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मुठ्ठी भर लड़ाईयां 

जिन पैरों को अथाह दूरी नापनी थी
वह वस्तुतः थक चुके थे
और मैंने कहीं पढ़ा भी था कि
गर सफ़र लम्बा हो तो थकान जरूरी है

इसीलिए रास्तें में आ रही
इन तमाम थकानों को
मैं अपने लिए उपहार घोषित करता हूं
और पूरी दुनिया को चिल्ला- चिल्लाकर
यह बता देना चाहता हूं कि
मेरा थकना मेरे लिए उतना ही लाज़मी है
जितना मेरी जीत

इसलिए महज़ एक जीत के लिए
एक- दो नहीं अपितु सैकड़ों बार
थकना चाहता हूं

देह की लाख टूटन के बावजूद
आने वाली सुबहों कि
उन तमाम उदासियों को
अतीत की गहरी खाई में फेंक
वर्तमान को अपनी ज़ख़्मी छातियों में
सुरक्षित कर लेना चाहता हूं

यह जानते हुए भी कि
भविष्य अपरिभाषित होता है
अतीत असुरक्षित
और जीवन हास्यापद
फिर भी एक मुठ्ठी लड़ाई
अगले सफ़र के लिए खुदमें बचा लेना चाहता हूं।

शहर मर रहा है

शहर मर रहा था
और खतरा उन शरीफों से ज्यादा था
जो आधी रात को
किसी की अस्मत बचाने निकले थे
और उठा लाए थे
कुछ लड़कियों के सफ़ेद-स्याह दुप्पटे
और कल्पना कर रहे थे
उसकी निर्वस्त्र देह
खुली छातियों, समतल पीठ, उभरे पेट
और अंदर जाती नाभि की
दुपट्टा बंद कमरे में
रंगीन मिज़ाज मर्दाना हंसी के साथ
सीलिंग फैन के हवा संग लहरा रहा था
और शहर से आ रही थी
सिसकियों में भीगीं कुछ करुण आवाज़ें
सोचता हूं- यह कौन से लोग हैं?
जो बंद कमरे में इज्ज़त उछालते
खुले आसमान से लोकने की कोशिश करते हैं
आखिर इंसान ही तो?
उस दिन शहर मर रहा था
और खतरा उन शरीफों से ज्यादा था
जो आधी रात को
किसी की अस्मत बचाने निकले थे
और उनके हिस्से आए थे
कुछ मांस के टुकडे
मुंह में लगे हुए थे कच्चे लहू
जिन्दाबाद नारों तले पनप रहे थे
कुछ ऐसे अपराधी
जिनका जिक्र करना यहां गैरजरूरी है
अब, इस शहर को मर ही जाना चाहिए…।

जीवन

मुझे पता है
एक दिन उड़ते हुए आएगी मृत्य
अपने डैनों को फैलाए
और देह से समेट लेगी उस तत्व को
जिसे लोग जीवन कहते हैं
देह जो खाली देह नहीं है
खोखली हो जाएगी
और खाली कोटरों में
कुछ परिन्दे बना लेंगे घोंसले
फिर शुरू होगी देह की गुटरगू
फिर से लौटेगी जिन्दगी
उन जन्में- अजन्में
अण्डो से बाहर निकलते बच्चों के साथ
जिनके पास उड़ने को पंख नहीं होते
और ना ही चलने को पैर
पर होती हैं उनकी भी माँएं
जो देती हैं उम्मीदें
और एक दिन लौट आता है जीवन
दो नन्हें- नन्हें पैरों
और नर्म- नाज़ुक पंखों के साथ…
हां, ऐसे ही तो मरे हुए देह में लौटता है जीवन

ज़हरीले धर्म

हथियार बदल रहे हैं
हमें मारने के तरीके भी
मुझे पता है
कुछ दिन बाद मेरे घर पर
धार्मिक स्वालम्बियों के भेष में
आक्रमणकारी आएंगे
उनके हाथों में
गोली, बारूद, बंदूके नहीं
कुरान, हबीब
गीता, वेद
गुरुग्रंथ साहिब
और बाइबिल जैसे ग्रंथ होंगे
वह हमें मारेंगे
धमकाएंगे
हमारी बीबी और बच्चों के सामने
हमें ज़लील करेंगे
क्योंकि हम लिखते हैं
और वह हमारे लेखन से डरते हैं
वह हमें कराएंगे
हमारी ज़ुबान से
अपने अपने
वेदों का उच्चारण
पढ़ाएंगे क़ुरान की आयतें,
गुरुग्रंथ साहिब
और बाइबिल का हवाला देंगे
मैं जानता हूं
वह आएंगे जरूर
कहेंगे तुम धर्मी बनो
नहीं मानने की स्तिथि में
हम पर सामूहिक रूप से
फेकेंगे ईंट और पत्थर
और फिर ईसा मसीह की तरह
हमें भी क्रूस पर लटका देंगे
मुझे पता है
जिसमें भी ईश्वरीय गुण है
वह एक दिन मारा जायेगा
जो भी सृजन करेगा
उसके सृजन को ही नहीं
उसकी किताबों
उसके घर को भी
एक ही झटके में जला दिया जायेगा
फिर भी मरी हुई आग
और राख शेष रहेगी
और कुछ जिन्दा हाथ भी
जो लिखने और
कटने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं।

