चमक छोड़ दे,
तो कैसे हो दूर अँधेरा?
धरती पर सब पेड़ पड़ रहें,
तो चिड़ियाँ लें कहाँ बसेरा
दूध लगे यदि खारा होने,
तो कैसे माँ प्यार दिखावे?
आग अगर तज दे गरमाहट,
रोटी कैसे कौन पकावे?
तजते नहीं स्वभाव उच्च जन,
पर सेवा से मुहं न मोड़ते,
लाख मुसीबत मिले मार्ग में,
वीर न अपनी बान छोड़ते।
क्या
कड़ी धूप में निकले हैं,
तब भूभल से घबराना क्या?
सागर में जब कूदे तब,
डूबे डूबे चिल्लाना क्या?
दुनियाँ में जब आयें हैं,
तब दुःख से पिण्ड छुड़ाना क्या?
आफत ,चिन्ता ,मौत ,निराशा,
से भगना भय खाना क्या?
मिले सफलता या असफलता,
इस में मन उलझाना क्या?
आगे कदम बढ़ा देने पर,
पीछे उसे हटाना क्या?
कहो मत करो
सूरज कहता नहीं किसी से,
मैं प्रकाश फैलाता हूँ।
बादल कहता नहीं किसी से,
मैं पानी बरसाता हूँ।
आंधी कहती नहीं किसी से,
मैं आफत ढा लेती हूँ।
कोयल कहती नहीं किसी से,
मैं अच्छा गा लेती हूँ।
बातों से न, किन्तु कामों से,
होती है सबकी पहचान।
घूरे पर भी नाच दिखा कर,
मोर झटक लेता है मान।
मेरी माता
मेरी माता बड़ी निराली।
मुझको देख बजाती ताली।।
आँगन में दौड़ाती मुझको।
हंसती और हंसाती मुझको।।
जाती जहाँ मुझे ले जाती।
नये नये कपड़े पहनाती।।
खेल खिलौना खूब मंगाती।
और कहानी रोज सुनाती।।
मुझे सुलाती मुझे जगाती।
मुझे हिलाती मुझे झुलाती।।
मुझे खिलाती मुझे पिलाती।
छोड़ मुझे वह कहीं न जाती।।
उसका तन मेरा ही तन है।
उसका मन मेरा ही मन है।।
उसका कर मेरा ही कर है।
है वह तो न किसी का डर है।।
मेरा उसका नाता सच्चा।
मैं हूँ उसका प्यारा बच्चा।।
मेरा मन
कभी यहाँ है, कभी वहां है,
इसकी पकड़े कौन नकेल।
तेज रेलगाड़ी बन जाती,
चाल देख गुड़ियों का खेल।।
दिन में रात ,रात में दिन का,
ध्यान इसे हो आता है।
जहाँ चाहता है मुझसे,
बे पूछे ही भग जाता है।।
जंगल इसमें आ जमते हैं,
नदियाँ इसमें बहती हैं।
चीं चीं करके चिड़ियाँ इसमें,
जाने क्या क्या कहती हैं।
मैं जब चाहूँ इसमें सूरज,
का गोला दिखलाता है।
धीरे धीरे वही चंद्रमा,
का टुकड़ा हो जाता है।।
शकल दिखा कर भूतों की,
यह कभी डरा देता हमको।
कभी उन्हीं से लड़ने को,
तलवार धरा देता हमको।।
कभी हँसाता कभी रुलाता,
कभी खेलाता सब के साथ।
जो जो यह दिखला सकता है,
होता अगर हमारे हाथ।।
तो जमीन से आसमान तक,
सीढ़ी एक लगाते हम।
इन्द्रासन से हटा इंद्र को,
अपना रँग जमाते हम।।
पानी में हम आग लगाते,
बनता तेज हवा पर घर।
बिना मास्टर के पढ़ जाते,
सारी पुस्तक सर सर सर।।
अजी व्यर्थ की बातें छोड़ो,
इनमे क्या है कहो धरा।
खाते खाते मन के लड्डू,
नहीं किसी का पेट भरा।।
भालू
ओहो! आया भालू काला।
लम्बे लम्बे बालों वाला।
जुटे मुहल्ले भर के लड़के।
भय है मेरी भैंस न भड़के।
लिये मदारी था जो झोला।
उसे भूमि पर धर के बोला –
अपना नाच दिखा दे भालू!
