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देहात के लोग

वे अपने वस्त्र ख़ुद सिलते थे
सफ़र में जाने से पूर्व
उन्हें नहीं थी गाड़ी की दरकार
वे पैदल चलते
‘चलाते चरणदास की बग्घी’
और न कभी थकते

शाम होते ही
जलने लगतीं झिलमिल
दूर से दिखतीं अन्धेरे में
उनकी लालटेनी रोशनियाँ
समय पर निपटा लेते
वे अपने सभी काम
देहात के पुराने लोग

वे ख़ुद बनाते थे
अपने हल
अपने बैलों को भी
सतत श्रम के बाद
प्यार से थे नहलाते
सहलाते थे उनके ज़ख़्म
साफ़ रखते उनकी त्वचा
समय पर चारा परोसते उन्हें
देहात के वे पुराने लोग

वे ख़ुद बनाते थे अपने मकान
मिट्टी, पत्थर, लकड़ी
गोबर की सेज में सीज़न की हुई
बनाते दूर के खेतों के निकट
घास की दो-घरी
छत भी बनाते थे पत्तों की
छक कर वे खाते थे
मृदु भोजन
मक्खन, छाछ व दूध के साथ
बीमार भी कभी-कभी होते थे
देहात के पुराने लोग ।।

क़लमी बाँस का पौधा

कितना नायाब है
क़लमी बाँस का वह पौधा
विजन वन में
उसकी रोयेदार चन्द कलगियाँ
चमक रहीं। सुब्ह के सूर्य में
आसपास है अनन्त आकाश

वह डोल रहा दूब के गलीचे पर
गर्व से सुसज्जित खड़ा है
पहाड़ी धार से आती
धूप में

उजलाई है उसकी छवि
दिए हैं कलात्मक अँधेरे ने
उसे पेन्सिल शेड
वह लग रहा किसी चतुर चित्रकार का
एक सजीव लयबद्ध छवि बिम्ब

एक परिन्दे ने की है डुपडुप
दूसरे ने टीं वीं टुट टुट
तीसरे ने अपनी हुम हुम

गूँज रही वन में दूर दूर तक
झिंगुरों की कीरवाणी

मुझे लगा सब कुछ लयबद्ध

सरकण्डे
क़लमी बाँस के
डोलते रहे देर तक हवा में ।।

शिल्पी

शिल्पी और उसका हथकरघा
दोनों मिल-जुलकर
बुन रहे पहाड़ी ऊन की / एक सुन्दर चादर

बुना जा रहा ताना-बाना, बेल-बूट
संग-संग बहुरंगी

कुटीर के बाहर
थके हुए वृक्ष के पत्तों पर
प्रहार करती गर्दीली हवा
पर वे नहीं हो रहे उत्तेजित
थका हुआ लग रहा है मौसम भी

सुनाई नहीं दे रही / वो पहले की सी
मधुमक्खियों की गुनगुन
महक भी नहीं है हवा में
जंगली फूलों की
कशमल, कूजो, करौंदा
सब कट गई / उनको वहन करती
झाड़ियाँ
पड़ोस में बड़े शहर के लिए
बनायी जा रही / एक पक्की सड़क
लगे हैं कंकरीट के ढेर
कुटीर के आसपास

इन सबसे अनजान
शिल्पी और उसका करघा
कर रहे लगातार संघर्ष

विलम्बित चल रहा काम
कर्मठ गा रहा अपनी भाषा में
एक मधुर लोकगीत / फूलों के मौसम का
करुणा से भरा
खट…खट…खट
चल रहा हथकरघा
आवाज़ का सर्प / रेंग कर चुप हो जाता
कुछ दूर तक
गूँजने लगता / चिमचिम चिमचिम
पार्श्व में झिंगुरों का
समवेत स्वर
अकेलेपन को / और गाढ़ा करता ।।

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