मरे हुए जूते

मरे हुए जूतों की शक्लें
अब मुझे बिलकुल भी याद नहीं रहती
फिर भी मेरी सात साल की मासूम बिटिया
हर रोज़, अलसुबह दौड़े-दौड़े आती
और कहती है
दादा आज सुबह भी बाज़ार में
कुछ मरे हुए जूते मिले हैं
छत-विछत, ज़ख्मी
खून में सने और लहूलुहान
पुरबाहिया काकी की देह की ही तरह
मन को झकझोर देने
आत्मा को कपकपाने की स्तिथि में
लग रहा है, लग रहा है
कल भी एक इंसान घर से निकला होगा
और फिर घर नहीं लौटा होगा
एक दिन यही सूचना
मेरी पड़ोसी की बिटिया लाई
दादा आज बाजार में
किसी मासूम बच्ची के
कुछ मरे हुए जूते मिले हैं
छत-विछत, ज़ख्मी
खून में सने और लहूलुहान
मेरी आंखें पथरा गईं
पर मेरी बेटी उस दिन के बाद
कभी घर नहीं लौट सकी
कभी- कभी सोचता हूं
मेरी उस सात साल की बेटी की
उम्र क्या होनी चाहिए थी
जो समय से दो महिने पहले पैदा हुई
बीस साल पहले जवान
और दो सौ साल की उम्र में
मरे हुए जूते की एक शक़्ल बन गई
क्या क्या कोई बताएगा ;
मुझे मेरी सात साल की बेटी की उम्र ?
जो सात साल की उम्र में
अक्सर तेरह नंबर के जूते पहनती थी
उसकी कुछ जूतियां अभी भी मेरे पास हैं
परन्तु, मरे हुए जूतों की शक्लें
अब मुझे बिलकुल भी याद नहीं रहती…

निर्वात

निर्वात में भी
इतनी आवाज़ तो होनी ही चाहिए कि
कान सुन सकें हृदय का धड़कना
नाक सूंघ सके
संवेदनाओं- भावनाओं की महक
आंखें महसूस कर सकें
पलकों का खुलना- बंद होना
चुप्पियों की भी
अपनी आवाज़- अपनी पद्चाप होती है
और जिन्दा लोग
बड़ी ही सहजता- बड़ी ही सजगता से
इन आवाजों को सुनते- महसूसते भी हैं
शायद वे मरे हुए लोग हैं
जो इन बेशक़ीमती आवाज़ों को
तनिक भी सुन-महसूस नहीं कर पाते
और पैदा लेते हैं
अपने आसपास एक भारी निर्वात
जिसमें आवाज नहीं होती
और नहीं होती है तनिक भी रंग और रौशनी
इसीलिए, दुनिया की तमाम अदालतों में
मैंने अर्जी लगाई है
थोड़ी सी आवाज़, थोड़े से रंग और रौशनी की
ताकि मरे हुए लोग
एक बार फिर से जिन्दा हो सकें
निर्वात की सभी रिक्त जगहें पुन: भरी जा सकें।

पुराना घर

बहुत कुछ भुला देने के बाद भी
मुझे याद आता है
खपरैल का वह पुराना घर
जिसमें सिर्फ एक ही दरवाजा था
और वह, अंदर की तरफ खुलता था
आने वाले आगंतुक आते थे
लम्बे समय तक हृदय में ठहरे रह जाते थे
बाद में एक और दरवाज़ा बनवाया गया
जिसका बाहर की तरफ खुलना
लगभग पूर्व निर्धारित था
आने वाले आगंतुक, आगंतुक की तरह आते
और दूसरे दरवाजे से
बिन ठहराव बाहर की तरफ निकल जाते थे
बची रह जाती थी
उनके पैरों की महज़ कुछ पद्चाप
जो कभी-कभार सुनाई देती थी
कभी-कभार नहीं भी
पर आने वाले आकर चले जाते थे
कभी लौटते नहीं थे
वीरान दिलों की सुधि लेने को भी
बाद में कुछ और दरवाजे बनवाए गए
दीवारों से झांकते छोटे-छोटे झरोखे
बड़ी-बड़ी खिड़कियों में तब्दील होते गए
घर, घर ना रहकर जाने कब
महल और महल से कोठी में बदल गया
उसके चारों तरफ
एक ऊंची सी चहारदीवारी बना दी गई
बाहर एक काले रंग से पुता
काठ का बोर्ड लगा दिया गया
जिस पर बड़े और सफेद अक्षरों में लिखा था
पाल निवास, सी – 13, मुहल्ला खुर्रमपुर
जिस पर हम अक्सर ख़त लिखते रहते थे
और जबाब भी आते रहे
अब भी हम ख़त लिखते हैं
पर अब ज़बाब नहीं आते
और हमें मानना ही पड़ता है कि
सिर्फ इंसान नहीं मरते, घर भी मरते हैं
हमने तो पुराने घरों को कुछ ऐसे ही मरते देखा है।
छोटी-छोटी नफ़रतें
अक्सर इतनी बड़ी क्यूं हो जाती हैं
कि दब जाता है प्रेम
बड़ी ही बारीक विनम्रता से
बिना किसी आवाज़
बिना किसी हलचल
बिन कुछ कहे, बिन कुछ सुनें
संकरी होती जाती हैं
खुली हुईं जगहें
चलती हुईं गलियां
फैला हुआ विस्तृत हृदय
और वह हर एक रास्ता
जहां अक्सर प्रेम चहल-कदमी
कर रहा होता है
रह जाती हैं तो बस
कुछ अधूरी ख्वाईशें
कुछ अधखुली खिड़कियां
कुछ झांकती उनींदी आंखें
और एक बंद दरवाज़ा
जिस पर लिखा होता है
अब अंदर आना मना है
और दहलीज़ पर काट दी जाती है
बची-खुची मगर पूरी की पूरी जिंदगी।