पाएगा तू रोटी आलू।
गाया उसने -आ-या-या-या।
भालू को डंडा दिखलाया
और बजाया डमरू डम डम।
लगा नाचने भालू छम छम।
नाचो भाई यैसे! यैसे!
कह कर लगा मांगने पैसे।
भालू ने भी खूब हिलाया।
अपनी बालों वाली काया।
पाई पैसे बरसे खन खन।
उन्हें जेब में रख कर फौरन।
हँसता आगे बढ़ा मदारी।
भीड़ लिये लड़को की भारी।
हैं जो अध्यापक चिल्लाते –
आह! न लड़के पढ़ने आते।
वे भी भालू अगर नचावें।
तो न मदरसा सूना पावें।
आम
घर में मेरे आये आम,
मजे बड़े ले आये आम।
मुन्नू, चुन्नू, चंपा, चंदो,
सबने मिल कर खाये आम।
बिन दातों की मुन्नी से हैं,
उठते नहीं उठाये आम।
गली गली में छाये आम,
मजे बड़े ले आये आम।
आंधी आई टूटे आम,
लड़कों ने मिल लूटे आम।
देखो जरा संभल कर चूसो,
कहीं न दब कर फूटे आम।
ओ हो! कपड़े रंगे तमाम,
मजे बड़े ले आये आम।
जब मैं कुछ बढ़ जाऊंगा
जब मैं कुछ बढ़ जाऊंगा
किसी पेड़ की डाली पकड़ कर
झट उस पर चढ़ जाऊंगा।
चिड़ियाँ चारों तरफ उड़ेंगी
देख उन्हें सुख पाऊंगा।
चुन चुन कर सुन्दर कलियों को
माला कई बनाऊंगा।
खुद पहनूँगा और साथियों
को सादर पहनाऊंगा।
डंडे पर तब नहीं चढूँगा,
घोड़ा एक मगाऊंगा।
उस पर चढ़ कर इस दुनियां
का पूरा पता लगाऊंगा।
एक बड़ी सीढी बनवा कर,
बादल तक पहुचाऊंगा।
बिजली यहाँ बांध लाऊंगा,
अम्मा को दिखलाऊंगा।
नहीं मास्टर का डर होगा,
स्वयं गुरु बन जाऊंगा।
पर न किसी को कुरसी पर चढ़,
बेंत कभी दिखलाऊंगा।
लड़कें मुझसे नहीं डरेंगे,
और न उन्हें डराऊंगा।
जो तुतली बोली बोलेगा,
राजा उसे बनाऊंगा।
तब शायद मैं खेल खिलौने,
खेल नहीं सुख पाऊंगा।
खेलूँगा तो फिर लड़के का,
लड़का ही रह जाऊंगा।
हाँ, चरखे का चलन चला है,
चरखा रोज चलाऊंगा।
मुन्नी की सब गुड़ियों को,
खद्दर खासा पहनाऊंगा।
है यह भारत वर्ष हमारा,
इसको मैं अपनाऊंगा।
इसके उड़ते तिनकों तक पर,
अपनी छाप लगाऊंगा।
अपनी माँ का, मात्रभूमि का,
सच्चा पुत्र कहाऊंगा।
एक बार दुनिया दह्लेगी,
जब मैं कुछ बढ़ जाऊंगा।
गुड़ियों का घर
गुड़ियों का घर बना हुआ है चमकदार चमकीला।
सुनो जरा तो बतलाती हूँ कैसा रँग रंगीला !
विविध रंगों से रंगा हुआ है हरा,लाल औ’ पीला
कहीं गुलाबी कहीं बैंगनी और कहीं है नीला।
हैं किवाड़ सोने के उसमें,चौखट उसकी चांदी।
भीतर रहती गुड़िया रानी बाहर उसकी बाँदी।
अति चमकीले रँग रंगीले आँखों को सुखकारी।
खिड़की औ’ दरवाजों में हैं सुन्दर शीशे भारी।
भांति भांति के चित्र टंगे हैं भीतर उसके भाई!