आँसुओं का टूटना 

जिन आँखों में सपने पलते हैं
उन्हीं आँखों के कोर में ही कहीं होते हैं आँसू भी
सपनों का टूटना
आँसूओं का निर्झर बहते जाना
जीवन के बियाबान पलों में खालीपन पैदा करते रहना
हमारी नियति में हो यह जरुरी तो नहीं
पर जरुरी है
सपनों का पलना, उम्मीदों का टूटना
और आंसुओं का बहना भी
क्योंकि आँखों का तर होना निहायत ही जरूरी है
जरूरी है; ऑखों के कोर में थोड़े से पानी का बचा होना…
ताकि सूखे होंठों में भी हल्की- हल्की सी नमी
बरकरार रह सके
ताकि आँसू टूटकर गालों पर लुढ़के
और उन छातियों को तर करते रहें
जिनके नीचे ही कहीं दिल होता है, धड़कने होती हैं
आत्मा और रौशनी होती है
आँसूओं का टूटना निहायत ही जरुरी है
जरूरी है; ताकि धड़कने जिन्दा रह सकें
सांसें ताउम्र चलती रहें
आत्मा देह की उन तमाम गहराईयों
उन तमाम पीड़ाओं को समझ सके
जो हमारी समझ से दूर, बहुत ही दूर होती जा रही हैं
सचमुच, आँसूओं का टूटना जरुरी है
जिन्दा रहने के लिए, और वक़्त-बेवक़्त मरने के लिए भी।

घटनाएं

कुछ भी नहीं होता तयशुदा
हर चीज का तय होना बाकि होता है
अच्छी- बुरी घटना के
घटित होने के अंतिम क्षणों में भी
इसीलिए वक़्त को बहने देना है
उस छोर तक जहां नदी शांत होती है
समुंद्र बिलकुल चुप
झरने अपनी गति खो देते हैं
हवाएं शोर नहीं करती
धूप की कतरनें धरती की बजाय
किसी खजूर वृक्ष पर बिछी होती हैं
बारिश की बूंदे ओस बनाने से पहले
बन जाती हैं ओला पत्थर
ऑक्सीजन की एक घूंट भी
सांसों को नहीं हो पाती मुय्यसर
फिर भी बस बहने देना है
उसी त्रीव वेग में
देह जहां जाना चाहती है
आत्मा करना चाहती है
जिस देह- देश में प्रस्थान
बिना किसी पूर्वभावना
बिना किसी संसय, संदेह, संकोच के
बिना किसी पहले से निर्धारित पथ पर
बिना रुके, झुके, परस्पर
क्योंकि यहां तय कुछ भी नहीं है
यहां तय कुछ भी नहीं है
इसका मतलब ही है कि
हम इंसान जन्मजात आजाद हैं
अपनी अंतिम रूह
अपनी अंतिम सांस तक

ईस्पात का स्वाद 

हम सब जब अपने समय के
सबसे संघर्षशील मनुष्यता के पड़ाव पर थे
खून को पसीने की तरह बहाना जानते थे
मेहनतकश होने का दंभ नहीं था
उस वक्त में हम मजदूर कहलाते थे
अब उस समय से हम बाहर निकल चुके हैं
उस ठहरे हुए पड़ाव से भी आगे
हमारे हाथों पर पड़े गठ्ठे मिट चुके हैं
संघर्षशीलता से तौबा कर लिया हैं हमने
और अब हम मजदूर भी नहीं रहे
वह खून-पसीने भी नहीं रहे
जिसके हिस्से में इस्पात के नुकीले
धारदार हथियार हुआ करते थे
और हम सब अपने- अपने दांतों से
अपने- अपने हिस्से की मिट्टी
काटते हुए बड़े हो रहे थे
हमारी गुजर चुकी पीढ़ी की तरह
अब गांव में भी बच्चे मिट्टी नहीं काटते
और न ही मिट्टी खाते हैं
पर लोहे का स्वाद वह जानते हैं
और बात-बात पर लहराने लगते हैं हथियार
हसिए-गड़ासे और तलवार में
कल तक फर्क समझ आता था
बंदूक-गोली-बारूद ने हमारी समझ को ही
नपुंसक बना दिया
हम कामगार दुबारा मजूर बन गये
और अपनी संघर्षशीलता और मनुष्यता को भूल
करने लगे इन्हीं बंदूकों-गोली-बारूदों की खेती।