साथ हमारे मेला जाकर गुड़िया थी जो लाई।
छोटी खाटें,छोटे गद्दे,छोटे बरतन भांडे।
सभी तरह की चीजें छोटी,छोटी हांडी हांडे।
बाहर से है हुई सफेदी भीतर रँग रंगीला।
इसी भांति है सजा सजाया सारा घर भड़कीला।
गुड़ियाँ सारी बड़ी दुलारी रहतीं हर्षित भाई!
लड़तीं और झगडतीं यदि वे आ पड़ती कठिनाई।
यदि मैं भी गुड़िया होती,इस घर में घुस जाती।
साथ उन्ही के रहती दिन भर कभी न बाहर आती।
वर्षा की बहार
आसमान में उमड़े बादल,
पृथ्वी पर हरियाली है
नन्हीं के नन्हें हाथों में,
मेंहदी की नव लाली है।
लड़के सुख से झूल रहें हैं,
कैसा झूला डाला है
हर हर करता बड़े जोर से,
नीचे बहता नाला है
घर में पानी वन में पानी,
पानी की ही माया है।
पानी पानी पैदल चलना,
मुन्नू को भी भाया है।
लम्बी लम्बी पतली पतली,
घास हवा पर हिलती हैं।
उन पर पड़ पानी की बूंदें,
नव मोती सी खिलती हैं।
लो फिर पानी लगा बरसने,
जल्दी घर को भागो यार!
छत पर देखो,मुन्नी भी अब,
अपनी गुड़िया रही संवार।
गली गली से देखो कैसी,
बही विकट पानी की धार।
आज न हम पढ़ने जायेंगे,
आती वहां बड़ी बौछार।
सोचो तो जी ईश्वर ने क्या,
वर्षा खूब बनाई है!
उसकी सारी सृष्टि की बस,
छिपी यहीं चतुराई है।
पृथ्वी ने यह हरियाली सब,
वर्षा द्वारा पाई है।
वर्षा ही से बरस रही,
ईश्वर की बड़ी बड़ाई है।
अन्न इसी से पैदा होता,
यही किसानों का जीवन।
सच पूछो तो केवल वर्षा,
ही है इस भारत का धन।
आओ शिशुओं,हाथ जोड़,
वर्षा को हम सब करें प्रणाम।
क्योंकि उसी से प्राप्त हुए हैं,
हमको खेल और आराम।
वर्षा की बहार
आसमान में उमड़े बादल,
पृथ्वी पर हरियाली है
नन्हीं के नन्हें हाथों में,
मेंहदी की नव लाली है।
लड़के सुख से झूल रहें हैं,
कैसा झूला डाला है
हर हर करता बड़े जोर से,
नीचे बहता नाला है
घर में पानी वन में पानी,
पानी की ही माया है।
पानी पानी पैदल चलना,
मुन्नू को भी भाया है।
लम्बी लम्बी पतली पतली,
घास हवा पर हिलती हैं।
उन पर पड़ पानी की बूंदें,
नव मोती सी खिलती हैं।
लो फिर पानी लगा बरसने,
जल्दी घर को भागो यार!
छत पर देखो,मुन्नी भी अब,
अपनी गुड़िया रही संवार।
गली गली से देखो कैसी,
बही विकट पानी की धार।
आज न हम पढ़ने जायेंगे,
आती वहां बड़ी बौछार।
सोचो तो जी ईश्वर ने क्या,
वर्षा खूब बनाई है!
उसकी सारी सृष्टि की बस,
छिपी यहीं चतुराई है।
पृथ्वी ने यह हरियाली सब,
वर्षा द्वारा पाई है।
वर्षा ही से बरस रही,
ईश्वर की बड़ी बड़ाई है।
अन्न इसी से पैदा होता,
यही किसानों का जीवन।
सच पूछो तो केवल वर्षा,
ही है इस भारत का धन।
आओ शिशुओं,हाथ जोड़,
वर्षा को हम सब करें प्रणाम।
क्योंकि उसी से प्राप्त हुए हैं,
हमको खेल और आराम।
मेरा मुन्नू
मेरा मुन्नू बड़ा दुलारा।
अम्मा मेली दद्दू मेला।
गैया मेली बचला मेला।
जो लखता – कहता मेला है
ऐसा चल बल अलबेला है।
है न किसे प्राणों से प्यारा।
मेरा मुन्नू बड़ा दुलारा।
सिहांसन है गोद हमारी।
इस पर वारूँ दुनियां सारी।
इसी गोद का है वह राजा।
कहता सब से तू! तू! आ जा!
क्यों न कहूं आँखों का तारा।
मेरा मुन्नू बड़ा दुलारा।
तीनो बहिने
बड़ी खिलाड़ी तीनों बहिनें।
तीनों बहिनें तीनों बहिनें
बड़ी खिलाड़ी तीनों बहिनें।
एक बन गई घोड़ा गाड़ी और दूसरी रेल।
और तीसरी ऊँट बन गई लटकी नाक नकेल।
खेल मजे में खेल मेल से तीनों बहिनें।
तीनों बहिनें तीनों बहिनें ,
बड़ी खिलाड़ा तीनों बहिनें।
एक बन गई सूरज सुन्दर बनी दूसरी तारा।
बनी तीसरी चन्दामामा जो है सब से प्यारा।
गुड़ियों का खुला पिटारा।
तीनों बहिनें तीनों बहिनें,
लगीं खेलनें तीनों बहिनें।
चूहा
बैठे बैठे दिन भर बिल में।
क्या सोचा करते हो दिल में?
चूहे जी बाहर तो आओ।
कोई अपनी कथा सुनाओ।
कुतर नई गुड़ियों की धोती।
किस लड़की को छोड़ा रोती?
किस लड़के की पुस्तक सुंदर,
काट छिपे हो बिल के अन्दर?
किसके तुमने चने चबाये?
किसके तुमने चावल खाये?
किसका तुमने घी पी डाला?
चुरा ले गये किसकी माला?
कितने जूठे बरतन चाटे?
किये कहाँ तक सैर सपाटे?
कितनी चतुर बिल्लियों से बच।
आये हो बतलाना सच सच?
दांत बने हैं तेज तुम्हारे।
ये चोखे हथियार तुम्हारे।
इनके ही बल हो मनमाना।
तुम खोदा करते बिल नाना
पर दुम है कुछ काम न देती।
उल्टा जान तुम्हारी लेती।
पकड़ उसे यदि कौवे पाते
तुम्हे उठा ले जाते खाते।
करके किसकी नक़ल निराली?
तुमने ऐसी दुम लगवाली ?
कुछ तो चूं! चूं ! बोलो प्यारे!
छिपे हुये हो क्यों मन मरे?
पकड़ चाँद को यदि मैं पाता
पकड़ चाँद को यदि मैं पाता!
आसमान की ओर दिखाता।
लख तारों का मन ललचाता।
पास हमारे आते ज्यों ज्यों उन्हें पकड़ता जाता।
फिर मैं एक अनोखी आला
गुहता उन तारों की माला।
सबके नीचे उसी चंद्रमा को गुह के लटकाता !
उसे छिपा कर रखता दिन में।
रगड़ रगड़ धोता छिन छिन में।
मैल चंद्रमा का मिट जाता चकाचौंध हो जाता।
होती शाम रात जब आती।
अंधकार की बदली छाती।
चुपके से वह हार पहिन मैं बेहद धूम मचाता।
अम्मा मुझे देख घबराती।
मुन्नी मेरे पास न आती।
तरह तरह की बोल बोलियाँ सब को खूब छकाता।
अगर जान वे मुझको पाते।
मिलकर तुरत पकड़ने आते।
हार उतार जेब में रखता अन्धकार हो जाता।
फिर जो मेरा कहना करता
मुझसे हर दम रहता डरता।
कभी कभी उसको भी खुश हो हार वही पहनाता।
एक सवाल 2
एक सवाल
आओ, पूछें एक सवाल।
मेरे सिर में कितने बाल?
कितने आसमान में तारे?
बतलाओ या कह दो हारे।
नदियाँ क्यों बहतीं दिन रात?
चिड़ियाँ क्या करती हैं बात?