दो सूत धागा 

दो सूत का धागा
जो मां ने कलाई में बांध दिया था
माता जी का प्रसाद कहकर
आज भी मेरी कलाइयों पर मौजूद है
कर्ण के कवच की तरह
वह धागा जो सिर्फ धागा सा दीखता है
वास्तव में सिर्फ धागा नहीं है
उसके रेशों में मौजूद है
आग से भी ऊंची ईश्वर के प्रति आस्था
उसके रेशों में मौजूद है
समुन्द्र की गहराइयों से भी गहरी मां की जीवंत श्रद्दा
पर मैं किसी ईश्वर पर विश्वाश नहीं करता
बल्कि इन सबसे इतर
ईश्वर के प्रति मां के अटूट विश्वास पर
विश्वाश करता हूं
और इसी विश्वास की मजबूती को
अपने विश्वास में बांधने का प्रयास करते
साझ – सवेरे जमता, पिघलता और ढलता रहता हूं
उसी एक धागे के सहारे जो मां ने मेरी कलाई पर बांधे थे
कभी – कभी अपने ज़मने
कभी – कभी अपने पिघलने और ढलने पर संदेह होता है
पर मैं जमता हूं ताकि अपने रगो में स्थिर रहूं
पिघलता हूं ताकि अपने रगो में दुनिया को महसूस कर सकूं
ढलता हूं ताकि वक़्त के साथ -साथ चल सकूं
बस उस दो सूत के धागे के सहारे जो मां ने मेरी कमर में बांधे थे।

तीसरी लड़की की लाश 

हवा में उड़ती अफवाहों का पीछा करती नज़रे
जब पकड़ लेती हैं
कथित तौर पर भागती बिटिया का हाथ
तो बेटी को शब्दों से नहीं
अपने मुखर होते मौन से जबाब देना होता है
जिसकी भाषा एक पुरूष कत्तई नहीं समझता
पर स्त्रियां समझती है
एक मां बार- बार अपनी समझ को दूर झटक
बस एक ही बात दुहराती है
ना समझ और अज्ञानी होना ही अच्छा है
पढाई- लिखाई दिमाग तो खोलती है
पर मति को मार देती है
रामधनिया की मति भी मारी गई है
जो गांव की होने के बावजूद प्रेम कर बैठी
शहर में ब्याही बुआ कम उम्र होने के बावजूद
प्यार- मोहब्बत के मसले को समझने लगी है
क्या हुआ प्रेम ही तो की है ?
कौन सा मार गुनाह कर दिया ?
बार- 2 कहती और हर बार घर के बड़ों के द्वारा
नजरअंदाज कर दी जाती है
इस कड़े निर्देश के साथ- मेहमान हो मेहमान की तरह रहो
छुटकी घर के गलियारे में
बिना कुछ खाए पीए सुबह से सुबक रही है
आने वाले ना जाने किस अनजाने कल के डर से
तू खा पी ले या फिर तुझे भी भागना है ?
उसकी चुप्पियां कोई माक़ूल जबाब नहीं देती
और फिर थोड़ी देर बाद एक मरी हुई खामोशी छा जाती है
मौत के सारे समीकरणों के बीच
एक और समीकरण को जोड़ते हुए घोषणा कर दी जाती है
रामधनिया हमारे लिए मर गई
उससे घर का जो भी सदस्य ताल्लुक रखेगा
उसे भी मरा मान लिया जाएगा
इस घोषणा के साथ घर के पुरुषों की मुड़ी हुई मूंछे
दुबारा खड़ी हो जाती हैं
स्त्रियों के पास शायद मूंछे नहीं होती
सिर्फ आंख, कान, मुंह- चुप्पी, उदासी और आंसू होते हैं
जिस पर विस्मय और दर्द का चढ़ना लाज़मी…
प्रेम में मरी गांव की लड़की की, उस तीसरी लाश की तलाश जारी है……..