क्यों कुत्ता बिल्ली पर धावे?
बिल्ली क्यों चूहे को खावे?
फूल कहाँ से पाते रंग?
रहते क्यों न जीव सब संग?
बादल क्यों बरसाते पानी?
लड़के क्यों करते शैतानी?
नानी की क्यों सिकुड़ी खाल?
अजी न ऐसा करो सवाल!
यह सब ईश्वर की माया है।
इसको कौन जान पाया है।
गुब्बारा लो
कहाँ, कहाँ से ऐ अलबेले!
तू लाया यह गुब्बारा।
बता बता रे ऐ अलबेले!
क्यों लाया यह गुब्बारा?
उड़ा बादलों में जाता है,
तितली की गति दिखलाता है।
परियों की सुन्दर रानी का,
क्या तू मन हरने जाता है?
झाकं चंद्रमा की खिड़की से,
किसने तुझको चुमकारा?
बता बता रे बाल सलोने!
उड़ा रहा क्यों गुब्बारा?
ओहो! क्या तुम नहीं जानते,
सपनो का कल मेला है।
परियों के प्यारे बच्चों का,
चौ तरफा से रेला है।
परीदेश से इसीलिये यह,
आया है बेचनहारा।
बातचीत का समय नहीं है,
गुब्बारा लो, गुब्बारा।
सुनहली और काली
सुनहली और काली
चन्दा तारे, सभी सिधारे,
आसमान कर खाली।
हुआ सवेरा, मिटा अँधेरा,
पूरब छाई लाली।
कहीं रुपहली, कहीं सुनहली,
तन उषा ने जाली।
दसों दिशा की,घोर निशा की,
सब कालिमा चुरा ली।
पड़ी दिखाई, अति मन भाई,
लची फूल से डाली।
लगीं बोलने, वहीँ डोलने,
उठ चिड़ियाँ मतवाली।
उषा रानी, सुभग सयानी,
निकली ले दो थाली।
जगे हुओं को मिली सुनहली,
सुप्त पड़ों को काली।
मेरी छाया
अम्मा ने जब दीप जलाया।
मैने देखी अपनी छाया।
मुझ सी ही है सूरत सारी।
बहुत मुझे वह लगती प्यारी।
जब जब मैं बिस्तर पर जाता।
उसे प्रथम ही लेटा पाता।
उसको कुत्ते काट न सकते।
उसको दादा डाट न सकते।
वह घटती बढ़ती मनमाना।
बना न कोई है पैमाना।
साथ हमारा कभी न तजती।
जब मैं भगता वह भी भगती।
एक रोज मैं उठा सवेरे।
रहा उसे आलस ही घेरे।
खेतों में बिखरे थे मोती
पर थी वह घर में ही सोती।
पूरब में जब निकला सूरज।
वह भी आ पहुंची बिस्तर तज
उसे साथ ले आया घर में।
उस सा मित्र न दुनियां भर में।
बछड़ा
बहुत बड़ा है मेरा बछड़ा।
पीता है जल रोज दो घड़ा।
हरी हरी घासें खाता है।
साँझ सवेरे चिल्लाता है।
गैया के संग चरने जाता।
दूध नहीं अब पीने पाता।
पर न जरा है बुरा मानता
मानों कुछ भी नहीं जानता।
साथ हमारे खेला करता।
सिर से हम को ठेला करता।
पर न लड़कियों को है भाता।
शायद उनकी गुड़िया खाता।
मेरा घर उसका भी घर है।
पर न मिला उसको बिस्तर है
है जमीन ही पर नित सोता
नहीं चटाई को भी रोता।
शायद इसे न पढ़ना आता।
इसीलिये कुछ मान न पाता।
पर इसकी परवाह न इसको
मान आन की चाह न इसको।
और बड़ा जब हो जावेगा।
खेत जोतने यह जावेगा।
काम करेगा फिर तन रहते।
वर्षा शीत घाम सब सहते।
जो कुछ हैं हम पीते खाते।
इसकी ही मेहनत से पाते।
है मेरा यह सच्चा साथी।
देकर इसे न लूँगा हाथी।
धूल
जब मैं छोटा सा बच्चा था,
खेला करता था अति धूल।
कहती थी माँ – फूल रहा है,