उम्र का बैनामा

वस्तुतः दिन का वह अन्तिम पहर होता है
जब मैं समेटता हूं
दिन भर की भागदौड़, कहा- सुनी
अपने पैरों पर लगी मिट्टी, माथे की धूल
हवा, पानी, धूप
इस पूर्वाभास के साथ की रात आने को है
मुठ्ठी भर उजालों के साथ
पर रात कहां आती है
आता है तो सिर्फ और सिर्फ
चुभता हुआ अंधेरा
जिसको बाहों में समेटना
छातियों के नीचे दबा लेना आसान नहीं
पलकों में भर लेना महज एक मात्र विकल्प है
ऐसे में समेटना भी तो
क्या ? कितना ? किस हद तक ? एक सवाल है
बोझिल होती पलकें
उसी सवाल के बोझ से परस्पर दबी जाती हैं
आंखों के नीचे बना लेती हैं
हल्के काले रंग का एक गढ्ढ़ा
जिसमें किस्तवार जमा होती रहती है उम्र
और जब हिसाब लगाता हूं
तो बचता कुछ भी नहीं
उस दिन भर की भागदौड़, कहा- सुनी
अपने पैरों पर लगी मिट्टी, माथे की धूल
हवा, पानी, धूप के आलावा
ऐसे में पूर्वाभासों का मारना
लगभग तय सा ही होता है
पर वह मरता नहीं, महज़ ख़त्म हो जाता है
उम्र की कोई खेतौनी- खाता बही नहीं होती
ऐसे में उम्र का बैनामा करा हिसाब- किताब रखना
महज़ एक ज़िद के अलावा भला और क्या हो सकता है ?

मेरे सपने

मेरे सपने मेरे आवरण हैं
जिन्हें एक छोटे हो चुके लिबास की तरह
मैं उपयोग करता हूं
और यह लिबास विस्तृत होने के बावजूद
हर दिन छोटा होता जान पड़ता है
मुझे याद हो आते हैं
वह चार नम्बर वाले काले-सफ़ेद फटे हुए जूते
जिन्हें छोटे हो जाने के बाद भी
मैं वर्षों तक पहनता रहा
उम्र बढ़ती रही, पैर कटते रहे
मुझे याद हो आती है
वह बत्तीस इंच लम्बाई की मठमैली पतलून
जो एड़ियों से उपर ऊपर चढ़ती रही
गांव के रग्घू दर्जी से मोहड़ी खुलवाता
जगह जगह फट जाने के बावजूद मैं पहनता
पीठ- पेट, वजूद को धकता रहा
मुझे याद आती है
बिना किसी ख़ासियत वाली वह जिददी कमीज़
जो बिना घटे ही अपनी अाकार खोती रही
और जब ज्यादा छोटी हो गई तो
मैंने पहले बढ़वाई
फिर कटवाकर हॉफ बाजू की बनवा ली थी
सपनों के साथ भी बिलकुल वैसा ही है
पहले अपने देह के हिसाब से देखता हूं
और ब्रह्माण्ड में खुला छोड़ देता हूं
फिर हृदय के मुताबिक़ खुद में केंद्रित करते हुए
आत्मा में समाहित करने का प्रयास करता हूं
और वह सपना बार बार टूट जाता है
एक बार और उतर आता है
मुझमें पैर काटते जूतों का वर्षों पुराना सकून
छोटी हो चुकी पतलून की हया के साथ
कमीज़ की बाजू के सिकुड़ने का जुनून
जिन्हें मोड़कर मैं थोड़ा और ऊपर चढ़ा लेता हूं
दरअसल, सपने देखना भी अब फैशन बन चुका है .

नादान प्रेम

नादान प्रेम
बस प्रेम करता है
और जाने अनजाने में
गलती कर ही जाता है
जवान प्रेम
प्रेम नहीं करता
बार- बार गलती करने
बार- बार सुलझाने की परिभाषा है
बुद्धजीवी प्रेम
सिर्फ कविताएं लिखता है
और अस्सी की उम्र में भी
खुदको ज़हीन और जवान बताता है
पर प्रेम तो
इन सबका मिलाजुला समीकरण है
बचपन, जवानी, पुढापे की
मिली जुली शैली, मिली जुली भाषा है
इसीलिए प्रेम कविताएं
कभी पूरी नहीं होती
और प्रेम अक्सर
आधा- अधूरा रह जाता है।

उसका ख़याल

उसका ख्याल मेरी देह पर चढ़े
खाल की तरह है
जब आता है
गुलाबी ठण्ड में भी धूप का एक कतरा
मेरी रूह पर फैल जाता है
और जब जाता है तो देह उघाड़ हो जाती है
कभी- कभी सोचता हूं
यह कमबख्त आता ही क्यूं है ?
चलो ! आ भी गया तो
फिर हृदय में समाने की बजाय
आत्मा को लहूलुहान कर
देह से दूर वापस जाता ही क्यूं है ?
पर ख्याल तो ख्याल है
इसका आना और जाना
सांसों के चलते रहने तक लगा ही रहेगा
देह स्थिर, सत्य है, शाश्वत है
खुद को ढ़कने का जतन
अब तो हमें सीख ही लेना चाहिए।

गांव, गोरु और घुरहू

टुकड़ा- टुकड़ा धूप
आसमान से टूट- टूट कर गिरती
इकट्ठा होती रहती है
घुरहू की काली पीठ पर
और बन जाती है
कभी- कभी उसके माथे का दर्द
महज टुकड़ों- टुकड़ों में ही

यही कतरा- कतरा दर्द
रघ्घू की निरीह आंखों में भी है
इस महिने भी बारिश नहीं हुई
फिर भी वह बहा देना चाहता है
परिस्थियों के सारे कचरे को
अपनी मेहनत और जांगर के जोर पर
आंसूओं के साथ दूर कहीं

धनिया जानती है
आंसुओं के टूटने से बारिश नहीं होगी
ना ही बच्चों के काल कलिया खेलने से
निर्मोही बादलों की आंख रिसेगी
फिर भी इकट्ठा कर लाई है
गांव के दर्जन भर बच्चों को
अपने ही दुयारे पर तपती धरती में
अंजुरी भर पानी डाल बना रही है कलई

बच्चे लोट- पोट हो रहे हैं
उसी अंजुरी भर पानी
उसी अंजुरी भर सूखी धरती
उसी अंजुरी भर आंसूओं
उसी अंजुरी भर जलती पीठ की खातिर
शाम के निवाले से बेखर
खेल रहे हैं काल कलिया
अपने आंसूओं से सनी गीली मिट्टी में

महज नन्ही- नन्ही बारिश की बूंदों की खातिर।

स्त्री की रिक्तता

वह वहां भी
जगह तलाश लेती है
जहां तनिक भी जमीन
बची ही नहीं
टूटी हुई देह की
अंगड़ाईयों के लिए
सपने देख लेती है
वह वहां भी
जहां दूर-दूर तक
अथाह बिखराव के बीच
उम्मीद ; नींद के
नामोनिशान तक नहीं
वह वहां भी ढूंढ लेती है
कुछ आवाजें
जख्मी ही सही
खामोशियों को तोड़ने के लिए
हर एक चीख-चिघ्घाड़
दबा लेती है
अपनी छातियो के नीचे
वह धरती नहीं है
ना ही समुंद्र है
और ना ही आकाश
फिर भी जगह पैदा कर लेती है
खुदमें इतनी
जितने में तीनों को समा सके
बिना किसी अवरोध के ही
समझ में नहीं आता
कुछ स्त्रियां
इतनी खाली जगह
क्यों रखती हैं ?
जिसे एक पुरुष चाहकर भी
एक जनम में नहीं भर सकता
खुदको पूरी तरह से
खाली करने के बाद भी
कुछ स्त्रियां
पूरी होने के बाद भी
थोड़ी से रिक्तता
खुदमें शेष रखती हैं
ताकि पुरूष
एक मां की कोख से
दूसरे मां की कोख में
पैदा होते रहें
रिक्तता सदैव
एक जरुरी वस्तु बनी रहे।

हमारी बच्चि

वह अब बच्ची नहीं रही
बड़ी हो रही है
और उसे खुद भी विश्वास है
एक दिन बड़ी हो जायगी
पूरी तरह
उसके हाथों में उग आएंगे
कुछ पैने नाखून
वह उन शिकारियों का
शिकार करेगी जो
दूसरों का शिकार करते हैं
बड़े प्यार से
उन्हें सिखाएगी प्रेम के
कुछ बेहद ही गूढ़ रहस्य
वह उन्हें बताएगी
एक स्त्री में गहरे तक होता है
मां, बहन बेटी होने का अंश
तुम्हें अगर प्रेम चाहिए
गहरे अर्थ में प्रेम
या फिर सार्थकता
आलौकिक जीवन की
तुम्हें भी प्रेम करना चाहिए
दुनिया की सारी प्रेमिकाओं
दुनिया की सारी लड़कियों से
बिल्कुल निच्छल
बिल्कुल स्वच्छ
उन बच्चियों की तरह
जो बड़ी होना सीख रही हैं
उसी एक मां, बहन बेटी के
सूक्ष्म से अंश को
खुद में महसूसते हुए
खुद में रोपते हुए
खुदको बीज से वृक्ष के रूप में
पैदा होते, बड़ा होते देखते हुए
सच मानों
तुम बाप बन जाओगे
और वह लड़कियां भी
इतनी छोटी कहां रहीं
जिसके साथ
तुम आंख-मिचौली खेलते थे !

प्रेम और क्रान्ति

(!)
एक उदास लम्हें को स्मृतियों में कसते हुए
उस दिन मैंने रख दिया था
तुम्हारे भीगे होंठो पर एक चुम्बन
मणिकर्णिका की आग दहक उठी थी, बिलकुल वैसे ही जैसे
आत्मा खो चुकी देह की दहक से चिता जलती है
किसी शान्त सोई हुई नदी के मुहाने पर
…और फिर शान्त हो गई थी लम्बे वक्त के लिए

पूरब-पश्चिम, पश्चिम-पूरब का कोई अर्थ नहीं रह गया था
मेरे सामने कोई चेहरा नहीं, महज़ गिनतियां थी
महज़ कुछ अखबार के पन्ने, महज़ कुछ इतिहास की किताबें
जिसमें बड़े- बड़े समयकाल दर्ज थे पर लम्हें – दिन महिने गायब
रूस की क्रान्ति का साल याद है मुझे
फ्रांसीसी क्रांति, अमेरिकी क्रांति, बोल्शेविक क्रांति, चीनी ज़िन्हाई क्रांति का भी
पर कोई तारिख और चेहरा नहीं
बस गिनतियां हैं मरे लोगों की मेरे इर्द-गिर्द, बस गिनतियां, बस गिनतियां