वाह, धूल में क्या ही फूल।
मुझसे ही कितने ही बच्चे,
थे सच्चे मेरे साथी।
कोई बन जाता था घोड़ा,
कोई बनता था हाथी।
लकड़ी के हल बैल बना कर,
कोई बनता चतुर किसान।
कहीं बाग तालाब दीखते,
बनते कहीं खेत खलिहान।
मनमाना घर बना धूल में,
खेला करते थे सब लोग।
हाय ! न अब आ सकता है,
जीवन में वह सुखमय संयोग।
खेल न है वह,मेल न है वह,
गये धूल में मिल सारे।
चिन्ताओं में चूर पड़े हैं,
सब संगी साथी प्यारे।
अरी धूल! तू तो है अब भी,
हाँ,न रहा बचपन मेरा।
पर इससे क्या -उर में है,
वैसा ही पूर्ण प्यार तेरा।
मात्रभूमि की सेवा का जो,
लेते हैं अपने सिर पर भार।
वे अवश्य ही बाल्य काल में,
कर चुकते हैं तुझको प्यार।
वाटिका
देखो यह वाटिका निराली।
मन हरने वाली हरियाली।
झूम रही क्या डाली डाली।
लगा सींचने में है माली।
पत्तों का हिलना है जारी।
फूलों का खिलना है जारी।
महक रहीं हैं गलियां सारी।
चहक रहीं हैं चिड़ियाँ प्यारी।
खिली चमेली फूला बेला।
भारी है भौरों का मेला।
खड़ा हुआ है क्या अलबेला।
लिये फलों का गुच्छा केला।
रंग बिरंगे सुंदर सुन्दर।
चुन चुन कर मैं फूल मनोहर।
लूँगा छिन भर में टोपी भर।
दूंगा सबको हार बनाकर।
रोज यहीं पर आता हूँ मैं।
खूब घूमता गाता हूँ मैं।
हवा प्रात की खाता हूँ मैं।
मनमाना सुख पाता हूँ मैं।
वाटिका
देखो यह वाटिका निराली।
मन हरने वाली हरियाली।
झूम रही क्या डाली डाली।
लगा सींचने में है माली।
पत्तों का हिलना है जारी।
फूलों का खिलना है जारी।
महक रहीं हैं गलियां सारी।
चहक रहीं हैं चिड़ियाँ प्यारी।
खिली चमेली फूला बेला।
भारी है भौरों का मेला।
खड़ा हुआ है क्या अलबेला।
लिये फलों का गुच्छा केला।
रंग बिरंगे सुंदर सुन्दर।
चुन चुन कर मैं फूल मनोहर।
लूँगा छिन भर में टोपी भर।
दूंगा सबको हार बनाकर।
रोज यहीं पर आता हूँ मैं।
खूब घूमता गाता हूँ मैं।
हवा प्रात की खाता हूँ मैं।
मनमाना सुख पाता हूँ मैं।
हिमालय
लखो हिमालय है क्या लेटा।
हो मानो पृथ्वी का बेटा।
यदि वैसा तुम भी तन पाते।
तो किस तरह मदरसे जाते
यह कॉलेज में पढ़ा नहीं है
मोटर पर भी चढ़ा नहीं है।
पर मूरख न इसे कह देना।
बच्चों इससे शिक्षा लेना।
बड़ी बलि है इसकी छाती।
जो गंगा की धार बहाती।
जिसमे हैं हम नाव चलाते।
जिसमे हैं हम खूब नहाते।
बादल इसमें अड़ जाते हैं।
मनमाना जल बरसाते हैं।
जिससे होती खेती बारी।
खाते हम पूरी तरकारी।
दुश्मन इसे देख डर जाते।
बल का इसके पार न पाते।
पहरेदार हमारा है यह।
कहो न किसको प्यारा है यह।
घोर घटा सा खड़ा हुआ है।
महाबली सा अड़ा हुआ है।
सेवा करना इससे सीखो।
कभी न डरना इससे सीखो।
वर्षा की बूंदे
बड़ी बड़ी बूंदें पड़ती हैं,
बड़ा मजा है बड़ा मजा।
जल्दी निकलो घर से बाहर,
बड़ा मजा है बड़ा मजा।
दल के दल दौड़े आते हैं,