दरअसल, हमारा इतिहास मुस्तकबिल को नहीं माज़ी को दर्ज करता है

(!!)
शायद इसीलिए मेरे हाल पर माज़ी की झीनी चूनर चढ़ रही है
मेरी आंखों में तैरने लगी हैं राजा हरिश्चंद की दन्तकथाएं
मरघट पर राजा, मरा हुआ राजकुमार, बिकी हुई औरत की याचनाएं
क्या हूं मैं ? कौन हूं मैं ? क्यों हूं मैं ?
एक पुरुष की आवाज में
एक स्त्री के बंद पड़े कानों में कोई जोर-जोर से चिल्लाता है
आग परस्पर बढ़ती जाती है
…और फिर शान्त हो जाती है लम्बे वक्त के लिए

सच कहूं तो आजकल विद्रोहों को भी आराम चाहिए
क्रांतियों को भी भरपूर नींद
पर घटनाएं जागती रहती हैं, इसीलिए इजिप्ट की क्रान्ति सिर्फ इजिप्ट तक नहीं रहते हुए
अरब की क्रान्ति बन जाती है
एशिया, अफ्रीका, उत्तर अमेरिका, दक्षिण अमेरिका, अंटार्कटिका,
यूरोप से होकर आस्ट्रेलिया तक पहुंच जाती है
गीता, कुरान, बाइबिल, गुरु ग्रंथ साहिब के तत्व एकाकार होने लगते हैं
लहू, मौत और चीखें – तीनों लोकों तक पहुंचते हैं
सच कहता हूं, धर्म सिर्फ किदवंती नहीं होते और ना ही प्रेम सिर्फ प्रेम

देह होती है, और देह के ही मध्य कहीं होता है प्रेम और क्रान्ति भी

(!!!)
कभी- कभी सोचता हूं कि सचमुच मैं कितना उदास प्रेमी हूं
जो अपनी प्रेमिका के होंठों पर पराग देखने की बजाय
मणिकर्णिका की दहक देखता हूं
उसकी पीठ पर सृजन की बजाय एशिया का विध्वंस देखता हूं
जांघों और वक्षों पर यूरोपीय संस्कृति का अंश देखता हूं
और फिर निढ़ाल हो खो जाता हूं,
एक लम्बे वक्त के ऐतिहासिक समीकरणों के बीच ही कहीं उसके बगलों से झांकते हुए

हां, सचमुच अक्सर खोता ही रहता हूं
वरुणा और असी से उठकर
कभी अमेजन, कभी नील, कभी गंगा, कभी वोल्गा, कभी मेकांक,
कभी सेपिक, कभी जम्बेजी की पवित्र गहराइयों में
वसुधैव कटुम्बकम् की भावना के साथ
किसी अजनबी के शान्त, स्थिर होंठो पर
एक ऐसी दुआ का स्वर बन जो कभी भी पूरी नहीं होती

और मेरी प्रेमिका के होंठ ज्वालामुखी की दहक के बावजूद आखिरकार शान्त हो जाते हैं।

विद्रोह और क्रान्ति

(!)
उस दिन अचानक ही कुछ चुभते हुए दर्द
अनायास ही फूलों के पराग से आकर छातियों पर चिपक गए थे
मैं अपने कंधे पर उस अजनबी का माथा रखकर पूछने लगा था
एक ऐसा पता जिसमें रिश्तों को दर्ज किया जा सके
आंखों से रिसते दर्द के बावजूद
बनाया जा सके होंठों से होंठों पर एक पूल जो दो इंसानों को जोड़े
बाहर और भीतर दोनों ही तरफ से
बिल्कुल वैसे ही जैसे एक चूल्हे की आग दूसरे घर के चूल्हे से
कभी जोड़ती थी आत्मीयता के रिश्ते
और पड़ोसियों से संचय कर लेती थी

कभी नहीं ख़त्म होने वाली रिश्तों की ऊष्णता, प्रेम की ऊष्मा, जीवन की शीतलता

(!!)
अब वह चलन खत्म हो गया
अब पुरबहिया काकी आग लेने नहीं आती
और ना ही उसकी बेटियां कभी घर से बाहर निकलती हैं
बुढ़िया दादी कह रही थी, दुनिया बदल गई है
पड़ोसी, रिश्तेदार और अनजान लोगों में फर्क खत्म हो गया है
पड़ोसियों के भरोसे पर खेती, रिश्तेदारों के भरोसे बेटी
नहीं छोड़ी जा सकती, पर हमारे समय में ऐसा नहीं था
कदम बहकने का डर उस ज़माने में भी काबिज़ था
पर एक इंसान के इंसान से भेड़िया बन जाने का डर बहुत बड़ा होता है
शायद इसीलिए खाना बनाने से पहले ही वह आग बुझाने की जुगत में रहती है

कहती है चारों तरफ आग लगी है, दुनिया जल रही है, चूल्हे को ठण्डा रखना जरुरी है

(!!!)
मैंने भी अपने दर्द में
बुढ़िया दादी और पुरबहिया काकी के डर को शामिल कर लिया है
अपनी बेटियों के पराग जैसे कोमल होंठों पर
थोड़ी सी धूल, मिट्टी और कांटा रख दिया है
घर में लाकर भर दी है जमाने भर की खुशियां
उनके दिलों की बड़ी- बड़ी खिड़कियों को खोलने के बावजूद
बाहर से सिटकनी लगा, चौखट पर अपना कटा हुआ वजूद रख दिया है
शूकर है कि वह जमाने की रवायतों को समझती हैं
और भरसक मेरी भाषा-अल्फ़ाज़ को भी
फिर भी इन्तजार है मुझे, उनके विद्रोह स्वरों और आहटों की
दरअसल, मैं भी यही चाहता हूं कि मेरा भरम टूटे, मेरा खून मुझसे विद्रोह कर बैठे
मेरी हार, मेरी हार बने, मेरी जीत उनकी जीत, मेरी खोई हुई मुस्कान उनके होंठों पर लौटे
आखिर उनको भी तो जीना है आगे की सारी उम्र इन्ही विद्रोहों के बीच
इसलिए, तुम्हें विद्रोह करना सीखना ही होगा
और गर विद्रोह सफल हुआ तो क्रान्ति पैदा होगी

मेरी बेटियों एक दिन तुम प्रेम साथ- साथ क्रान्ति की भी सृजक कहलावोगी।

मृत्यु पर्व

(!)
उस दिन जब कुछ अच्छे दिनों को याद करते हुए
लिखनी चाही थी एक कविता
बूरे दिन ठिठककर सामने खड़े हो गए थे
यह तुम क्या कर रहे हो ? मेरे हृदय ने मेरी आत्मा से सवाल किया था

मेरी पीठ पर उभर आई थी, मेरे जन्म की तारिख
क्या यह वही दिन है ?
जिस दिन ईश को वल्लरी के क्रूस पर चढ़ाया गया था
या फिर वह ? जिस दिन वासुदेव और देवकी को कंस ने कारागार में डाल दिया था
अपने पूर्व नियोजित मृत्यु के भय से

तब मैंने सोचा था कि मैं कभी भी अपने माझी को याद नहीं करूंगा
… और मैंने अपने पैरों के अंगूठे से खोदी थी धरती
… और अच्छे- बुरे से इतर वह सबकुछ दफन कर दिया था जो मेरी स्मृतियों में था।

(!!)
शोकगीत ख़त्म हो चुका था, चिता की आग ठण्डी हो रही थी
मेरा हाल मुझको कोस रहा है
मेरी उम्र महज एक लम्हें की इतिहास है
जन्म के आलावा अब कोई भी तारिख याद नहीं रहती
दरअसल, छोटी- छोटी घटनाओं की तारिख होती भी नहीं, बस समयकाल होता है

मेरे जन्म की तारिख विद्रोह थी या फिर क्रान्ति
स्पष्टतौर पर कुछ कह नहीं सकता
मां जानती है, उसने ना जाने कितने समयकालों को पेट से पैदा किया है
पर कहती कुछ भी नहीं
शायद उसने भी मेरी ही तरह अपने माज़ी को मिट्टी में दबा दिया है

… और गर्भ में पाल रही है सैकड़ों सिन्धू घाटियां
… और मोहनजोदडो …और हड़प्पा की संस्कृतियां
हाल पर समय की चमड़ियां परत-दर-परत चढ़ती, मोटी होती जा रहीं है

(!!!)
मेरा माज़ी इबारत बन चुका है, हाल धुंधलाता जा रहा है
मुस्तकबिल की बेदी पर टंगी हुई हैं, टकटकी लगाये कुछ बेवश आंखें
बीसवीं सदी की अनेक परछाइयां, इक्कीसवीं सदी में तैर रही हैं
अकाल, गुलामी, उपनिवेशवाद और तमाम क्रान्तियों के खत्म हो जाने के बाद भी
अनवरत चल रही हैं, कुछ अदृश्य लड़ाईयां

एक पूर्व निर्धारित ‘शब्द’ को युद्ध मानकर
हमारे लिए आतंकवाद, माओवाद, नक्सलवाद महज़ शब्द नहीं रहा
हथियार बन चुका है
हम सब उसी हथियार के साथ, कभी उसी हथियार के खिलाफ लड़ रहे हैं
मर रहें हैं, मारे जा रहे हैं ; हत्याएं, आत्महत्याएं कर रहे हैं

… और हम सब कुछ अच्छे दिनों को याद करते हुए लिख रहें हैं शोक दिवस
… और हम सब जीवन के अनुष्ठान में मना रहे हैं मृत्यु पर्व
… और हमारी लड़ाईयां परस्पर बड़ी होती जा रही हैं।

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