देखो बादल के कैसे।
छुट्टी का घंटा बजते ही,
भगते हैं लड़के जैसे।
डाली डाली पर पेड़ों की,
नाच रही है हरियाली।
खुश हो मुन्नी बजा रही है,
अपनी छत पर से ताली।
पूंछ उठा कर दौड़ रही हैं,
घीसू की तीनों गायें।
इस चबूतरे पर चढ़ आओ,
यहाँ भी न वे आ जायें।
कैसी ठंडी हवा बही है,
कैसा समय निराला है।
देखो उस ऊँचे पीपल में,
किसने झूला डाला है।
सूरज का न पता चलता है,
कैसा बढ़ा अँधेरा है।
खूब घुमड़ कर आज घनो ने,
आसमान को घेरा है।
अरे सुनो तो कैसी प्यारी,
बोली बोल रहा है मोर।
आओ हम भी दौड़ चलें अब,
फौरन उसी बाग की ओर।
ओहो भाई भागो भागो,
लगा बरसने पानी अब।
पेड़ तले बच नहीं सकेंगे,
कपड़े भीग जायेंगे सब।
पानी
बादल है पानी की माया।
सागर है पानी की काया।
नदी और तालाब निराले।
गये सभी पानी से ढाले।
पानी में हम नाव चलाते,
पानी में हम रोज नहाते,
पानी में हम पाते मोती,
पानी से ही खेती होती।
पानी में लकड़ी बहती है,
पानी में मछली रहती है,
पानी ही से है हरियाली,
पानी है ईश्वर का माली।
पानी लाओ – पानी लाओ,
प्यास लगी है पानी लाओ।
ठंडा पानी पीता हूँ मैं,
पानी के बल जीता हूँ मैं।
पानी तो है बड़े काम का,
फिर भी मिलता बिना दाम का
ऐसे ही होते वे बच्चे,
जो जग के हैं सेवक सच्चे।
इन्द्रधनुष
इन्द्रधनुष निकला है कैसा।
कभी न देखा होगा ऐसा।
रंग बिरंगा नया निराला,
पीला लाल बैंगनी काला।
हरा और नारंगी नीला,
चोखा चमकदार चटकीला।
इस दुनिया से आसमान पर,
पुल सा चढ़ा हुआ है सुंदर।
है कतार मोरों की आला,
या बहुरंन्गी मोहन माला।
अटक गया है बादल में या,
सूर्यदेव के रथ का पहिया।
पृथ्वी पर छाई हरियाली,
बहती ठंडी हवा निराली
जरा जरा बूंदें झड़ती हैं,
नदियाँ क्या उमड़ी पड़ती हैं।
इन सबसे बढ़ कर इकला,
वह जो इन्द्रधनुष है निकला।
खड़ा स्वर्ग सा दरवाजा,
तू भी लख रे अम्मा, आ जा।
वर्षा ऋतु
चारों ओर मची है हलचल।
गरज रहे हैं बादल के दल
चमक चमक बिजली जाती है।
आँखों को चमका जाती है।
झम झम बरस रहा है पानी।
घर से नहीं निकलती नानी।
बेहद घिरी घटा है काली।
बिनती है बूंदों की जाली।
बादल है अथवा बनमाली?
देखो जहाँ वहीँ हरियाली।
नाच रहे हैं मोर मुरेले।
कीच केचुएँ घर घर फैले।
झरने हैं हो रहे पनाले।
गलियों में बहते हैं नाले।
धूल जहाँ उड़ती थी बेढब।
वहीँ नहाता हाथी है अब।
नदियाँ हैं समुद्र सी फैली
लहर रहीं लहरें मटमैली।
भीगी मिटटी महक रही है।
जल की चिड़िया चहक रही है।
मेंढक भी मुंह खोल रहे हैं।
टर टों , टर टों बोल रहे हैं।
भीग रहा बेचारा बंदर।
उसे बुला लो घर के अन्दर।
है किसान भी चला रहा हल।
खुश हो उसका रहा मन उछल।
वर्षा ही उसका जीवन है।
यह ही उस निर्धन का धन है।
कल जब निकला घर से बाहर।
देखा इन्द्रधनुष था सुंदर।
उसमें रंग कहाँ से आया?
अब तक जान न मैंने पाया।
दौड़ो नहीं, फिसल जाओगे।
मुंह में कीचड़ भर लाओगे।
यहीं बैठ कर देखो बादल।
बनिये का सब नमक गया गल।
किया पतन्गों ने है फेरा।
बादल सा दीपक को घेरा।
बिगड़ रहे बैठक से दादा।
और न अब लिख सकता जादा
शाम
कैसी घड़ी शाम की आई।
पच्छिम में है लाली छाई
गलियों में गौधूलि छाई।
हल बैलों ने छुट्टी पाई ।
हिलती हैं अब नहीं लताएँ।
लौट रही हैं वन से गायें।
खुश हो हो किसान गाते हैं।
खेतों से घर को आते हैं।
पेड़ों पर कोलाहल छाया।
चिड़ियों ने है शोर मचाया।
गई बालकों से घिर नानी।
सोच रही है नई कहानी।
मोहन अब खा चुका मलाई।
चंदा मामा पड़े दिखाई।
लल्ली भी गाती है लोरी।
कहती – सो जा गुड़िया गोरी।
उतर रही है नींद निराली।
ले सुंदर सपनो की जाली।
बंद हुए सब खेल खिलौने।
बच्चों के बिछ गये बिछौने।
क्यों दीपक से खेल रहे हो?
लगा हाथ में तेल रहे हो?
देखो क्या कहते हैं तारे।
शाम हुई सो जाओ प्यारे।
गर्मी
गर्मी आई, गर्मी आयी,
खूब करो जी स्नान।
संध्या समय छनै ठंडाई,
हो शरबत का पान
तरी भरी है तरबूजों में,
खूब उड़ाओ , आम।
अजी न लगते खरबूजों के,
लेने में कुछ दाम।
खस की टट्टी लगी हुई है,
पंखे का है जोर ।
आंधी आती धूल उड़ाती,
करती हर हर शोर।
बंद हुआ है स्कूल हमारा,
अब किसकी परवाह?
चलों मौज से दावत खावें,
है मुन्नू का ब्याह।
जल में थोड़ा बरफ डाल दो,
कैसा ठंडा वाह ।
जाड़े में था बैर इसी से,
अब है इसकी चाह।
आओ छत पर पतंग उड़ावें,
सूर्य गये हैं डूब ।
दिन भर घर में बैठे बैठे,
लगती थी अति ऊब।
बजा रहे चिमटा बाबा जी,
करते सीता राम।
पहन लंगोटा पड़े हुए हैं,
कम्बल का क्या काम?
शाम हो गई आओ छत पर,
सोवें पांव पसार।
विमल चांदनी छिटक रही है,
ज्यों गंगा की धार।
लुप लुप करते अगिणत तारे,
ज्यों कंचन के फूल।
हैं मुझकों प्राणों से प्यारे,
सकता इन्हें न भूल।
ऐसी सुखमयी गर्मी को भी,
बुरा कहो क्यों यार ?
मालूम हुआ आज मुझको –
है झूठा सब संसार।
बसंत 2
आया बच्चों, बसंत आया
सब पेड़ों में फूल फुलाया।
फिर से नई हुई हरियाली
दुल्हिन सी लचकी तरु डाली
भौंरों के दल के दल आये।
संग में मधु -मक्खियाँ लिवाये
मस्त हुयें हैं सब भन भन में
बंशी सी बजती है वन में।
कूक रही है कोयल काली
बजा रहें हैं लड़के ताली।
और कूक वैसी ही भरते।
खूब नकल कोयल की करते
मह मह गलियां महक रही हैं।
चह चह चिड़ियाँ चहक रही हैं।
बढ़ी उमंगें सब के मन में
दूना बल आया है तन में।
हे बसन्त, ऋतुओं के राजा।
मुझको इतनी बात सिखा जा
नित मैं फूलों सा मुस्काऊं।
सुख से सब का मन बहलाऊं।